खबरों के लेखन के संबंध में एक नियम है हम पत्रकारों के लिए कि हमें भावुक नहीं होना चाहिए। खबरें चाहे जैसी भी हों, शब्दों का चुनाव ऐसा हो, जिससे खबर में सूचनाएं स्पष्ट हों तथा समाज के हितों के अनुरूप हो। लेकिन यह सब कहने की बात है। पहले भी ऐसा ही होता था और आज भी ऐसा ही होता है कि खबरें एक मकसद से लिखी जाती हैं। यह मकसद कुछ भी हो सकता है। सामान्य तौर पर तो सामाजिक वर्चस्ववाद से संबंधित मकसद ही हावी रहता है। कुछ लोगें के लिए सोने पर सुहागा तब हो जाता है जब उन्हें इस काम के लिए अतिरिक्त धन की प्राप्ति भी होती है। मतलब सामाजिक वर्चस्व का मकसद और धन दोनों एक साथ। अतीत में यह परिस्थितियां संभवत: कम रहीं होंगी। लेकिन वर्तमान में इसका बोलबाला है।
उदाहरण के लिए दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता ने पहले पन्ने पर एक खबर प्रकाशित किया है। इसका शीर्षक है– ‘पाकिस्तान में दो सिख व्यापारियों की हत्या।’ घटना पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम खैबर पख्तुनख्वा प्रांत की है। यह इलाका अफगानिस्तान की सीमा पर है और तालिबानियों के प्रभाव में है। हालांकि पाकिस्तानी प्रशासन इससे इंकार करता है। अब इस खबर की विवेचना करते हैं। जनसत्ता ने इसे पहले पन्ने पर जगह क्यों दी? इसके शीर्षक में ‘सिख’ शब्द का उपयोग क्यों किया? तकनीकी रूप से इस खबर में कुछ भी गलत नहीं है। संपादक की मर्जी होती है, वह चाहे जिस खबर को पहले पन्ने पर रखे। लेकिन संपादक भी आदमी ही होता है। कोई मशीन नहीं होता या फिर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस नहीं काम करता इसके पीछे। जनसत्ता के संपादक जानते हैं कि यदि ‘सिख’ शब्द को हटा दिया जाय तो इस खबर का कोई महत्व भारतीयों के लिए नहीं है। वैसे भी खैबर पख्तुख्वा के हालात विषम हैं। हत्याएं होती ही रहती हैं। चूंकि भारत में सिख धर्म के लोग रहते हैं जो कि अब एक तरह से हिंदू धर्म के हिस्से हो चुके हैं। उन्हें हिंदू देवी-देवताओं से कोई परहेज नहीं है।
[bs-quote quote=”महाभारत मेरे हिसाब से वीर्य की पवित्रता की दुर्गाथा से अधिक कुछ भी नहीं, जो हर हाल में पितृसत्ता को मजबूत करने के लिए सोची-समझी-लिखी गयी है। हिडिंबा पांडव पुत्र भीम की संविदा के आधार पर पत्नी थी। संविदा की शर्त यह थी कि हिडिंबा को पुत्र होने पर भीम अपने भाइयों और अपनी मां के पास वापस लौट जाएगा। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
इसी बात से एक बात याद आयी। अभी इसी महीने के प्रारंभ में मैं हिमाचल प्रदेश के मनाली शहर में था। वहां एक मंदिर है हिडिंबा के नाम पर। हिडिंबा नामक महिला मिथकीय पात्र का उल्लेख महाभारत में है जो कि राक्षसी बतायी गयी है। महाभारत मेरे हिसाब से वीर्य की पवित्रता की दुर्गाथा से अधिक कुछ भी नहीं, जो हर हाल में पितृसत्ता को मजबूत करने के लिए सोची-समझी-लिखी गयी है। हिडिंबा पांडव पुत्र भीम की संविदा के आधार पर पत्नी थी। संविदा की शर्त यह थी कि हिडिंबा को पुत्र होने पर भीम अपने भाइयों और अपनी मां के पास वापस लौट जाएगा।
खैर, मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है इस तरह की दुर्गाथा में। लेकिन मेरी पत्नी को लगा कि हिडिंबा का मंदिर कैसा है, और सब यहां उसकी पूजा करते हैं तो एक बार देख लेना चाहिए। सो हम गए। मैं तो ऊंचे देवदारों के बीच लकड़ी से बना यह तथाकथित मंदिर देख रहा था। कार्बन डेटिंग तकनीक से इसकी उम्र जानी जा सकती है। लेकिन वहां लगाए गए साइनबोर्ड में इसका कोई उल्लेख नहीं था। मेरे हिसाब से यह हिडिंबा नामक किसी महिला का मकान रहा होगा जो कि मूलनिवासी रही होगी। मकान के बाहर हिरण आदि जानवनों के सिर लगे हैं।
तो हुआ यह कि पत्नी महोदया मंदिर में अंदर गयीं तथा साथ में अस्सी रुपए का प्रसाद भी खरीदकर ले गयीं। लौटकर आयीं तो उनके हाथ मेें प्रसाद की जगह मुढ़ी के कुछ दाने भर थे। मैंने पूछा कि प्रसाद क्या हुआ? जवाब मिला कि मंदिर के अंदर के पुजारी ने रख लिया। वह नाराज भी हो रही थी कि ऐसा कहीं होता है कि सब प्रसाद पुजारी रख ले और भीखमंगा समझ मुढ़ी के कुछ दाने दे दे। खैर, जैसा कि भारतीय महिलाएं करती हैं, मेरी पत्नी ने वह सारा प्रसाद मेरे मुंह में डाल दिया, मानो उसके खाने से हिडिंबा माता का सारा आशीर्वाद मुझे मिल जाएगा। दिलचस्प यह कि मंदिर के अंदर जो पुजारी थे, वे सिक्ख धर्मावलंबी थे और मेरी पत्नी के मुताबिक गर्भ गृह में एक छोटी सी अस्पष्ट प्रतिमा थी तथा एक बड़ी सी टोकरी्, जिसमें लोग दान के रूप में रुपए रख रहे थे। हिडिंबा के बगल में ही उसके बेटे घटोत्कच का मंदिर भी है। वहां हमें एक पुजारिन मिलीं, जिन्होंने कुछ दिलचस्प जानकारियां दीं। इनके बारे में कभी विस्तार से लिखूंगा।
https://gaonkelog.com/depository-diary-of-gondwana-15-m
फिलहाल यह कि जनसत्ता के संपादक जानते हैं कि भारतीय हुक्मरान अपने देश के लोगों को किस तरह की खबर पढ़वाना चाहते हैं। एक दूसरी खबर उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर की है। इसे जनसत्ता ने दूसरे पन्ने पर जगह दी है। शीर्षक है– ‘दबिश के दौरान महिला को गोली मारने का पुलिस पर आरोप।’ शीर्षक से ही समझा जा सकता है कि इसमें राजनीति की गई है। यदि संपादक ईमानदार होते तो शीर्षक होता– ‘दबिश के दौरान यूपी पुलिस ने मुसलमान महिला को गोली मारी।’ यह शीर्षक इसलिए मृतका 55 वर्षीया रोशनी खातून थी, जिसके बेटे को पकड़ने यूपी पुलिस के विशेष अभियान समूह के सिपाही सादी वर्दी में उसके घर में घुसे थे। पुलिस के मुताबिक, उसका बेटा अब्दुल रहमान हिस्ट्रीशीटर है। रोशनी ने पूछा कि जब उसके बेटे के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं है तो उसे क्यो ले जाया जा रहा है? एक पुलिस अधिकारी को रोशनी का यह सवाल अच्छा नहीं लगा और उसने उसे गोली मार दी। बाद में रोशनी की मौत हो गई।
अब एक तीसरी खबर मेरे गृह राज्य बिहार से
। राष्ट्रीय सहारा के पटना संस्करण में एक खबर का शीर्षक है–’तीन युवकों ने विवाहिता के साथ किया गैंगरेप, मोबाइल पर वीडियो बनाकर किया वायरल, जान से मारने की दी धमकी।’ यहां भी हेडिंग में साजिश को महसूस किया जा सकता है। वजह यह कि जिस विवाहिता के साथ यह घटना घटित हुई, वह दलित है और जिन तीन लोगों रंजीत कुमार, चंदन कुमार और राहुल कुमार ने उसके साथ गैंगरेप किया, वे सवर्ण हैं। यह घटना घटना सहरसा जिले के बिहरा थाना क्षेत्र के बांसबाड़ी इलाके की है। 12 मई को यह घटना घटित हुई। मेरे हिसाब से इस खबर का एक शीर्षक यह भी हो सकता था– ‘तीन सवर्णों ने दलित महिला के साथ किया गैंगरेप, वीडियो किया वायरल, मुंह खोलने पर जान से मारने की दी थी धमकी।’
दरअसल, सतह पर सभी खबरें एक जैसी ही होती हैं और ईमानदारी से लिखी जाएं तो समाज में सकारात्मक बदलाव मुमकिन है। लेकिन हमारे देश में सकारात्मक बदलाव किसी को नहीं चाहिए। न हुक्मरान को, ना ब्राह्मण वर्ग को और ना ही शोषित वर्गों को।
सतह से ही एक बात याद आई। कल मेरी प्रेमिका ने यह शब्द दिया। शर्त थी कि प्रेम कविता हो। कुछ सोचा तो जेहन में यह आया–
चांद की सतह पर नहीं जा सका हूं मैं
और जा भी नहीं सकूंगा।
चांद की सतह पर जाना
आवश्यक भी नहीं
और मैं जानता हूं
तुम कभी नहीं कहोगी कि
तुम्हें चांद चाहिए।
अच्छा तुम कहो भी तो
कहां मुमकिन है
चांद की सतह पर जाना
हां अगर तुम कहो तो
हम दोनों कर सकते हैं खेती
उगा सकते हैं
चांद से सुंदर कपास
सितारों से खूबसूरत
धान-गेहूं की बालियां।
हां, चांद की सतह पर नहीं जा सका हूं मैं
और जा भी नहीं सकूंगा।
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
[…] खबरों में शीर्षकों का खेल कितना समझते … […]
बढ़िया विश्लेषण। धन्यवाद।