अभी परसों यानी 3 दिसंबर 2025 को फोन पर उनसे बात हुई थी। मैं SIR के काम में व्यस्त था। फिर भी कुछ देर तक बात हुई और वह अपनी तबीयत खराब होने की सूचना दे रहे थे। मुझे लगा कि तबीयत थोड़ी-बहुत खराब होगी इसलिए मैंने कहा ठंड लग गई होगी। बच-बचा के रहिए। आपकी उम्र अधिक हो गई है। ज्यादा बाहर न निकलिए।
कल दोपहर में 1:00 बजे मेरे व्हाट्सएप पर मनोज ठाकुर का मैसेज आया था जिसमें उनके न होने की दुखद खबर थी। लेकिन SIR और सरकारी कामकाज की व्यस्तता के कारण मैं वह मैसेज नहीं पढ़ पाया था। आज सुबह देखा तो स्तब्ध रह गया। ऐसे भी भला कोई जाता है। अभी उनको बहुत काम करना था। उनकी योजनाओं का अंत नहीं था। हर दूसरे-तीसरे दिन वह मुझे अपने कार्य की प्रगति के बारे में जानकारी देते थे। आगे की योजनाओं पर लगातार चर्चा करते थे। वह पिछले 6 महीने से लगातार बनारस आने का प्रयास कर रहे थे लेकिन मैं अपनी छुट्टी और मकान बनवाने की व्यस्तता के कारण इसे आगे के लिए टालता गया। एक दिन उन्होंने ही कहा कि मैं अब जनवरी में आऊंगा।
बनारस के लिए उनकी अनेक योजनाएं थीं। एक योजना यह थी कि वह प्रोफेसर अवधेश प्रधान से मिलना चाहते थे। बनारस जब भी आते थे तब प्रधान जी से मिलने का प्रयास करते थे लेकिन संयोग नहीं बन पाता था। वह बताते थे कि प्रोफ़ेसर अवधेश प्रधान के पास रघुवंश नारायण जी से संबंधित अनेक संस्मरण हैं और उनसे एक संस्मरण लेख लिखवाना चाहते थे। रघुवंश नारायण पर उनके द्वारा संपादित एक पुस्तक प्रकाशित भी हो चुकी है।
इस समय वह मेरे सह संपादन में नई बहार (भोजपुरी से हिंदी अनुवाद एवं समीक्षा पर) पुस्तक संपादित कर रहे थे और अनेक लेखकों के लेख भी इकट्ठा कर चुके थे। इस योजना को लेकर भी वह बनारस आना चाहते थे। उनकी एक पुस्तक और प्रकाशन के लिए तैयार थी ‘आधुनिक नाटककार भिखारी ठाकुर’। मैं अब समझ नहीं पा रहा हूं जो वह अनेक महान कार्य एवं विजन लेकर जी रहे थे और इन सब कार्यों को करने की उनके पास अपार क्षमता थी। अपार साहस था। बहुत ऊर्जा थी और इस कार्य का हो जाना भी बहुत जरूरी था। यह अब कैसे पूरा होगा?
पिछले 7 वर्ष से मैं लगातार उनसे जुड़ा रहा। वह जब भी बनारस आते थे मेरे यहाँ चार-पांच दिन तक ठहरते थे। मैं उनके साथ पूरा बनारस घूमता था। नये और पुराने साहित्यकार विद्वानों से मुलाकात करता था। 84 वर्ष की उम्र में भी वह एक युवा के बराबर सक्रिय थे। उनके द्वारा मुझे कई पत्र और किताबें डाक से भी प्राप्त होती रहीं। आपके पास किसी भी किताब की दो प्रति आती थी तो एक मुझे भेज देते थे।
उनके पास भिखारी ठाकुर से संबंधित अनेक संस्मरण था जो दुनिया में किसी के पास नहीं है। मुझे वह फोन पर घंटे भर लगातार सुनाते थे। कई स्मृतियों में वह बहुत भावुक भी हो जाते थे। भिखारी ठाकुर आश्रम की स्थापना एवं भिखारी ठाकुर रचनावली के प्रकाशन के लिए उन्होंने बहुत संघर्ष किया और बहुत कष्ट चले थे। बस उनका सपना था कि यह कार्य किसी तरह पूरा हो जाए। और उन्होंने इसे पूरा करके दिखाया। इधर भी उन्होंने कुतुबपुर जाना छोड़ दिया था। कारण यह था कि कुतुबपुर में उनके कार्यों की उपेक्षा होने लगी थी और उन पर आरोप लगाए जाते थे कि भिखारी ठाकुर के लिए प्राप्त संपत्ति का वह दुरुपयोग करते हैं।
यह आरोप सरासर गलत है। वह यह बताते हुए भावुक हो जाते थे कि भिखारी ठाकुर आश्रम की स्थापना के लिए वह लोगों के पास कैसे दर-दर भटकते थे? कैसे लोगों से चंदा मांगते थे और सारा पैसा लगा देते थे? यहां तक कि पुस्तक प्रकाशन में भी उन्होंने अपना सारा पैसा लगा दिया था। इन्हीं कारणों से वह कुतुबपुर के लोगों से बहुत चिढ़ गए थे और भिखारी ठाकुर के पैतृक जगह से दूरी बना ली लेकिन भिखारी ठाकुर को अपने हृदय में हमेशा रखते थे। उन्हें अपना गुरु और पिता मानते थे। 24 घंटे वह उनकी स्मृतियों में जीते थे।
नवंबर 2023 में मैं कुतुबपुर गया था और वहां से उनके घर सेमरिया बड़हरा भोजपुर भी गया था। तब उन्होंने मुझे अपना पूरा गट्ठर खोल कर दिखाया था। उसमें भिखारी ठाकुर और अनेक साहित्यकारों से संबंधित संस्मरण छोटे-छोटे कागजों, डायरी एवं पन्नों में मौजूद थे। इन्हें वह ‘भविष्य को जतन से रखे थे’। कहते थे कि मैं साहित्य में संन्यास लेने से पूर्व यह सब आपको सौप दूंगा। पर क्या पता था कि ऐसे बिना मुलाक़ात के चले जाएंगे!
वह कई दिनों से कानपुर जाने की भी योजना बना रहे थे। इसके बारे में बता रहे थे कि मैं एक बार बहुत पहले गया था। कुछ स्मृतियां वहां शेष रह गई थीं। कुछ लोगों से उनको मुलाकात करना था और कुछ तस्वीरें प्राप्त करनी थी। इसके बारे में वह कोई पुस्तक लिख रहे थे। अब उनके इन सब कार्यों के पन्ने बंद हो चुके हैं।
मैंने पहली बार जब उनकी पुस्तक कुतुबपुर से कुतुबपुर पढ़ी थी। तभी समझ गया था कि वह स्मृतियों और ज्ञान की अथाह सागर हैं। लेकिन यह दुर्भाग्य रहा कि हिंदी एवं अकादमिक जगत के बड़े लोगों ने उनको उस गंभीरता से नहीं लिया और न ही साहित्य में वह स्थान दिया जो उनका होना चाहिए था।

अभी हाल ही में आई उनकी पुस्तक भिखारी ठाकुर स्मृतियों के फलक पर खूब चर्चा में रही और इस पुस्तक में अपनी स्मृतियों का पूरा सारांश पिरो कर रख दिया है। यह पुस्तक मैंने खुद प्रोफ़ेसर सदानंद साही और संतोष पटेल के अतिरिक्त भोजपुरी अध्ययन केंद्र हिंदी विभाग बीएचयू बीएचयू में दी थी।
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के लिए ‘भिखारी ठाकुर रचनावली’ का संपूर्ण मैटर राही जी ने ही प्रदान किया था जो अब हर अकादमी में मौजूद है। इसमें संपादक डॉक्टर नागेंद्र यादव और वीरेंद्र नारायण यह खुद स्वीकार करते हैं। उस समय किसी जल्दबाजी में उनके द्वारा लिखी गई भूमिका उसमें प्रकाशित नहीं हो पाई थी। लेकिन भिखारी ठाकुर ग्रंथावली भाग 1 भाग 2 उनके ही संपादन में आई थी। इस काम ने भिखारी ठाकुर के कृतित्व को पुस्तक के रूप में अमर बना दिया था।
राही जी बताते थे कि कथाकार संजीव जब सूत्रधार लिख रहे थे तब उनके घर लगातार आया करते थे। उन्होंने उन्हें भिखारी ठाकुर संबंधित अनेक संस्मरण सुनाए थे जिसे संजीव जी नोट करते जाते थे। इसका साक्ष्य उनके लोकप्रिय उपन्यास ‘सूत्रधार‘ में मौजूद हैं । सूत्रधार में संजीव जी ने भी यह स्वीकार किया था कि यह पुस्तक रामदास राही के द्वारा प्रदान किए गए अनेक संस्मरणों से ही पूरी हो सकी है। इसका जिक्र राही जी भी अपनी पुस्तक स्मृतियों के फलक पर में कर चुके हैं। पुस्तक की एक समीक्षा मैंने लिखी थी जो जनसंदेश में प्रकाशित हुई थी।
राहीजी जब भी बनारस आते थे तब रामजी यादव सर प्रकाश उदय से जरूर मुलाकात करते थे। गाँव के लोग कार्यालय में आपका साक्षात्कार भी हुआ था। मेरे द्वारा लिया गया एक साक्षात्कार गाँव के लोग वेबसाइट पर मौजूद है। आज मुझे बहुत पछतावा हो रहा है कि मैं उनसे आखिरी मुलाकात क्यों नहीं कर पाया।
अक्टूबर में वह आ गए होते लेकिन मैं ही झुक गया। मुझे चिंता हो रही है कि आपका बचा हुआ काम कैसे पूरा होगा? राही जी बहुजन समाज के एक उद्भट विद्वान, खोजी और संपादक थे। महान लोकनाटककार भिखारी ठाकुर की कीर्ति के साथ उनकी कीर्ति भी अमर रहेगी। उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!




