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जातिगत जनगणना का सवाल और बदलते संदर्भ  डायरी (24 अगस्त, 2021)

मनुष्यों के बीच तुलना के लिए अनेकानेक क्राइटेरिया हैं और इनके आधार पर ही कुछ खास गुणों की पहचान होती है। मतलब यह कि कोई अच्छा हो सकता है तो कोई बुरा। कोई झूठा हो सकता है तो कोई सच्चा। कोई बुद्धिमान तो कोई मूर्ख। कोई लालची तो कोई दानी। कोई मानुष तो कोई अमानुष। […]

मनुष्यों के बीच तुलना के लिए अनेकानेक क्राइटेरिया हैं और इनके आधार पर ही कुछ खास गुणों की पहचान होती है। मतलब यह कि कोई अच्छा हो सकता है तो कोई बुरा। कोई झूठा हो सकता है तो कोई सच्चा। कोई बुद्धिमान तो कोई मूर्ख। कोई लालची तो कोई दानी। कोई मानुष तो कोई अमानुष। सबसे दिलचस्प यह कि सारे क्राइटेरिया मनुष्य स्वयं तय करता है। कोई दूसरा तय नहीं करता है। वह अपने अनुभवों के आधार पर फैसला लेता है और ऐसा वह केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं करता, अन्य सभी के लिए करता है जो सजीव व निर्जीव हैं। मनुष्य का यही गुण उसे अन्य प्राणियों से अलग करता है।

कई बार कुछ क्राइटेरिया धर्म के आधार पर भी होते हैं। इसके भी अपने ढंग हैं। ब्राह्मण उस दलित, पिछड़ा और आदिवासी को अच्छा मानते हैं जो पूजा-पाठ करवाते हैं। उनका पैर पूजते हैं और दक्षिणा देते हैं। ब्राह्मणों को मुझ जैसे मनुष्य पसंद नहीं आते जो ईश्वर को ही नकारते हैं और जिनके पास किसी भी चीज व अवस्था के मूल्यांकन के अपने क्राइटेरिया हैं।

[bs-quote quote=”यह बेहद महत्वपूर्ण है कि यदि हम ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को गलत मानते हैं तो हमारे पास अपने क्राइटेरिया होने चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता है कि उनके ही क्राइटेरिया के आधार पर सही अथवा गलत का निर्धारण करें।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कल ये सारी बातें जेहन में उस वक्त आयीं जब मध्य प्रदेश के एक बड़े ब्राह्मण पत्रकार ने फेसबुक पर मेरा एक पोस्ट देखकर फोन किया। उन्होंने जो कुछ कहा, सभी को दर्ज करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन एक बात जो उन्होंने कही, वह बेहद दिलचस्प है। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या आप ओम का मतलब समझते हैं? मेरा जवाब था नहीं और मुझे इसे समझने की जरूरत भी नहीं है। फिर उन्होंने कहा कि यह एक तरह से आपका हठ है। आपको ओम का मतलब जानना चाहिए और इसका उच्चारण भी करना चाहिए। अपनी बात कहने के दरमियान उन्होंने यह भी कहा कि ‘ओम ब्रह्मा का सार है। फिर उन्होंने वैज्ञानिक अवधारणा की बात कही कि इस एक शब्द का उच्चारण सभी वर्णों के उच्चारण से अलग है और इसका उद्गम सीधे हृदय से होता है। वे करीब बीस मिनट तक मुझे ओम का मतलब समझाते रहे। मैंने उनसे कहा कि आप डोम का मतलब समझते हैं। उनका जवाब सकारात्मक था। मैंने उनसे कहा कि पांच बार डोम शब्द का उच्चारण वैसे ही करें जैसा कि आप ओम का करते हैं।

मुझसे ऐसे जवाब की आशा नहीं थी उन्हें। फोन खुद ही काट दिया। दरअसल, यह बेहद महत्वपूर्ण है कि यदि हम ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को गलत मानते हैं तो हमारे पास अपने क्राइटेरिया होने चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता है कि उनके ही क्राइटेरिया के आधार पर सही अथवा गलत का निर्धारण करें।

खैर, मेरी जिस पोस्ट पर ब्राह्मण महोदय की आत्मा बेचैन हुई थी, वह जातिगत जनगणना की मांग करने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास पहुंचे बिहार के नेताओं के प्रतिनिधिमंडल से जुड़ी थी। इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कर रहे थे। मैंने अपनी पोस्ट में एक तस्वीर का इस्तेमाल किया, जिसमें नीतीश और तेजस्वी यादव नार्थ ब्लॉक में प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर गुफ्तगू कर रहे थे। मैंने इस तस्वीर के साथ लिखा – भविष्य का संकेत देती वाकई एक अच्छी तस्वीर।

[bs-quote quote=”असल में होता यह है कि वह ऑब्जेक्ट जो कि खबर का हिस्सा है, वह किस तरह का व्यवहार करता है। संपादकों और मालिकों का व्यवहार विज्ञापनों के आधार पर भी तय होता है और जातिगत समीकरणों के आधार पर भी। लेकिन जब वे ऐसा करते हैं तो वे पत्रकारिता नहीं करते।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मेरी इस पोस्ट को अलग-अलग नजरिए से देखा गया। जो तेजस्वी के समर्थक थे, वे इतने खुश हो गए कि उन्होंने तेजस्वी को बिहार का भविष्य कहना शुरू कर दिया। वहीं नीतीश कुमार के समर्थकों को यह पोस्ट रास नहीं आयी। एक उपेंद्र कुशवाहा के समर्थक ने भी फोन पर अपनी आपत्ति दर्ज करायी। उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार ने यह अच्छा नहीं किया कि उन्होंने प्रतिनिधिमंडल में उपेंद्र कुशवाहा को शामिल नहीं किया। यदि वे चाहते तो विजय कुमार चौधरी जो कि भूमिहार जाति के हैं, उनको शामिल किया।

दरअसल, जब मैंने यह लिखा- भविष्य का संकेत देती वाकई एक अच्छी तस्वीर तो मेरा आशय यह रहा कि बिहार के नेताओं द्वारा यह अतिमहत्वपूर्ण पहल है। इसके पहले पिछले साल जब तमिलनाडु की सभी पार्टियों ने अपने राज्य के ओबीसी युवाओं के हित को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट का रूख किया था, तब भी मैंने ऐसी ही टिप्पणी की थी। यह मेडिकल संस्थान में प्रवेश के लिए नीट परीक्षा से जुड़ा था। तमिलनाडु की सभी पार्टियों के नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि अखिल भारतीय कोटे के तहत राज्याधीन संस्थानों में ओबीसी अभ्यर्थियों को आरक्षण दिया जाय। अब इस मामले का पटापेक्ष हो चुका है। देश भर में यह व्यवस्था लागू हो गयी है।

इसलिए महत्वपूर्ण यह है कि ऐसे पहल हों जिससे देश के बहुसंख्यकों को उनका हक मिले।

23 अगस्त, 2021 को दिल्ली से प्रकाशित दैनिक ‘जनसत्ता’ के पहले पृष्ठ पर प्रकाशित खबर

कल एक खास बात हुई जिसे आज दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता ने प्रथम पृष्ठ पर प्रमुखता से प्रकाशित किया है। शीर्षक है – नीतीश ने बिहार व तेजस्वी ने देशभर में की गणना की मांग। वहीं पटना से प्रकाशित हिन्दुस्तान का शीर्षक है – पीएम ने जातीय जनगणना की मांग नकारी नहीं : नीतीश।

अब इन दो शीर्षकों के आधार पर हम एक क्राइटेरिया तय कर सकते हैं कि दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता के संपादक कितने बेखौफ हैं और पटना से प्रकाशित हिन्दुस्तान के संपादक कितने गुलाम हैं और खौफजदा हैं।

यह बेहद खास उदाहरण है उनके लिए भी जो पत्रकारिता को शासक का तंत्र मानते हैं। असल में होता यह है कि वह ऑब्जेक्ट जो कि खबर का हिस्सा है, वह किस तरह का व्यवहार करता है। संपादकों और मालिकों का व्यवहार विज्ञापनों के आधार पर भी तय होता है और जातिगत समीकरणों के आधार पर भी। लेकिन जब वे ऐसा करते हैं तो वे पत्रकारिता नहीं करते।

परसों का ही एक उदाहरण है। पटना में एक बड़े अखबार के बड़े पत्रकार साथी ने जानकारी दी कि उन्होंने एक आलेख लिखा है जातिगत जनगणना को लेकर और उनका अखबार इसे अपने सभी संस्करणों में प्रकाशित करेगा। उनके हिसाब से इसकी मांग करने के पीछे भाजपा का इन दलों के नेताओं पर खौफ है। अपनी बात को उन्होंने अपने आलेख में अच्छे से स्थापित करने की कोशिशें की है। परंतु, उनके मन का भाव छलछला गया है आलेख में।

बहरहाल, कल बिहार ने एक बड़ी लकीर खींच दी है। बिहार के दस महत्वपूर्ण दलों के नेताओं को बधाई। तेजस्वी यादव की आंखों को देखिए। नागार्जुन ( 30 जून, 1911-5 नवम्बर, 1998 ) की यह कविता याद आएगी-

 

क्या नहीं है

इन घुच्ची आँखों में

इन शातिर निगाहों में

मुझे तो बहुत कुछ

प्रतिफलित लग रहा है!

नफरत की धधकती भट्टियाँ…

प्यार का अनूठा रसायन…

अपूर्व विक्षोभ…

जिज्ञासा की बाल-सुलभ ताजगी…

ठगे जाने की प्रायोगिक सिधाई…

प्रवंचितों के प्रति अथाह ममता…

क्या नहीं झलक रही

इन घुच्ची आँखों से?

हाय, हमें कोई बतलाए तो!

क्या नहीं है

इन घुच्ची आँखों में!

 

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं

 

 

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