‘जनहित, कल्याण और सुशासन’ के नाम पर पेश किया गया 130वां संविधान संशोधन विधेयक, 2025 वास्तव में विपक्ष के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों को अस्थिर करने और भारत के संघीय ढांचे को कमजोर करने के लिए बनाया जा रहा एक कठोर कानून है। बदले की राजनीति के दौर में, जहाँ विपक्षी नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों को तैनात किया जाता है, इस विधेयक के प्रावधानों को गुप्त उद्देश्यों के लिए दुरुपयोग करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। इस विधेयक में ‘संवैधानिक नैतिकता’ का उल्लेख करना इसकी मूल भावना के विपरीत है, क्योंकि यह इस स्थापित सिद्धांत का उल्लंघन करता है कि अयोग्यता और दंड केवल आरोपों या गिरफ्तारी से नहीं, बल्कि अदालतों द्वारा दोष सिद्धि से जुड़ा होना चाहिए। दोष सिद्धि के इस सिद्धांत का जन प्रतिनिधित्व अधिनियम (आरपीए), 1951 की धारा 8 में स्पष्ट रूप से समावेश किया गया है। आज के घातक राजनीतिक माहौल में, जहां व्यक्तियों पर आसानी से आरोप लगाए जा सकते हैं, उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है और लंबी अवधि के लिए हिरासत में रखा जा सकता है, इस कानून का निश्चित रूप से राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने और लोकतांत्रिक मानदंडों को खत्म करने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75, 164 और 239एए में मंत्रियों की नियुक्ति और हटाने की प्रक्रियाओं और पूर्वापेक्षाओं का विवरण दिया गया है और स्पष्ट रूप से ऐसी शक्ति ‘प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति’ और ‘मुख्यमंत्री की सलाह पर राज्यपाल’ को प्रदान की गई है। प्रस्तावित संशोधन इस संवैधानिक मंशा का उल्लंघन करता है। अनुच्छेद 14, 19 और 21 कानून के समक्ष समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, उचित प्रक्रिया और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुनिश्चित करते हैं। अप्रमाणित आपराधिक आरोपों पर स्वतः निष्कासन इन गारंटियों का उल्लंघन करता है। यह सबूत का भार और निर्दोष होने की धारणा को ही उलट देता है। इस विधेयक में समीक्षा का कोई खंड भी नहीं है। एक बार हटाए जाने के बाद, बरी होने या 30 दिन की अवधि के बाद जमानत मिलने पर भी मंत्री स्वतः अपने पद पर वापस नहीं आ सकते। अगर गिरफ्तारी दुर्भावनापूर्ण पाई जाती है, तो मुआवजे का भी कोई प्रावधान नहीं है। वास्तव में, यह निवारक निरोध और यूएपीए जैसे कानूनों के दुरुपयोग को ही बढ़ावा देगा।
जहाँ तक केंद्रीय एजेंसियों की बात है, आज प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) मौजूदा सत्ताधारी व्यवस्था का पसंदीदा पिट्ठू बन गया है। बहरहाल, ईडी का रिकॉर्ड बेहद खराब है और पिछले पाँच सालों में केवल 38 मामलों में ही दोषसिद्धि साबित हुई है। इसकी बेहद कम दोष सिद्धि दर इस तथ्य को भी उजागर करती है कि ज़्यादातर मामले कभी सुनवाई के चरण तक भी नहीं पहुँच पाते। 2014 से 2022 के बीच ईडी द्वारा जिन प्रमुख राजनेताओं की जांच की गई, उनमें से 95 प्रतिशत विपक्षी नेता थे। पीएमएलए के तहत ज़मानत मिलना दुर्लभ है, खासकर उन दो जुड़वां शर्तों के कारण सरकारी वकील को ज़मानत अर्जी का विरोध करने का मौका मिलना और अदालत का यह संतुष्ट होना कि व्यक्ति दोषी नहीं है और ज़मानत पर रहते हुए उसके द्वारा कोई अपराध करने की संभावना नहीं है, जो धारा 45 के तहत पूरी होनी चाहिए। अगर यह विधेयक कानून बन गया, तो ऐसी ज्यादतियाँ और भी बढ़ जाएँगी!
इस विधेयक पर चार गंभीर आपत्तियाँ उठाई जानी चाहिएं। पहली, यह निर्दोष होने की धारणा का उल्लंघन करता है। यह मंत्रियों को केवल गिरफ्तारी पर ही दंडित करता है, दोषसिद्धि पर नहीं। इस प्रकार, ‘दोष सिद्ध होने तक निर्दोष होने’ की संवैधानिक गारंटी को नष्ट करता है और प्रतिशोध के लिए कार्यपालिका के हाथ का एक हथियार बन जाता है। दूसरी, यह शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन करता है। स्वचालित निष्कासन संसदीय और न्यायिक निगरानी को दरकिनार कर देता है, कार्यपालिका के हाथ में अनियंत्रित शक्ति को केंद्रित करता है और बुनियादी संवैधानिक जाँच और संतुलन का उल्लंघन करता है। तीसरी, मंत्री पद से निष्कासन के लिए उचित प्रक्रिया से इंकार किया जा रहा है। मुकदमे, आरोप-निर्धारण या न्यायिक निष्कर्ष के बिना कोई भी निष्कासन उचित प्रक्रिया का उल्लंघन है, जैसा कि रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ के मामले में स्थापित किया गया था। चौथी, यह राजनीतिक दुरुपयोग के लिए एक मंच तैयार करता है। विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने वाली केंद्रीय एजेंसियों की वर्तमान सुस्थापित प्रवृत्ति के तहत, यह विधेयक स्वच्छ शासन को बढ़ावा देने के बजाय बदले की भावना को संवैधानिक रूप देने का जोखिम उठाता है।
यह विधेयक भारत के संवैधानिक ढाँचे पर एक अभूतपूर्व हमला है। यह विपक्ष और हमारे लोकतंत्र को दबाने के मोदी सरकार के तानाशाही प्रयास का प्रकटीकरण है, जो उसके नव-फासीवादी चरित्र को दर्शाता है। किसी प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री को मुकदमे से पहले हिरासत में लिए जाने और केवल गिरफ्तारी पर स्वतः पदच्युत करके, यह विधेयक निर्दोष होने और उचित प्रक्रिया की अवधारणा को नष्ट कर देता है, जो कानून और न्याय की एक सार्थक प्रणाली के आधार हैं। यह केंद्रीय एजेंसियों को मनमानी शक्ति प्रदान करता है, जिससे विपक्षी नेताओं के खिलाफ प्रतिशोध के द्वार खुल जाते हैं। अभियोजन को हथियार बनाने का चलन पहले से ही चल रहा है और इसे संवैधानिक रूप से पवित्र नहीं बनाया जा सकता। (अनुवाद : संजय पराते)) (इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार)