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जातिभेद और ऊंच-नीच के सख्त विरोधी कवि बुल्लेशाह

पंजाबी सूफ़ी आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इस आंदोलन का कोई भी सूफ़ी राज दरबार का आश्रित नहीं रहा। सारे पंजाबी सूफ़ी लोक कवि थे और जनमानस की समस्याओं, उनकी खुशियों और मान्यताओं का उन्हीं भली-भांति ज्ञान  था।  यह पूरा सूफ़ी साहित्य न सिर्फ आध्यात्मिक विकास का एक आईना है बल्कि समाज और समाज में हो रहे परिवर्तन का भी साक्षी है। बुल्लेशाह कि कविता में कट्टरपंथ और शाही रौब-दाब को लेकर हिकारत एक हद तक उनके इस धार्मिक पंथ से भी प्रभावित है। कवि की अपनी निजी चेतना तो होती ही है।

हद हद टपे सो औलिया बेहद टपे सो पीर।

हद अनहद दोउ टपे सो वाको नाम फ़कीर।।

जहां कहीं भी पीर और मुर्शिद का ज़िक़्र होगा, जहां मस्ती, खुमार, महवियत, मार्फ़त, तसव्वुफ़, काफ़ियों तथा मुर्शिद, खसम, गुरु के प्यार की झलक नज़र आयेगी वहाँ सैय्यद बुल्लेशाह का ज़िक़्र जरूर होगा।

बुल्लेशाह के बचपन का नाम अब्दुल्ला था। आगे जाकर अब्दुल्ला साईं बुल्लेशाह और बुल्लेशाह कादरी के नाम से प्रसिद्ध हुए। विद्वानों व दरवेशों ने आपको अनेकों उपाधियों से नवाजा था, जैसे – शेख-ए-हर-दो आलम (दोनों लोकों का शेख), मरदे हक़ानी (सत्य या परमात्मा का सेवक), पोशीदा राजों का वाकिफकार (गुप्त भेदों का ज्ञाता)आदि। आपकी रचनाओं को सूफी कलाम के शिखर का दर्जा दिया गया है। साईं बुल्लेशाह पंजाब ही नहीं बल्कि पूरे उत्तरी भारत के सबसे बड़े सूफ़ी कवि माने जाते हैं। इनकी तुलना कई महान सूफी संतों, मौलाना रूम, शम्स तबरेज़ आदि से की गई है। चालीसवीं गंढ (पंजाबी काव्य-रूप) के अंत में आए इस पद से उनके मूल नाम का संकेत मिलता है –

हुण इंना – लिल्लाह आख के तुम करो दुवाई ।

पिया ही सब हो गया अब्दुल्ला नाहीं।

बाबा बुल्लेशाहजी का जन्म लाहौर ज़िले के क़सूर प्रांत में स्थित एक गाँव पाँडोके भट्टीयाँ में सन 1680 में हुआ था। यह औरंगज़ेब का शासनकाल था। बाबा बुल्लेशाह का दौर जहाँ एक तरफ़ राजनीतिक उथल-पुथल का दौर था वहीं यह समय रचनात्मक अभिव्यक्तियों के उत्थान का भी था। इसी काल में मीर तक़ी मीर जैसे शायर भी हुए और अहमद शाह अब्दाली जैसे क्रूर हमलावर भी, जिनके विषय में पंजाब का ही एक सूफी शायर लिखता है– खाया पीया लाहे दाबाकी अहमद शाहे दा अर्थात – जो कुछ खा पी लिया वही तुम्हारा है बाकी सब कुछ अहमद शाह अब्दाली लूट कर ले जायेगा।

बुल्लेशाह का वंश सैयद होने के कारण हज़रत मुहम्मद  के साथ जुड़ा हुआ था तथा दूसरी ओर सूफ़ी विचारधारा और परंपरा के साथ उनका सदियों पुराना संबंध था।

बुल्लेशाह के पिता शाह मोहम्मद दरवेश को अरबी, फारसी और क़ुरान शरीफ़ का अच्छा ज्ञान था। आप आध्यात्मिक झुकाव वाले नेक दिल मनुष्य थे। बुल्लेशाह का बचपन पांडोके  में अपने पिता की देखरेख में व्यतीत हुआ। आपने प्रारंभिक शिक्षा गाँव के अन्य बच्चों की भांति अपने पिता से ही प्राप्त की। इसके बाद उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए आपको कसूर भेजा गया, जो उन दिनों इस्लामी शिक्षा का केंद्र था। कसूर में हज़रत ग़ुलाम मुर्तज़ा और मौलाना मुहीउद्दीन जैसे उच्च कोटि के उस्ताद मौजूद थे। बुल्लेशाह ने भी कसूर में रहकर हज़रत ग़ुलाम मुर्तज़ा  से उच्च शिक्षा प्राप्त की।

बुल्लेशाह ने अरबी और फारसी के ज्ञान के कारण इस्लामी और सूफ़ी धर्मग्रंथों से बहुत कुछ सीखा था लेकिन इस औपचारिक ज्ञान से उनकी प्यास नहीं बुझी। युवावस्था में वे भी सपनों के महल बनाते और दरिया किनारे बहुत से सवालों का अर्थ तलाशते रहते। बहुत से सवाल उन्हें परेशान करते थे, जैसे –

बुल्ला कौन है तू ? क्या लेने आया है इस दुनिया में ? क्या है तेरा यहाँ? बंदे का रब से क्या राबता है? रब क्या है? रब कहीं है भी या नहीं? रब को कैसे देखूं? रब को कैसे पाऊँ?

इन सवालों से परेशान वह सोचता कि कौन है जो मेरी मदद कर सकता है। ऐसे बहुत से सवाल उसके मन में थे। रब से मिलने और देखने की यही तड़प और तलाश उसे क़ादिरी सूफ़ी फक़ीर हज़रत इनायत शाह क़ादिरी के दरवाजे तक  लाहौर ले गई।

चल बुल्लेया चल ओथे चलिए  जिथे सारे अन्ने।

ना कोई साडी जात पछाने ना कोई सानु मन्ने।

बुल्लेशाह जातिभेद और ऊंच-नीच के सख्त विरोधी थे। वे इस सामाजिक विभाजन को आजीवन खारिज करते रहे। वे एक ऐसे संसार के स्वप्नदर्शी थे जहां सारे लोग अंधे हों अर्थात जिनकी आँखों से भेदभाव न दिखाई पड़े अर्थात जिनके लिए इंसानियत और बराबरी ही सबसे बड़ा मूल्य हो। वे कहते हैं कि ऐसी जगह रहना चाहिए जहां न कोई जाति पहचाने न कोई उसको माने।

हज़रत इनायत शाह के पास पहुँचने पर बुल्लेशाह को यकीन हो गया कि यही रूहानी शक्ति है जो उनके मन की जिज्ञासा शांत कर सकती है। बुल्ला साईं जी के चरणों पर गिर पड़ा। साईं जी ने पूछा, ‘अरे, तेरा क्या नाम है और तू क्या चाहता है ?’ बुल्ले ने कहा, ‘जी मेरा नाम बुल्ला है और मैं रब को पाना चाहता हूँ।’ साईं जी ने कहा, ‘अरे तू नीचे क्यों गिरता है। ऊपर उठ और मेरी ओर देख ।’ ज्यों ही बुल्ले ने सिर उठाकर हज़रत इनायत शाह की ओर देखा, उन्होंने उसी तरह प्यार भरी दृष्टि डाली और कहा, ‘बुल्लया! ‘रब दा की पौणा, ऐधरों पुटणा औदर लाणा ‘। बुल्लेशाह के लिए इतना ही काफी था। उसका काम हो गया। साईं जी ने बहुत छोटे और सादा शब्दों –  ‘इधर से उखाड़ना और उधर लगाना ‘ में रूहानियत का सार समझा दिया। आपने बता दिया कि रूहानी उन्नति का राज़ मन को बाहर और संसार की ओर से मोड़कर अंतर में परमात्मा की ओर जोड़ने में है और व्यावहारिक रूप से यह भी दिखा दिया कि यह कार्य पूर्ण सद्गुरु की कृपा दृष्टि से संपन्न होता है।

उसे समझ आ गया कि गल इक नुकते विच मुकदी है।

इक नुकते विच गल्ल मुकदी ए।

फड़ नुक़ता छोड़ हिसाबां नूं, कर दूर कुफ़र देआं बाबां नूं।

लाह दोज़ख गोर अजाबां नूं, कर साफ दिले देआं खवाबां नूं।

गल्ल एसे घर विच ढुकदी ए , इक नुकते विच गल्ल मुकदी ए।

बुल्लेशाह के मुरीदों ने उनके हज़रत इनायत शाह के मिलन के बहुत से चमत्कार से जुड़े किस्से गढ़े हैं। संतों – महात्माओं द्वारा की गई ऐसी माननीय और रूहानी सहायता की स्वभाविक घटनाओं के स्थान पर लोग उनके साथ अनेक प्रकार की अस्वाभाविक करामातें भी जोड़ देते हैं। कहावत है कि पीर नहीं  उड़ते, मुरीद उन्हें उड़ाते हैं अर्थात पीर करामातें नहीं करते, उनके मुरीद उनके साथ कई प्रकार की करामतें जोड़ देते हैं।

मुर्शिद से मिलने के बाद तो बुल्ला मलंग की तरह मस्ती में नाचता और अपने पीर के रुतबे की तारीफ़ करता। बुल्लेशाह के  मन पर गुरु के प्यार का इतना गाढ़ा रंग चढ़ गया कि उसको गुरु के अतिरिक्त किसी चीज की सुध – बुध ही नहीं रही। मुर्शिद की बंदगी ने उसका जीवन बदल दिया। उसे इश्क़ की नई बहार के दर्शन हो गये थे। गुरु एक निर्बल बेसहारा और फूहड़ को पार उतारनेवाला होशियार तैराक है।

जां मैं मारी है अड्डी मिल गया है वहीया।

तेरे इश्क़ नचाइआं करके थइआ थइआ ।

बुल्लेशाह के परिवार वालों को इस बात का बेहद दुख हुआ था कि जिस सैयद कुल के पुरखों ने समस्त मानव जाति को नए मार्ग का दरस दिया, उसी परिवार के एक सदस्य ने निम्न जाति अराई के हज़रत इनायत शाह को अपना मुर्शिद अथवा गुरु बनाया और उन्हीं से शिक्षा पाई। बुल्लेशाह की बहनें  और भाभियाँ उन्हें हमेशा उस रास्ते पर चलने से रोकती थी; लेकिन वह इनायत शाह को अपना पूर्ण गुरु मान चुके थे। इस सम्बन्ध में अपने परिवार वालों से हुई तकरार को उन्होंने इस तरह बयान किया है –

बुल्ले नूं समझावण आइयां

भैणा ते भरजाइयां

मन्न लै बुल्लिया साडा कहणा

छड़ दे पल्ला, राइयां

आल नबी औलाद अली नं

तू क्यों लीकां लाइयां

बहनें और भाभियाँ समझाते हुए कहती हैं – बुल्लेशाह तुम हमारा कहा मान कर उस अराई का साथ छोड़ दो, तुम तो नबी के खानदान से सम्बन्ध रखते हो, और अली के वंशज हो। फिर क्यों इस अराई की वजह से निंदा का कारण बनते हो?

लेकिन बुल्लेशाह ने उनकी बात भी नहीं सुनी। उनके ह्रदय में तो अपने मुर्शिद के लिए  बेहद श्रद्धा के भाव थे और वे जाति – पाति के भेद – भाव  को नहीं मानते थे , इसलिए उन्होंने अपने परिवार वालों से कहा –

जेहड़ा सानूं सैय्यद सददे,

दोज़ख मिले सजाइयां

जो कोई सानूं राई आखे,

भिश्ती  पींघां  पाइयां

जे तूं लोडें बाग़ बहारां, चाकर हो जा राइयां।।

अर्थात जो कोई मुझे सैयद कहता है, उस व्यक्ति को दोज़ख की सजा मिलेगी , और जो व्यक्ति मुझे अराई कहेगा, वह बहिश्त में झूला झूलेगा।

एक बार इनायत शाह के दूसरे शिष्यों ने उनसे बुल्ले के खिलाफ़ कान भर दिये। उन्होंने कहा कि बुल्ला का कलाम शर और शरीअत के खिलाफ़ है और आजकल तो बुल्ला आपको भी कुछ नही मानता। इसी प्रकार बुल्ला की एक अन्य छोटी सी भूल की वजह से उनका मुर्शिद उनसे नाराज हा गया तो उन्होंने कहा कि – ” आज तों बुल्ले दी क्यारी नूं पाणी देणा बंद। ” बुल्ला की ज़िंदगी में तो मानो प्रलय आ गई। इससे बुल्ले की ज़िंदगी में अंधकार छा गया। वह दौड़ा- दौड़ा बदहवाश सा मुर्शिद के पास पहुँचा, गलती मानी, तरले किये, लेकिन अपने गुरु को नहीं मना सका। उसे तुरंत डेरा छोड़ देने को कहा।

यह भीषण संताप की घड़ी थी। बुल्ला विरह की आग में जलने लगा। इसका वर्णन उनकी काफियों में मिलता है। बुल्ला को हर हाल में अपने मुर्शिद को पाना है। गुरु से गिले – शिकवे भी करता है –

घायल करके मुख छुपाया, चोरियां एह किन दस्सीआं वे।

नेहों लगा के मन हर लीता, फेर ना अपना दर्शन दीता।

ज़हर प्याला मैं आपे पीता, अकलों सो मैं कच्चीआं वे।

उसे मुर्शिद के मिलाप की तड़प ने बेहाल और बेसुध कर दिया तो  वह इस आग को शान्त करने की युक्ति सोचने लगा। एक बार की बात है, गली से गुजरते हुए एक नवविवाहिता को केश गुंथवाते हुए उन्होंने देखा। बुल्लेशाह वहीं रुक गए और उन्होंने स्त्री से पूछा –‘ सुंदरी तुम अपने बाल क्यों गुंथवा रही हो ? उस कन्या ने सुलभ सादगी से कह दिया कि– ‘मैं अपने पति को रिझाने के लिए श्रंगार कर रही हूँ।’

इतना सुनते ही बुल्लेशाह कहने लगे कि, ‘ऐ सखी तुम मेरे भी केश संवार दो, मुझे भी अपने शौहर को प्रसन्न करना है।’

इसी तरह बुल्ले को पता था कि उनके मुर्शिद को संगीत बहुत पसंद है।

बुल्लेशाह शक्ल और सूरत से बहुत ही सुन्दर थे तथा उनका कद भी लम्बा था। गला उनका बहुत अच्छा था जिसमें सोज़ था और सुर में लोच। अपने मुर्शिद को रिझाने के लिए उन्होंने लाहौर की कंजरियों से नाचना – गाना सीखा और मुर्शिद के डेरे के पास अखाड़ा लगाकर सुध-बुध खोकर नाचने लगे। उसके नृत्य को देखकर मुर्शिद उस अखाड़े पर आये तो उन्होंने घूँघट में ही पहचान लिया। ‘ओय तू बुल्ला है?’

बुल्ला ने जबाब दिया – ‘हुज़ूर, बुल्ला नहीं ! भुल्ला हाँ।’ मुर्शिद ने बुल्ला को गले लगा लिया। मुर्शिद के वस्ल के स्वाद से रूह में चारों ओर चानण हो गया। बुल्लेशाह की इस काफी में इस अभेद का कितना सुंदर वर्णन है –

रांझा रांझा करदी नी मैं आपे रांझा होई।

सद़दो नी मैनू धीदो रांझा हीर न आखे कोई।

रांझा मैं विच मैं रांझे विच होर ख़याल न कोई।

मैं नही ओह आप है अपणी आप करे दिलजोई।

हज़रत इनायत शाह क़ादिरी के वफ़ात फरमाने के बाद बुल्लेशाह क़ादिरी सिलसिले के लम्बे समय तक गद्दीनशीन रहे।

एक किस्सा है कि एक बार बुल्लेशाह बंदगी कर रहे थे। रमज़ान का महिना था। उनके दो शागिर्द गाजर खा रहे थे। वहाँ दो रोजेवान सिपाही आ गए। उन्होंने पूछा कि तुम कोण हो?

शागिर्दों ने जबाब दिया कि हम मुसलमान हैं। मुसलमान होकर रोजों में खाते हो और सिपाहियों ने उनकी पिटाई कर दी ।

पुलिसवालों ने सोचा कि जैसे शागिर्द हैं इनका पीर भी वैसा ही होगा। ‘जिहो जिहे कूज्जे, ओहो जिहे आले’ चलो उससे भी मिल लेते हैं। उन्होंने बुल्ले से पूछा कि तुम कोण हो? बुल्ले ने कोई जबाब नहीं दिया। दुबारा पूछा तो बाजू ऊँचे करके हिला दिये। उसे पागल समझकर वे चले गये।

उनके शागिर्द शिकायत लेकर बुल्लेशाह के पास पहुँचे कि सिपाहियों ने हमारी पिटाई कर दी। बुल्ला बोला तुमने कुछ कहा होगा।

हमने तो पूछने पर इतना ही कहा था कि हम मुसलमान हैं। यही तो, जब कुछ बनोगे तो भुगतना तो पड़ेगा ही। हम कुछ नहीं बने तो हमें कुछ नहीं कहा।

अव्वल आखर आप नूं जाणा, न कोई दूजा होर पछाणा।

मैंथों होर न कोई स्याणा, बुल्ला शौह खड़ा है कोण।

बुल्ला की जाणा मैं कोण ?

रूहानी उपदेश : मनुष्य  जीवन का उद्देश्य

तसव्वुफ़ अर्थात सूफ़ी मत उस अमली रूहानी साधना का नाम है जिसके द्वारा परमात्मा के प्रेमी और भक्त अपने मन, ख़ुदी या नफ्स (अहं)  का नाश करके  परमात्मा से मिलाप की बका (अमर) अवस्था में पहुंच जाते हैं। वे इस बात पर जोर देते हैं कि मनुष्य मन, इंद्रियों और बुद्धि से परे ऐसी निर्मल रूहानी अवस्था प्राप्त कर सकता है, जिसमें उसको संसार में दिखाई दे रही क्षणभंगुर अनेकता के पीछे छिपी एक अमर सर्वव्यापक एकता का ज्ञान हो जाता है। इस अद्भुत अनुभव द्वारा जीवात्मा समय और स्थान के बन्धनों और इनके कारण पैदा हुए अनेक प्रकार के दुखों से मुक्त हो सकती है। जीव को  स्थूलता से ऊपर उठकर सूक्ष्मता में दाखिल होने में  सहायता देना ,अनेकता में एकता, परिवर्तन से अडोलता, अपूर्णता से पूर्णता और अस्थाई दु:खों से अमर आनंद की निश्चल अवस्था में पहुंचना, सच्ची रूहानियत, तसव्वुफ़ या सूफ़ी विचार – धारा का मूल उद्देश है। तू मन, इंद्रियों का साथ छोड़कर अपने मूल को पहचान:

बुल्ला शाह संभाल तूं आप ताईं,

तूं तां अनंत लग देह मैं कहां सोवें ।

बुल्ला कहता है कि संसार स्थिर नहीं है। शरीर मिट्टी की ढेरी है, जिसे एक न  एक दिन गिर जाना है –

वाह वाह माटी दी गुलजार ।

माटी घोड़ा, माटी जोड़ा माटी दा असवार।

माटी माटी नूं  दौड़ावे, माटी दी खड़कार

माटी माटी नूं मारण लग्गी, माटी दे हथयार ।

बंधन मुक्ति का साधन : परमात्मा का प्रेम

इक रांझा मैंनूं लोड़ीदा ।

कुन फयकूनों अग्गे दीआं लगीआं,

नेहों न लगड़ा छोरी दा।

हमाओस्त : हिन्दू नहीं, न मुसलमान।

साईं बुल्ले शाह कहते हैं  कि मेरा प्रियतम अपने सृजन किए हुए जगत का साजन है । वह इसके कण-कण में समाया हुआ है और स्वयं ही अपनी लीला देखकर प्रसन्न हो रहा है। इसको सूफी दरवेशों ने ‘हमाओस्त’ का नाम दिया है।

आपे आहू आपे चीता, आपे मारन धाया।

आपे साहिब आपे बरदा, आपे मुल्ल विकाया।

ढोला आदमी बण आया।

प्रियतम की खोज : मेरी बुक्कल दे विच चोर

पंजाब विभिन्न संस्कृतियों, नस्लों, परम्पराओं और धर्मों के समन्वय का केन्द्र बिन्दु रहा है। यहां लगभग चार हजार साल पहले सिन्धु घाटी की सभ्यता पली थी। उसके बाद यहां मध्य एशिया से आर्य आए, इसके बाद सीथियन, हूण, ग्रीक, तुर्क, फारसी, अफगान, मुगल आए। सभी ने भारत की साझी संस्कृति को समृद्घ किया।

बुल्लेशाह की कविताएं सभी धर्मों की सीमाओं को लांघकर आम लोगों तक अपनी पहुंच बनाने में सक्षम हैं। बुल्लेशाह किसी एक धर्म से नहीं बंधे, उन्होंने सभी धर्मों और मतों पंथों से परम्पराओं और विचारों को ग्रहण किया।  बुल्लेशाह ने कर्मकाण्ड को महत्त्व नहीं दिया। बुल्लेशाह  अपने को न तो हिन्दू मानते थे और न ही मुसलमान मानते थे। वे हिन्दू और मुस्लिम धर्म की संकीर्णताओं से अलग हटकर मानवतावादी धर्म की ओर बढ़ रहे थे। इसलिए दोनों धर्मो की संकीर्ण पहचान को मिटाने की कोशिश कर रहे थे और दोनों की कट्टरता को नकार रहे थे।

मस्जिद ढा दे, मंदिर ढा दे,

ढा दे जो कुछ ढैंदा,

पर किसी दा दिल ना ढाइं ,

रब्ब दिलां विच रैंदा।

इस तरह कहा जा सकता है कि हिन्दू और मुसलमानों में एक दूसरे के धर्म को समझने की ललक थी। एक दूसरे के धर्म का आदर करते थे, जिसका परिणाम यह निकला कि दोनों की मान्यताओं और विश्वासों को मिलाकर कुछ और ही बन गया।

मेरी बुक्कल दे विच चोर,

साधो किसनूं कूक सुणावां,

मेरी बुक्कल दे विच चोर।

किते रामदास किते फतेह मुहम्मद

इहो कदीमी शोर,

मुसलमान सिवें तो चिढ़दे,

हिन्दू चिढ़दे गोर,

चुक गए सभ झगड़े झेड़े,

निकल गया कोई होर,

साधे किसनूं कूक सुणावां,

मेरी बुक्कल दे विच चोर।

अर्थात मेरी बगल में चोर है, साधो किसको बताऊं, मेरी बगल में चोर है। कहीं वह राम दास है, कहीं फतेह मुहम्मद है, युगों युगों से यही शोर सुनाई दे रहा है। मुसलमान शव-दहन से चिढते हैं, हिन्दू शव दफनाने से। अब सारे झगड़े खत्म हो गए हैं, कोई और ही निकल गया है। हे साधो, किसे बताऊं कि मेरी बगल में चोर है।पुराना शोर मिट गया, झगड़ा मिट गया और कुछ नया पैदा हो गया है।

बुल्लेशाह ने जिस ‘कुछ नए’ की ओर संकेत किया है वह मिली-जुली संस्कृति और मानवता है। बुल्लेशाह की रचनाओं में और अन्य सूफी-संतों की रचनाओं में यह संस्कृति साफ दिखाई देती है।

धार्मिक कट्टरता के खिलाफ बुल्ले शाह

थे। सूफी सदा से ही उदारता के पक्षधर रहे और उनको इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी थी। कट्टर इस्लामियों ने सूफियों को शहीद किया। अपने स्वतंत्र विचारों के कारण मंसूर को सूली पर टांग दिया था। बुल्लेशाह ने उदारता की परम्परा को आगे बढ़ाया। उन्होंने अपनी रचनाओं में बार-बार मंसूर, शम्स, जकरिया का नाम लिया है।

शाह शमस दी खाल लहायो,

मंसूर नूं च सूली दिवायो

जक्रीए सिर कल्क्तर धरायो,

कि लिख्या रह गया बाकी दा?

गुरु तेग बहादुर के दिल्ली के तख्त के सीधे निशाने पर होने के बावजूद इस फकीर ने उन्हें खुलेआम गाजी (धर्मयोद्धा) करार दिया था। ऐसा योद्धा,  जो धर्म के लिए लड़ता है, किसी एक धर्म के लिए नहीं। इसलिए पंजाब में उदार और सहिष्णु इस्लाम कि धारा बहती रही।

सतगुरु या हादी

सतगुरु जीते – जी भी सहायता करता है और अन्त समय भी सच्चे भक्त को सभी प्रकार के संकटों से बचाकर धुर – दरगाह पहुंचाने के लिए वचनबद्ध होता है :

इक औखा वेला आवेगा, सब साक सैण भज जावेगा।

कर मदद पार लंघावेगा, ओह बुल्ले दा सुल्तान कुड़े।

कर कत्तण वल्ल ध्यान कुड़े।

एक जगह और देखिये –

बुल्ले नूं लोकीं मतीं देदें, बुल्लया तू जा वहो विच मसीती।

विच मसीतां की कुछ हुंदा, जे दिलों नमाज़ ना कीती।

बाहारों पाक कीते की हुंदा, जे अंदरों ना गई पलीती।

बिन मुर्शिद कामल बुल्लया, तेरी ऐवें गई इबादत कीती।

कर्मकांड और आध्यात्मिकता: इश्क शरआ की नाता

साईं जी की कर्मकांड की सबसे कड़ी  आलोचना इस प्रकार है:

भट्ठ नमाजां ते चिक्कड़ रोजे, कलमें ते फिर गई सयाही।

बुल्लेशाह शौह अंदरों मिलया, भुल्ली फिरे लोकाई

जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने अपना डेरा कसूर में लगा लिया और वहाँ ही सन 1758 – 59  ई. में उन्होंने नश्वर शरीर का त्याग किया । कसूर में उनका मज़ार आज भी मौजूद है। बाग़े- ए – औलिया – ए – हिन्द में आता है:

यारां सौ इकत्तर हिजरी जिस दम सी आया।

विच कसूर मज़ार उन्हां दा  वेखो खूब बणाया।

पंजाबी सूफ़ी आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इस आंदोलन का कोई भी सूफ़ी राज दरबार का आश्रित नहीं रहा। सारे पंजाबी सूफ़ी लोक कवि थे और जनमानस की समस्याओं, उनकी खुशियों और मान्यताओं का उन्हीं भली-भांति ज्ञान  था।  यह पूरा सूफ़ी साहित्य न सिर्फ आध्यात्मिक विकास का एक आईना है बल्कि समाज और समाज में हो रहे परिवर्तन का भी साक्षी है। बुल्लेशाह कि कविता में कट्टरपंथ और शाही रौब-दाब को लेकर हिकारत एक हद तक उनके इस धार्मिक पंथ से भी प्रभावित है। कवि की अपनी निजी चेतना तो होती ही है।

साईं बुल्ले शाह की वाणी काफ़ियाँ, बारहमाह, सीहरफ़ी, अठवारा, गंढाँ तथा दोहों के रूप में मिलती ही जिसकी रूहानी रोशनी दुनिया तक फैलती रहेगी।

ज्ञानचंद बागड़ी जाने-माने कहानीकार और समाजविज्ञानी हैं ।

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