यह लेख एक वीडियो-पाठ के आधार पर तैयार किया गया जिसमें अशोक चित्रांशिया और अशोक वानखेड़े (द न्यूज़ लॉन्चर) ने विस्तार से बताया है कि किस तरह CJI बी.आर. गवई पर ट्रोलिंग और महाभियोग जैसी माँगें सोशल मीडिया पर चल रही हैं। इसमें सबसे ज्यादा आपत्तिजनक हिस्सा वह है जहाँ मनुवादी ट्रोल्स ने गवई को ‘भीमटा’ कहकर संबोधित किया है। ‘भीमटा’ शब्द केवल गवई का नहीं बल्कि सीधे तौर पर डॉ. भीमराव आंबेडकर और पूरे आंबेडकरवादी आंदोलन का अपमान है। यह केवल एक गाली नहीं है। यह उस आंबेडकरवादी विचारधारा पर हमला है जिसने मनुवाद की नींव हिलाई थी। यह संविधान और लोकतंत्र को नीचा दिखाने की कोशिश है।
अशोक चित्रांशिया और अशोक वानखेड़े के अनुसार, क्या कोई भक्त चीफ जस्टिस बीआर गवई को सुप्रीम कोर्ट से निकाल देगा? क्या भक्तों की ज़िद सरकार गवई पर महाभियोग चलाकर ही रुकेगी? क्या मोदी सरकार संसद में गवई के खिलाफ कोई बड़ा प्रस्ताव लाएगी? ये तीन सवाल बेहद अहम हैं। ये इसलिए अहम हैं क्योंकि इस देश में भस्मासुरों की संख्या बहुत बढ़ गई है।
एक भस्मासुर था जिसने पूरी दुनिया को खतरे में डाल दिया था। भगवान को भागना पड़ा था और जब भस्मासुर सड़कों पर घूम रहे हों, तो आप कल्पना कर सकते हैं कि इस लोकतांत्रिक व्यवस्था को नष्ट होने में कितना समय लगेगा। जिस व्यवस्था से ये भस्मासुर पैदा होते हैं, वह व्यवस्था ही सुरक्षित नहीं है। हमने सोशल मीडिया पर इन्हीं भक्तों को मोदी के पीछे पड़ते देखा है। इन्हीं भक्तों ने मोहन भागवत को नहीं कोसा। उन्होंने सोशल मीडिया पर उनका अपमान किया। इन्हीं भस्मासुरों ने नितिन गडकरी को सोशल मीडिया पर गालियाँ दीं। ये सभी एक ही इकोसिस्टम से थे।
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अब निशाने पर सुप्रीम कोर्ट है। यह समझना ज़रूरी है कि सुप्रीम कोर्ट इसके लिए कितना ज़िम्मेदार है। यह एकतरफ़ा प्यार नहीं है। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट भी ज़िम्मेदार है। आइए, हर पन्ना खोलें। मामला खजुराहो स्थित एक मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति से जुड़ी याचिका का है। इस पर सुप्रीम कोर्ट से मुख्य न्यायाधीश गवई का एक बयान आया था। खजुराहो में एक जवारी मंदिर है। इसमें भगवान विष्णु की मूर्ति उकेरी गई है। मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और ऑगस्टीन जी. मैसी ने इसे सुनने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह मामला अदालत के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। इस बीच, CJI गवई ने कहा, ‘अब आपको भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए। आप कहते हैं कि आप भगवान विष्णु के प्रबल भक्त हैं। तो अब आपको उनसे प्रार्थना करनी चाहिए।’
X पर हैशटैग है ‘Impeach the CJI’। CJI के ख़िलाफ़ महाभियोग चलाने का अभियान शुरू हो गया है। हम अपनी संस्कृति को नष्ट नहीं होने देंगे।’ ‘गँवार गवई’ को सिखाना ज़रूरी है। तुम सिस्टम के गुलाम हो, हम नहीं।’
ट्रोल्स ने गवई को अपमानित करने के लिए ‘भीमटा’ कहा। गवई दलित समाज से आते हैं और अपनी मेहनत व योग्यता से सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्च कुर्सी तक पहुँचे हैं। ऐसे में उनका अपमान करना केवल एक जज की हैसियत को ठेस पहुँचाना नहीं, बल्कि उस सामाजिक न्याय की परंपरा का मज़ाक उड़ाना है, जिसे डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान में प्रतिष्ठित किया।
‘भीमटा’ क्यों सिर्फ़ गाली नहीं है
डॉ. आंबेडकर को ‘भीम’ कहकर उनका सम्मान किया जाता है। उनकी स्मृति में ‘भीम सेना’, ‘भीम गीत’, ‘जय भीम’ जैसे नारों का इस्तेमाल होता है। ऐसे में जब कोई मनुवादी ट्रोल ‘भीमटा’ लिखता है, तो वह केवल गवई को नहीं बल्कि सीधे आंबेडकर को नीचा दिखाने की कोशिश करता है। यह मानसिकता वही है, जिसने सदियों से दलितों को सामाजिक न्याय से वंचित रखा।
गवई को अपमानित करते हुए ट्रोल्स दरअसल इस संदेश को दे रहे हैं कि दलित अगर न्यायपालिका, सत्ता या किसी उच्च पद पर पहुँचते हैं तो उन्हें अपमान सहना ही होगा। यह मनुवादी मानसिकता है-जहाँ दलित को ‘नीचे’ रखने का जुनून हर रूप में प्रकट होता है।
सवाल सुप्रीम कोर्ट से भी
यहाँ एक सवाल सुप्रीम कोर्ट से भी उठता है। जब ट्रोल्स खुलेआम मुख्य न्यायाधीश को ‘भीमटा’ कह रहे हैं, तो क्या यह सिर्फ़ व्यक्तिगत अपमान है? नहीं। यह न्यायपालिका की गरिमा और भारतीय संविधान के उस मूल ढाँचे पर भी आघात है। क्या सुप्रीम कोर्ट इस अपमान पर चुप रहेगा? अगर दलित जजों को खुलेआम गालियाँ दी जाएँ और अदालत कुछ न कहे, तो यह न्यायपालिका की निष्पक्षता और उसकी सामाजिक ज़िम्मेदारी दोनों पर प्रश्नचिह्न है। यदि सर्वोच्च न्यायालय इस पर मौन रहता है, तो यह संदेश जाएगा कि दलित जजों का अपमान कोई बड़ा अपराध नहीं है। न्यायपालिका को यह स्पष्ट करना होगा कि वह जातिवादी गालियों और मनुवादी मानसिकता के खिलाफ खड़ी है। यदि ऐसा नहीं किया गया, तो आम नागरिकों का न्यायपालिका पर से विश्वास डगमगाने लगेगा।
भारतीय समाज में ‘भीम’ नाम आंबेडकर के लिए श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक है। ‘जय भीम’ आज भी दलित चेतना का नारा है। लेकिन जब मनुवादी ट्रोल्स इसे ‘भीमटा’ में बदलते हैं, तो वे केवल शब्दों से खिलवाड़ नहीं कर रहे, बल्कि आंबेडकरवाद को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। यह अपमान केवल गवई का नहीं है। यह उस ऐतिहासिक संघर्ष का अपमान है जिसने दलितों, पिछड़ों और वंचितों को समान अधिकार दिलाया। यह उस संविधान का अपमान है जो जाति व्यवस्था के अन्याय को समाप्त करने के लिए रचा गया। और यह उस सामाजिक न्याय की परंपरा का अपमान है, जिसे आंबेडकर ने अपने जीवन भर जिया और जिसके लिए संघर्ष किया।
सामाजिक संदर्भ और दलित अस्मिता
भारतीय समाज में दलितों ने अपने संघर्ष और आंबेडकर की विचारधारा के बल पर शिक्षा, राजनीति, साहित्य और न्यायपालिका जैसे क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। लेकिन जब-जब उन्होंने वर्चस्ववादी ढाँचों को चुनौती दी है, उन्हें “भीमटा” जैसी गालियों का सामना करना पड़ा है। इसलिए यह घटना केवल सोशल मीडिया ट्रोलिंग भर नहीं है। यह भारतीय समाज में दलित अस्मिता की स्वीकृति को लेकर जारी संघर्ष का हिस्सा है। यह दिखाता है कि जाति का सवाल आज भी उतना ही ज्वलंत है जितना आंबेडकर के ज़माने में था।
‘भीमटा’ कहना महज़ एक ट्रोलिंग की घटना नहीं है। यह भारत के दलित समाज और उनकी ऐतिहासिक उपलब्धियों का अपमान है। यह डॉ. आंबेडकर के उस संघर्ष का अपमान है जिसने हमें बराबरी का संविधान दिया। और यही कारण है कि इस पर केवल सोशल मीडिया की प्रतिक्रिया काफी नहीं है- इस पर संस्थागत और सामाजिक स्तर पर जवाबी हस्तक्षेप होना चाहिए।
गवई को ‘भीमटा’ कहना मनुवादियों का असली चेहरा है। यह दिखाता है कि दलित नेतृत्व को आज भी उनके लिए हज़म करना मुश्किल है। लेकिन यह भी सच है कि आंबेडकर की मशाल बुझाई नहीं जा सकती। आज ज़रूरत है कि हर दलित-बहुजन, हर आंबेडकरवादी यह कहे- –गवई का अपमान हमारा अपमान है। यह लड़ाई अदालत में भी लड़ी जाएगी और सड़क पर भी। मनुवादियों को यह समझना होगा कि भीम को गाली देने से भीम की ताक़त कम नहीं होती। भीम हर गाली में और मज़बूत होकर लौटता है। दलित-बहुजन समाज को समझना होगा कि ‘भीमटा’ जैसी गालियाँ केवल ट्रोलिंग नहीं हैं। यह हमें डराने की, हतोत्साहित करने की और हमारी अस्मिता कुचलने की साज़िशें हैं।
इसलिए जवाब भी उतना ही तेज़ होना चाहिए। गालियों का जवाब चुप्पी से नहीं, संगठित आंदोलन से दिया जाएगा।