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ग्राउंड रिपोर्ट

मोहित करने के साथ ही असहमति की भी जगह बनाता है प्रकाश झा का सिनेमा

प्रकाश झा भारतीय सिनेमा के ऐसे महत्वपूर्ण निर्देशक हैं जो पर्दे पर बड़ी भव्यता के साथ भारतीय सामाजिक और राजनीतिक आख्यान रचने का बारीक कौशल रखते हैं। खासतौर से उन्हें बिहार को एक जरूरी विषय-वस्तु के रूप में सिनेमा में स्थापित करने का श्रेय दिया जाना चाहिए। राजनीति, अपराध, आदर्श, सत्ता-प्रतिष्ठान, प्रशासन, षड्यंत्र और जाति […]

प्रकाश झा भारतीय सिनेमा के ऐसे महत्वपूर्ण निर्देशक हैं जो पर्दे पर बड़ी भव्यता के साथ भारतीय सामाजिक और राजनीतिक आख्यान रचने का बारीक कौशल रखते हैं। खासतौर से उन्हें बिहार को एक जरूरी विषय-वस्तु के रूप में सिनेमा में स्थापित करने का श्रेय दिया जाना चाहिए। राजनीति, अपराध, आदर्श, सत्ता-प्रतिष्ठान, प्रशासन, षड्यंत्र और जाति जैसे मसले को तो उन्होंने शिद्दत से उठाया ही है, इसके साथ ही बेरोजगारी, अशिक्षा और बहिष्करण जैसे विषयों को भी केंद्रीय जगह दी है। दामुल, मृत्युदंड, गंगाजल, अपहरण, सत्याग्रह और राजनीति तक का प्रकाश झा का सफर यह जानने के लिए दिलचस्प होगा कि कैसे वे सातवें दशक में बिहार की राजनीति की स्थानीय परतों को उकेर रहे थे और किस तरह से आगे बढ़ते हुये वे बिहार की सत्ता-संरचना के सबसे जटिल पक्षों के बहुत भव्य लेकिन संतुलित चित्रण तक पहुंचे। उनका एक महत्वपूर्ण योगदान स्त्रियों को लेकर भी है। एक फ़िल्मकार के रूप में वे उनकी भूमिका और उनके जीवन के जरूरी प्रश्नों के हल के लिए उनके संघर्ष का मार्मिक फिल्मांकन करते रहे हैं।

झा को सामाजिक और राजनीतिक संरचना की बेहतर समझ रखने और फिल्मी परदे पर प्रस्तुत करने वाले फिल्मकार के तौर पर जाना जाता है। माना जाता है कि बिहार प्रदेश की पृष्ठभूमि से आने वाले झा को वहाँ के जमीनी मुद्दों की गहरी समझ है और उस समझ और अंतर्दृष्टि के सहारे वे दामुल के ग्रामीण जातिवाद की जकड़न से लेकर आरक्षण और प्राइवेट शिक्षण संस्थानों की लूट और कुकुरमुत्तों की तरह गली-कूचों में उग आए कोचिंग संस्थानों से जुड़े मुद्दों को फिल्मी परदे पर प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने में बहुत हद तक कामयाब रहे। वे धर्म के नाम पर आम जनता को शोषण के जाल मे फँसाकर लूटने वाले, महिलाओं का शोषण करने वाले फर्जी बाबाओं की पोल खोलने के लिए आश्रम जैसी फिल्में बनाते हैं। यहाँ  वह भारतीय समाज की असमान जातीय संरचना में ही बाबावाद के उद्भव और विकास के कारणों को खोज निकालते हैं।

 खाँटी बिहार का सिनेमाकार

प्रकाश झा ने बिहार राज्य से बाहर के मुद्दों पर भी कभी-कभी अच्छी फिल्में बनाई। दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस मे छात्र राजनीति मे निहित क्षेत्रीय, जातीय और वर्गीय संरचना और उनके आपसी टकराव को अपनी फिल्म दिल दोस्ती एक्स्ट्रा  फिल्म में प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया। आश्रम और दिल दोस्ती एक्स्ट्रा जैसी फिल्मों को छोड़ दें तो प्रकाश झा ने सत्यजीत रे और मुजफ्फर अली की तरह अपने गृह प्रदेश बिहार के सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक ताने-बाने को फिल्मी परदे पर सशक्त ढंग से प्रस्तुत करने का काम किया जिसे दर्शकों और फिल्म समीक्षकों ने खूब पसंद भी किया। वे अपनी फिल्मों के बारे में कहते हैं कि प्रत्येक फिल्म अपने समय के सापेक्ष एक सृजन होती है। भारतीय सामाजिक संरचना में समय के साथ जो परिवर्तन आए हैं उसकी नब्ज पर हाथ रखते हुए प्रकाश झा एक इंटरव्यू में कहते हैं कि, ‘Every film is a creation in time. Every film is the study of a different period. Damul was about a feudal society comprising upper castes, lower castes, the untouchables all of that has changed today. In the late ’80s and early ’90s, we adopted the open market economy and the Mandal Commission came into action two potent acts which changed the whole society which were reflected in my film Mrityudand’.

राजनीति की बारीक समझ रखने वाले प्रकाश झा ने चुनाव भी लड़ा है और बिहार राज्य के लिए वे स्पेशल स्टेटस की मांग के पक्षधर हैं। भूतनाथ त्रिवेदी (2014)ने प्रकाश झा के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा है,‘’Distinguished filmmaker Prakash Jha is strongly considering to raise the demand for special category status for Bihar through one of his upcoming films. “A documentary can be made on the theme or the subject could be integrated in the script of some other movie”. Jha is credited with making successful films like ‘Satyagraha’ and ‘Rajneeti‘.

 

जनवरी 2022 में मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में आश्रम – 2 फिल्म की शूटिंग के समय उनकी यूनिट का विरोध हुआ सेट पर तोड़-फोड़ की गई। उन पर यह आरोप लगाया गया कि वे भारत को बदनाम करने का काम आकर रहे हैं। हम सभी जानते हैं कि मुद्दों पर आधारित सिनेमा के निर्माण में प्रकाश झा का नाम अग्रणी फ़िल्मकारों मे रहा है। उनका मानना है कि अपने देश में शुद्ध राजनीतिक फिल्म बनाना बहुत मुश्किल है क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी का व्यावहारिक पहलू एक जटिल विषय है। वे कहते हैं, “Pure political cinema which will be critical, analytical, which will have the freedom to say what you want to say, this is not the country where you can do that”.

भारत में लोग अपनी एथनिक आइडेंटिटी, धार्मिक मान्यताओं और राजनीतिक जुड़ाव को लेकर बहुत आग्रही हैं और उन्हें किसी तरह की आलोचना पसंद नहीं है। पिछले दो दशकों में विभिन्न कारणों से समुदायों के बीच असहिष्णुता की प्रवृति बढ़ी है। जबकि सहिष्णुता सदियों से भारतीय संस्कृति की पहचान रही है। फिल्मकार भी समय समय पर अपने फिल्मों की विषयवस्तु और विभिन्न घटनाओं और पात्रों के चरित्र चित्रण को लेकर विरोध प्रदर्शनों और मार पीट का सामना करते रहते हैं, अपनी फिल्मों के विरोध को लेकर प्रकाश झा का कहना है कि “I keep on facing this all the time. Even before my films release, there are these societies, political parties and individuals who bombard me with brickbats. So, in this country, as far as cinema, literature, culture, is concerned, there is no freedom of expression. Simply not.”

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक संवैधानिक अधिकार है जिसका लाभ कलाकारों, साहित्यकारों और फ़िल्मकारों को भी अपनी रचनाओं के लिए मिलता है परंतु अस्मितावादी विचारों के कारण उन्हें न केवल विरोध बल्कि हिंसा का भी शिकार होना पड़ता है।

प्रकाश झा का रचनात्मक वैभव 

प्रकाश झा ने हिन्दी सिनेमा में एक लंबी पारी खेली है। कम से कम आधा दर्जन फिल्में ऐसी हैं जो उनके नाम के साथ तत्काल याद आ जाती है। अपने चालीस साल लंबे कैरियर में अच्छा-खासा काम कर डाला है। श्री वत्स (1982), फेसेज आफ्टर द स्टॉर्म (1983), हिप हिप हुर्रे (1984), दामुल (1985), कूडियट्टम (1986), लूकिंग बैक (1988),मुंगेरीलाल के हसीन सपने (1989), परिणति (1989),  मृत्युदंड (1997), दिल क्या करे (1999), राहुल (2001), सोनल (2002), गंगाजल (2003), लोकनायक (2004), अपहरण (2005), दिल दोस्ती एक्स्ट्रा, खोया खोया चाँद (2007), राजनीति (2010), टर्निंग 30, ये साली ज़िंदगी, आरक्षण (2011), चक्रव्यूह (2012), सत्याग्रह (2013), क्रेज़ी कुक्कड़ फेमिली (2015), जय गंगाजल (2016), लिपिस्टिक अन्डर माय बुर्का (2017), सांड की आँख (2019), परीक्षा: द फाइनल टेस्ट, फ्रॉड सैयां (2019), आश्रम, मट्टू की सायकिल (2020), चक्रव्यूह 2 (2023)।

राजनीतिक सिनेमा बनाने की कोशिशें 

राजनीतिक और सामाजिक संरचना की गहरी समझ रखने वाले प्रकाश झा का मानना है कि भारत देश मे राजनीतिक सिनेमा बनाना मुश्किल काम है। अपने देश मे वैचारिक रूप से समृद्ध लोग सिनेमा के माध्यम से अपनी बात जरूर रखते हैं लेकिन ऐसे सिनेमा को सपोर्ट कम मिलता है। उनके ही शब्दों मे “We don’t really make political cinema in India at all. I don’t think people who have ideologically very fertile or sound mind don’t use cinema as vehicle for their communication. I think most of the filmmakers struggle with that because of pure dynamics, economics and statistics. We find it very difficult to have people backing those films.” अपनी फिल्मों के अलग विषयवस्तु के बावजूद प्रकाश झा की फिल्मों में वाणिज्यिक सिनेमा के नामचीन कलाकारों जैसे शबाना आजमी, नाना पाटेकर, अन्नू कपूर, अमिताभ बच्चन, मनोज बाजपेयी, अजय देवगन, अर्जुन रामपाल, प्रियंका चोपड़ा, रणवीर कपूर, कैटरीना कैफ आदि ने काम किया।

चक्रव्यूह में अभय देओल और नमक हराम में राजेश खन्ना द्वारा जो भूमिकाएं निभाई गई हैं वे बताती हैं कि समाज के हाशिये पर रहने वाले और अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए रोज मशक्कत करने वाले लोगों के बीच में रहकर एक उच्च वर्गीय एवं संवेदनशील इंसान भी अपने मिशन को भूलकर उन्हीं का हो जाता है। उनकी समस्याएं निपटाने में लग जाता है। वह एक उद्योगपति के द्वारा या आईपीएस अफसर द्वारा मजदूरों या आदिवासियों में फूट डालने के लिए भेजा गया हो तब भी वह आम इंसानों के हक में आवाज बुलंद करने लगता है।

अपहरण और सत्याग्रह  आदि फिल्मों की विषयवस्तु को देखा जाए तो मोहन अगाशे और अमिताभ पिता की भूमिका मे हैं। अपहरण फिल्म में पिता एक आदर्शवादी प्रोफेसर है जिसका बेटा अपनी बेरोजगारी का जिम्मेदार अपने बाप को मानता है जो उसकी नौकरी के लिए सिफारिश भी नहीं करता। सत्याग्रह का बाप अपने बेटे की हत्या के बाद गाँधीवादी तरीके से भूख हड़ताल और अनशन से सरकार और जिम्मेदार लोगों को झुकाने का प्रयास करता है। गंगाजल तो बिहार प्रदेश की राजनीति और सरकारी सिस्टम की पोल ही खोलती फिल्म है। यहाँ अच्छे इंसान तो हैं लेकिन सिस्टम में एडजस्ट होने के चक्कर में शोषक बन बैठे हैं। एक आईपीएस अधिकारी आता है। सब कुछ संविधान और नियम कानून से चलाना चाहता है लेकिन आसान नहीं होता यथास्थितिवाद को बदलना क्योंकि उसमें बहुत सारे प्रभावी लोगों के हित प्रतिकूल ढंग से प्रभावित होते हैं। गंगाजल एक प्रतीकात्मक फिल्म है जो राजनीतिक दबंगई और ब्यूरोक्रेसी के बीच बेहाल होती आम जनता की कहानी को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती है। शिक्षा के बाजरीकरण और कुकुरमुत्तों की तरह गली कूँचों में उग आई कोचिंग की शोषक व्यवस्था के बीच समाज के वंचित वर्गों को आरक्षण देकर शिक्षा और नौकरियों मे प्रतिनिधित्व देने के मुद्दे और उस पर प्रभावित समुदायों की प्रतिक्रियाओं को प्रकाश झा ने आरक्षण फिल्म में सही परिप्रेक्ष्य में दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया। आरक्षण जैसे विवादित विषय को परदे पर तार्किक ढंग चित्रित कर पाना साहस का काम था।

ओटीटी प्लेटफार्म और झा की फिल्में

प्रकाश झा समाज की नब्ज पर उंगली रखकर उसका  समझने वाले फिल्मकार हैं।उनकी फिल्मों में सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे प्रमुखता से चित्रित हुए हैं जिनमें दामुल, मृत्युदंड, गंगाजल, राजनीति, आरक्षण और सत्याग्रह प्रमुख हैं। वे खुद को एक कहानीकार मानते हैं जो फिल्मों के माध्यम से अपनी कहानी को परदे पर पेश करता है।ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफार्म ने फ़िल्मकारों को नए अवसर और विकल्प उपलब्ध कराएं हैं। कम बजट और नए कलाकारों-निर्देशकों को यहाँ अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिला है। सफल और स्थापित कलाकर और फिल्म निर्माता दुनिया भर में इन प्लेटफॉर्म्स पर अपनी फिल्मों को रिलीज कर रहे हैं जो हमारे एंड्रॉयड, टेलीविजन और मोबाइल पर आसानी से उपलब्ध हैं। रिया शर्मा प्रकाश झा के साथ अपने एक इंटरव्यू में ओटीटी प्लेटफार्म के बारे में उनके विचार रखते हुए लिखती हैं,  ‘Jha admits that OTT has redefined things for actors, directors and writers and he believes that it has created a whole lot of opportunities for them. प्रकाश झा ने भी इस प्लेटफार्म के लिए परीक्षा: द फाइनल टेस्ट (2019), आश्रम (2020),हाइवे नाइट्स (2021) जैसी वेब सीरीज बनाई हैं। आश्रम के दूसरे सीजन की शूटिंग के समय भोपाल मे उनकी टीम के ऊपर यह आरोप लगाते हुए हमला हुआ कि वे संतों और उनके आश्रमों को बदनाम कर रहे हैं जो हिन्दू आस्था पर चोट करते हैं। हाइवे नाइट्स फिल्म लड़कियों को देह व्यापार के धंधे में जबरदस्ती धकेलने के खिलाफ दर्शकों को जागरूक करने का काम करती है। लड़कियों को गरीबी से बाहर निकालकर उन्हे सामाजिक सहयोग और शिक्षा उपलब्ध कराकर हम वेश्यावृत्ति जैसे गंभीर अपराध से उन्हे बचा सकते हैं और उन्हें गरिमामय जीवन दे सकते हैं।

वेब सीरीज आश्रम

प्रकाश झा को फिल्मों और वृतचित्रों के निर्माण के लिए कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिले जिनकी एक लंबी सूची है। इनमें सन 1984 में फेसेज आफ्टर द स्टॉर्म के लिए गैर-फीचर फिल्म श्रेणी मे नैशनल फिल्म अवॉर्ड। सन 1985 में दामुल फिल्म के लिए बेस्ट फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार। सन 1987 में कुडियट्टम फिल्म के लिए बेस्ट कला/सांस्कृतिक फिल्म अवॉर्ड। सन 1988 में परिणति फिल्म के लिए बेस्ट कास्ट्यूम डिजाइन के लिए पुरस्कार। सन 1988 मे लुकिंग बैक के लिए बेस्ट इन्डस्ट्रीअल डाक्यूमेंट्री पुरस्कार। सन 2002 में सोनल के लिए बेस्ट गैर फीचर फिल्म का पुरस्कार। सन 2003 में सामाजिक मुद्दों पर गंगाजल फिल्म के लिए बेस्ट फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार। फिल्म अपहरण के स्क्रीनप्ले के लिए सन 2005 मे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार।

 

फेसेज आफ्टर द स्टॉर्म के लिए गैर-फीचर फिल्म श्रेणी मे नैशनल फिल्म अवॉर्ड मिला

सवाल भी बहुत सारे हैं

प्रकाश झा समाज सापेक्ष और सार्थक सिनेमा के सिद्धहस्त रचनाकार रहे हैं। उन्होंने सत्यजीत रे और मुजफ्फर अली की भांति अपने गृह प्रदेश बिहार के ज्वलंत मुद्दों और समस्याओं पर बेहतरीन फिल्में बनाई और एक बड़े दर्शक वर्ग को प्रभावित और जागरूक करने का काम किया। डाक्यूमेंटरी फिल्मों, धारावाहिकों और फिल्मों जैसी कई विधाओं मे काम करके उन्होंने सिनेमा जैसे दृश्य-श्रव्य माध्यम को समृद्ध करने का काम किया। सिनेमा में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कार भी मिले। उनकी फिल्मों के विषय संवेदनशील रहे जिसके कारण उन्हें विरोध और हिंसा का भी सामना करना पड़ा लेकिन एक सजग और सक्षम फिल्मकार लगातार सक्रिय रहते हैं। इसके साथ ही प्रकाश झा को लेकर यह बात होती है कि अपने सिनेमा में कई तरह के रचनात्मक घालमेल भी करते हैं। मसलन आरक्षण जैसे मुद्दे को फिल्म में उठाया लेकिन अंततः इसे डील नहीं कर पाये। कहानी डिरेल हो गई। कोचिंग का सवाल आ गया। शिक्षा को अपने हिसाब से खरीदनेवाले और बेचने वाले वर्ग आ गए। और अंततः एक बड़ा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य कहानी से बाहर हो गया। झा पर यह भी आरोप लगता रहा है कि उन्होंने बिहार के सवर्णों का चित्रण पूरी रचनात्मक निर्ममता से नहीं किया है। जबकि पिछड़ी जातियों के आपराधिक चित्रण को बढ़ा-चढ़ाकर किया है। अपराध की सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि को उन्होंने उतनी शिद्दत से नहीं उकेरा कि वास्तव में उनका सिनेमा सही मायने में राजनीतिक सिनेमा हो जाता। कई बार मुझे लगता है कि प्रकाश झा अवधरणात्मक शुरुआत तो अच्छी करते हैं लेकिन कतिपय पूर्वाग्रहों के कारण उसका निर्वाह करने में पीछे रह जाते हैं।

लेकिन कहते हैं कि बिलकुल बुरी चीजें नहीं बल्कि काफी अच्छी चीजें ही असंतोष और असहमति पैदा करती हैं। इस लिहाज से प्रकाश झा का सिनेमा उनके प्रति एक गहरी असहमति पैदा करता है। शायद यही प्रकाश झा के सिनेमा की सबसे बड़ी सार्थकता है।

 

 संदर्भ 

1- No freedom of expression for filmmakers in india: Prakash Jha
, on 30 may 2019.
2- My constant challenge is to weave real life with the story: Prakash Jha, on
17 April 2010 https://economictimes.indiatimes.com/opinion/interviews/my-constant-challenge-is-to-weave-real-life-with-the-story-prakash-jha/articleshow/5823114.cms?utm_source=contentofinterest&utm_medium=text&utm_campaign=cppst
 3 – Sharma, Ria (2021) ‘I try not to be judgemental ever’: Prakash Jha opens up about his process as a filmmaker, The free press journal,on October 27, 2021.
4 – Trivedi, Bhutnath (2014) Prakash Jha mulls film for Bihar’s special status, in The Indian Express on 3 march 2014.
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4 COMMENTS
  1. बढ़िया और पठनीय आलेख। प्रकाश झा प्रबुद्ध, रचनाशील और ज्वलंत मुद्दों एवं सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर गंभीर फिल्में बनाते हैं जो कुछ पूर्वग्रहों/कमियों के बावजूद बेहतर सिनेमा के प्रति हमारी उम्मीदों को बनाए रखती हैं। हां, उनसे और बेहतर और यथार्थवादी फिल्मों की अपेक्षा है।

  2. सिनेमा के क्षेत्र में ज्ञान में वृद्धि करता शानदार लेख

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