बचपन एक लिहाज से अच्छा था। शिक्षकगण पढ़ाने से अधिक रटवाते थे। मन भी तब पढ़ता कहां था। रटने में ही दिन निकल जाता था। अच्छा तब यह सोचने का शऊर भी नहीं था कि कोई बात रटवायी क्यों जा रही है। क्लासरूम में शिक्षक पाठ दे देते और कहते कि इसको याद कर लेना है। सबसे अधिक मुश्किल संस्कृत में होती थी। अंग्रेजी उसके मुकाबले ठीक थी। एक वजह यह कि अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल बोलचाल में कर लिया करता था। लेकिन संस्कृत के शब्दों का इस्तेमाल किससे करता और क्यों करता। तो एक बड़ी वजह यही थी संस्कृत को दूर से नमस्ते करने की।
बचपन में मुहावरे अच्छे लगते थे। जैसे– अधजल गगरी छलकत जाय। इस एक मुहावरे को मैंने एक प्रयोग के माध्यम से समझा था। उन दिनों भैंसों को चराने की जिम्मेदारी होती थी और जिस दिन जिम्मेदारी भैया की होती उस दिन मुझे भैंसों के लिए डिनर का इंतजाम करना होता था। डिनर मतलब सानी-पानी देना। इसके लिए पहले चापाकल से प्रति भैंस करीब तीन बाल्टी पानी भरना होता था। तो एक बार मैंने यह किया कि एक बाल्टी को पूरा नहीं भरा। नतीजा यह हुआ कि चापाकल से नांद तक लाने के दौरान पानी खूब छलका।
दरअसल, इस कहावत की याद एक खास कारण से हो रही है। वजह है सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण। उन्होंने कल एक कार्यक्रम में कुछ बातें कही। एक बात तो उन्होंने यह कही कि न्यायाधीश न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं करते और जो ऐसा कहते फिरते हैं, वे गलत कहते हैं। दरअसल, मुख्य न्यायाधीश महोदय कॉलेजियम सिस्टम पर उठ रहे सवालों से आहत हैं। उनका यह कहना कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की एक प्रक्रिया है, एक तरह का स्पष्टीकरण देना है कि इसमें केंद्र सरकार का कानून मंत्रालय, राज्य सरकार और उच्च न्यायालयों का कॉलेजियम भी शामिल होता है। इसमें आईबी के लोग भी शामिल होते हैं।
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मूल बात यह है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति को पारदर्शी बनाया जाय। यदि मैं अपने मन की बात कहूं तो इसमें संसद को भी शामिल किया जाना चाहिए। संसद की समिति हो, जिसमें सभी दलों के सदस्य हों। इसमें आरक्षण भी हो। यदि ऐसा होता है तो मुमकिन है कि न्यायाधीशों पर उठने वाले सवाल न उठें। हालांकि कुछ गुंजाइश तो तब भी बनी रहेगी। लेकिन तब इसमें अपारदर्शिता एकदम न्यून होगी।
दूसरी बात जो मुख्य न्यायाधीश महोदय ने कही है, एकदम खरी बात कही है। उनका कहना है कि कानून बनाते समय विधायिका खूब विचार करे। उन्होंने बिहार में शराबबंदी कानून का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां किस तरह से एक कानून बना दिया गया और हालात है कि वे अमल में नहीं लाए जा रहे हैं। परिणाम यह हो रहा है कि वहां की अदालतों में शराबबंदी कानून से जुड़े मामलों की बाढ़ आ गई है। उन्होंने यह भी कहा है कि ऐसे कानूनों को बनाते समय खूब विचार-विमर्श किया जाना चाहिए।
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अब यदि मुख्य न्यायाधीश महोदय की बात का विश्लेषण किया जाय तो सीधा मतलब यह कि नीतीश कुमार ने हिटलरशाही रवैया अपनाते हुए शराबबंदी कानून बनाया। यूं कहिए कि उनके दिमाग का फितूर है यह कानून। दिलचस्प यह कि अपने पहले और दूसरे कार्यकाल के दौरान नीतीश कुमार ने ही गांव-गांव में शराब की दुकानें खोलवा दी थीं। लोगों को शराब पीने का आदी बना दिया था। और फिर तीसरे कार्यकाल के प्रारंभ में यानी अप्रैल, 2015 में शराबबंदी कानून थोप दिया। जब वे शराब की दुकानें खोलवा रहे थे तब उन्होंने किसी से रायशुमारी नहीं की और ना ही तब जब वे कानून बना रहे थे।
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परिणाम यह हुआ है कि बिहार के जेलों में शराबबंदी कानून तोड़नेवालों की संख्या बढ़ती जा रही है। इनमें बड़ी संख्या युवाओं की है। वजह यह कि शराबबंदी केवल दिखावे के लिए रह गयी है। लोग चोरी-छिपे शराब बनाते-बेचते हैं। कहीं कोई नियंत्रण नहीं है। लोग जहरीली शराब पीकर मर जाते हैं। जब हल्ला-हंगामा होता है तब नीतीश कुमार का अंतर्मन जागता है। अभी तो वे सरकारी खजाने का दुरुपयोग कर समाज सुधार यात्रा कर रहे हैं। जबकि सच वह भी जानते हैं कि उनका समाज सुधार क्या है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के शब्दों के बाद कहूं तो– अधजल गगरी छलकत जाय।
काश कि नीतीश कुमार ने शेख इब्राहिम ज़ौक़ का यह शे’र पढ़ा होता–
ज़ाहिद शराब पीने से काफ़िर हुआ मैं क्यूँ
क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया?
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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