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भारतीय गणतंत्र के केंद्रीय तनावों का समाधान है जाति जनगणना

अठाहरवीं लोकसभा चुनाव में जनता के बड़े हिस्से ने जिस तरह से सामाजिक न्याय के मुद्दे को प्रमुख प्रश्न में तब्दील किया है, उससे अब यह साफ हो गया है कि आने वाले समय में जाति जनगणना को ज्यादा देर तक रोका नहीं जा सकता। जाति जनगणना भारतीय समाज के कई तालों को खोलने वाली चाभी साबित हो सकती है।  

जाति जनगणना का सवाल एक बार फिर से राजनीतिक बहसों के केंद्र में आ गया है। यह अब जन मुद्दे में तब्दील हो रहा है। एक मैगजीन के सर्वे के मुताबिक 70 फीसदी जनता अब जाति जनगणना के पक्ष में खड़ी हो गई है। जनदबाव के चलते विपक्ष इस मुद्दे को बार-बार तो उठा ही रहा है, पर अब सत्ता पक्ष पर भी दबाव कई गुना बढ़ गया है। आरएसएस को जाति जनगणना के पक्ष में बेमन से बात करनी पड़ रही है। अनुमानतः 2025 में आम जनगणना करानी पड़ सकती है, जिसके चलते जाति जनगणना का सवाल राजनीति के केंद्र में आ गया है और लग रहा है कि आगे भी यह मुद्दा बना रहेगा।

जाति जनगणना का मुद्दा कोई पहली बार चर्चा के केंद्र में नहीं है बल्कि इतिहास में ऐसे कई दौर आए जब जाति जनगणना केन्द्रीय मुद्दा बनकर सामने आया पर हर बार कोई न कोई तर्क देकर उसे ख़ारिज़ किया जाता रहा।

आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी मुख्यधारा व वाम-प्रगतिशील राजनीति ने  कभी भी जाति या धर्म के सवाल को सामने लाकर संबोधित करने की कोशिश ही नही की। इन मसलों को कभी भी बुनियादी प्रश्न के बतौर देखा ही नही गया और आमतौर पर यह माना जाता रहा कि अर्थव्यवस्था में व्यापक परिवर्तन भारतीयों का शासन और आधुनिक मूल्यों के उत्तरोत्तर विकास की प्रक्रिया में यह मसले सिमटते जाएंगे हालाकि उसी समय डॉ आंबेडकर, ब्राह्म्णवाद को  भारतीय समाज के प्रमुख दुश्मनों में से एक के बतौर ठीक-ठीक चिन्हित कर रहे थे और आज़ादी आंदोलन के दौरान इसे केंद्रीय मुद्दे के बतौर स्थापित करने के लिए काफ़ी जद्दोजहद कर रहे थे।

बावजूद इसके मुख्यधारा ने इस मसले को आजादी के आंदोलन का कभी भी अंदरुनी हिस्सा माना ही नहीं। इसलिए डॉ आंबेडकर को भी बराबर अलगाव में रहते हुए ही समता व बराबरी की लड़ाई कदम-कदम पर लदनी पड़ी। इस कारण   बाद में स्थापित इतिहासकारों ने डॉ आंबेडकर को स्वतंत्रता सेनानी स्वीकार करने से परहेज़ करते रहे, जबकि डॉ आंबेडकर ज्यादा समग्रता से स्वतंत्रता आंदोलन को देख रहे थे और राजनीतिक आजादी के साथ-साथ, आर्थिक व सामाजिक आज़ादी पर भी बराबर जोर बनाए रखने की वकालत करते रहे थे।

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आज़ादी के बाद भी मुख्यधारा ने पाठ्यक्रम में कोई बदलाव न करते हुए पुरानी नीति पर ही काम जारी रखा। जाति जैसे बेहद जरूरी मसले को देखने से ही इंकार किया जाता रहा और माना जाता रहा कि वर्ण व जाति व्यवस्था अब अपना आधार खो चुका है और बस चेतना का हिस्सा रह गया है, जो धीरे-धीरे आधुनिक भारत के निर्माण की प्रक्रिया के दौरान अपना बचा खुचा अस्तित्व भी खो देगा।

सोच-समझ की इसी धारावाहिकता के चलते ही तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल लाल नेहरु के नेतृत्व में 1951 में ही संपूर्ण जाति जनगणना कराने से इंकार कर दिया गया और यह माना गया कि मुल्क को पीछे की तरफ़ नहीं जाना है, आगे बढ़ना है। आधुनिक संस्थानों का निर्माण करना है, हालांकि यही तर्क धर्म व भाषा जैसे मसलों पर लागू नहीं होने दिया गया जबकि मुल्क उसी समय विभाजन की विभीषिका से गुज़रा था। भाषा का सवाल भी तनाव पैदा कर रहा था बावजूद इसके इन दोनो ही विषयों को जनगणना का हिस्सा बनने दिया गया। इतना ही नहीं अनुसूचित जाति-जनजातियों को भी गिना जाता रहा पर सभी जातियों को गिनने से इंकार कर दिया गया।

लेकिन जाति को न देखने व गिनने की रणनीति कारगर साबित नहीं हुई बल्कि यह पहल भी गलत साबित हुई। सत्ता-व्यवस्था पर तथाकथित ऊंची जातियों का वर्चस्व और बढ़ता ही गया।

 जाति की पूंजी का इस्तेमाल करते हुए, जाति की पूंजी को मेरिट की पूंजी में तब्दील करते हुए द्विज जातियों ने आजाद भारत में निर्मित हो रहे सभी आधुनिक संस्थानों पर भी लगभग कब्ज़ा कर लिया और इस तरह से पुरानी सत्ता-व्यवस्था के साथ-साथ शक्ति के नये तंत्रों पर भी पुरानी शक्तियों का दबदबा बनाया।

 फिर बाद में भी इन्हीं शक्तियों के दबाव में काका कालेलकर और मंडल कमीशन की सिफारिशों के बावजूद जाति जनगणना को नहीं होने दिया गया। यहां तक कि दो-दो बार 1998 और 2010 में संसद द्वारा पारित प्रस्ताव के बाद भी जाति जनगणना को आम जनगणना का हिस्सा नहीं बनने दिया गया।

 आज़ 2024 में भी जब यह सवाल लोकप्रिय मांग में तब्दील हो गया है, एक बार फिर से मोदी सरकार इसे रोकने की आत्मघाती कोशिश कर रही है।

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कौन सी ताकतें हैं जो बार-बार जाति जनगणना को रोकने का काम करती हैं 

बार-बार तमाम आयोगों व कोर्ट द्वारा सरकार को निर्देश देने के बाद, कई-कई कैबिनेट और दो बार संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित प्रस्तावों के बावजूद, जाति जनगणना कराने की मांग को पिछले 70-75 सालों से बार-बार तत्कालीन सत्ता नकारती रही है। इस पर जब हम सोचते हैं तो पहला कारण नजर आता है, आमतौर पर हर जगह और खासकर भारत में भी वर्चस्ववादी समाज या शासक वर्ग/जातियां अपनी वास्तविक हैसियत अदृश्य रखना चाहती है या कब दृश्यमान होना है ये वो खुद तय करता है।  यह अवसर शासित समाज के पास नहीं होता बल्कि शासित समाज के बारे में भी वही तय करते हैं।

ऐसे में भारतीय गणतंत्र को संचालित करने वाली तथाकथित ऊंची जातियों ने यह तय कर लिया है कि उन्हें परंपरागत और आधुनिक संसाधनों पर अपने नियंत्रण को, जो है तो जगज़ाहिर पर ठीक-ठीक जनगणना के माध्यम से सामने नहीं आने देना है। चूंकि शासक जातियों को कारपोरेट पूंजी का भी विराट समर्थन है, जिसका इस्तेमाल कर, उसे लगता है कि वह सब कुछ न केवल मैनेज कर सकता है बल्कि बहस की दिशा को भी 180 डिग्री तक बदल सकता है।

दूसरी बात, शासक जातियों का वर्चस्व केवल राज्य मशीनरी के बल पर क़ायम नहीं होता बल्कि यह अंततः शासित समाज पर अपने विचार के वर्चस्व के जरिए ही टिकाऊ ताकत हासिल करता है और आज़ादी के बाद से कुछ मोड़ और कुछ दौर को छोड़ दिया जाए तो यह वर्चस्व भिन्न-भिन्न शक्लों में बना रहा और बढ़ता रहा।

शासक जातियों के शासित जातियों पर बढ़ते वर्चस्व के चलते, आप देखेंगे कि आज़ समूचा सत्ताधारी विपक्ष भी जाति जनगणना जैसे बड़े व गंभीर प्रश्न पर भी कम बोलता है, इस मुद्दे को जनांदोलन का प्रश्न नहीं बनाना चाहता, इस मुद्दे को सड़कों पर ले जाने से परहेज़ करता है और अपने को केवल बौद्धिक समर्थन तक सीमित कर लेता है। यही वह ताकत है जिसके चलते सरकारें खुलेआम जाति जनगणना कराने से इंकार करते हुए भी खुडी को सुरक्षित भी महसूस करती है।

इसी वैचारिक वर्चस्व की ताकत पर खड़े होकर जाति आधारित गैरबराबरी के खिलाफ आंदोलित ताकतों को ही जातिवादी बता दिया जाता है, पर जाति विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर घोर जातिवादी राजनीति करते हुए भी सबका साथ, सबका विकास, जैसे दावे भी आराम से पेश किया जाता है।

बात तो अब यहाँ तक आ गई है कि जो शक्तियां, समता बराबरी की दिशा में शुरुआती क़दम के रूप में जाति जनगणना की मांग कर रही हैं, उन्हीं के ऊपर देश को पीछे ले जाने वाली राजनीति करने का आरोप मढ़ दिया जाता है और समाज का एक हिस्सा सहज ही स्वीकार भी कर लेता है।

आज भारतीय गणतंत्र के लिए ऐसी स्थितियां क्यों आयी?  इस पर एक मुकम्मल शोध की जरूरत है और इस पर अलग से विस्तार से बात करने की जरूरत है, पर अभी एक बात जरूर कही जा सकती है कि ब्रिटिश काल से ही जाति का खात्मा चाहने वाली और धर्म की भूमिका को निजी जीवन तक सीमित करने की मंशा रखने वाले कई सकारात्मक राजनीतिक विचारारात्मक समूहों ने घुमावदार रास्ते अख़्तियार किए और दोनों ही परंपरागत जटिलताओं यानि धर्म और जाति की नकारात्मक ताकत को कम करके आंका। अक्सर भारतीयों के शासन व अर्थव्यवस्था और राजनीति में आधुनिक व गुणात्मक परिवर्तन की परियोजना पर ही ज्यादा भरोसा करते रहे और इस रणनीति से निकले परिणामों की कभी समीक्षा भी नहीं की, जिसके चलते आज़ हम सब के लिए यह मसले ज्यादा बड़े संकट पैदा कार रहे हैं।

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आज के समय की बुनियादी मांग है जाति जनगणना

पहली आम जनगणना के साथ ही जाति जनगणना कराने से इंकार कर, हमने जाति जैसे गंभीर मसले को देखने से ही इंकार कर दिया पर समस्या को न देखने से समस्या खत्म नहीं हुई, वह बढ़ती गई और आज़ तो जाति, भारतीय गणतंत्र के कुछ केंद्रीय तनाव के कारणों में से एक बनी हुई है, जो भारतीय लोकतंत्र को लगातार कमजोर कर रही है। भारतीय समाज की अंदरूनी एकता को चोट पहुंचा रही है। ऐसे में इन तनावों को ठीक-ठीक शिनाख्त करने के लिए जाति जनगणना आज हमारे सामने, किसी भी और समय के बनिस्पत ज्यादा जरूरी कार्य है।

हालांकि भारतीय गणतंत्र के शुरुआती दौर में ही डॉ आंबेडकर ने भी देश को संविधान समर्पित करते हुए चेतावनी दी थी कि भारत अभी आधुनिक, लोकतांत्रिक और समतामूलक मुल्क बनने की प्रक्रिया में है और सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी की खाई बड़ी है, इस सवाल को हल किए बगैर भारतीय गणतंत्र की एकता और लोकतंत्र हरदम ख़तरे में रहेगा,  इस पर  ध्यान ही नहीं दिया, अगर इस गैरबराबरी को बार-बार देखते रहते और इसे बदलने की सोचते तो सामाजिक-आर्थिक न्याय की दिशा में एक भी क़दम बढ़ने के लिए, हर आम जनगणना में जाति जनगणना हमारे लिए अनिवार्य तत्व बना रहता।

आज़ के समय में तो आंकड़ों का महत्व और भी बढ़ गया है दुनिया का हर देश अपनी हर तरह की विविधता, भिन्नता को जरूर दर्ज करता है। ऐसे में भारत जिस भी धर्म, भाषा, क्षेत्र जैसे हर तरह की विविधता को दर्ज करता है  केवल जाति की सच्चाई को सामने लाने से इंकार कैसे कर सकता है। इतनी बड़ी आबादी को अंधेरे में रख कर कोई भी देश, आगे कैसे बढ़ सकता है इस पर भी हमें सोचना होगा?

एक और बात यह कि जाति जनगणना के जरिए, जाति विशेषाधिकार से लैस तबके, तथाकथित ऊंची जातियों को तथ्यों के साथ गुमनामी से बाहर ले आना और खासकर उनकी युवा पीढ़ी को ढ़ेर सारे जाने-अनजाने भ्रमों से दूर करना भी आज़ के मुल्क के स्वास्थ्य के लिए एक बेहद जरूरी काम है जो न केवल परम्परागत संस्थाओं-संसाधनों को बल्कि आधुनिक संस्थानों-संसाधनो को भी नियंत्रित-संचालित करता है और अपनी मेरिट पूंजी को, जो उसकी जाति की पूंजी से नाभि-नालबद्ध है, को मानने से न केवल इंकार करता है, बल्कि वंचित समाज के बेहद ज़रूरी मांगों को मेरिट बनाम जाति का सवाल खड़ा कर  घृणा के साथ ख़ारिज़ करता रहता है।

ऐसे में जाति जनगणना, मेरिट के पीछे छिपी जाति की ताकत को सामने ला सकती है और सर्व समाज के बीच बिल्कुल बंद संवाद को खोल सकती है, जो आज़ के समय के लिए बेहद जरूरी काम है।

मनीष शर्मा
मनीष शर्मा
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और बनारस में रहते हैं।

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