हाल ही में देखी एक फिल्म का दृश्य है – एक छोटे से कमरे में दो दोस्त दाखिल होते हैं। घुसते ही एक कह उठता है – ‘यह कैसा कमरा है भाई, शुरु होते ही खतम’
मुंबई में जितनी गगनचुम्बी अट्टालिकाएं हैं उतने ही असंख्य ऐसे कमरे झुग्गी – झोंपड़ियों और चालों में स्थित हैं जो शुरू होते ही ख़त्म हो जाते हैं। जहां दीवारें अधिक दिखती हैं, फर्श कम। जहां के दरवाज़ों से टाट के पर्दे हटाकर कमर और कंधे झुकाकर कमरे के अंदर घुसना पड़ता है। इन्हीं दड़बों में से निकली हैं – अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधी रखकर अद्भुत जीवट वाली अनेक महिलाएं – जिन्होंने इस ‘शुरु होते ही खत्म ’ होनेवाले कमरों के बाशिन्दों की दुनिया को बेहतर बनाने के लिए जी तोड़ काम किया है।
सावित्रीबाई फुले के महाराष्ट्र में ऐसी जीवट वाली महिलाओं की एक समृद्ध परम्परा रही है। इस परम्परा में एक ओर अहिल्या रांगणेकर , प्रमिला दंडवते , मृणाल गोरे हैं तो दूसरी ओर विभूति पटेल, अरुणा बुरटे, आरिफा खान, सुरेखा दलवी, अरुणा सोनी, संध्या गोखले, चयनिका शाह, जया वेलणकर, शारदा साठे, हसीना खान, गंगा बार्या, ज्योति म्हाप्सेकर, मेघा थट्टे, मुक्ता मनोहर, शैला लोहिया, शहनाज़ शेख और फ्लेविया एग्नेस जैसी सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक लम्बी श्रृंखला है । इसी श्रृंखला की एक कड़ी हैं सुगंधि ।
मुंबई के एक उपनगर भांडुप के स्टेशन से कुछ ही दूर मंगतराम पेट्रोल पम्प मशहूर है । पर उससे भी ज़्यादा जानी जाती है उसके नज़दीक एक गली में खड़ी लाल कोठी – जो कहने को डॉ. विवेक मॉन्टेरो और सुगंधि का घर है पर जिसका मुख्य दरवाज़ा दूसरे घरों की तरह कभी बंद नहीं होता, हमेशा खुला ही रहता है। उसमें दाखिल होने से पहले दरवाज़े के बाहर पन्द्रह-बीस जोड़ी चप्पलों का जमघट आपको यह अहसास दिला देगा कि वह घर कम और सराय अधिक है।
लाल कोठी से दो मिनट के फासले पर संघर्ष का दफ्तर है , जहां हर रविवार को सुगंधि और उसकी साथी कार्यकर्ताओं को महिलाओं से घिरे हुए देखा जा सकता है। उस इलाके की किसी औरत को राशन कार्ड बनवाना हो, बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाना हो, पति की दारूबाजी छुड़वानी हो, अपने इलाके के गुंडों से परेशानी हो – हर मर्ज का इलाज है — सुगंधि, जिसे सभी कार्यकर्ता और मित्र ‘भाभी’ के नाम से जानते हैं, जिन्हें सुबह आठ बजे से रात नौ बजे तक लोकल ट्रेन के महिला डिब्बे से लेकर कामगार दफ्तरों या कोर्ट कचहरी के ट्रायल में देखा जा सकता है।
आज भांडुप इलाके की मुसीबतज़दा औरतें सुगंधि को दृढ़ता और साहस के प्रतीक के रूप में देखती है। इस सुगंधि को निस्वार्थ भाव से संवारने-निखारने और गढ़ने में जिस पुरुष के स्नेह , प्रेम और संवेदना का योगदान है — वह हैं डॉ. विवेक मॉन्टेरो। सुगंधि से विवाह करके न सिर्फ एक , बल्कि चार ज़िन्दगियों को बचाने और बनाने का श्रेय उन्हें जाता है । आज के पुरुषवर्चस्व बहुल समाज में , अपने विचारों को अपने आचरण में उतारने वाले विवेक जैसे लोगों को देखकर बहुत सा धुंधलका छंटता हुआ सा लगता है और उम्मीद की एक किरण उभरती दिखाई देती है ।
अधिकांश सामाजिक कार्यकर्ताओं की तरह सुगंधि भी सिर्फ़ अपने काम से मतलब रखती हैं । आत्मविज्ञप्ति या आत्ममुग्धता से कोसों दूर इस कार्यकर्ता से आत्मकथ्य लिखवाना या साक्षात्कार लेना एक टेढ़ी खीर था। ‘जो बीत गई सो बात गई ’ की तर्ज पर सुगंधि इसे गैर ज़रूरी समझती हैं कि वह अपने बारे में बात करें या कोई उनके बारे में लिखे। उनके ही एक मित्र और सहयोगी पुरुषोत्तम त्रिपाठी ने अपनी ‘भाभी’ सुगंधि को आखिर राजी कर लिया और उसका नतीजा है यह संघर्ष कथा।
पहला हिस्सा
मेरा जन्म गढ़वाल(आज के उत्तरांचल राज्य) के एक छोटे से गांव में 1952 में हुआ। रिखणीखाल नाम का यह गांव कोटद्वारा से एक घंटे के रास्ते पर पहाड़ी पर स्थित हैं। वहां से कपड़े और बर्तन धोने के लिए भी नीचे नदी तक आना पड़ता था। वहां पर साठ सत्तर घर ही होंगे जो ज्यादातर खेती ही करते हैं। कुछके बच्चे मिलिट्री में हैं तो कुछ रोटी – रोजी की तलाश में मुंबई आ गए।
बचपन की एक घटना मुझे अब तक याद है-जब मैं छः साल की थी तो अक्सर अपनी मौसी के यहां रहनेजाती थी। उनका घर ऊंची पहाड़ी पर था। उस इलाके में रोज भालू आया करते थे। ये भालू बच्चों को उठाकर ले जाते थे। भालू के आतंक से बचने के लिए मेरी मौसी घर के दरवाजे पर अंदर से बहुत बड़ा पत्थर रख देती थी। यह पत्थर इतना भारी होता था कि हम सभी बच्चे और मौसी मिलकर उस पत्थर को लुढ़काकर दरवाजे तक ले आते थे। उसके बाद मौसी हम छोटे बच्चों को एक -एक टोकरी में बंद कर खाट के नीचे टोकरी को खिसकाकर रख देती थी। खाट के चारों तरफ चादर लटका देती थी ताकि टोकरियां भी दिखाई न दें। हम सभी बच्चे उसी टोकरी में दुबके-दुबके सो जाते थे। और यह रोज की बात थी।
पहाड़ी इलाके में छः साल रहने के बाद 1958 में जब हम मुंबई आए तो यहीं के होकर रह गये। मेरे पिता मोटर गैरेज में फिटर मैकेनिक थे। मै भांडुप के हिंदी स्कूल में पढ़ने लगी।
मुझे याद है जब मैं आठवीं कक्षा में थी तब पहली बार मुझे माहवारी हुईं। स्कूल वालों ने मुझे घर भेज दिया। जब मेरी मां को इस बात का पता चला तो उन्होने मुझे घर के भीतर घुसने ही नहीं दिया। मुझे बाहर ही बिठा कर रखा। मुझे बड़ा अजीब लगा। उन्होंने कहा – पिताजी के ऊपर देवता आता है और मुझे चेतावनी दी गई कि इसके बाद जब भी तुम्हें माहवारी हो सारे काम छोड़कर घर के बाहर रहना पड़ेगा। इस झंझट से बचने के लिए मैं अपनी मां को माहवारी की बात बताती ही नहीं थी। उन तीन दिनों में लड़की को बिल्कुल अछूत की तरह दहलीज़ के बाहर चटाई पर बिठा दिया जाता था। आज भी कई परिवारों में ऐसा ही रिवाज है।
मैंने जैसे-तैसे आठवीं तक पढ़ाई पूरी की। इसके आगे मैं पढ़ न सकी क्यों कि सबसे बड़ी लड़की होने के नाते मुझे घर के कामकाज में मां का हाथ बंटाना पड़ता था। मुझसे सोलह साल छोटी बहन आनंदी तभी पैदा हुई थी और मां का ऑपरेशन हुआ था इसलिए घर में चार छोटी बहनों और एक भाई की जिम्मेदारी मुझपर आ पड़ी।
[bs-quote quote=”पिताजी का कामकाज अच्छा चलता था। उन दिनों उनके पास कुछेक लड़के काम सीखने आते थे। उन्हीं में से एक था फ्रांसिस, जो तमिलनाडु का रहनेवाला था। हम दोनों में पहचान हुई और धीरे धीरे हम एक दूसरे को चाहने लगे । मेरे घर में जब इस बात का पता चला तब घरवालों ने तुरंत मेरी मंगनी अपनी बिरादरी के एक गढ़वाली आदमी से कर दी, जो मुझसे नौ साल बड़ा था। मेरी इच्छा के बगैर मंगनी कर दी गई ।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मुंबई के भांडुप इलाके के जिस घर में हम रहते थे, वहां नल नहीं था। पानी बाहर से भरकर लाना पड़ता था। सबसे बड़ी होने के कारण पानी के हंडे सिर पर उठाकर लाने का काम मेरे जिम्मे था। कम से कम डेढ़ दो सौ लीटर पानी रोज़ लाना पड़ता था। सिर पर पानी के हंडे लगातार रखने के कारण कई सालों तक मेरे सिर पर तालू की जगह घिस गई थी और वहां बाल उगने बंद हो गये थे। बहुत बाद में जब मैंने पानी लाना छोड़ा तब मेरे सिर पर तालू वाली बीच की जगह पर बाल उगने शुरू हुए।
पिताजी का कामकाज अच्छा चलता था। उन दिनों उनके पास कुछेक लड़के काम सीखने आते थे। उन्हीं में से एक था फ्रांसिस, जो तमिलनाडु का रहनेवाला था। हम दोनों में पहचान हुई और धीरे धीरे हम एक दूसरे को चाहने लगे । मेरे घर में जब इस बात का पता चला तब घरवालों ने तुरंत मेरी मंगनी अपनी बिरादरी के एक गढ़वाली आदमी से कर दी, जो मुझसे नौ साल बड़ा था। मेरी इच्छा के बगैर मंगनी कर दी गई । जब शादी का समय आया तो मुझे लगा कि मैं उससे शादी नहीं करना चाहती। अपनी मर्जी से शादी केे लिए मैने घर छोड़ दिया। 1970 में शादी के बाद मैं और फ्रांसिस कुर्ला में रहने लगे। तीन-चार महीने के बाद जब सब कुछ ठीक ठाक हो गया तब फ्रांसिस के माता – पिता हमें भांडुप में अपने घर में ले आए। वे मुझे बहुत मानते थे। फ्रांसिस के पिता ने तो शादी के समय ही मुझसे कहा कि तुम यहां क्यों चली आई, यह लड़का तुम्हें संभाल नहीं पाएगा।
बचपन में मेरा नाम पवित्रा था। मैं ठाकुर परिवार की हिंदू लड़की और फ्रांसिस तमिल परिवार का ईसाई। शादी के बाद मुझे चर्च में जाकर अपना धर्म बदलना पड़ा। मुझे नया नाम ‘सुगन्धि’ दिया गया। सब के साथ मुझे अक्सर रविवार की प्रार्थना (संडे मास) के लिए चर्च जाना पड़ता था। मैं बस अपने सास – ससुर का मन रखने के लिए चर्च चली जाती थी।
मेरी सास को हिंदी बिल्कुल नहीं आती थी और मुझे तमिल भाषा का ज्ञान नहीं था। हम दोनों घर में इशारों से एक दूसरे को अपनी बात समझाते और समझते थे, लेकिन मैं एक-डेढ़ साल में अच्छी तरह से तमिल बोलना सीख गई। अब तो मैं थोड़ा बहुत तमिल पढ़ भी लेती हूं। फ्रांसिस के साथ शादी के बाद मेरे घरवालों ने चौदह साल तक मुझसे कोई संबंध नहीं रखा। वैसे फ्रांसिस के तमिल समाज में भी दहेज का चलन था। उस समाज में आनेवाली बहू के साथ भारी दहेज की उम्मीद रखी जाती थी। मैं तो अपने साथ कुछ भी लेकर नहीं आई थी। इधर फ्रांसिस के पिता भी कर्ज में डूबे थे। बावजूद इसके उन्होंने मेरे साथ हमेशा बहुत अच्छा बर्ताव किया।
एक साल के भीतर मैने एक बेटी को जन्म दिया और पांच साल में मैं तीन बच्चों की मां बन गई। कुर्ला में रहते वक्त ही मुझे पता चल गया था कि फ्रांसिस शराब का आदी है। लेकिन क्या करती? कहां जाती? अब तो वापस लौटना नामुमकिन था। मेरी कोई सहेली या परिचित कोई भी ऐसा नहीं था जिससे मैं अपनी तकलीफ बांट पाती ! अपनी मर्जी से शादी करने वाली लड़कियों के साथ अक्सर ऐसी परेशानियां आती हैं। ऐसी शादियां सफल रहीं तो ठीक है। लेकिन अगर कोई समस्या उठ खड़ी हो, परिवार में झगड़े झमेले होते रहें, अलगाव या तलाक की नौबत आ जाए तो ऐसी जुल्म की मारी औरतों का कोई ठिकाना नहीं रहता। अगर लड़की अपने मां – बाप से मदद या सहारा मांगती है तो उसे जवाब मिलता है कि अपनी हालत के लिए तुम खुद जिम्मेदार हो। तुमने हमसे पूछकर तो शादी नहीं की। इसलिए अपने किये का नतीजा खुद भुगतो। पति से झगड़ा, सास-ससुर का दुराव और माता-पिता का कोई आसरा नहीं। ऐसे में वो क्या करे? उसकी स्थिति ‘न घर की न घाट की’ वाली हो जाती है। दूसरी तरफ अगर मां-बाप की मर्जी से, उनके द्वारा चुने गए लड़के के साथ शादी करने पर भी इसी तरह की समस्याएं उठ खड़ी हों तो यही मां-बाप कहते हैं कि हम क्या करें? उसकी तो किस्मत ही खोटी है। इस तरह औरत पर दो तरफामार पड़ती है। दोनों ही स्थितियों में जिम्मेदार वही ठहरायी जाती है।
[bs-quote quote=”मेरी सास को हिंदी बिल्कुल नहीं आती थी और मुझे तमिल भाषा का ज्ञान नहीं था। हम दोनों घर में इशारों से एक दूसरे को अपनी बात समझाते और समझते थे, लेकिन मैं एक-डेढ़ साल में अच्छी तरह से तमिल बोलना सीख गई। अब तो मैं थोड़ा बहुत तमिल पढ़ भी लेती हूं। फ्रांसिस के साथ शादी के बाद मेरे घरवालों ने चौदह साल तक मुझसे कोई संबंध नहीं रखा। वैसे फ्रांसिस के तमिल समाज में भी दहेज का चलन था। उस समाज में आनेवाली बहू के साथ भारी दहेज की उम्मीद रखी जाती थी। मैं तो अपने साथ कुछ भी लेकर नहीं आई थी। इधर फ्रांसिस के पिता भी कर्ज में डूबे थे। बावजूद इसके उन्होंने मेरे साथ हमेशा बहुत अच्छा बर्ताव किया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
1975 में जब मेरा तीसरा बच्चा पैदा हुआ, फ्रांसिस देवीदयाल कंपनी में काम करते थे। यूनियन का लीडरहोने के कारण उन्हें काम पर से निकाल दिया गया। अब हमारी माली हालत और भी बिगड़ गई। मेरे पति पहले भी पीते थे पर अब काम न होने पर शराब पीना जैसे रोज की बात हो गई थी। नौकरी छूट जाने के बाद फ्रांसिस की बेरोजगारी का दौर शुरु हो गया और घर में जरुरी चीजों का भी अभाव रहने लगा। तनाव के इन दिनों में रोज घर में मारपीट-झगड़ा होने लगा। शुरू-शुरू में फ्रांसिस को मारपीट करना बुरा भी लगता था। वो पछताता भी था। मुझसे माफी मांग लेता और मुझे खुश करने के लिए खुद खाना बनाकर मुझे खिलाता। लेकिन लम्बे अरसे तक बेरोजगार रहने से, उसमें निराशा और कुंठा बढ़ती गई।
नौकरी छूटने के बाद से ही वह काम धंधे की खोज में लगातार जुटा रहता था, लेकिन उसे सफलता नहीं मिल पाई। उसी की कोशिश का नतीजा था 1982 में होटल की शुरुआत, जो बाद में हमें चलाना पड़ा। होटल चलाने में सुबह 5 बजे से लेकर रात 9 बजे तक काम होता था। उसमें ज्यादा कमाई न हो पाने से खीझ उठना और होटल की कमाई में से शराब पीना चलता रहता था। इन सब कमजोरियों के बावजूद फ्रांसिस बच्चों को बहुत प्यार करता था। उनकी जरूरतों को पूरा करने की कोशिशकरना, विभाग में रहनेवाले लोगों की मदद करना उसका स्वभाव था। अपने घर में खाने को हो या न हो, फिर भी दूसरों को मदद करने में वह आगे रहता। लेकिन लम्बे अरसे तक बेरोजगार रहने से, उसमें निराशा और कुंठा बढ़ती गई।
किसी भी तरह की नौकरी न मिलने के कारण उन्हीं दिनों फ्रांसिस ने शराब बेचना शुरु कर किया। मैने इसका बहुत विरोध किया, पर मेरी एक न चली। कुछ दिनों तक फ्रांसिस ने बाहर कहीं शराब बेचनी शुरू की, लेकिन वहां झगड़ा – टंटा होने लगा। तब फ्रांसिस ने घर में ही शराब बेचना शुरु कर दिया। शराब बेचना एक ऐसा काम था जिसके लिए मेरी आत्मा कभी गवाही नहीं देती थी। इसका नतीजा यह हुआ कि मेरा विरोध बढ़ता गया। मैं जितना विरोध करती , उतनी ही मुझे मार पड़ती। मैं फ्रांसिस को भला-बुरा कहती, उसे ताने मारती, वो और भी भड़क उठता। नतीजा – ज्यादा शराब पीना, जमकर मारना पीटना। यह वो दौर था जब मैं रोजाना फ्रांसिस से पिटती थी। घर में शराब बेचने का आलम यह था कि ज्यादातर शराब खुद फ्रांसिस और उसके यार दोस्त मुफ्त में पी जाते थे । फ्रांसिस की गैर मौजूदगी में कभी – कभी मुझे मन मारकर ग्राहकों को शराब देनी पड़ती थी। बहुत लड़-झगड़ कर , मार खाकर किसी तरह एक – दो साल में शराब बेचने का काम बंद करवाया ।
बहरहाल, शराब की दूकान बंद करने के बाद वड़ा – पाव की गाड़ी शुरु की गई । कुछ लड़कों को साथ लेकर गाड़ी चलाई गई। लेकिन यह काम भी कुछ ही साल तक चल सका, क्यों कि वहां भी शराब पीकर झगड़ा , मार-पीट होती थी । एक स्थानीय गुंडे के साथ मारामारी की वजह से यह काम भी बंद हो गया । बाद में वह गुंडा वहां का नगरसेवक बना और कई साल बाद गैंगवार में मारा गया। अब फिर से बेकारी , वही शराब पीना, वही झगड़े ,वही घर में मारपीट …. पूरा घर आतंकित और सहमा-सहमा सा रहता। 1982 के आते आते वडा पाव की गाड़ी बंद कर दी गई ।
इस दौरान फ्रांसिस का सीटू यूनियन ऑफिस में आना-जाना शुरु हो गया था। 1980 में विवेक मोंटेरो और फ्रांसिस की पहचान यूनियन ऑफिस में हुई। इसके बाद 1980 के दरम्यान विवेक मॉन्टेरो और उनके दो साथी जोसेफ पिंटो और पुरुषोतम त्रिपाठी हमारे घर के पास पचास कदम की दूरी पर मौजूद एक कमरे में किराए पर रहने लगे। ये तीनों साथ – साथ रहते थे। कभी – कभी विवेक के वैज्ञानिक दोस्तों या ट्रेड यूनियन के कामगारों की भी भीड़ वहां लग जाती थी । वैसे ये तीनों साथी ज्यादातर बाहर खाते थे पर कभी कभी हमारे यहां भी खाना खाने आ जाते थे। इसी वजह से पिंटो , विवेक मेरे बच्चों की पढ़ाई में मदद करते थे, जब घर में रोजाना होनेवाले झगड़ों, मार पीट की वजह से बच्चों को पढ़ने की और सोने की बहुत तकलीफ होती थी। मुझे हमेशा इस बात की चिंता लगी रहती थी कि कहीं मेरी तरह मेरे बच्चों को भी पढ़ाई बीच में छोड़नी न पड़े। ऐसे वक्त पर पिंटो और विवेक बच्चों को काफी राहत देते थे।
[bs-quote quote=”एक दिन जब फ्रांसिस ने मुझे बहुत मारा पीटा तो मुझे लगा कि इस अपमान से बेहतर है यहां से चले जानाया मर जाना। एक बार मैं बच्चों को साथ लेकर घर छोड़कर जाने को निकली तब जोसेफ पिंटो ने मुझे समझा – बुझाकर रोका। दूसरी बार मैने आत्महत्या करने के लिए अपने ऊपर केरोसीन छिड़क लिया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मैं इस रोज – रोज की मार पीट और झगडों से तंग आ चुकी थी। हम दोनों के कलह से बच्चे बेहाल से होजाते थे । जिन घरों में पति – पत्नी में कलह होता रहता है, मासूम बच्चे उसका सबसे बड़ा शिकार हो जाते हैं, उनके मानसिक विकास में अवरोध आ जाता है। बच्चों के लिये मेरा जी बहुत कलपता था। दस बाई दस के छोटे से कमरे में बच्चों के सामने ही यह सारा धमाल चलता था।
एक दिन जब फ्रांसिस ने मुझे बहुत मारा पीटा तो मुझे लगा कि इस अपमान से बेहतर है यहां से चले जानाया मर जाना। एक बार मैं बच्चों को साथ लेकर घर छोड़कर जाने को निकली तब जोसेफ पिंटो ने मुझे समझा – बुझाकर रोका। दूसरी बार मैने आत्महत्या करने के लिए अपने उसपर केरोसीन छिड़क लिया। यह देखकर बच्चे घबड़ा गए और उन्होने जोसेफ पिंटो को बुलाया। पिंटो ने आकर मुझे फटकारा, समझाया बुझाया और इस तरह वह हादसा टल गया।
आज जब अपने पतियोें की हिंसा की शिकार औरतें मेरे पास मदद के लिये आती हैं तो मुझे मार खाकर एक कोने में सिकुड़कर आंसू बहाते अपना चेहरा याद हो आता है । मैं इन औरतों को यही समझाती हूं कि जब पहली बार पति मारने के लिए हाथ उठाए, तभी प्रतिरोध करना सीखो। पहली बार, दूसरी बार अगर औरत चुपचाप पिटाई बर्दाश्त कर लेती है तो वह रोज़ाना की हिंसा के लिए दरवाजे खोल देती है।
एक बार फ्रांसिस ने हमारी बेटी ज्योति – जो दसवीं का इम्तहान देकर लौटी थी, को किसी छोटी सी बात पर मेरे सामने इतनी जोर से मारा कि वह फर्श पर गिर गई और बेहोश हो गई। अब तक मैं अपने बच्चों की वजह से अपने शरीर पर मार झेलती थी, बर्दाश्त करती थी। पर बेटी का वह हाल देखकर मुझ पर खून सवार हो गया। मैंने हाथ – पैर, लाठी से उसे इतना मारा कि वह दूसरे दिन चल नहीं पा रहा था। उसके भाई बहन सब इकट्ठे होकर मुझे भला बुरा कहने लगे कि कैसी जालिम औरत है, पुलिस में इसकी रिपोर्ट करनी चाहिये। मैंने सबसे कहा- जहां जो रिपोर्ट करनी है, करो। मैं इतने दिन मार खाती रही तो कोई मुझे बचाने नहीं आया और आज सब मुझसे जवाबदेही करने आ गये। उस दिन के बाद स्थितियां कुछ सुधरी और फ्रांसिस का हाथ मेरे उस पर उठते -उठते रुक जाता था पर अब सारा गुस्सा वह बच्चों पर उतारने लगा था।
क्रमश:
मार्मिक और प्रेरक यथार्थपूर्ण संघर्ष कथा का सजीव वर्णन। सुधा मैडम की लेखनी का जवाब नहीं…।
[…] गरीबों-मज़लूमों के लिए जिनका घर कभी बंद… […]
स्त्री के संघर्षों की मार्मिक कथा… नशा विवेक और संवेदना ओं का हरण कर लेता है…… पुरुष के व्यसन और नशाखोरी का परिणाम पत्नी और परिवार को ही सहना पड़ता है! इस आत्मकथ्य को पाठकों तक पहुंचाने के लिए सुधा अरोड़ा जी को धन्यवाद