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बात केवल आंख के पानी की है (7 जुलाई, 2021 की डायरी)

वे सूचनाएं हमेशा जिंदा रहती हैं, जिनका सरोकार जनता से होता है। बहुत कम ही ऐसा होता है कि ऐसी आवश्यक सूचनाएं असमय दम तोड़ दें। हालांकि सूचनाएं भी सजीव की तरह व्यवहार करती हैं। उनका विकास होता रहता है। कई बार हमें ऐसा लगता है कि कुछ सूचनाओं की अहमियत समाप्त हो गई है, […]

वे सूचनाएं हमेशा जिंदा रहती हैं, जिनका सरोकार जनता से होता है। बहुत कम ही ऐसा होता है कि ऐसी आवश्यक सूचनाएं असमय दम तोड़ दें। हालांकि सूचनाएं भी सजीव की तरह व्यवहार करती हैं। उनका विकास होता रहता है। कई बार हमें ऐसा लगता है कि कुछ सूचनाओं की अहमियत समाप्त हो गई है, लेकिन ऐसा केवल हमारा भ्रम ही होता है।

मुझे अपने बचपन की एक सूचना याद आ रही है। तब मैं इतना छोटा था कि मेरे पापा मुझे अपनी गोद लेकर गांव के पंचायत में गए थे। मामला गांव के ही दो भाइयों के बीच संपत्ति के बंटवारे का था। उनके बीच मारपीट की घटना भी हो चुकी थी। यहां तक कि पुलिस को भी मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा था। लेकिन गांव के लोगों ने आपस में निर्णय लिया था कि संपत्ति बंटवारे के विवाद का निष्पादन गांव के स्तर पर ही कर लिया जाय।

फिर तय समय के अनुसार सभी लोग जुटे। इनमें वे दो भाई भी थे, जिनके बीच विवाद था। दोनों के माथे पर पट्टी बंधी थी, जो इस बात का प्रमाण था कि दोनों ने सिरफुटौव्वल किया था। गांव में उन दिनों कोई निर्वाचित पंच नहीं होते थे। बस गांव के लोग आपस में ही बैठकर तय कर लेते। फिर गांव के सबसे बुजुर्ग को अपना न्यायाधीश मान लेते थे। उस दिन मथुरा बड़का बाबू सरपंच थे। वे बड़ी सूझ-बूझ वाले इंसान थे। हमेशा साफ-साफ बोलते थे। कहते भी थे – हम बात बोली खर्रा, फिर गोली लगे चाहे छर्रा।

[bs-quote quote=”मैं यह सोच रहा हूं कि क्या वाकई आंखों में पानी की जरूरत नहीं होती है भारत के प्रधानमंत्री के पद पर बैठे व्यक्ति को। यदि नहीं होती है तो क्या मथुरा बाबू द्वारा दी गयी सूचना गलत थी?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

तो हुआ यह कि पंचायती शुरू हुई। गांव के ही एक व्यक्ति ने सबसे पहले गांववालों की तरफ से दोनों भाइयों को फटकार लगायी कि उनके बीच मारपीट की घटना बहुत खराब बात है। जहां बर्तन रहता है वहां आवाजें होती रहती हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आदमी अपना-पराया भूल जाय। यह सब मैं अपने पापा की गोद में बैठकर सुन रहा था।

मथुरा बाबू बोले कि संपत्ति का बंटवारा तो दोनों भाइयों को ही करना होगा। इसमें हमलोग कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे। हां, यह जरूर देखेंगे कि किसी के साथ बेईमानी न हो। लेकिन असल बात तो यह है कि झगड़ा में सिरफुटौव्वल क्यों?

वह वाकई कमाल की पंचायती थी। सबसे पहले पंचों ने दोनों भाइयों को समझाया और उनसे सार्वजनिक रूप से माफी मंगवायी। फिर दोनों भाइयों के बीच संपत्ति का बंटवारा भी हो गया। उस दिन मथुरा बाबू ने एक बात कही जो मेरे लिए सूचना ही थी। वह यह कि कोई भी गांव तभी चलेगा जब लोगों की आंखों में पानी हो।

बस एक सूचना कि आंखों में पानी होना जरूरी है, मेरे जीवन में बहुत काम आयी है। मैं ऐसा कोई दावा तो नहीं कर सकता कि मेरे सभी फैसले न्यायपूर्ण रहे, लेकिन मैंने अपनी आंखों में पानी को बरकरार रखने का पूरा प्रयास किया है।

मैं सोचता हूं कि यदि भारत के प्रधानमंत्री भी मथुरा बाबू के जैसे होते तो कितना अच्छा होता। यह बात मेरे जेहन में तब आयी थी जब कारगिल की लड़ाई हुई थी। उस समय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। अखबारों में खबरें आती थीं जवानों के मारे जाने की। तब मैं सोचता था कि आखिर ऐसा क्या है भारत और पाकिस्तान के बीच में कि दोनों मुल्क आपस में सिरफुटौव्वल करते रहते हैं? अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को लेकर भी सवाल उठते थे। खासकर संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका को लेकर।

तब यह बात जेहन में ही नहीं आती थी कि एक देश की अपनी सीमायें होती हैं और हुक्मरान बनने के लिए राजनीति जरूरी होती है। सिविक्स की किताबों में पढ़ता था कि लोकसभा में बहुमत वाले दल के सांसद मिलकर तय करते हैं कि प्रधानमंत्री कौन होगा। फिर यह भी कि प्रधानमंत्री का पद बहुत जिम्मेदारी का पद होता है।

[bs-quote quote=”वह वाकई कमाल की पंचायती थी। सबसे पहले पंचों ने दोनों भाइयों को समझाया और उनसे सार्वजनिक रूप से माफी मंगवायी। फिर दोनों भाइयों के बीच संपत्ति का बंटवारा भी हो गया। उस दिन मथुरा बाबू ने एक बात कही जो मेरे लिए सूचना ही थी। वह यह कि कोई भी गांव तभी चलेगा जब लोगों की आंखों में पानी हो।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लेकिन जैसे-जैसे समझ बढ़ती गयी, जटिलताएं आती गयीं। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा शख्स सबसे ताकतवर होता है। और जैसा प्रधानमंत्री होता है, वैसा ही देश का तंत्र होता है।

मेरे सामने दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता का पहला पृष्ठ है। इसमें एक खबर है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फादर स्टेन स्वामी की हिरासत में मौत को लेकर भारत की आलोचना की गई है। वहीं यह भी कि विदेश मंत्रालय ने यूरोपियन यूनियन व मानवाधिकार संगठनों की आलोचना को यह कहते हुए खारिज किया है कि भारत में हर आदमी को संविधान प्रदत्त नागरिक सुविधाएं प्राप्त हैं। फिर इसी पन्ने पर एक खबर सुधा भारद्वाज के हवाले से है। उन्होंने पुणे के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश केडी वडाने के बारे में खुलासा किया है कि वडाने ने विशेष न्यायाधीश होने का दिखावा किया है। सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत जानकारी के आधार पर सुधा भारद्वाज के वकील ने बंबई हाईकोर्ट को इसकी सूचना दी है कि महाराष्ट्र सरकार द्वारा वडाने की नियुक्ति विशेष न्यायाधीश के तौर पर नहीं की गई। जबकि उन्होंने स्वयं को  यूएपीए विशेष न्यायाधीश मानते हुये वे फैसले सुनाए जिनके आधार पर सुधा भारद्वाज, वरवरा राव, वर्नोन गोंजाल्विस, अरुण फरेरा आदि को जेल में रखा गया है।

मैं यह सोच रहा हूं कि क्या वाकई आंखों में पानी की जरूरत नहीं होती है भारत के प्रधानमंत्री के पद पर बैठे व्यक्ति को। यदि नहीं होती है तो क्या मथुरा बाबू द्वारा दी गयी सूचना गलत थी?

मुझे लगता है कि मथुरा बाबू सही थे। प्रधानमंत्री का पद कोई ऐसा पद नहीं है जिसपर कोई जबतक चाहे तब तक बैठा रहे। नरेंद्र मोदी के पहले भी कई प्रधानमंत्री हुए हैं और इनके बाद भी लोग प्रधानमंत्री बनेंगे। मुझे लगता है कि संसद को अपनी आंखों का पानी बचाकर रखना चाहिए।

रहीम का यह दोहा भी क्या खूब है –

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून,

पानी गए न ऊबरे, मोती-मानूस-चून।

लेखक फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं .

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