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पानी की ‘ब्यूटी’ का इस्तेमाल करने वाला सिनेमा पानी के प्रति ड्यूटी’ कब निभाएगा

पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व लिए जल एक अपरिहार्य तत्व है। भारतवर्ष में हजारों नदियां हैं, झील, ताल, तालाब और झरने अपनी खूबसूरती के साथ यत्र-तत्र विद्यमान हैं लेकिन भारतीय सिनेमा में पानी और उससे जुड़े मुद्दों को बहुत कम स्पेस मिला है। हालांकि पानी और सिनेमा का हमेशा से करीबी रिश्ता रहा है लेकिन वह पानी के रोमांटिक पक्ष पर ही ज्यादा केंद्रित रहा है। भारतीय सिनेमा में जब हम हिन्दी भाषा से अलग अन्य भाषाओं के सिनेमा को देखते हैं तो पता चलता है कि सामाजिक और पर्यावरणीय विषयों पर कुछ गंभीर निर्देशकों ने सार्थक फिल्में बनाई हैं। पढ़िए डॉ राकेश कबीर का विश्लेषणपरक लेख

शताब्दी वर्ष में राजकपूर की याद : सिनेमा के कई छोरों को छूती हुई

भारतीय सिनेमा के इतिहास में शोमैन कहे जाने वाले राजकपूर की पारिवारिक पृष्ठभूमि भले ही फिल्मी रही हो, लेकिन उन्होंने अपनी जगह स्वयं के संघर्ष से हासिल की। दो राय नहीं कि राजकपूर (1924-1988) हिन्दी सिनेमा के महान अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक थे। उन्नीसवीं सदी के चालीस और पचास के दशक में जब भारतीय सिनेमा आरंभिक दौर में था और देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ था, जब आर्थिक और तकनीकी संसाधनों की कमी थी उस दौर में राजकपूर की श्वेत-श्याम फिल्मों में विषय चयन, सम्पादन, गीत-संगीत, संवाद, विचारधारात्मक परिपक्वता जैसे तत्व हमें आश्चर्यचकित करते हैं। भारतीय फिल्मों के इतिहास में उनकी अनेक फिल्में मील का पत्थर हैं। आज उनका शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है लेकिन उनका क्लासिक काम हमेशा याद किया जाता रहेगा।

स्मिता पाटिल ने संजीदा सिनेमा को एक नया व्याकरण दिया था

हिंदी फिल्म जगत की आठवें और नवें दशक की अत्यंत प्रतिभाशाली अभिनेत्री स्मिता पाटील के अभिनय कला की विलक्षणताओं, आम भारतीय स्त्री की वास्तविक स्थिति और मनोदशा को रुपायित करती अविस्मरणीय भूमिकाओं, समाज के वंचित तबके, विशेष रूप से महिलाओं के प्रति उनकी गहरी संवेदना आदि को रेखांकित करता/समेटता शोधपरक आलेख पढ़ा। यह हिंदी सिनेमा का दुर्भाग्य रहा कि वे बहुत कम उम्र में इस दुनिया से विदा हो गईं अन्यथा वे और सैकड़ों फिल्मों में अपने सशक्त अभिनय से अविस्मरणीय भूमिकाओं को परदे पर साकार करतीं।

शबाना आज़मी : एक कद्दावर अभिनेत्री जिसकी सामाजिक उपस्थिति भी एक मेयार है

आर्ट फिल्मों के साथ ही व्यावसायिक सिनेमा की बड़ी हिट फिल्मों में काम करने वाली अभिनेत्री शबाना आज़मी ने फिल्मों के अलावा देश के राजनीतिक मुद्दों, साम्प्रदायिक मामलों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर खुलकर अपने विचार रखे हैं। कला और समानांतर सिनेमा से लेकर पूर्णतः व्यावसायिक फिल्मों में उन्होंने काम किया, नाम और सफलता अर्जित की और साथ ही सामजिक दायित्वों का निर्वहन भी बखूबी किया है।

सिनेमा : बॉलीवुड भी दक्षिण और दक्षिणपंथ के साए से बच नहीं पाया

कला, सिनेमा और साहित्य पर देश की राजनीति का असर साफ़ तौर पर पड़ता है। 2014 के बाद मनोरंजन के सबसे बड़े, प्रिय और चर्चित माध्यम सिनेमा में जो बदलाव देखने को मिला, उससे सभी लोग परिचित हैं। संघ मनोरंजन की इस दुनिया में भी घुसपैठ कर वैचारिक वर्चस्व को बरकरार करने में कामयाब हो गया। साथ ही ओटीटी जैसे माध्यम आ जाने के बाद पैन इंडिया सिनेमा के चलते दक्षिण के सिनेमा और उसके अभिनेताओं/अभिनेत्रियों का वर्चस्व हिंदी भाषी दर्शकों पर पड़ने से बॉलीवुड के कलाकारों की चमक फीकी हुई है।

सिनेमा का सांप मनोरंजन और मुनाफे के लिए फुफकारता है

बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड फिल्मों में भी सांपों का प्रस्तुतिकरण पसंदीदा विषय रहा है। गाँव से लेकर शहर तक सांप हर जगह मौजूद भी हैं और उनसे जुड़ी तमाम कहानियां और मान्यताएं लोक में व्याप्त हैं। सिनेमा में इन साँपों को इतना चमत्कारिक दिखाया जाता है कि आम जनता इसे सच मानटी है। नागमणि, इच्छाधारी नाग ये ऐसे विषय है जिन पर हमारे देश में सैकड़ों फिल्मे और टीवी सीरियल बने। कहा जा सकता है कि साँपों से सामना करती जिंदगी डर रोमांच, मनोरंजन, किस्से कहानियों को रोज ही कहती-सुनती और बुनती रहती है।

सिनेमा ने युद्ध को मनोरंजन का माध्यम बनाया तो महिलाओं की दुर्दशा और जीवटता को भी दिखाया

सिनेमा बनाने वाले सिनेमा के विषय समाज से उठाते हैं भले ही उसका ट्रीटमेंट वे कैसे भी करें। बॉलीवुड हो या हॉलीवुड इधर युद्ध आधारित सिनेमा का चलन बढ़ा है। यह जरूर है कि विदेशी फिल्मों में भारत जैसे देशभक्ति का बखान नहीं दिखाया जाता। इधर महिला सैनिकों के जुनून पर भी अनेक फिल्में बनी। पढ़िये डॉ राकेश कबीर का यह आलेख

पीड़ा, यातना और बहिष्करण से आज़ादी की चाह में पितृसत्ता से छुटकारा पाने तक सिनेमा में तलाक के चित्र

तलाक एक व्यक्तिगत मुद्दा है, लेकिन इसका समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। दुनिया के विकसित पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में अभी...

‘दीवार’ फांदकर हाजी मस्तान हिन्दी सिनेमा का एक इमोशन बन गया

अंडरवर्ल्ड पर फिल्में बनाने का चलन मूलतः हालीवुड का है। माफिया इटालियन शब्द माफियुसी से आया है, जिसका अर्थ होता है शेरदिल। हालीवुड में...

क्या 50 साल बाद एंग्री यंग मैन बाज़ार का खिलौना बन गया है

अमिताभ बच्चन की फिल्म जंजीर 11 मई, 1973 को रिलीज हुई थी। इस महीने इस 'घटना' को 50 साल हो गए। 'घटना' इसलिए कि...

बहुरूपिया कला जवानी में तो ज़िंदा है लेकिन बुढ़ापे में मर जाती है

उन्होंने बताया कि दस वर्ष की उम्र में चेहरा कच्चा था। इस वजह से वे पिता के साथ लुहारिन, सब्जी वाली और अन्य स्त्री पात्र के लिए तैयार होते थे। वह कहते हैं - ‘आज चालीस वर्ष का हो चुका हूँ। तब से लेकर आज तक सैकड़ों किरदार के लिए बहुरूपिया बन चुका है। वह समय दूसरा था और आज का समय एकदम बदल चुका है। पहले धार्मिक किरदार में शिव, हनुमान, राम जैसे पात्र बनता था, लोग खुश होते थे और सम्मान देते थे लेकिन इधर 8-9 वर्षों से हम धार्मिक किरदारों से बचते हैं।

द थ्री खान्स एंड द इमर्जेंस ऑफ न्यू इंडिया – आज के सांप्रदायिक दौर में भी तीनों खान क्यों लोकप्रिय

हिंदी सिनेमा का पटल पर खान सरनेम वाले तीन सितारों का उदय एक दिलचस्प परिघटना है। खान तिकड़ी करीब तीन दशकों से हिंदी सिनेमा...

आयुष्मान खुराना : एक ऐसा अभिनेता जो हिंदी सिनेमा की परम्परा को तोड़ता है

बहुमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार हैं। न केवल अच्छा अभिनय करते हैं बल्कि गाते भी बहुत अच्छा हैं और दर्शक उन्हें पसंद करते हैं। फिल्म समीक्षकों से भी उन्हें अच्छी प्रतिक्रियाएं मिली हैं। आयुष्मान ने अपनी फिल्मों में स्पर्म डोनर, नपुंसकता, शीघ्र पतन, समलैंगिक और ट्रांसजेंडर, बॉडी शेम जैसे विषयों पर बुने गए चरित्रों को निभाया। नए क्षेत्रों में सफलता पाने के लिए रिस्क लेना पड़ता है, आयुष्मान और उनके फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों ने ऐसे विषयों पर फिल्म बनाकर रिस्क लिए और बड़ी संख्या में दर्शकों के सोचने समझने के स्तर को उच्चीकृत और विस्तृत करने का महत्वपूर्ण काम किया।

मोहित करने के साथ ही असहमति की भी जगह बनाता है प्रकाश झा का सिनेमा

प्रकाश झा समाज सापेक्ष और सार्थक सिनेमा के सिद्धहस्त रचनाकार रहे हैं। उन्होंने सत्यजीत रे और मुजफ्फर अली की भांति अपने गृह प्रदेश बिहार के ज्वलंत मुद्दों और समस्याओं पर बेहतरीन फिल्में बनाई और एक बड़े दर्शक वर्ग को प्रभावित और जागरूक करने का काम किया। डाक्यूमेंटरी फिल्मों, धारावाहिकों और फिल्मों जैसी कई विधाओं मे काम करके उन्होंने सिनेमा जैसे दृश्य-श्रव्य माध्यम को समृद्ध करने का काम किया।

मीनाक्षी सुन्दरेश्वर अर्थात धोती खोलकर पगड़ी बांधना

मीनाक्षी सुन्दरेश्वर फिल्म अपनी पहचान को स्थापित करने के लिए रिश्तों यानी परिवार और दाम्पत्य जीवन को भेंट चढ़ाने और फिर से रिश्तों में संवेदना तलाशने की कहानी है। यह फिल्म अपनी प्रस्तुति के अंदाज़ में बहुत सहज और दिलचस्प है वहीं विषय के निर्वाह और निहितार्थ में एक जटिल अभिव्यक्ति है जो बताती है कि पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में अपनी पहचान को बेचैन पीढ़ियाँ पुरानी सामाजिक संरचनाओं, धारणाओं, पितृसत्तात्मक मूल्यों को पीछे छोडकर आगे निकल रही हैं।

यह फिल्म नफ़रत की शिकार युवती और वर्तमान समय के एक युवा के बीच संवेदनाओं पर आधारित है।

https://www.youtube.com/watch?v=y0zcZgNO7OQ&t=465s एलियन-फ्रेंक नामक आनेवाली फिल्म के लेखक-निर्माता राजेश प्रसाद , निर्देशक अमर दुबे और अभिनेता लकी सिंह से बातचीत।

भारत-पाकिस्तान संबंध और बॉलीवुड की फिल्में

भारत में दो चीजें क्रिकेट और बॉलीवुड बहुत लोकप्रिय है और बात जब भारत पाकिस्तान के बीच आ जाये तो क्लाइमेक्स नये आयाम स्थापित...

सिनेमा में पत्रकार न्याय के लिए लड़ने की एक उम्मीद हैं

 पत्रकार ड्यूश वेले (2020) ने मीडिया एडवोकेसी ग्रुप नामक निजी संस्था की वार्षिक रिपोर्ट रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स का हवाला देते हुए 29 दिसम्बर 2020 को इंडियन...

बॉलीवुड में ऐतिहासिक सिनेमा हमेशा संदिग्ध विषय रहा है

इतिहास में बीते हुए समय में घटित घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत किया जाता है। इतिहास के अंतर्गत हम जिस विषय का अध्ययन करते हैं उसमें अब तक घटित घटनाओं या उससे संबंध रखने वाली घटनाओं का कालक्रमानुसार वर्णन होता है। आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार इतिहास में सार्वजनिक घटनाओं का विवरण होता है। इसमें व्यक्तिगत जीवन से सम्बंधित घटनाओं का उल्लेख नहीं होता। इसमें वर्णित घटनाओं में क्रमबद्धता होती है तथा इतिहासकार सच्चे वैज्ञानिक की तरह घटनाओं को जैसी घटित हुई है उनकी सम्पूर्णता में प्रस्तुत करते हैं।

बॉलीवुड में भी डाइवर्सिटी रिपोर्ट प्रकाशित होनी चाहिए

मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक और सामजिक गैर-बराबरी है, जिसे सदियों से ही दुनिया के तमाम शासक शक्ति के स्रोतों - आर्थिक,...

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