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वाराणसी : बच्चों के साथ कठिन परिश्रम करने के बावजूद न्यूनतम मजदूरी से वंचित हैं आँगनबाड़ी कार्यकर्ता

आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की बड़ी संख्या अत्यंत गरीब दलितो-पिछड़े समुदायों और जातियों से ताल्लुक रखता है जिनके बारे में यह नैरेटिव गढ़ा जा चुका है कि वे किसी भी कठिन परिस्थिति में जी लेते हैं। उनकी मौलिक और बुनियादी समस्याओं को जितना अधिक टाला जा सके टालते रहा जाय। जबकि वे आगे आने वाली पौध की नींव रखती हैं, उन बच्चों को सामाजिक बनाने और आपसी सामंजस्य बिठाने का पहला काम यही आंगनवाड़ी कार्यकर्ता करती हैं।

वाराणसी। जिले के बड़ागाँव इलाके के नटवाँ गाँव के प्राथमिक विद्यालय में जब मैं पहुंची तो वहाँ चक खरावन नाम के आंगनबाड़ी केंद्र में तारा देवी अपनी कक्षा में दीवार पर बने चित्रों के माध्यम से बच्चों को खेल-खेल में पढ़ा रही थीं और बच्चे बहुत मजे लेकर पढ़ रहे थे। कुछ देर बाद, वहीं एक कोने में रखे हुए पजल्स और ब्लॉकस के माध्यम से बच्चे खेलते हुए दिखे। वे उन्हें जोड़कर अलग-अलग आकृतियाँ बना रहे थे। बच्चों को सिखाने और पढ़ाने का कमरा अन्य आँगनबाड़ी केंद्रों से बहुत अलग, साफ-सुथरा और सजा हुआ दिखाई दे रहा था। फर्श पर टाइल्स लगे हुए थे। यहाँ दो आंगनबाड़ी केंद्र चलते हैं और बच्चों की संख्या 60-70 के लगभग है। कक्षा में मुझे अन्य आँगनबाड़ी केंद्रों से कुछ अलग दिखा। यहाँ की दीवारों पर पालतू और जंगली जानवरों के चित्र बने हुए थे। साथ ही हिन्दी और अंग्रेजी की रंगीन वर्णमाला और सौ तक गिनती लिखी हुई थी।

कुछ देर बाद वे बच्चे सिखाई गई कविता, जो उन्हें कंठस्थ थी, सामूहिक रूप से जोर-जोर गा रहे थे। उसमें लगने वाली एनर्जी और गाई जाने वाली लय हमें अपने सरकारी स्कूल की याद दिला रही थी, जहां हम ऐसे ही सामूहिकता में गाते और पढ़ते हुए आसानी से अपने सबक को याद कर लिया करते थे।

तारा देवी इन बच्चों के साथ पूरी तन्मयता के साथ लगी हुई थीं। हमने बीच में उन्हें डिस्टर्ब करना उचित नहीं समझा और जब बच्चों का भोजनावकाश हुआ तब उनसे बातचीत हुई।

आपको इतने छोटे बच्चों के साथ काम करते हुए कोई परेशानी नहीं होती? क्योंकि घर पर अपने एक या दो बच्चों को संभालना ही मुश्किल होता है। तब उन्होंने कहा कि इन्हें संभालना व पढ़ाना एक चुनौती जरूर है लेकिन मजा भी बहुत आता है। सिखाने के लिए नए-नए प्रयोग करते हुए इन्हें रचनात्मक तरीके से सिखाना होता है।

तारा पटेल अपने आगंबड़ी केंद्र में बच्चों की रचनात्मक गतिविधियों को देखते हुए

यहाँ पढ़ने वाले अधिकतर बच्चों के माता-पिता रोजी-मजूरी करते हैं, जिनका पूरा ध्यान रोज की मजदूरी पर केंद्रित होता है। वे चाहते तो हैं कि उनका बच्चा कुछ पढ़े और सीखे लेकिन खुद अनपढ़ होने के कारण वे उनके लिए बेहतर व्यवस्था कर पाने में असमर्थ होते हैं। ऐसे में आंगनबाड़ी केंद्र ही इन बच्चों की मानसिक और नैतिक शिक्षा का आधार होते हैं।

बात करते हुए तारा देवी ने बताया कि वह छ: भाई-बहनों में वे दूसरे नंबर पर हैं। पिता की माली हालत ठीक नहीं होने के बावजूद उन्होंने अपने घर में सबसे ज्यादा (बीए तक की) पढ़ाई की। 17 की उम्र में ग्राम नटवाँ के देवचन्दपुर निवासी सुभाष चंद्र पटेल के साथ उनकी शादी हो गई। तीन बच्चों में बड़ी बेटी की शादी हो गई और एक बेटी और एक बेटा बलदेव डिग्री कॉलेज से बीए कर रहे हैं।

आँगनबाड़ी कार्यकर्ता के रूप 23 साल से अपनी सेवाएं दे रही तारा देवी से मैंने पूछा कि आँगनबाड़ी से आप कैसे जुड़ीं? पूछने पर उन्होंने कहा कि हमेशा से कुछ करने का मन था लेकिन कभी कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया। शादी के बाद, विशेषकर गाँव में, महिला के लिए कुछ करने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। लेकिन 2001 की बात है, जब ग्राम प्रधान ने बताया कि आँगनबाड़ी में कार्यकर्ता के पद के लिए वैकेंसी आई है। तब मेरे देवर अशोक कुमार पटेल ने इसका फॉर्म भर दिया और 22 नवंबर 2001 से आँगनबाड़ी केंद्र से जुड़कर लगातार काम कर रही हूँ।

इस काम के लिए मुझे महिला एवं बाल विकास विभाग की सुपरवाइजर द्वारा ट्रेनिंग दी गई और समय-समय पर नई-नई जानकारी बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए दी जाती है, जिसके आधार पर उनके लिए आंगनबाड़ी केंद्र स्वास्थ्य सुविधा, टीकाकरण, पोषण आहार, गाँव के बच्चों को आधारभूत शिक्षा उपलब्ध कराता है। शहरों में महिला और बच्चों के विकास के लिए अनेक विकल्प मौजूद होते हैं। वहीं गाँवों में जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य को लेकर स्वास्थ्य सुविधाओं का बहुत अभाव होता है।

आंगनबाड़ी में बच्चों के साथ इग्नस के विनय।

इसी तरह जब मैं एक दूसरे आँगनबाड़ी केंद्र में पहुंची, जहां काम करने वाली कार्यकर्ता घरेलू कारणों से अपने केंद्र और स्वयं की पहचान ज़ाहिर न करने की शर्त पर बात करने को तैयार हुई। उन्होंने बताया कि वे बीए पास हैं और सन 2008 से अंगनबाड़ी से जुड़कर अपनी सेवाएं प्रदान कर रही हैं। उन्हें इस काम में चौदह वर्ष हो चुके हैं। वह अपने केंद्र पर काम की वजह से पहचानी जाती हैं लेकिन नाम या फोटो कहीं छप जाने पर आज भी घर वालों की बात सुननी पड़ती है। इसी कारण उन्होंने अपनी पहचान सार्वजनिक करने से सख्त मनाही की, जबकि इस नौकरी के लिए इनके घर वालों ने ही सहमति देकर फॉर्म भरवाया था। इस तरह की कहानी कोई पहली बार नहीं हुई, ऐसी असंख्य घटनाएं होंगी।

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पितृसत्तात्मक भारतीय समाज महिलाओं की अति सुरक्षा की आड़ में उन्हें अपने अनुसार चलने को मजबूर करता है। महिलाओं के आगे निकल जाने का डर पुरुषों में बहुत होता है और यही कारण है कि उन्हें सामने नहीं आने देना चाहते। वे पैसा कमाएँ लेकिन पितृसत्ता द्वारा तय किए गए रास्ते पर चलते हुए। आजादी है लेकिन कतरे परों से उड़ने की।

तारा देवी और दूसरी महिला से मैंने पूछा कि आँगनबाड़ी केंद्र में काम करते हुए आपने बच्चों को बहुत कुछ सिखाया, लेकिन क्या यहाँ काम करते हुए आप लोगों के जीवन में क्या बदलाव हुआ? दोनों ने बताया कि हमने भरपूर सामाजिकता सीखी, लोगों से मिलना-जुलना, हँसना-बोलना सीखा। अपनी बात को कहने का साहस हममें आया। अब किसी से बात करते हुए हम डरते नहीं हैं। समाज महिलायों के प्रति किस तरह का नजरिया रखता है, इसका पता हमें बाहर आकर काम करने के बाद हुआ।

इन दोनों ने सबसे महत्त्वपूर्ण बात बताई कि अब मोबाइल से काम करने के लिए किसी और से सहायता लेने की जरूरत नहीं पड़ती। दोनों आज मोबाइल में पारंगत हो चुकी हैं। बिना किसी की सहायता के अपने विभाग के सारे काम ये खुद मोबाइल के माध्यम से कर लेती हैं। इस बात को बताते हुए उनके चेहरे पर आत्मविश्वास झलक रहा था।

उन्होंने बताया कि आंगनबाड़ी केंद्र की शुरुआत प्रार्थना से होती है। मैंने देखा कि बच्चों को अनौपचारिक तरीके से चित्रों के माध्यम से सिखाया जा रहा है। इसके पीछे यह मनोविज्ञान है कि कोई भी बच्चा सुनने की बजाय देखकर जल्दी सीखता है। ये दोनों आँगनबाड़ी केंद्र इसके अच्छे उदाहरण हैं।

इनके अतिरिक्त और भी गतिविधियाँ हैं

प्राथमिक शिक्षा के सबसे बुनियादी कार्यकर्ता के रूप में आँगनबाड़ी कार्यकर्ता की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। पाँच घंटे केंद्र में समय देने के बाद उन्हें घर-घर तक सरकारी योजनाओं की जानकारी देने के लिए अलग से समय देना होता है ताकि कोई भी गर्भवती स्त्री और बच्चा उन योजनाओं के लाभ से छूट न जाए। एक तरह से उनकी दिनचर्या में एक निरंतर भागदौड़ बनी रहती है लेकिन इन पर बहुत कम लोगों की नज़र जाती है।

बड़ागाँव ब्लॉक के कई आँगनबाड़ी केन्द्रों के संयोजन और प्रशिक्षण में योगदान करने वाले संगठन इग्नस पहल से जुड़े कार्यकर्ता नियमित रूप से केन्द्रों की देखभाल के लिए आते हैं। हम ऐसे कई केन्द्रों पर गए और पाया कि ये केंद्र बहुत ही रोचक तरीके से सुसज्जित थे। इसके बारे में पूछने पर कार्यकर्ताओं ने बताया कि वेदांता ने केंद्र का इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया है और बिजली कनेक्शन की व्यवस्था भी करवाई है। लेकिन इग्नस पहल ने इसे बच्चों की जरूरत के हिसाब से सुसज्जित कर अलग-अलग कॉर्नर तैयार किए हैं। इग्नस पहल ने समय-समय पर आँगनबाड़ी कक्षा में पहल कैलेंडर के बारे में और उनके पास मौजूद टीएलएम (टीचिंग लर्निंग मेथड) से जोड़ा, इससे बच्चों को काफी मदद मिली।

इग्नस पहल की टीम के वीरेंद्र, विनय, शुभम और गायत्री देवी।

इग्नस पहल की गायत्री देवी हिरापुरे से बात कर हमने पूछा कि पहल कैलेन्डर क्या होता है? उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने स्कूलों के लिए ECCE (Early childhood care and education) कैरीकुलम बनाया है उसका नाम पहल है। इस सेंटर पर राज्य द्वारा निर्धारित पहल पाठ्यक्रम की पुस्तिका मौजूद है लेकिन इसमें मिलने वाला गतिविधि कैलेंडर मौजूद नहीं था। तब हमने इस पुस्तिका में दी गई थीम पर आधारित गतिविधियों और उनके क्रम को मिलाकर पहल कैलेंडर बनाया ताकि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता अपने केंद्र पर रोज आसानी से इसे कर पाएँ। इसके लिए दैनंदिन गतिविधियों पर यह कैलंडर टाइम टेबल के रूप मे बना है।

इग्नस पहल के कार्यकर्ताओं ने इस गाँव के बच्चों के लिए ग्रीष्मकालीन शिविर लगाया, जिसमें उन्होंने यहाँ के बच्चों के साथ रचनात्मक काम किए। इस संस्था का कहना है कि गर्मी की छुट्टियों में जब बच्चे औपचारिक रूप से स्कूल से कट जाते हैं, तो ऐसे में उनकी रचनात्मकता को बनाए रखने के लिए कार्यशाला का आयोजन जरूरी हो जाता है। आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं ने बताया कि इग्नस पहल के साथी वीरेंद्र, विनय, शुभम और गायत्री रोज उनके बीच पहुंचकर नाटक, गाने और रचनात्मक काम के माध्यम से व्यस्त रखने की भरपूर कोशिश करते हैं। उन्होंने बताया कि यह सब इतना रोचक हो गया है कि कार्यशाला शुरू होने से पहले ही बच्चे इसका इंतजार करते हैं।

महंगाई के दौर में जीवनयापन के लिए नाकाफी है वेतन

आंगनबाड़ी केंद्र शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने की सबसे पहली, छोटी और जरूरी इकाई है। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के विकेंद्रीकरण कर हर किसी व्यक्ति तक उसकी पहुँच आसान बनाने के लिए आंगनबाड़ी केंद्र का गठन किया गया। गाँव, कस्बे, टोले-मोहल्ले में गरीब और अभावग्रस्त परिवार के बच्चों को खेल-खेल में पढ़ाई के साथ पोषक आहार की सुविधा भी ये आंगनबाड़ी केंद्र उपलब्ध कराते हैं।

पूरे देश के लाखों आंगनबाड़ी केंद्रों की बागडोर इन आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों ने संभाली हुई है। 5 वर्ष से छोटे बच्चों के स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा की नींव तैयार करने का काम यही करती हैं लेकिन उस हिसाब से इनका वेतन न्यूनतम मजदूरी अधिनियम द्वारा तय किए गए मापदंड को भी पूरा नहीं करता। मात्र 4500 रुपये में ये काम करती हैं। पाँच घंटे केंद्र में समय देने के बाद सरकारी योजनाओं की जानकारी घर-घर तक देने के लिए अलग से समय देना होता है ताकि कोई भी गर्भवती स्त्री और बच्चा उन योजनाओं के लाभ से छूट न जाएँ। काम की जिम्मेदारी और पारिश्रमिक का अनुपात देखें तो इसमें बहुत ही असमानता दिखाई देती है। इन्हीं सुविधाओं के लिए उत्तर प्रदेश की आंगनबाड़ी कार्यकरतों द्वारा पिछले एक सितंबर 2023 को लखनऊ में एक धरना-प्रदर्शन किया गया ताकि इस बढ़ी हुई महंगाई के अनुपात में वेतन दिये जाएँ जिससे ज़िंदगी की आवश्यक सुविधाएं पूरी हो सकें।

ग्रीष्मकालीन कार्यशाला के लिए तैयार करते हुए ।

गौरतलब है कि पिछले छह साल में इनका मानदेय मात्र पाँच सौ बढ़ाया गया और इसी का योगी सरकार द्वारा जमकर ढिंढोरा पीटा जा रहा है। दूसरों को पोषण की जानकारी देनेवाली आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का स्वयं का परिवार कुपोषित होता जा रहा है। उत्तर प्रदेश आँगनबाड़ी कल्याण असोसियेशन की प्रदेश अध्यक्ष अंजनी मौर्य अपने एक वक्तव्य में कहती हैं ‘उत्तर प्रदेश सरकार आँगनबाड़ी कार्यकर्त्रियों की समस्याओं का कोई समाधान नहीं कर रही है बल्कि उनके जीवन को मज़ाक बना कर रख दिया है। उन्हें अपने ही केंद्र के लाभार्थियों का राशन और पोषाहार भिखारियों की तरह स्वयं सहायता समूह और कोटेदार से मांगना पड़ रहा है।’

एक साथी ने बताया कि आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के मानदेय में बढ़ोतरी को लेकर तरह-तरह की अफवाहें और मूर्खतापूर्ण तथ्य प्रचारित किए गए हैं। कोई उन्हें समझाता है कि यदि उनके मानदेय में एक रुपए भी बढ़ाया गया तो सरकार के ख़जाने पर करोड़ों रुपए की चपत लगेगी। अब सोचिए कि एक तरफ नेताओं, मंत्रियों, सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के ऐश की कोई सीमा नहीं है। जनता के धन को पानी की तरह बहाया जाता है लेकिन समाज के सबसे बुनियादी मोर्चे पर काम करने वाले लाखों लोगों को न्यूनतम मजदूरी से भी वंचित रखा जा रहा है।

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आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की बड़ी संख्या अत्यंत गरीब दलितो-पिछड़े समुदायों और जातियों से ताल्लुक रखता है जिनके बारे में यह नैरेटिव गढ़ा जा चुका है कि वे किसी भी कठिन परिस्थिति में जी लेते हैं। उनकी मौलिक और बुनियादी समस्याओं को जितना अधिक टाला जा सके टालते रहा जाय। उत्तर प्रदेश के एक आँगनबाड़ी कार्यकर्ता पूनम का कहना है कि यही उत्तर प्रदेश सरकार कर रही है। हम पूरी तरह सत्ता के रहमो-करम पर हैं और हमें लगातार अभाव और वंचना में जीने को मजबूर किया जा रहा है।

पानी सचमुच सिर से ऊपर जा चुका है। व्यवस्था के मजबूत पगहे में बंधे और सत्ता की धौंस में जीने को मजबूर आँगनबाड़ी कार्यकर्ता अब कमर कस चुके हैं कि उन्हें सम्मानजनक सुविधाएं और वेतन मिले लेकिन इसमें सफलता मिलना अभी दूर की कौड़ी है।

 

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