रजनी देवी (बदला हुआ नाम) के हाथों की मिट्टी उनकी कहानी खुद बयां कर देती है। 40 वर्षीय रजनी दिन-रात मेहनत करके ईंटें बनाती हैं, लेकिन उनके अपने जीवन की बुनियाद बेहद कमजोर है। उनके घर में न ठीक से रहने की जगह है, न शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं। दिनभर मेहनत करने के बाद 1000 ईंटों पर मुश्किल से 600-700 रुपये की कमाई होती है। इसी में उन्हें अपने बच्चों का पेट भरना है, उनका भविष्य संवारना है और जीवन की हर कठिनाई से जूझना है।
रजनी देवी से जब हमने बात की तो उन्होंने बताया कि “हमें बहुत समस्या होती है। दिन भर मेहनत करने के बावजूद कुछ पैसे की कमाई होती है। कच्चे मकान में रहते हैं। सरकारी योजना के नाम पर हमें कुछ भी नहीं मिलता है, किसी तरह जीवनयापन हो रहा है। मेरे पति और बेटी भी ईट बनाने का काम करती हैं।”
बरसात के महीने में यह समस्या और भी विकराल हो जाती है। बारिश के कारण ईंट बनाने का काम बंद हो जाता है, जिससे मजदूरों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो जाता है।
रजनी देवी आगे बताती हैं कि “बरसात के महीने में दूसरे के खेत में काम करना पड़ता है और अगर दूसरा काम नहीं मिलता तो किसी के घर में झाड़ू पोछा करना पड़ता है। गरीबी इतनी है कि बच्चों को सरकार स्कूल तक नहीं भेज पाती हूं अगर बच्चे स्कूल जाएंगे तो पैसे कैसे लाएंगे।”
गरीबी की बेड़ियों में जकड़ा भविष्य
यह सिर्फ़ रजनी देवी की कहानी नहीं है, यह बिहार के हजारों ईंट भट्ठा मजदूरों की दास्तां है। मेहनत की धूप में तपकर ईंटें बनाने वाले इन मजदूरों की जिंदगी खुद ईंटों की तरह सख्त और बोझिल हो चुकी है। उनके पास मूलभूत सुविधाएं तक नहीं हैं। स्वास्थ्य सेवाएं नदारद हैं, शिक्षा एक सपना बनकर रह गई है और सरकारी योजनाएं सिर्फ कागजों तक सीमित हैं।
ईंट भट्ठों पर काम करने से मजदूरों को कई बीमारियां हो जाती हैं। सांस की तकलीफ, त्वचा संबंधी रोग और अन्य गंभीर बीमारियां आम हो चुकी हैं। कई मजदूरों का लेबर कार्ड तक नहीं बना है, जिससे वे सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं।
सरकारी मदद के अभाव में मजदूरों की बेबसी
आकाश जो की एक ईट भट्टी में काम करते हैं वो बताते हैं की “ हमारे पास लेबर कार्ड नहीं है, हमने कई बार कोशिश कि की हमारा कार्ड बन जाए और उसका लाभ हम उठा सके लेकिन अभी तक हमारा लेबर कार्ड बन कर नहीं आया है। दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं और मुश्किल से घर चलते हैं बाल बच्चा है पत्नी है अगर पैसा नहीं होगा तो घर कैसे चलेगा।”
स्वास्थ्य व सामाजिक–आर्थिक सुरक्षा की पहल बिहार लेबर कार्ड योजना
बिहार सरकार द्वारा संचालित लेबर कार्ड योजना राज्य के श्रमिकों को वित्तीय सहायता और आवश्यक सेवाएं प्रदान करने के उद्देश्य से शुरू की गई एक महत्वपूर्ण पहल है। इस योजना के तहत श्रमिकों को न केवल आर्थिक संबल मिलता है, बल्कि उनके जीवन स्तर को सुधारने के लिए विभिन्न सरकारी योजनाओं का सीधा लाभ भी उपलब्ध कराया जाता है।
इस योजना के माध्यम से श्रमिकों और उनके परिवारों के कल्याण के लिए कई प्रकार की सहायता दी जाती है। मातृत्व लाभ के तहत गर्भवती महिलाओं को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। शिक्षा सहायता योजना के अंतर्गत श्रमिकों के बच्चों को शिक्षा के लिए 25,000 रुपए तक की आर्थिक मदद दी जाती है, ताकि वे अपने भविष्य को संवार सकें। विवाह सहायता योजनाके तहत श्रमिकों की बेटियों की शादी के लिए 50,000 रूपए तक की वित्तीय सहायता दी जाती है, जिससे आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों को राहत मिल सके। इसके अतिरिक्त, श्रमिकों को 3,500 रुपए की साइकिल क्रय योजना के तहत साइकिल खरीदने की सुविधा दी जाती है, जिससे वे अपने कार्यस्थल तक आसानी से पहुंच सकें। औज़ार ख़रीद योजना के तहत श्रमिकों को 15,000 रुपए तक की आर्थिक मदद दी जाती है, जिससे वे अपने कार्य में आवश्यक उपकरण खरीद सकें। भवन मरम्मत अनुदान के रूप में मकान की मरम्मत के लिए 20,000 रुपए तक की सहायता राशि प्रदान की जाती है, जिससे उनके रहने की स्थिति बेहतर हो सके।
बिहार लेबर कार्ड योजना के तहत स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। श्रमिकों को आयुष्मान भारत योजना के तहत स्वास्थ्य बीमा और चिकित्सा सहायता प्रदान की जाती है, जिससे गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए 3,000 रुपए तक की वार्षिक वित्तीय सहायता मिलती है। वृद्ध और विकलांग श्रमिकों को 1,000 रुपए प्रतिमाह पेंशन प्रदान की जाती है, जिससे वे अपने जीवनयापन की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर सकें। इसके अलावा, श्रमिक की मृत्यु के बाद उसके परिवार को परिवार पेंशन योजना के तहत वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है, और दाह संस्कार सहायता के रूप में अंतिम संस्कार के लिए भी अनुदान दिया जाता है।
यह भी पढ़ें –रामपुर गांव : ‘क्राफ्ट हैंडलूम विलेज’ में बुनकरों का अधूरा सपना और टूटती उम्मीदें
योजना का लाभ के लिए आवेदक के आवश्यक मानदंड
इस योजना का लाभ प्राप्त करने के लिए आवेदक को कुछ आवश्यक पात्रता मानदंडों को पूरा करना होगा। आवेदनकर्ता बिहार का स्थायी निवासी होना चाहिए और उसकी आयु 18 से 60 वर्ष के बीच होनी चाहिए। इसके अलावा, किसी भी परिवार में पहले से किसी सदस्य का लेबर कार्ड नहीं बना होना चाहिए। साथ ही, आवेदक को कम से कम 90 दिनों तक श्रमिक के रूप में कार्य किया होना आवश्यक है।
लेकिन बिना लेबर कार्ड के यह सब बेकार है। रजनी देवी बताती हैं कि “मेरा लेबर कार्ड नहीं है, हमारे यहां तो स्क्रीनटच फोन भी नहीं है। मुझे नहीं पता है की लेबर कार्ड कैसे बनता है और बनने के लिए क्या क्या लगता है।”
मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी भी सिर्फ कागजों पर
बिहार सरकार ने न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के तहत मजदूरों के वेतन तय किए हैं:
– अकुशल मजदूर: 410 रुपये/दिन
– अर्ध-कुशल मजदूर: 426 रुपये/दिन
– कुशल मजदूर:519 रुपये/दिन
– अत्यधिक कुशल मजदूर: 634 रुपये/दिन
– पर्यवेक्षी/लिपिकीय मजदूर:451 रुपये/दिन
लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। राहुल, जो वर्षों से ईंट भट्ठे पर काम कर रहे हैं, बताते हैं, “ हमें बहुत कम पैसा मिलता है और वहीं अगर छोटी सी गलती हो जाए तो पैसा काट लिया जाता है। 1000 ईट बनाने पर 400-500 रुपए ही मिलते हैं बस वहीं किसी भी तरह की सुविधा हमें नहीं मिलती है।”
बिहार में मजदूरों की हालत क्यों इतनी दयनीय है?
मजदूरी का सही भुगतान नहीं, सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतन मजदूरों को नहीं दिया जाता। स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, ईंट भट्ठों पर काम करने से मजदूरों को कई स्वास्थ्य समस्याएं होती हैं, लेकिन इलाज की कोई व्यवस्था नहीं है।
सरकारी योजनाओं की जानकारी नहीं, मजदूरों को यह तक नहीं पता कि उनके लिए कौन-कौन सी योजनाएं हैं और उन्हें कैसे फायदा मिलेगा।लेबर कार्ड नहीं बन पा रहे, मजदूरों के पास सही दस्तावेज नहीं होते, जिससे वे सरकारी योजनाओं से वंचित रह जाते हैं।
यह भी पढ़ें – पॉल्ट्री उद्योग : अपने ही फॉर्म पर मजदूर बनकर रह गए मुर्गी के किसान
बदलाव की जरूरत
बिहार में लाखों मजदूर ईंट भट्ठों पर काम करते हैं, लेकिन उनकी जिंदगी बदहाल है।
सरकार, लेबर कार्ड बनवाने की प्रक्रिया को आसान बनाए और मजदूरों तक इसकी जानकारी पहुंचाए। ईंट भट्ठों पर श्रम विभाग की नियमित जांच हो, ताकि मजदूरी की सही दर मिले। स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हो, जिससे मजदूरों को बीमार होने पर मुफ्त इलाज मिल सके। हालांकि सरकार के तरफ़ से भी ये साझा नहीं किया गया है की कितने लोगों के पास लेबर कार्ड है या नहीं जो ये साफ़ दर्शाता है की सरकार भी इन समस्याओं को लेकर गंभीर नहीं है।
राकेश जो पिछले कई सालों से मज़दूर वर्ग के लिए आवाज़ उठा रहे हैं। जब हमने उनसे बात की तो उन्होंने बताया कि “बिहार के ईंट भट्ठा मजदूरों की दयनीय स्थिति के पीछे कई सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक कारण जिम्मेदार हैं।
मजदूरी का सही भुगतान नहीं होना, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव होना, सरकारी योजनाओं की जानकारी का अभाव होना, लेबर कार्ड न होना, मौसम की मार और बेरोजगारी, इन सभी कारणों से शिक्षा और बच्चों का भविष्य अंधेरे में होने, श्रम विभाग की लापरवाही और भ्रष्टाचार होना, असंगठित क्षेत्र और मजदूरों की आवाज न उठना, ईंट भट्ठा मजदूर असंगठित क्षेत्र में आते हैं। वे न तो यूनियनों में संगठित होते हैं और न ही उनकी कोई मजबूत आवाज़ होती है। इसका फायदा उठाकर ईंट भट्ठा मालिक और ठेकेदार मजदूरों की हालत सुधारने की बजाय उनका शोषण करते हैं।”