Thursday, April 25, 2024
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जाति आधारित शोषण और विद्वेष के खिलाफ लड़ती कवितायें

वर्तमान युग विमर्शों का युग है जिसमें एक ओर शोषण के प्रतिरोधी स्वर बहुत तेज और मुखर हुए हैं तो दूसरी ओर मानवाधिकार के लिए संघर्ष भी निरंतर जारी है। इस संघर्ष को युवा कवि नरेंद्र वाल्मीकि ने अपने पहले कविता-संग्रह जारी रहेगा प्रतिरोध में धारदार अभिव्यक्ति दी है। इन कविताओं में शोषण मुक्त मनुष्य […]

वर्तमान युग विमर्शों का युग है जिसमें एक ओर शोषण के प्रतिरोधी स्वर बहुत तेज और मुखर हुए हैं तो दूसरी ओर मानवाधिकार के लिए संघर्ष भी निरंतर जारी है। इस संघर्ष को युवा कवि नरेंद्र वाल्मीकि ने अपने पहले कविता-संग्रह जारी रहेगा प्रतिरोध में धारदार अभिव्यक्ति दी है। इन कविताओं में शोषण मुक्त मनुष्य को गरिमा प्रदान करने का आग्रह है। इस संग्रह की पहली कविता उजाले की ओर है। जिसमें कवि ने अपने पूर्वजों को याद करते हुए अस्पृश्य समाज के भीतर स्वाभिमान की अलख जलने का प्रयास किया है। कविता का एक अंश देखिए-

हमारे पूर्वज/हमारा अभिमान है,/हमारे पूर्वज इस/देश की मूल संतान है,/हमारे पूर्वज कभी/शासक हुआ करते थे/बड़ेबड़े सूरमा/उनके साहस का/दम भरते थे।

[bs-quote quote=”वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने भारत के आदर्श वाक्य ’वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा को मूर्त करने का प्रयास किया है किंतु कवि नरेंद्र वाल्मीकि के लिए इन सबका कोई मतलब नहीं है क्योंकि इतनी तरक्की होने के बावजूद आज भी भारतीय समाज का एक तबका सीवरों में अपना दम तोड़ रहा है। वह मल उठाने को मजबूर हो। सीवर की सडांध में मानवता का दम घुट रहा है जिसकी चीख-पुकार सभ्य समाज तक नहीं पहुंच पा रही है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

ऐसा ही प्रयास अपनी लेखनी के माध्यम से आजादी से पूर्व स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ ने किया था। जिसका एक उदाहरण दृष्टव्य है-

हैं सभ्य सबसे हिंद के प्राचीन है हकदार हम।/हाहा! बनाया शूद्र हमको, थे कभी सरदार हम।।/अब तो नहीं है वह जमाना, जुल्म हरिहरमत सहो।/अब तो तोड़ दो जंजीर, जकड़े क्यों गुलामी में रहो।।

भारत को आजाद हुए लगभग 75 साल हो गए हैं। इस बीच भारत ने खूब तरक्की की है। आधुनिकता ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास किया है। मानव जीवन को सरल और सुगम बनाने के लिए वैज्ञानिकों ने नई-नई खोजें की हैं। वैज्ञानिक तरक्की ने मनुष्य को चांद और मंगल तक पहुंचा दिया है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने भारत के आदर्श वाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा को मूर्त करने का प्रयास किया है किंतु कवि नरेंद्र वाल्मीकि के लिए इन सबका कोई मतलब नहीं है क्योंकि इतनी तरक्की होने के बावजूद आज भी भारतीय समाज का एक तबका सीवरों में अपना दम तोड़ रहा है। वह मल उठाने को मजबूर हो। सीवर की सडांध में मानवता का दम घुट रहा है जिसकी चीख-पुकार सभ्य समाज तक नहीं पहुंच पा रही है। कवि नरेंद्र वाल्मीकि अपनी कविताओं के माध्यम से इस शर्मसार होती मानवता को आवाज देते हैं। इस दृष्टि से ‘खोखली बातें’ कविता को देखा जा सकता है-

आधुनिकता के/वैज्ञानिकता के/नाम पर मंगल/पर जाने वालों/अभी भी/देश के नागरिक/अपने उदर के मंगल‘/के लिए/उतरते हैं/गंदे नालों में,/क्या तुम्हें मालूम/नहीं ?/तुम्हारे नाक के नीचे/पूरी मानवता/शर्मसार हो रही है।

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नरेंद्र वाल्मीकि समाज के ऐसे जागरूक प्रहरी हैं जिनकी नजर समसामयिक घटनाओं पर निरंतर बनी रहती है। ये घटनाएँ उन्हें व्यथित करती हैं और उनकी संवेदना को इतना अधिक उद्वेलित कर देती हैं कि वे कविता लिखने पर मजबूर हो जाते हैं। इस प्रकार उनकी कविता शोषित समाज के गर्भ की प्रसव पीड़ा से जन्मी है। केरल के मलप्पुरम में गर्भवती हथिनी को फल में पटाखे खिलाकर हत्या के मामले में पूरे देश के बुद्विजीवी, कवि, पत्रकार आदि तरह-तरह से अपनी संवेदनाएं व्यक्त कर इस कुकृत्य की निंदा कर रहे थे किंतु हाथरस में जब मनीषा का बलात्कार कर उसे मार दिया गया था तब देश के ये संवेदनशील नागरिक कहां चुप्पी साधे बैठे थे ? संवेदना का यह कैसा खंडित रूप है जो कि मानव जनित बेटी के प्रति हृदय को तनिक भी झकझोर नहीं पाती ? कवि वाल्मीकि ऐसी खंडित संवेदना पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं और इस संवेदना के छिछलेपन को जातीय मानसिकता के परिप्रेक्ष्य में संवेदना का बदलता रूप नामक कविता में रेखांकित करते हैं-

आंखों के सामने/जब बलात्कार कर/मार दिया गया देश की/बेटी मनीषा को।/तब यह तथाकथित/कवि, पत्रकार, रसूखदार/क्यों चुप्पी साध गये।/तब क्यों नहीं उमड़ी/इनकी संवेदनाएं /एक मानव जनित बेटी के साथ।

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जाति-व्यवस्था ने मानवता को सूली पर चढ़ाकर वर्चस्व की मानसिकता को प्रश्रय दिया है। यह वर्चस्व जाति विशेष पर आधारित है जिसने ऐसा जातीय समीकरण तैयार किया है जिसमें व्यक्ति ही अस्पृश्यता की श्रेणी में आ गया है जिससे एक विषमतावादी समाज का निर्माण हुआ है। जाति-व्यवस्था के संदर्भ में भक्तिकाल के संत कवियों का जो चिंतन और विचार था उससे कवि वाल्मीकि ऊर्जा ग्रहण कर अपनी कविता का सृजन करते हैं। जिस प्रकार संत शिरोमणि रैदास ने समतामूलक समाज की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए कहा था कि  “ऐसा चाहूँ राज मैं, मिले सबन को अन्न/छोट बड़े सब संग रहें, रविदास रहे प्रसन्न” ठीक उसी प्रकार कवि ने जाति आधारित शोषण को नकारा है और प्रतिरोध के स्वर को बुलंद करते हुए हर प्रकार के भेद-भाव की समाप्ति का उद्घोष ‘अब और नहीं कविता’ में किया है-

अब हम करेंगे/मिलकर प्रतिरोध/हर समाजिक बुराई का/ताकि दे सकें/हम हमारे बच्चों को/एक ऐसा संसार/जिसमें कोईछोटाबड़ा ना हो/जाति और धर्म के नाम पर।

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कवि वाल्मीकि अपनी कविताओं के माध्यम से मानवाधिकारों की प्राप्ति के संघर्ष को वाणी देते हैं। इस वाणी में सामाजिक परिवर्तन की अकुलाहट है। यह अकुलाहट मनुष्य की दमित और शोषित स्थिति के बोध से जन्मी है यह बोध उन्हें वंचित समाज के अधिकारों के प्रति गंभीरता से सोचने पर मजबूर करता है। वे दलित समाज को जगाना चाहते हैं। संग्रह की कविताएं अपने पीछे अनेक प्रश्न छोड़ जाती हैं। जिनमें पाठक की संवेदना को झकझोरने का सामर्थ्य है। इस दृष्टि से संग्रह की ज्यादातर कविताएं प्रश्नवाचक शैली में लिखी गई हैं। उदाहरण के रूप में ‘व्यवस्था पर चोट’ कविता को देखा जा सकता है-

रोज घटित हो रही अमानवीय घटनाओं पर/तब तोड़ोगे अपनी चुप्पी/जब बंद हो जाएंगे सारे रास्ते,/क्या तुम तब खोलोगे अपने होंठ ?/आखिर कब करोगे व्यवस्था पर चोट ?

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वर्ण-व्यवस्था के समर्थक समता की नहीं समरसता की बात करते हैं किंतु इस समरसता में वर्ण-व्यवस्था के समर्थन के बीज छुपे हुए हैं जो कि जातिगत ऊंच-नीच के कंटीले पौधों को जन्म देते हैं। कवि वाल्मीकि समरसता के स्थान पर संवैधानिक समानता की बात करते हैं जो कि जातिगत असमानता की विरोधी है जिसे उनकी कविता ‘समरसता’ में देखा जा सकता हैं-

किंतु सुनो !/हमें समानता चाहिए/ना कि समरसता/क्योंकि/हम चाहते हैं/देखना सभी को/एक समान।

अक्सर कहा जाता है कि जाति-पाति के भेद समाप्त हो चुके हैं किन्तु इस प्रकार के विचारों का उद्गार उनके मुख से किया जाता है जिनके लिए जाति कोई समस्या नहीं है बल्कि सामाजिक सम्मान का आधार है। वहीं जाति उत्पीड़न का शिकार हो रहे दलित समाज के लिए जाति-पाति के भेद आज भी मौजूद हैं। नरेंद्र वाल्मीकि के पास विचार रूपी हथियार है जिसे वे अपनी समझ से तेज करते हैं और स्वयं को प्रगतिशील कहने वालों के दोहरे चरित्र पर वार कर उनकी पोल खोलते हुए नजर आते हैं। कवि वाल्मीकि शोषक वर्ग के तमाम विभेदकारी षडयंत्रों और उनकी जातिवादी मनोवृत्तियों से भली-भांति परिचित हैं जिसे वे योग्यता पर भारी जाति, ढोंगी बाबा, ऐलान, दिखावा और दोहरी मानसिकता कविताओं में चित्रित कर उनकी पोल खोलते हुए नजर आते हैं। दिखावा कविता से एक उदाहरण दृष्टव्य है-

सुनो!/अब हम/तुम्हारी दूषित/मानसिकता को/समझ गए हैं/इसलिए/दलित हितैषी/बनने का/दिखावा/बंद करो।

भारतीय समाज की मानसिकता में वर्णवादी विभेदकारी व्यवस्था के कारण जातिगत श्रेष्ठता की भावना निरंतर प्रश्रय पाती रही है। यह एक ऐसी भावना है जो कि समानता की विरोधी है। अतः कहा जा सकता है कि जहां श्रेष्ठता का बोध है वहां समानता टिक ही नहीं सकती। यह श्रेष्ठता का बोध ही जातिगत ऊंच-नीच के आधार पर दलितों के भीतर हीनता ग्रंथि को जन्म देता है। जिसे कवि ने ‘उनका श्रेष्ठत्व’ कविता में चित्रित किया है और इस हीनता बोध से उबारने के लिए जागृति का उद्घोष कर संघर्ष करने की मांग की है-

जिससे लड़ने/के लिए/दलितों को/असहाय पीड़ा से/गुजरना होगा/मुश्किल दौर से/संघर्ष करना होगा।

[bs-quote quote=”संग्रह की कविताएं भले ही कला की दृष्टि से खरी न उतरती हों किंतु कविता में अभिव्यक्त भाव और विचार विषमतावादी जातीय वर्चस्व के सम्मुख सीना तान कर खड़े हैं। हम कह सकते हैं कि नरेंद्र वाल्मीकि एक संभावनाशील कवि हैं जो कि अपनी कविताओं के माध्यम से जातीय मानसिकता से टकराकर उसे तोड़ना चाहते हैं। अत: मनुष्यता का शासन स्थापित करना उनका ध्येय रहा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

वंचित समाज के सामाजिक और आर्थिक स्तर को ऊंचा उठाने में डॉ. भीमराव अंबेडकर का महत्वपूर्ण योगदान रहा है सही मायने में देखा जाए तो डॉ॰ भीमराव अंबेडकर एक सच्चे राष्ट्र निर्माता थे जिन्होंने श्रमजीवी समाज को पढ़ने-लिखने का अधिकार दिया। जिससे वे भी समाज में अपना सिर उठाकर सम्मान के साथ जी सकें। कवि वाल्मीकि के लिए डॉ॰ अंबेडकर मात्र एक शब्द नहीं है बल्कि वंचित समाज के भीतर स्वाभिमान की अलख जलाने वाला ऐसा विचार है जो अमानवीय ताकतों से निरंतर लड़ने हेतु प्रेरित करता है।

अंबेडकर/एक शब्द नहीं है/यह एक विचार है/जो जागृत करता है/स्वाभिमान/ एक मूक व्यक्ति की आत्मा में। (अंबेडकर)

‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ कविता में कवि ने अपने मूल मंतव्य का उद्घाटन किया है। उनका मूल मंतव्य शोषण के विरुद्ध निरंतर संघर्ष की लौं को जलाए रखना है। कविता संग्रह का शीर्षक भी ‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ है जिसकी सार्थकता प्रतिरोध की निरंतरता में निहित है।

निष्कर्षत: कवि के पास जातीय उत्पीड़न का निजी अनुभव है जो उनकी संवेदना के भीतर मानवीय चेतना का संचरण कर कविता का सृजन करता है। अत: इस कविता-संग्रह का भाव पक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसमें कृत्रिमता का पुट न के बराबर है। साथ ही भाषाई सरलता संकलित कविताओं के मूल को उद्घाटित करने का सामर्थ्य रखती है। अत: वास्तविक स्थितियों से एकत्रित की गई सामग्री से सृजित इस कविता-संग्रह में सामाजिक परिवर्तन की अनुगूंज साफ सुनाई देती है। संग्रह की कविताएं भले ही कला की दृष्टि से खरी न उतरती हों किंतु कविता में अभिव्यक्त भाव और विचार विषमतावादी जातीय वर्चस्व के सम्मुख सीना तान कर खड़े हैं। हम कह सकते हैं कि  नरेंद्र वाल्मीकि एक संभावनाशील कवि हैं जो कि अपनी कविताओं के माध्यम से जातीय मानसिकता से टकराकर उसे तोड़ना चाहते हैं। अत: मनुष्यता का शासन स्थापित करना उनका ध्येय रहा है।

पुस्तक का नाम – जारी रहेगा प्रतिरोध (कविता संग्रह)

लेखक-  नरेन्द्र वाल्मीकि

प्रकाशन- सिद्धार्थ बुक्स, दिल्ली

प्रथम संस्करण- 2021

पृष्ठ : 120

मूल्य- ₹100

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अनुज कुमारहिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं।

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