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Lok Sabha Election : महिलाओं को दिए गए टिकट की संख्या पर राजनैतिक दलों की मंशा को लेकर सवाल उठना जरूरी

वर्ष 2023 में संसद में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने के लिए नारी शक्ति वंदन अधिनियम लागू हुआ, जिसमें उन्हें 33 प्रतिशत आरक्षण देने का नियम बना। महिलाओं ने जश्न मनाया और सभी दलों ने इसका स्वागत किया लेकिन जमीनी हकीकत देखें तो किसी भी राष्ट्रीय या बड़े क्षेत्रीय दलों ने इस अधिनियम के आधार पर टिकट का बंटवारा नहीं किया। देश के सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में इसका आकलन कर इस बात की वास्तविकता देख आने वाले दिनों में राजनैतिक दलों की भूमिका पर सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है

भारत एक जाति प्रधान देश है। यहाँ प्रमुखत: चार प्रकार की जातियाँ हैं, जिन्हें क्रमशः सवर्ण, पिछड़ी, दलित और आदिवासी जातियों के नाम से जाना जाता है। संविधान ने सभी जाति, लिंग या धर्म के लोगों को समानता का अधिकार दिया है लेकिन वास्तविकता इससे अलग है। कहीं-कहीं यह भेदभाव खुलकर सामने दिखाई देता है लेकिन तथाकथित प्रगतिशील और पढ़े-लिखों के बीच यह भेदभाव इतने मंजे हुए तरीके से होता है कि देखने वाले यदि विश्लेषण न करे तो उन्हें समझने में दिक्कत होगी। सवाल यह उठता है कि क्या ब्राह्मण जाति की प्रोफेसर महिला की बराबरी राजभर जाति की श्रमिक महिला कर सकती है? क्या दोनों की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक पृष्ठभूमि एक हो सकती है? इसका जवाब ‘नहीं’ में होगा लेकिन जब-जब आरक्षण का सवाल उठता है तब-तब सवर्ण जातियों के लोग उनकी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक हैसियत का आकलन नहीं करते।

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए लाया गया बिल

कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने 19 सितंबर 2023 को संसद के विशेष सत्र के दौरान लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम विधेयक’ के नाम से पेश किया था, जो 20 सितंबर 2023 को लोकसभा में बहुमत से पास हो गया था। यह 21 सितंबर 2023 को राज्यसभा में बहुमत के साथ पारित होकर कानून बन गया। यह लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करता है।

पहले से ही लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए सीटें आरक्षित हैं। महिला आरक्षण बिल के अनुसार, इन आरक्षित सीटों में से एक तिहाई सीटें अब दलित एवं आदिवासी महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी।

महिला आरक्षण बिल के अनुसार, महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण 15 साल तक जारी रहेगा। विधेयक को कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों से अनुमोदन की आवश्यकता है। राज्यों द्वारा अनुसमर्थन की आवश्यकता के लिए संवैधानिक तर्क राज्यों के अधिकारों पर विधेयक का संभावित प्रभाव है। प्रत्येक परिसीमन प्रक्रिया के बाद महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों को घुमाया जाएगा।

महिला आरक्षण बिल में ओबीसी और अल्पसंख्यक समाज की महिलाओं के लिए आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं किया गया है। सरकार को इसकी याद दिलाते हुए मैनपुरी से समाजवादी पार्टी की सांसद डिंपल यादव कहती हैं कि इसमें ओबीसी और अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए भी आरक्षण होना चाहिए।

महिला आरक्षण बिल पर अपनी बात रखते हुए राहुल गांधी कहते हैं कि ओबीसी रिजर्वेशन इस बिल में होना चाहिए, भारत की आबादी के बड़े हिस्से को आरक्षण मिलना चाहिए, जो इसमें नहीं है। वे आगे इस देश को ओबीसी की हकीकत दिखाते हुए कहते हैं कि हिंदुस्तान के 90 सचिव में से सिर्फ तीन ओबीसी हैं। ये ओबीसी कम्युनिटी का अपमान है। सवाल तो उठता है कि इस देश में कितने ओबीसी हैं, कितने दलित हैं, कितने आदिवासी हैं और उसका जवाब सिर्फ जातिगत जनगणना से मिल सकता है।

फ्लाविया एग्नेस लिखती हैं कि कुछ लोगों का मानना है कि यह विधेयक महिलाओं के बीच जाति, धर्म, क्षेत्र और वर्ग के आधार पर विभाजन पैदा करेगा। कुछ पार्टियों ने माँग की है कि महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के भीतर पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यकों की महिलाओं के लिए एक उप-कोटा होना चाहिए। ऐसे प्रावधान के बिना विधेयक निचली जाति और ग्रामीण महिलाओं की कीमत पर शहरी महिलाओं को लाभान्वित करेगा।

जब भारत में पहले से ही जाति, धर्म, क्षेत्र और वर्ग के आधार पर विभाजन है तो महिला आरक्षण बिल में इसका प्रावधान न करके विभाजन को और गहरा ही किया जा रहा है। क्या दिल्ली मेट्रो में काम करने वाली पिछड़ी जाति की महिला श्रमिक और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद पर पढ़ाने वाली सवर्ण जाति की महिला प्रोफेसर को एक साथ खड़ा करके न्याय किया जा सकता है?

नारी शक्ति वंदन विधेयक एक झुनझुना है

भाजपा सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक में सवर्ण, पिछड़े एवं अल्पसंख्यक समाज की महिलाओं को एक साथ खड़ा करके सवर्ण महिलाओं के हाथ में नेतृत्व थमा दिया है। उसका यह रवैया पिछड़े एवं अल्पसंख्यक समाज की महिलाओं को नेतृत्व की भागीदारी से दूर रखने वाला है।

इस समय देश में लोकसभा चुनाव 2024 चल रहा है। नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023 का गुणगान करने वाली पार्टियों ने कितने प्रतिशत महिलाओं को लोकसभा चुनाव में अपना प्रत्याशी बनाया है? अमोघ रोहमेत्रा ‘द प्रिंट’ में प्रकाशित अपने आलेख में लिखते हैं कि भाजपा द्वारा अब तक घोषित 434 उम्मीदवारों में से 16.1 प्रतिशत महिलाएं हैं जबकि कांग्रेस ने 317 उम्मीदवारों में से 13.8 प्रतिशत महिलाओं को प्रत्याशी बनाया है.

जब नारी शक्ति वंदन अधिनियम विधेयक 2023 संसद में पारित किया गया था तब देश की राजधानी दिल्ली में भाजपा की महिला कार्यकर्ताओं ने जश्न मनाया था। सवर्ण महिला प्रोफेसरों ने विश्वविद्यालयों एवं कॉलेजों में सेमिनारों एवं संगोष्ठियों के माध्यम से जश्न मनाया। इस जश्न में ओबीसी एवं अल्पसंख्यक समाज की महिलाएं कहीं शामिल नहीं थीं। अलबत्ता कहीं-कहीं सेमिनारों में दलित एवं आदिवासी समाज में से किसी एक महिला प्रोफेसर को शामिल कर लिया गया था।

भाजपा की महिला कार्यकर्ताओं सहित समस्त सवर्ण महिलाओं को पूछना चाहिए कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने लोकसभा चुनाव 2024 में 33 प्रतिशत महिलाओं को उम्मीदवार क्यों नहीं बनाया है? क्या इन महिलाओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जुमले पर यकीन कर जश्न मनाया था? वैसे भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जुमले और वादे पूरे नहीं होते हैं जबकि उनका प्रधानमंत्री पद का कार्यकाल पूरा हो जाता है।

उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं, जिनमें 17 अनुसूचित जाति (एससी) के लिए आरक्षित हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है और भाजपा ने महज 6 महिलाओं को लोकसभा प्रत्याशी बनाया है, जिसमें स्मृति ईरानी (अमेठी), मेनका गांधी (सुल्तानपुर), हेमा मालिनी (मथुरा), नीलम सोनकर (लालगंज), रेखा वर्मा (धरहौरा), साध्वी निरंजन ज्योति (फतेहपुर) शामिल हैं। उत्तरप्रदेश में भाजपा ने मात्र 7.5 फीसदी महिलाओं को ही चुनाव मैदान में उतारा है, जिसमें किसी नई महिला को उम्मीदवार नहीं बनाया है।

उत्तर प्रदेश में विपक्ष में समाजवादी पार्टी है, जो इंडिया गठबंधन में शामिल होकर लोकसभा चुनाव लड़ रही है। सपा उत्तर प्रदेश की 63 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिसमें वह 9 महिलाओं को अपना उम्मीदवार बनाई है अर्थात 14.28 फीसदी महिलाएं चुनावी मैदान में हैं। जिनमें डिंपल यादव (मैनपुरी), इकरा हसन (कैराना), रुचि वीरा (मुरादाबाद), सुनीता वर्मा (मेरठ), उषा वर्मा (हरदोई), श्रेया वर्मा (गोंडा), काजल निषाद (गोरखपुर) एवं प्रिया सरोज (मछलीशहर), अनु टंडन( उन्नाव) हैं।

इंडिया गठबंधन के तहत उत्तर प्रदेश में कांग्रेस 17 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। जिसमें काँग्रेस ने मात्र एक लोकसभा सीट गाजियाबाद से डॉली शर्मा को चुनावी मैदान में उतारा है। इस आधार पर इनकी भागीदारी मात्र 5.88 फीसदी ही है।

उत्तर प्रदेश में तीसरे नंबर की पार्टी बसपा है, जो अकेले लोकसभा की 80 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। बसपा अभी तक 57 सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी है, जिनमें केवल 4 महिलाएं हैं। बसपा ने महिलाओं को 7.01 फीसदी  चुनावी टिकट दिया है। जिनके नाम क्रमशः पूजा अमरोही (आगरा), क्रांति पांडेय (फर्रुखाबाद), सारिका सिंह बघेल (इटावा) एवं इंदु चौधरी (लालगंज) हैं।

अतः स्पष्ट है कि अभी तक उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव 2024 में महिलाओं को सर्वाधिक 14.28 फीसदी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने सबसे कम 5.88 फीसदी महिलाओं को ही टिकट ने दिया है। यहाँ समाजवादी पार्टी की भागीदारी बाकी पार्टियों से भले ही अधिक है लेकिन यह भागीदारी बहुत संतुष्टिजनक नहीं है।

अंतर-संसदीय संघ के अनुसार, महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत दुनिया के 193 देशों में से 148वें स्थान पर है, जबकि वैश्विक औसत 26.5 प्रतिशत है। नारी शक्ति वंदन अधिनियम विधेयक का लक्ष्य महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाना है। हालाँकि लोकसभा चुनाव 2024 में इस लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। आगे आने आले चुनावों में महिलाओं की भागीदारी को लेकर सभी दल क्या कदम उठायेंगे यह सवाल उठना जरूरी है।

ज्ञानप्रकाश यादव
ज्ञानप्रकाश यादव
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं और सम-सामयिक, साहित्यिक एवं राजनीतिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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