देश भर में लाखों शिल्पकार आज आजीविका और आवास जैसी बुनियादी समस्याओं से जूझ रहे हैं। बदलते हुये हालात और जनविरोधी सरकारी नीतियों के तहत किए जा रहे विकास ने उन्हें उजड़ने और विस्थापित होने के कगार पर ला छोड़ा है। इसके साथ ही राजनीतिक संवेदनहीनता और अवसरवाद ने उन्हें उपेक्षा के दलदल में धकेल दिया है। वाराणसी शहर के चाँदपुर चौराहे पर कई पीढ़ियों से रहकर पत्थर की मूर्तियाँ गढ़ने वाले शिल्पकार भी इन्हीं हालात में जी रहे हैं। पिछले दिनों एक ग्राउंड रिपोर्ट के सिलसिले में उन्होंने गाँव के लोग को बताया कि प्रधानमंत्री द्वारा घोषित विश्वकर्मा योजना का लाभ उनके नाम पर अनेक ऐसे लोगों ने उठाया है जिनका शिल्पकला से दूर-तक नाता नहीं है। उन्होंने अपने लिए स्थायी आवास का भी सवाल उठाया। इस बात पर बनारस के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि आवास के बारे में ये शिल्पी सच नहीं कह रहे हैं। उन्हें कांशीराम आवास योजना के तहत घर दिए गए हैं जिनको इन लोगों ने किराये पर उठा दिया है और चाँदपुर चौराहे से हटना नहीं चाहते, क्योंकि वहाँ से ही उनको काम मिलता है। जब गाँव के लोग ने इस बारे में फिर छानबीन की तब पता चला कि फिलहाल वे विस्थापन का शिकार होने जा रहे हैं। उन्हें दूसरी जगह बसाने के सिलसिले में भट्ठी के पास लखमीपुर गाँव के बंजर का मौखिक पट्टा दे दिया गया जहां आज भी उनका कब्जा नहीं हो पाया है। विडम्बना यह है कि इस संदर्भ में किसी तरह की लिखा-पढ़ी नहीं हुई और उपजिलाधिकारी एवं तहसीलदार से इस संदर्भ में पूछने पर मालूम हुआ कि उन्हें इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। जिस जगह वे बसाये गए हैं वहाँ उन्हें लगातार विरोध झेलना पड़ा है और कई बार उनका सामान फेंक दिया गया। मौके पर कुछेक झोपड़ियों के अलावा कोई भी स्थायी घर नहीं दिखा। प्रस्तुत है यह रिपोर्ट:
वोट बैंक की राजनीति का शिकार हो गए चाँदपुर के सैकड़ों शिल्पकार
वाराणसी। चाँदपुर चौराह से चार किलोमीटर दूर बसे भट्ठी गाँव की प्रमुख सड़क से 37 सौ मीटर अंदर छोटी सी ज़मीन और वीरान पड़े एक स्थान पर तीन झोपड़ियाँ लगी हुई हैं। लखमीपुर के पिच रोड से दो-ढाई फुट की पगडंडी से होते हुए गाँव के आखिरी छोर पर बसे इस स्थान पर दो महिलाएँ और 13 वर्षीय एक युवक ज़मीन पर बैठकर उस स्थान की वीरानगी को निहार रहे थे। वीरानगी के उस सन्नाटे को जब मेरी बाइक की आवाज़ ने खलल डाली तो वह लोग मेरी तरफ़ देखने लगे। दो महिलाएँ उठकर अपनी-अपनी झोपड़ियों में चली गईं। अकेले बैठे उस युवक से बातचीत के बाद उन महिलाओं को पता चला कि मैं किसी सरकारी महकमे से नहीं, बल्कि मीडिया से हूँ और चाँदपुर से यहाँ ज़मीन मिलने का कारण, ज़मीन मिलने के बाद भी यहाँ क्यों नहीं रहने दिया जा रहा है सहित कई सवालों-समस्याओं को जानने आया हूँ।
13 वर्षीय अनिल ने कुछ खास पढ़ाई-लिखाई नहीं की। चाँदपुर में रहने के दौरान उसने बौलिया स्थित एक सरकारी स्कूल से थोड़ी-बहुत शिक्षा हासिल की। लेकिन समय से न पहुँच पाने का कारण बताते हुए उसे उस स्कूल से निकाल दिया गया। लखमीपुर में बसने के बाद शिल्पकार बिरादरी के लोग उसे यहाँ इसलिए छोड़कर जाते हैं कि कोई अनहोनी होने पर वह अपने लोगों को फोन पर जानकारी दे सके। इतना बताकर अनिल चुप हो गया।
इसके बाद अपनी झोपड़ी में एक टूटी चौकी पर लेटी नीलम भी बाहर निकलकर आ गईं। वह बतातीं हैं कि, ‘पाँच साल पहले जब वह इस गाँव में आई थीं तो उनके साथ चाँदपुर के लगभग 50 परिवार भी थे। तत्कालीन प्रधान संतोष सोनकर ने उन्हें लखमीपुर गाँव की आबादी की ज़मीन पर रहने का आश्वासन दिया था। उस समय गाँव के लोगों ने इस बात का विरोध किया तो संतोष सोनकर ने सभी लोगों को शांत करवाकर हमारी मड़ई यहाँ डलवा दी। तब से लेकर आज तक लखमीपुर गाँव के लोगों और उनके बीच एक द्वंद्व बना हुआ है।’ वह बताती हैं कि ‘मामला अभी ठंडा नहीं हुआ है, कुछ माह पहले भी इस ज़मीन पर आसपास बसे लोगों से झड़प हुई थी। वह लोग नहीं चाहते कि हम लोग यहाँ बस जाएँ। जब हम लोग यहाँ आए तो यह पूरी ज़मीन खाली थी। हमारे बसते ही यहाँ के लोगों ने हमारे मड़ई के बंगल में मिट्टी का मकान बना दिया। बाँस लगाकर कपड़ों के घर बना दिए गए ताकि हम अपनी मड़ई न बना सकें।’
पाँच वर्ष पहले शिल्पकारों के विस्थापन की इस कहानी की तस्दीक करते हुए शिल्पकार भोला की पत्नी राधा बताती हैं कि ‘इस जगह पर ज़रूरत का कोई सामान नहीं मिलता। सिक्का साबुन (तीन रुपये में मिलने वाला एक साबुन जो नहाने और कपड़ा धोने के काम में आता है) लेने के लिए भी कई गज (तकरीबन आधा किलोमीटर दूर) दूर जाना पड़ता है। नून-तेल सहित और सभी तरह के घरेलू सामान ये (भोला) काम से लौटते वक्त लेते आते हैं।’ वह बताती हैं कि ‘लगभग ढाई साल पहले जब गाँव की सत्ता बदली तब हमारा विरोध दोबारा और उग्र तरीके से होने लगा। वर्तमान प्रधान जंगबहादुर पटेल ने पुलिस बुलवाकर हमारे सामान को ट्रकों में भरकर वापस चाँदपुर चौराहे पर भेजवा दिया।’ वह बताती हैं कि ‘उस से लेकर अब तक मात्र यही चार परिवारों की मड़इयाँ बची हैं। बाकी तकरीब 46 परिवार के लोग यहाँ से दोबारा चाँदपुर चौराहे पर चले गए।’
क्या हुआ ढाई वर्ष पहले
चाँदुपर चौराहे पर सड़क किनारे लगभग 70 साल से बुत (पत्थर) गढ़ रहे यह शिल्पकार ऊहापोह की स्थिति में है। सड़क चौड़ीकरण का फरमान जारी होने के बाद इन्हें यहाँ से हटने की नोटिस थमा दी गई है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर बस जाने की उनकी उम्मीद भी अब टूट चुकी है। हालांकि उनमें से अधिकतर लोग अभी भी चांदपुर चौराहे पर अपने काम कर रहे हैं लेकिन उनके मन में कभी भी उजाड़े जाने की शंका बनी हुई है।
हाल ही में जब मैंने उन लोगों से मुलाक़ात की और उनके जीवन के बारे में जानना चाहा तो सिवा इस बात के कि वे चांदपुर चौराहे पर बरसों से मूर्तियाँ गढ़ रहे हैं और वहीं से उनकी आजीविका चलती है, के अलावा उनके जीवन में परेशानियों और संकटों का पारावार नहीं है। पानी और शौचालय जैसी बुनियादी आवश्यकताओं के लिए भी रोज़मर्रा के संघर्ष हैं। निहायत अस्वास्थ्यकर हालात में रहनेवाले इन शिल्पकारों के सामने स्थायी आवास की समस्या जस की तस है। लोगों ने बताया कि जब से सड़क चौड़ी करने के लिए यह जगह खाली करने का फरमान जारी हुआ है तबसे भविष्य अंधेरा दिखाई दे रहा है।
पानी और शौचालय की हैं दिक्कतें
बरसों से भारत सरकार इस बात का ढ़ोल पीट रही है कि देश का हर गाँव खुले में शौचालय से मुक्त (ओडीएफ़) हो चुका है लेकिन लखमीपुर गाँव में पाँच साल पहले शिल्पकार जब चाँदपुर से आए थे तब से यहाँ पानी और शौचालय की दिक्कतें हैं। यह बताते हुए नीलम कहती हैं कि ‘उस समय हम लोगों ने प्रधान संतोष सोनकर को मिलाकर 5000 रुपये दिए थे तो तीन-चार दिन में बोरिंग होकर सरकारी हैंडपम्प लग गया। लेकिन आज की स्थिति यह है कि इस हैंडपम्प को बनवाने के लिए प्रधान जंगबहादुर हमारी बात भी नहीं सुनते। हम लोग ही आपस में पैसा इकट्ठा कर हैंडपम्प को बनवाते हैं। चार महीने पहले ही 2000 रुपये लग गए तब जाकर हमें पानी नसीब हुआ।’
हैंडपम्प खराब हो जाने के सवाल पर नीलम बताती हैं कि ‘यहाँ से आधा किलोमीटर दूर एक सरकारी नल है, वहाँ से पानी लाते हैं। लेकिन गाँव के लोग अनाप-शनाप बोलने लगते हैं।’
नहीं मिला सरकारी शौचालय
नीलम बताती हैं कि ‘हम लोग थोड़ी दूर पर खाली एक ज़मीन पर शौचालय करने जाते हैं। इसके लिए हमें सुबह अंधेरे के समय ही उठना पड़ता है। इसके लिए भी कई बार प्रधान जंगबहादुर से कहा गया। अपने घर पर तीन-चार बार तो वह मिले लेकिन अब नहीं मिलते। कई बार हमें जाति के नाम पर भी बुरी तरीके से बोला जाता है। गालियाँ दी जाती हैं, इसलिए अब हम लोग वहाँ जाना ही छोड़ दिए।’
लखमीपुर गाँव के इस स्थान पर घुसने से पहले मोड़ पर चाय-पान की एक गुमटी पर मौजूद कुछ युवकों से जब इस मामले पर बातचीत करने की कोशिश ‘गाँव के लोग’ ने की तो वह सब इधर-उधर चले गए। दुकान पर बैठे एक युवक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ‘जब यह लोग आए थे तो तब पुलिस आई थी और इन शिल्पकारों को यहाँ से भगा दिया गया था। कुछ लोगों ने दो-चार दिन बाद जाने को कहा था लेकिन आज भी वह लोग यहीं रह रहे हैं।’
वोट की राजनीति का शिकार हो गए शिल्पकार
लखमीपुर के ग्राम प्रधान जंगबहादुर पटेल बताते हैं कि ‘संतोष सोनकर के प्रधानी के समय चाँदपुर चौराहे पर रहने वाले शिल्पकार यहाँ आए थे। उनके साथ तत्कालीन तहसीलदार और लेखपाल भी थे। उस समय इन लोगों को पट्टा नहीं दिया गया था। सिर्फ मौखिक तौर पर रहने के लिए कह दिया गया था। लेकिन गाँव में ज़मीन नहीं होने के कारण एक सवाल यह खड़ा हो गया कि ‘अगर ज़मीन खाली है तो वहाँ गाँव वाले ही बसेंगे।’ जंगबहादुर बताते हैं कि ‘उस समय के प्रधान संतोष सोनकर ने इन शिल्पकारों को यहाँ पनाह दी थी तो वही जानें कि इनका क्या करना है?’
इस मामले में चाँदपुर के प्रधानपति ओपी पटेल बताते हैं कि ‘2017 में सड़क चौड़ीकरण के मापी के समय इन शिल्पकारों को नोटिस मिली थी। लखमीपुर में इन लोगों को भेजा गया तो इन्हें वहीं पर रहना चाहिए था। ओपी बताते हैं कि केराकतपुर और भट्ठी में भी ज़मीनें खाली हैं। रह गई बात चाँदपुर की तो इस गाँव में वर्तमान में शिल्पकारों के आबादी के हिसाब से ज़मीनें नहीं रह गई हैं। मैंने इन शिल्पकारों के लिए कई बार सम्बंधित विभागों में पत्रक दिए हैं। कई बार तो रिपोर्ट भी लगी हैं। चूँकि सड़क चौड़ीकरण का मामला है तो इन्हें सरकार और विभागीय अधिकारी जहाँ विस्थापित कर रहे हैं, वहीं जाकर रहना चाहिए।’
चाँदपुर के पूर्व प्रधान और भाजपा के लोहता मंडल उपाध्यक्ष आरडी यादव ने कहा कि छह माह पहले तत्कालीन एसडीएम संजीव कुमार के साथ तहसीलदार और लेखपाल के माध्यम से यह शिल्पकार लखमीपुर में रहने के लिए गए थे। चूँकि ग्रामीण उनको वहाँ नहीं बसने दे रहे हैं। इसलिए यह लोग परेशान हैं।
क्या कहते हैं अधिकारी
कुछ सप्ताह पहले चार्ज में आए वाराणसी के सदर एसडीएम पीपी त्रिपाठी ने ‘गाँव के लोग’ से कहा कि ‘यह मामला मेरे संज्ञान में नहीं है। सम्बंधित मामला किसी भी माध्यम से मेरे सामने आता है तो उस पर नियम तहत कार्रवाई ज़रूर की जाएगी।’
दो माह पहले चार्ज में आईं तहसीलदार शालिनी सिंह इस मामले के संदर्भ में बताती हैं कि ‘यह मामला मेरे संज्ञान में भी नहीं है। अगर उनको वहाँ पट्टा दिया गया होगा तो वह आबादी की ज़मीन पर नहीं, बंज़र ज़मीन पर दिया गया होगा। पट्टा मिलने के बाद उन लोगों को वहाँ रहना चाहिए।’
इस मामले को लेकर बीते शनिवार यानी 28 अक्टूबर को पीड़ित शिल्पकार समुदाय के लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय कार्यालय में पहुँचकर एक ज्ञापन सौंपा। शिल्पकार कृष्ण कुमार बताते हैं कि ‘पीएमओ प्रभारी ने हम लोगों से कहा कि आप लोग प्रधानमंत्री आवास के लिए रजिस्ट्रेशन करा लें। जब तक सड़क चौड़ीकरण का काम नहीं हो रहा है तब तक आप लोग आवास के लिए आधार, वोटर कार्ड समेत अन्य दस्तावेज इकट्ठा कर लें।’
कृष्ण कुमार बताते हैं कि ‘इसके पहले भी हम लोग तहसील दिवस से लेकर जिलाधिकारी को एक पत्रक सौंप चुके हैं। कोई सुनवाई नहीं होने पर हम पीएमओ में आए हैं। प्रधानमंत्री ने हम शिल्पकारों के लिए सरकारी योजना भी शुरू की है लेकिन उसके लिए हमसे दुकान का रजिस्ट्रेशन सहित अन्य दस्तावेज़ माँगें जा रहे हैं, जो हम लोगों के लिए बड़ी समस्या का विषय है।’
कुल मिलाकर इन शिल्पकारों के स्थायी आवास का मामला फिलहाल अधर में झूल रहा है। भारत की वर्तमान राजनीति के चरित्र के अनुसार इन लोगों का इस्तेमाल हो जाने की दशा में ही इनकी बातें सुनी जाती हैं लेकिन उसके बाद शासन से लेकर प्रशासन तक इनकी आवाज के लिए बहरा बन जाता है। इसके बावजूद अपनी ज़िंदगी की बुनियादी समस्याओं से जूझ रहा यह समुदाय अपने लिए एक स्थायी ठिकाना पाने और सम्मान के साथ जीने का हर संभव प्रयास कर रहा है।