प्रेमचंद की चर्चित कहानी मंत्र के नायक भगत की याद बहुतों को होगी। भगत सांप का विष उतारने का मंत्र जानता था और जैसे ही सुनता कि किसी को सांप ने काट लिया है तो भागकर पहुँचता और उसकी रक्षा करता। भगत चाहता तो बहुत पैसा कमाता और ठाठ से रहता लेकिन जीवन भर वह झोपड़े में रहा और रस्सियाँ बंटकर तथा दूसरे काम करके अपनी रोटी जुटाता था। इसके बावजूद उसकी संवेदना, करुणा और मानवीयता का कोई अंत नहीं था। वह अनमोल थी। वह बहुत बड़ा इंसान था।
जौनपुर जिले के बेलापार गाँव के निवासी भानु प्रताप यादव भगत की परंपरा के इंसान हैं। उन्हें सांप का विष उतारने नहीं आता बल्कि वह गाय-भैंसों के पेट में अटका बच्चा निकालते हैं और यह काम वह चालीस साल से करते आ रहे हैं। एकदम निःशुल्क और दिनरात। भादों में पानी बरसता हो चाहे नदी बढ़ी हो, जेठ में धूप झुलसा दे या लू अपने थपेड़ों से निढाल कर दे, जाड़े में शीत से हड्डियाँ गल जाएँ तब भी भानु प्रताप किसी गाय-भैंस का संकट सुनकर दौड़ पड़ते हैं। एक अनबोलता प्राणी अपने दुख से उन्हें लपेट लेता है और वह सबकुछ छोड़कर वहाँ पहुँच जाना चाहते हैं।
एक सच्चे कलाकार की पहचान यह होती है कि वह पूरी दुनिया को अपनी कला से रच देना चाहता है और इसीलिए किसी अन्य बात में उसका मन नहीं रमता। लोग कितने अमीर हो रहे हैं और कौन कैसी कार खरीद रहा है इससे किसी कलाकार को क्या काम! वह तो हमेशा अपनी कला को फेंटता रहता है। भानु प्रताप को देखकर लगता है कि वह भी ऐसी कोई महत्वाकांक्षा नहीं रखते। उनके पास अपनी सात-आठ गायें हैं और उन्हीं में वह मगन रहते हैं। जब हम उनसे मिलने पहुंचे तो वह उनके चारे-पानी के इंतज़ाम में लगे थे। उनकी वेषभूषा खाँटी देहाती है जैसी किसानों और चरवाहों की होती है। लेकिन भानु प्रताप कोई अनजान व्यक्ति नहीं हैं बल्कि उन्हें दूर-दूर तक लोग जानते हैं और उनके काम के लिए उन्हें सम्मान देते हैं।
यह काम उन्होंने कब से शुरू किया इसके बारे में पूछने पर वह बताते हैं कि जब हम सोलह साल के थे तब से यह कर रहे हैं। उन्हें इस बात का गर्व है कि जब बड़े-बड़े पशु चिकित्सक हाथ खड़े कर देते हैं तब उन्हें याद किया जाता है और हर जगह भानु अपनी सफलता के झंडे गाड़ कर आते हैं। वह कहते हैं कि मामला बिलकुल जटिल हो जाने पर उन्हें बुलावा आता है और वहाँ जाकर वह निःशुल्क अपनी सेवा देते हैं। उनकी पत्नी कहती हैं कि जब से ब्याह कर आई हूँ इन्हें ऐसे ही देख रही हूँ। महीने में दो-तीन जगह से लोग बुलाने आ ही जाते हैं।
वह कहते हैं कि किसी गाय-भैंस को संकट में देखकर मुझे यह जुनून आता है कि इसका बच्चा मुझे जीवित निकालना है। कई बार पशु चिकित्सकों ने घोषित कर दिया होता है कि अंदर बच्चा मर चुका है और माँ भी नहीं बचेगी। ऐसी स्थिति में भानु प्रताप एकमात्र उम्मीद बचते हैं। पशु मालिक सोचता है कि अब उम्मीद तो बची नहीं है एक बार उन्हें भी आजमा लिया जाय।
और ऐसा हर बार हुआ कि बच्चा भी सुरक्षित निकला और माँ भी कष्ट से बाहर आई। भानु प्रताप ऐसा ही एक वाकया सुनाते हैं – ‘यहाँ से कुछ मील दूर पर बाबा बालकदास का आश्रम है। उनकी गाय का बच्चा उलट गया था। अनगिनत झोला छाप डॉक्टर गए। उसरा बाज़ार, तेजी बाज़ार, बक्शा ब्लॉक के सभी छोटे-बड़े पशु चिकित्सकों को बुलाया गया। लेकिन सबने देखकर कहा कि बच्चा तीन दिन पहले मर गया है। तीसरे दिन बाबा हमको बुलवाए। असल में उनको अनेक लोगों ने कहा कि महाराज भानु को बुलवाइए। जब मैं पहुंचा और अपनी तकनीक से जाँच किया तो बच्चे का पैर पकड़ में आ गया। तब मैंने हाथ निकाल लिया और बाबा से बताया कि बच्चा ज़िंदा है। उन्होंने कहा उसको निकाल दो। मैंने कहा ऐसे नहीं निकलेगा। गाय को बिठाना पड़ेगा। तब मैं अपने तरीके से कलैया मार कर इसको निकालना पड़ेगा। गाय को बिठाया गया। बच्चा निकालने के लिए मुझे दो बार कलैया खानी पड़ी लेकिन बच्चा अंततः जीता-जागता निकल गया। बाबा बहुत खुश हुये। बोले बेटा ज़िंदा बोले थे तो ज़िंदा निकाल दिये। अभी मर जाय तो कोई गम नहीं। बड़े-बड़े डॉक्टर फेल हो गए लेकिन तुमने गाय-बच्चा दोनों को बचा लिया। वह मुझसे बोले बेटा मांग लो जो भी चाहिए, मैं सबकुछ दूँगा। लेकिन मैंने कहा बाबा मुझे जो मिलना था वह बच्चे को निकलते ही मिल गया। आज भी जब वहाँ मैं जाता हूँ तो चाहे हजारों की भीड़ रहे बाबा मुझे तुरंत अपने पास बुलाकर बिठाते हैं। मैं हमेशा ऐसे ही लुंगी और कुर्ता पहने जाता हूँ और उन्हें पहचानने में कभी दिक्कत नहीं होती।’
अटके हुये बच्चे को निकालने के लिए कलैया क्यों मारना पड़ता है? भानु प्रताप बताते हैं कि ‘पेट में उलटा हुआ बच्चा सीधे तो निकाला नहीं जा सकता। बच्चा उल्टा होने का मतलब बच्चेदानी ऐंठ गई है। वह जिस दशा में होगी उसी दशा में मुझे घूमना पड़ता है। मसलन उसका सिर या पैर जो भी पकड़ में आता है उसी दशा में मुझे भी पलटना पड़ता है और यदि कोई भी गलती किए तो अपना हाथ-पाँव तो टूटेगा बच्चे को भी नुकसान हो सकता है। उसका दम घुट सकता है।’
क्या आपने अपना कोई शिष्य निकाला? जब आप नहीं रहेंगे तो यह काम कौन करेगा? वह कहते हैं ‘मेरे पास कई युवा डॉक्टर आते हैं और कहते हैं कि मुझे भी बच्चा निकालना सिखा दो लेकिन मुझे पता है वे नहीं निकाल पाएंगे। सूट-बूट पहनकर वह इंजेक्शन तो लगा लेंगे लेकिन कलैया मारकर बच्चा निकालने के लिए जो कौशल चाहिए उसके लिए धूल-मिट्टी और गंदगी की परवाह नहीं करनी पड़ती।’
हमने पूछा कि आपके पास भी गायें हैं और आप बहुत मेहनत से रोटी कमाते हैं। आप अटका हुआ बच्चा निकालने की कला जानते हैं और उसमें बहुत सफल हैं। क्या आपको कभी लगता है कि इसको रोजी-रोटी या पैसा कमाने का ज़रिया बनाया जाना चाहिए?
वह कहते हैं- ‘मैंने जिंदगी में कभी इसके बारे में सोचा ही नहीं। जो सेवा किया उसे भूल जाता हूँ। लोग पूछते हैं कहाँ-कहाँ बच्चे निकालने जाते हैं लेकिन मुझे याद ही नहीं रहता। लोग मिलते हैं तो नमस्ते करते हैं और बताते हैं कि आपने मेरी गाय का बच्चा निकाला था। लेकिन हम कैसे पहचान पाएँ। हम अपना काम करते रहते हैं। मुझे माया की लालच तो है नहीं कि हमें वहाँ ज्यादा पैसा मिला कि वहाँ का ध्यान रहे और वहाँ कम मिला तो वहाँ का ध्यान न रहे। मेरे लिए तो सब बराबर है। सेवा किए और वापस हुये।’
लोग कहते हैं झोला छाप तो बहुत ले गए। एमबीबीएस भी बहुत ले गए। इनको क्या चाहिए यह तो कभी कुछ लेते ही नहीं। भानु प्रताप अन्य किसी बीमारी का इलाज नहीं करते। केवल एक यही काम जानते हैं। गाय-भैंसों के पेट में अटके बच्चे निकालना। और इस काम में उनका कोई सानी नहीं है।
भानु प्रताप के घर के लोग कहते हैं कि कभी-कभी तो खाना निकाल कर सामने रखा होता है लेकिन किसी गाय-भैंस का संकट सुनकर ये तुरंत निकल जाते हैं। भानु प्रताप हँसते हुये कहते हैं – घर वाले मन में चाहे जो बात रखते हों लेकिन कभी मुझे कहीं जाने से मना नहीं किया।’
वह सिर्फ जौनपुर ही नहीं, बनारस, भदोही, गाजीपुर और आजमगढ़ जिलों तक भी जाकर बच्चे निकाल आए हैं। जब कहीं कोई उपाय नहीं रहता तो उन्हें बुलवाया जाता है। एक बार एक बूढ़ी औरत उनकी जेब में सौ रुपए डालते हुये कहा कि बेटा मैं तो समझी थी गाय मर जाएगी लेकिन तुमने उसे जिला दिया। इसलिए मैंने यह इंतजाम किया है इनकार मत करना। भानु ने रुपए उस स्त्री को वापस देते हुये कहा माता मैंने आज तक किसी से एक रुपया नहीं लिया। यही मेरा धर्म है। आप यह रुपए ले जाइए और गाय की सेवा में खर्च कर दीजिये।
एक बार किसान मेले में यहाँ के नेता रमेश मिश्र ने उन्हें माला और शाल देकर सम्मानित किया। उन्होंने वहाँ मौजूद किसानों से पूछा कि क्या आपलोग ठीक तरह से काम कर रहे हैं। फायदा तो हो रहा होगा। किसी ने कहा मैंने मछली पालन किया और मुझे इतना फायदा हुआ। किसी ने कहा मैंने मशरूम बोया तो मुझे फायदा हुआ। भानु कि बारी आई तो उन्होंने बताया कि मुझे तो कुछ पता ही नहीं है। मैं जितना कमाता हूँ उतना तो गाय ही खा जाती है। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मिश्र बोले एक किसान आप दिखाई दे रहे हैं जो फायदा-नुकसान नहीं देखते अपना काम करते हैं।
भानु अपने खेतों और गायों से अपना काम चलाते हैं। चारा घट जाता है तो खरीदा जाता है। जब कुछ नहीं रहता तो उनके कमासुत बच्चे उनकी मदद करते हैं। उनका शौक है कि उनके पास गायें रहें और वह उनकी सेवा करते रहें। जाड़े के इस दिन जब हम यहाँ पहुंचे हैं तब दरवाजे पर अलाव सुलग रहा है और गायों के शरीर पर बोरे ओढ़ाए गए हैं।
वह अभी भी लुंगी-कुर्ता पहने हमसे बात कर रहे हैं। कहते हैं कि इस जीवन में सिर्फ यह कला मैंने सीखी। यही मेरी पूजा है और पूजा बेचने की वस्तु नहीं है।
आपको याद होगा कि डॉक्टर चड्ढा के बेटे कैलाश का ज़हर उतारकर भगत ने एक चिलम तमाखू तक नहीं ली। उल्टे पाँव जल्दी-जल्दी अपने घर की ओर भागा ताकि बुढ़िया के जागने से पहले पहुँच जाय और उसे कुछ पता न लगने दे!