दो मुर्दे मस्त सोते हुए टाइम पास कर रहे थे कि तभी…
‘का गुरु ये क्या शोर है!’ पहला मुर्दा बोला।
‘नया स्टाफ होगा!’ दूसरे मुर्दे ने दो टूक जवाब दिया।
मगर थोड़ी देर बात शोर बढ़ गया और साथ में हलचल भी…
‘भइया डर लग रहा है! जमीन हिल रही!’ पहला मुर्दा घबराकर बोला।
‘का जेसीबी चलवा दे रहे हैं का!’
‘काहे भइया!’
‘बना रहा होगा कोई बिल्डिंग!’ दूसरे मुर्दे ने कहा।
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शोर नारों की शक्ल में उनके पास आ चुका था। जब तक वे दोनों कुछ समझते, उन्हें उनकी जमीन से उखाड़ लिया गया।
देखते ही देखते गगनभेदी नारों के बीच भीड़ उन्हें अपने सिर पर लादे अपने साथ लिये चलने लगी। दोनों मुर्दों ने डरते-डरते अपने आस-पास का जायजा लिया। उन्होंने देखा कि एक मुर्दा ‘ओय होय होय !’ बोलता बदहवास भागा जा रहा।
‘ये वही मुर्गा है का गुरु!’ पहला मुर्दा धीरे से बोला।
‘लग तो वही रहा है!’ दूसरे मुर्दे ने मुर्दे को देखते हुये कहा।
यह सच है कि मुर्दे उसे पहली बार देख रहे थे। अगर मुर्दा अपना तकिया कलाम ‘ओय होय होय’ न बोलता, तो शायद उसे पहचानना मुश्किल होता!
दरअसल, पिछले कुछ दिनों से मुर्दे ने इसी कब्रिस्तान में शरण ले रखी थी। वह इन दोनों के पास छुपकर रहा करता था। और दिन रात ‘ओय होय होय’ बोलते-बोलते ऊपर वाले से अपनी जान की सलामती के लिये प्रार्थना करता।
‘का गुरु क्या हाल!’ पहला मुर्दा मुर्दे से बोला।
‘मत पूछो यारा! ओय होय होय … सोचा था कब्रिस्तान में महफूज रहूँगा! पर यहाँ भी अपनी जान पर बन आयी !’ मुर्दा भागते हुए बोला।
‘पर हम तो मजे में हैं।’ पहला मुर्दा बोल पड़ा।
‘बहुत मजे से… अभी हमारी सैर हो रही!’ दूसरा मुर्दा भी झट से बोल पड़ा।
यह सुनकर मुर्दा बस मुस्कुरा कर रह गया।
‘पता नहीं क्यों हमें ऐसा लग रहा है कि हम में नयी जान-सी आ गयी है!’ पहला मुर्दा कुछ सोचते हुये बोला।
‘जैसे जान फूंक दी हो!’ पीछे-पीछे दूसरा मुर्दा भी बोला।
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‘ओय यारा! तुम दोनों बहुत भोले हो! अभी तो तुम्हारा मेकअप-सेकप करके ऐसा कर दिया जाएगा कि तुम बिल्कुल जिंदा दिखोगे! और तुम्हारे पीछे कितने मुर्दे बन जाएंगे!’ मुर्गा हाँफते हुए बोला।
‘क्या बक रहा है मुर्दे!’ पहला मुर्दा गुस्से में बोला।
‘पी रखी है क्या!’ दूसरे मुर्दे ने शंका व्यक्त की।
‘ओय होय होय। मैं क्या पीऊँगा यारा…’
इसी बीच भीड़ ने जोर से नारा लगाया और एक चौराहे पर रुक गयी। यह वही चौराहा है, जहाँ चुनाव के समय हर राजनीतिक दल अपनी सभा करता है।
‘शराब तो मेरी जान की दुश्मन है… ओय होय होय! ‘ मुर्गे की आधी बात मुर्दों तक पहुँची ही नहीं।
इसी बीच एक आवाज आयी, ‘मुझे उठाओ! कोई मुझे भी उठाओ!’
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दोनों मुर्दों ने इधर-उधर देखा। नीचे-ऊपर देखा। भीड़ की वजह से उन्हें देखने में अच्छी-खासी दिक्कत पेश आयी, मगर फिर भी देखा। इस सब के बावजूद उन्हें कोई नहीं दीखा।
‘ओय मुर्दे! कुछ सुना क्या!’ पहले मुर्दे ने जोर से पूछा।
‘अपनी मौत की आहट सुन रहा हूँ यारा! ओय होय होय!’ मुर्दा हकलाते हुये बोला।
‘मानो या न मानो! ई पक्का पियक्कड़ है !’ दूसरे मुर्दे ने अपनी राय व्यक्त की।
‘ए पगले! अभी सुना नहीं का रे! कोई कह रहा था कि कोई मुझे भी उठा ले!’ पहला मुर्दा जोर लगा कर बोला।
‘इसको उठाना बहुत जरूरी है यारा… मगर इसे कोई उठाएगा नहीं! यही देखते-देखते मेरी कई पीढ़ियाँ गुजर गयीं! ओय होय होय! ‘ मुर्गा बुरी तरह से थक चुका था। वह वही बैठ कर अपने अंदर नया दम भरने लगा।
‘हेन्ड्रेड परसेंट पियक्कड़ है!’ दूसरे मुर्दे ने धीरे से पहले मुर्दे से कहा।
‘तनिक ठहरो गुरु! जब जरूरी है तो कोई उठाता क्यों नहीं बे!’ पहले मुर्दे ने अधीर होकर पूछा।
‘उसको उठाया तो तुम दोनों को कौन पूछेगा! ओय होय होय!’
‘सही कहे थे हम! ससुरा पियक्कड़ है!’ दूसरा मुर्दा अपनी टेक पकड़े रहा।
‘अबे बता बे!’ पहले मुर्दे ने डपटा।
‘अगर उसे उठा लिया तो लोकतंतर चंगा होगा सी…’
‘हाँ तो क्या दिक्कत है!’ पहले मुर्दे ने समझने की कोशिश की।
‘मगर बाकी सारे नंगे होंगे जी! ओय होय होय!’ मुर्दा चौकन्ना होकर बोला।
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भीड़ चौराहे से आगे बढ़ी। कुछ नये लोग उससे जुड़ चुके थे। नारे तेज हो चुके थे।
‘अरे कोई मुझे भी उठाओ! कब से पड़ा हूँ!’ फिर कातर स्वर में दूर से कोई आवाज आयी।
‘यह कौन है! और हमें दीखता क्यों नहीं!’ पहला मुर्दा तड़पकर बोला।
‘इतनी भीड़ को नहीं दीख रहा यारा तो तुम मरो को क्या दिखेगा! ओय होय होय! और यह न पूछ यारा कि ये कौन है! ये पूछ कि ये क्या है! ओय होय होय!’ मुर्गे भागते हुए बोला।
वह रुकना चाहता था, मगर परिस्थियाँ उसे ऐसा करने से मना कर रहीं थीं।
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‘हेन्ड्रेड टेन फरसेन्ट पियक्कड़ है!’ दूसरा मुर्दा अपनी टेक नहीं छोड़ी।
‘क्या है! किसको उठाना है!’ पहले मुर्दे ने एक सांस में पूछा। ‘और ये हमे कहाँ ले जा रहे!’ साथ में एक नया सवाल भी जोड़ दिया।
‘ओय मेरे प्रा.. लेट मी गेस!!! उठा कर तुमको तो पहले स्टूडियो ले कर जाएंगे! अभी तो तुम लोग सिर आँखों पर रहोगे, बाद में चाहे सिराहने रख दिए जाओ!’
मुर्गा कुछ देर चुप रहा फिर गम्भीर स्वर में बोला,’ और ये क्या है… मेरी गल ध्यान से सुन…’ अभी मुर्गा इसका कोई जवाब देता कि किसी हाथ ने उसकी गर्दन पकड़ कर उसे उठा दिया। मुर्गा जोर से चीखा। फिर उसके मुँह से यह निकला,’ मु द द … आ’
‘ये क्या!’ पहला मुर्दे ने समझने की कोशिश की।
‘ये पियक्कड़ नहीं है!!!’ इस बार दूसरे मुर्दे ने भी अपनी टेक छोड़कर गम्भीर होकर समझने की कोशिश की।
मुर्दा इसके आगे कुछ न बोल पाया।
‘तुम्हें देश का वास्ता,कोशिश कर बता दे!’ पहला मुर्दा रूआसा होकर बोला।
‘तुम्हें लोकतंतर का वास्ता यारा!’ दूसरे मुर्दे ने मुर्दे की भाषा में ही कहा।
मुर्दे के बदन में अचानक जुंबिश हुयी। और वो ‘मु द द … आ’ कहकर हमेशा के लिए शांत हो गया।
‘मुद्रा बोला है शायद!’ दूसरे मुर्दे ने गेस किया।
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‘मुद्रा को कौन छोड़ता है! मुद्रा होती तो अब तक ये उठा चुके होते !’ पहले मुर्दे ने दूसरे मुर्दे के विचार को एक सिरे से खारिज कर दिया। दूसरा मुर्दे ने सहमति में अपना सिर हिलाया।
दोनों मुर्दे सोच में पड़ गये। तिस पर मुर्गे के जाने का गम। दोनों ने एक-दूसरे को देखा। पर उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला। काफी देर सोचने के बाद भी उन्हें कुछ न सूझा। मुर्गे द्वारा कहे गए आखिरी शब्द ‘मु द द…आ’ को समझने में अपनी पूरी जान लगा दी। मगर समझ नहीं पा रहे थे ।
भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। नारे तेज होते ही जा रहे थे।भीड़ अब भगदड़ में बदलती जा रही थी। क्यों न इस भीड़ से ही पूछा जाए! यह खयाल आते ही मुर्दे सिहर गये। वे दोनों डरे हुए चुपचाप भीड़ के कंधों पर लेट हुए हैं।
इन मुर्दों की जिज्ञासा न जाने कब शांत होगी! बेचारे!!!
अनूप मणि त्रिपाठी युवा व्यंग्यकार हैं और लखनऊ में रहते हैं।