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दिल्ली में ओबीसी, एससी, एसटी और अल्पसंख्यकों के एक कार्यक्रम में (डायरी 19 दिसंबर, 2021) 

दिल्ली पटना जैसा शहर नहीं है। पटना की बात अलग थी। एक तो यह कि पटना बहुत छोटा शहर है दिल्ली के मुकाबले और जिस तरह के स्वभाव का मैं हूं, उस तरह के लोग भी सीमित संख्या में हैं। तो होता यह है कि पटना में लगभग सभी लोगों से मेरा व्यक्तिगत परिचय है […]

दिल्ली पटना जैसा शहर नहीं है। पटना की बात अलग थी। एक तो यह कि पटना बहुत छोटा शहर है दिल्ली के मुकाबले और जिस तरह के स्वभाव का मैं हूं, उस तरह के लोग भी सीमित संख्या में हैं। तो होता यह है कि पटना में लगभग सभी लोगों से मेरा व्यक्तिगत परिचय है और अनेक लोगों से खास संबंध भी है। लिहाजा पटना में रहने पर होता यह था कि कार्यक्रमों में जाने पर अच्छी बहस हो जाया करती थी। हालांकि तब बहस का दायरा बहुत अधिक विस्तृत नहीं होता था। बहुत हुआ तो बिहार में हिंदी साहित्यकारों के संबंध में तो कभी राजनीति की बातें। बिहार के बाहर एक देश भी है, यह हमारी चर्चा से लगभ्ग गायब ही रहता था। इसकी वजह शायद यह कि हमारी सोच पर स्थानीय परिस्थितियों का भी असर होता ही है।

लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं है। हालांकि यह बहुत बड़ा है और ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो मेरे स्वभाव के हैं या मेरी तरह की विचारधारा के हैं। लेकिन यहां काम भी बहुत है। किसी कार्यक्रम में जाने के लिए समय निकालना अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। और अक्सर होता यही है कि इच्छा रहते हुए भी जाना संभव नहीं हो पाता है। लेकिन जब कभी मौका मिलता है तो यह एक तोहफे के समान ही होता है।

[bs-quote quote=”उनका कहना था कि भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधन संविधान के 16वें अनुच्छेद में किया गया है और वहां भी जाति का उल्लेख नहीं है। उन्होंने कहा कि ओबीसी कोई जाति नहीं है बल्कि इसमें अनेक जातियां शामिल हैं। इसका संवैधानिक अर्थ है वह वर्ग जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा हो। फिर इसी के आधार पर इसमें जातियों को शामिल और हटाया जाता है। जाति कोई आधार नहीं होता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कल भी एक मौका मिला। साल के अंत में एक कार्यक्रम में गया। कार्यक्रम का आयोजन बेहद खास थ। दिल्ली के झंडेवालान इलाके के आंबेडकर मैदान में आयोजित कार्यक्रम के केंद्र में ओबीसी, एससी, एसटी और अल्पसंख्यक थे। आयोजन पैगाम सहित दर्जन भर संगठनों के द्वारा किया गया था। जाहिर तौर पर यह बेहद खास था। इसके विषय वही विषय थे, जिनके बारे में मैं लिखता-पढ़ता रहता हूं। वक्तओं की सूची भी मुझे बेहद दिलचस्प लगी। मुख्य अतिथि के रूप में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन थे और मुख्य वक्ता थे राष्ट्रीय विधि अकादमी के पूर्व निदेशक प्रो. मोहन गोपाल।

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अब मुझ जैसे रिंद को और चाहिए क्या था, इसलिए चला गया कार्यक्रम में। आंबेडकर मैदान जिस जगह पर है, वह बहुत खास है। यह नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर है और झंडेवालान मेट्रो स्टेशन (जहां आरएसएस का राष्ट्रीय कार्यालय है), से करीब पांच सौ मीटर दूर। इसलिए पहुंचना आसान रहा यहां। मैदान के अंदर मेले के जैसा नजारा था। दिल्ली में ठंड का असर है तो लोग पूरी तरह से तैयार होकर इस दो दिवसीय आयोजन में भाग लेने आए थे। मुख्य सभा स्थल को इस तरह से बनाया गया था ताकि लोगों को ठंडी हवाओं से बचाया जा सके। हालांकि हवाएं तो हवाएं हैं। उन्हें रोकना मुश्किल है। फिर भी इंतजाम बहुत अच्छा था। आगे की कुर्सियों पर लोग थे और पीछे की कुर्सियां खाली। बाहर मैदान में जहां खाने का इंतजाम था, वहां लोग अधिक दिखे। जो खा चुके थे, वह भी धूप का आनंद लेते नजर आए।

लेकिन ऐसा तो हर आयोजन में होता है। जो गंभीर श्रोता होते हैं, उनकी संख्या कम ही होती है। ऐसे भी यह आयोजन जिन वर्गों के लिए किया गया था, उनके अंदर अभी संगठन का अनुशासन नहीं है। जब मैं पहुंचा था तब प्रो. मोहन गोपाल माइक संभाल चुके थे। उनके पहले आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वी. ईश्वरैय्या अपनी बात कह चुके थे। इसलिए उन्होंने क्या कहा, सुन नहीं सका। प्रो. मोहन को सुनने का यह पहला मौका था। हालांकि उनके विचारों को देखता-पढ़ता रहा हूं। वे केरल से आते हैं और उनकी हिंदी बहुत अच्छी नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद प्रो. मोहन ने अपना संबोधन हिंदी में किया। करीब 15 मिनट के अपने संबोधन में प्रो. मोहन ने जातिगत जनगणना और आरक्षण को केंद्र में रखा। उन्होंने ईब्ल्यूएस को असंवैधानिक कहा। उनका कहना था कि भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधन संविधान के 16वें अनुच्छेद में किया गया है और वहां भी जाति का उल्लेख नहीं है। उन्होंने कहा कि ओबीसी कोई जाति नहीं है बल्कि इसमें अनेक जातियां शामिल हैं। इसका संवैधानिक अर्थ है वह वर्ग जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा हो। फिर इसी के आधार पर इसमें जातियों को शामिल और हटाया जाता है। जाति कोई आधार नहीं होता है। लेकिन भारत सरकार ने ईडब्ल्यूएस जिसका मतलब आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग है, में ऊंची जातियों को शामिल किया है। ऐसा उसने संविधान के किस प्रावधान के तहत किया है। होना तो यह चाहिए कि आर्थिक रूप से पिछड़े लोग चाहे वह किसी भी जाति के हों, उन्हें  ईडब्ल्यूएस में शामिल किया जाना चाहिए। इस संबंध में प्रो. मोहन ने बताया कि उन्होंने इस आधार पर ईडब्ल्यूएस को केरल हाई कोर्ट में चुनौती दे रखी है। उन्होंने कहा कि यह समय आरक्षण को संरक्षित करने का समय है। जातिगत जनगणना भी इसलिए जरूरी है ताकि हमारा आरक्षण बचा रहे। और ये दोनों काम देश को बचाने के लिए जरूरी है। उन्होंने ओलीगार्की शब्द का उल्लेख करते हुए कहा कि कोई भी देश जहां का शासन-प्रशासन-संसाधन केवल कुछ लोगों के हाथ में होगा तो वह देश नहीं बचेगा।

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प्रो. मोहन बेहतरीन वक्ता हैं और उन्होंने मौलिक तरीके से अपनी बातों को रखा। हालांकि जब वह बोल रहे थे तो मुझे दुख भी हो रहा था। दुख की वजह यह कि कुछ लोग गप्प कर रहे थे। जबकि मैं आगे की कुर्सी पर बैठा था और मेरे साथ के लोग अच्छी पोशाक वाले थे। कुछ लोगों को जिन्हें मैं जानता था, वे सरकारी नौकरियों में हैं। दरअसल यह आयोजन सरकारी नौकरी-पेशा वाले लोगों के संगठन ने किया था। इसलिए उनकी संख्या अधिक थी।

खैर, मेरा काम सुनना था। मैं सुनता रहा। प्रो. मोहन के बाद आयोजक संगठन पैगाम के संस्थापक सरदार तेजेंद्र सिंह झल्ली की बारी आयी। उनका संबोधन औपचारिक संबाेधन था। वे संगठन के विस्तार पर जोर दे रहे थे और सभी मौजूद लोगों को अपना कैडर मान रहे थे। मैं उनके संबोधन पर कोई खास टिप्पणी नहीं कर सकता सिवाय इसके कि उन्होंने ब्राह्मणवाद पर जमकर निशाना साधा और संविधान के महत्व को उल्लेखित किया।

बहरहाल, बाद में वहां कई साथी मिले। उनसे लंबी बातें हुईं। लेकिन आदिवासियों और अल्पसंख्यक विमर्श से गायब रहे। आदिवासी के संदर्भ में मुझे केवल यही दिखा कि छत्तीसगढ़ से आये युवा कलाकारों ने हमारा मनोरंजन किया।

लेकिन मैं तो मनोरंजन के उद्देश्य से गया नहीं था। लिहाजा मुझे निराशा हुई। इससे बेहतर होता कि आदिवासी और अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को अपने सवालों को रखने का अवसर दिया गया होता।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं। 

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