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दिल्ली विश्वविद्यालय : नियुक्ति में NFS का खेल जारी है

देश की सत्ता पर बैठे मुखिया पिछड़े और आदिवासी समुदाय से आते हैं, वे सभी देश को चलाने में सक्षम और योग्य हैं क्योंकि सभी आरएसएस से जुड़े हुए हैं। ये सभी देश को चलाने की योग्यता रखते हैं, चाहे इनकी शैक्षणिक योग्यता जो भी हो लेकिन पिछड़े समाज का उच्च शिक्षा प्राप्त एक भी उम्मीदवार शैक्षणिक संस्थानों में नियुक्ति के योग्य नहीं पाया जाता। जबकि संविधान में पिछड़े समाज के लिए विशेष अवसर के तहत ही आरक्षण का प्रावधान किया गया है। लेकिन जब उस अवसर के तहत चयन की बारी आती है तब उसका NFS करके उस अवसर की ही हत्या कर दी जाती है। इससे एक बात सामने आती है कि यह संस्थान जाति और ब्राह्मणवाद का खुला खेल खेलता हुआ NFS का खेल खेलते हुए पिछड़ी जातियों के युवाओं के भविष्य को दांव पर लगा रहा है। संविधान में पिछड़े समाज के लिए विशेष अवसर के तहत ही आरक्षण का प्रावधान किया गया है। लेकिन जब उस अवसर के तहत चयन की बारी आती है, तब NFS कर उस अवसर की ही हत्या कर दी जाती है।

भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित दिल्ली विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरा कर चुका है। दिल्ली विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर दर्ज सूचना के अनुसार, इसमें 16 संकाय और 86 विभाग हैं। इन 16 संकायों के 86 विभागों में प्रोफेसर के लगभग 200 पदों पर ‘नॉट फाउंड सूटेबल’ किया जा चुका है। यह आजादी के तथाकथित उस अमृतकाल में किया गया है, जिसमें राष्ट्रपति आदिवासी, उप-राष्ट्रपति एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलाधिपति किसान समाज से, प्रधानमंत्री और शिक्षा मंत्री पिछड़े समाज से हैं। लेकिन ये सभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हुए हैं। इसीलिए ये लोग देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर के पदों पर एनएफएस किये जाने के बाद मुँह में दही जमा लेते हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की स्थापना संस्कृत विभाग के साथ संयुक्त रूप से लक्ष्मीधर शास्त्री की अध्यक्षता में 1948 में हुई थी। इसके चार साल बाद 1952 में डॉ. नगेन्द्र की अध्यक्षता में हिंदी विभाग स्वतंत्र रूप से स्थापित हुआ था। हिंदी विभाग की स्वतंत्र स्थापना का उद्देश्य यह था कि हिंदी भाषा और साहित्य आदि विभिन्न क्षेत्रों में शोध, शिक्षण-प्रशिक्षण तथा विमर्श आदि स्वतंत्र रूप से स्थापित किये जा सकें। साथ ही विदेशी विद्यार्थियों को हिंदी भाषा, साहित्य और भारतीय संस्कृति से परिचित कराया जा सके। क्या हिंदी विभाग अपने 72 साल के कार्यकाल मेंइस उद्देश्य को प्राप्त कर सका है?

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इस समय हिंदी विभाग की अध्यक्ष प्रोफेसर कुमुद शर्मा हैं। वे लिखती हैं कि हिंदी हमारी अपनी भाषा है। अपनेपन की भाषा है। जाहिर है कि उनका यह अपनापन प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के चयन पर जमकर प्रकट हुआ है। हिंदी विभाग की अध्यक्ष सवर्ण हैं,कला संकाय के अध्यक्ष सवर्ण हैं और डीयू के कुलपति भी सवर्ण हैं। इन सबने मिलकर अनारक्षित श्रेणी के प्रोफेसर के एक पद और एसोसिएट प्रोफेसर के पाँचों पदों पर सवर्णों का चयन किया है। जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणी के प्रोसेफर के एक पद और एसोसिएट प्रोफेसर के भी एक पद को ‘नॉट फाउंड सूटेबल’ कर दिया है।  यह मनुवाद पोषित अकादमिक ब्राह्मणवाद का वह बजबजाता रूप है जो विश्वविद्यालयों के विभागों की शोभा बढ़ाता है।

हिंदी विभाग की इस अयोग्यता का जिम्मेदार कौन है? हिंदी विभाग के पहले अध्यक्ष डॉ. नगेन्द्र थे। इनके बाद क्रमशः सावित्री सिन्हा, विजयेन्द्र स्नातक, उदयभानु सिंह, ओमप्रकाश, निर्मला जैन, महेन्द्र कुमार, तारकनाथ बाली, सुरेशचन्द्र गुप्त, नित्यानन्द तिवारी, एस. नारायण अय्यर, रमेश गौतम, सुरेन्द्र नाथ सिंह, कृष्णदत्त पालीवाल, सुधीश पचौरी, गोपेश्वर सिंह, हरिमोहन शर्मा, मोहन, श्यौराज सिंह बेचैन रहे हैं। अब तक हिंदी विभाग के 21 अध्यक्षों में 20 सवर्ण रहे हैं। इन सवर्ण प्रोफेसरों द्वारा शिक्षित शोधार्थी इन्हीं की साक्षात्कार समिति में अयोग्य कैसे हो रहे हैं? इनसे यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए।

यह सिर्फ दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की अयोग्यता नहीं है बल्कि देश के सभी विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों की अयोग्यता है क्योंकि दिल्ली विश्वविद्यालय के विभागों में चयन हेतु देश के कोने-कोने से अभ्यर्थी शामिल होते हैं।

डीयू के हिंदी विभाग में अनारक्षित श्रेणी के प्रोफेसर के एक पद पर 6 अभ्यर्थियों ने साक्षात्कार दिया था, जिसमें से एक सवर्ण अभ्यर्थी का चयन शौक से कर लिया गया जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणी के प्रोफेसर के एक पद पर 7 अभ्यर्थियों ने साक्षात्कार दिया, इनमें से चार अभ्यर्थियों ने अनारक्षित श्रेणी के प्रोफेसर पद पर भी साक्षात्कार दिया था, इसके बाद भी साक्षात्कार समिति इन सभी को अयोग्य मानते हुए प्रोफेसर के एक ओबीसी पद को ‘नॉट फाउंड सूटेबल’ कर देती है। यह साक्षात्कार समिति का जातिवाद नहीं तो और क्या है?

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इसी विभाग में अनारक्षित श्रेणी के एसोसिएट प्रोफेसर के 5 पदों पर 23 अभ्यर्थियों ने साक्षात्कार दिया, जिसमें से पाँच सवर्ण अभ्यर्थियों को चयनित कर लिया गया जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के एक पद पर 19 मेधावियों ने साक्षात्कार दिया, इसके बाद भी मनुवाद से ग्रसित सवर्ण साक्षात्कार समिति ने सभी को अयोग्य मानते हुए ओबीसी एसोसिएट प्रोफेसर के पद को ‘एनएफएस’ कर दिया। दरअसल, सवर्ण प्रोफेसरों द्वारा गैर सवर्णों का एनएफएस करना विश्वविद्यालयों में सवर्ण वर्चस्व को बनाये रखना है।

डॉ. राममनोहर लोहिया 1961 में अपने ‘अवसर से योग्यता’ नामक लेख में योग्यता के छंटाव पर भलीभांति प्रकाश डालते हैं। उनका कहना है कि “योग्यता का 5,000 बरस पुराना छंटाव चल रहा है। कुछ जातियाँ विशेष रूप से योग्य बन गई हैं। जैसे, मिसाल के लिए, कारखानों और पैसे के मामले में मारवाड़ी बनिया और बौद्धिक काम के मामले में सारस्वत ब्राह्मण। जब तक दूसरों को विशेष अवसर और पद नहीं दिए जाते, तब तक इन जातियों के साथ होड़ करने की बात करना वाहियात है। क्या देश में लोहिया की मंशा का ख्याल रखा जा रहा है?

संविधान में पिछड़े समाज के लिए विशेष अवसर के तहत ही आरक्षण का प्रावधान किया गया है। लेकिन जब उस अवसर के तहत चयन की बारी आती है तब उसका NFS करके उस अवसर की ही हत्या कर दी जाती है। विशेष अवसर के सिद्धांत की हत्या के अपराधियों पर मनुस्मृति से पालित पोषित भाजपा सरकार कोई कार्रवाई नहीं करती है और न ही भारतीय संविधान की रक्षा की गारंटी देने वाली न्यायपालिका. इसीलिए देश के विश्वविद्यालयों के सवर्ण प्रोफेसरों का मन खूब बढ़ गया है।

ज्ञानप्रकाश यादव
ज्ञानप्रकाश यादव
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं और सम-सामयिक, साहित्यिक एवं राजनीतिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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