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क्या दलित हिंदू नहीं, पृथक अल्पसंख्यक वर्ग हैं?

बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की किताब  राज्य और अल्पसंख्यक आकार की दृष्टि से बहुत बड़ी नहीं, छोटी-सी किताब है, लेकिन आज के समय में अत्यंत महत्वपूर्ण है। बाबासाहेब की कुछ किताबों पर काफ़ी चर्चा हुई है और होती रहती है। उसकी तुलना में इस किताब की अपेक्षित रूप से बहुत कम चर्चा हुई। यह किताब […]

बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की किताब  राज्य और अल्पसंख्यक आकार की दृष्टि से बहुत बड़ी नहीं, छोटी-सी किताब है, लेकिन आज के समय में अत्यंत महत्वपूर्ण है। बाबासाहेब की कुछ किताबों पर काफ़ी चर्चा हुई है और होती रहती है। उसकी तुलना में इस किताब की अपेक्षित रूप से बहुत कम चर्चा हुई। यह किताब दरअसल एक ज्ञापन था।

पहला भाग-

स्वाधीनता से पहले जब यह तय हो रहा था कि भारत स्वाधीन हो जाएगा तो उसके बाद उसका अपना एक संविधान होना चाहिए, संविधान सभा का गठन होना चाहिए और संविधान में शामिल करने के लिए लोग अपने तरफ से प्रस्ताव/ मांगे दे रहे थे। उसी समय डॉ. अम्बेडकर ने अखिल भारतीय अनुसूचित जाति परिषद की ओर से एक ज्ञापन संविधान सभा को दिया था, क्योंकि यह ज्ञापन अनुसूचित जाति संघ की ओर से था इसलिए उसमें उन्होंने अनुसूचित जाति के हितों के संरक्षण को ही मुख्य रखा, उसमें कुछ और मुद्दे भी थे और उसका प्रारूप कुछ इस प्रकार का था जैसे संविधान का प्रारूप होता है। उसमें उन्होंने जिन महत्वपूर्ण चीज़ों को रखा था जिसमें से एक था मौलिक अधिकार जो केवल अनुसूचित जातियों के लिए ही नहीं बल्कि राष्ट्र के समस्त नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों की बात की, क्योंकि उस समय सबसे ज़्यादा अनुसूचित जाति के लोग अधिकारों से वंचित थे इसलिए जरूरी था कि मौलिक अधिकारों के रूप में उनके अधिकारों का संरक्षण हो।और जब संविधान बना तो वही मौलिक अधिकारों को रखा गया, जो सभी के लिए है। संविधान के शुरुआत में ही जहाँ राज्य या संघ की, नागरिकता की परिभाषा है, उसके बाद सीधे मौलिक अधिकार ही दिए गए है। इस प्रकार हमें समझ आता है कि मौलिक अधिकार कितना महत्वपूर्ण है, जिसकी पृष्ठभूमि बाबा साहेब की इसी किताब से आई है।

[bs-quote quote=”यदि खेतों में सहकारी खेती हो, उसपर सरकारी नियंत्रण हो तो उससे साम्राज्यवाद की संभावनाएं खत्म होगी और जो राज्य समाजवाद की संभावनाएं है वह मजबूत होंगी जिसमें ना कोई जमींदार होगा, ना कोई भूमिहीन मजदूर होगा, सब एक तरह से बराबर होंगे। सभी अपने खेतों के मालिक होंगे, सभी श्रमिक होंगे, सभी खेतों में हल चलाएंगे, खेती करेंगे, सभी कटे हुए फसलों में हिस्सा लेंगे। जिससे समाज में सभी का जीवन सुखमय होगा और जो आर्थिक दूरियाँ है वो मिटेगी साथ ही वर्चस्ववाद समाज में ख़त्म हो जाएगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

उन्होंने मौलिक अधिकारों के साथ साथ अल्पसंख्यकों को परिभाषित करने की कोशिश की और उन्होंने कहा कि जो अल्पसंख्यक समुदाय हमारे यहाँ माने गए हैं जैसे मुस्लिम समुदाय, सिख समुदाय, ईसाई समुदाय हैं। लेकिन अम्बेडकर ने इस किताब के जरिए यह बताने की कोशिश की और सिद्ध करने का प्रयास किया कि अनुसूचित जातियाँ सही मायने में अल्पसंख्यक वर्ग हैं। क्योंकि अल्पसंख्यक वर्ग का निर्धारण धर्म के आधार पर नहीं होता, कि कोई धार्मिक रूप से अल्पसंख्यक हैं। बल्कि कोई आदमी सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक रूप से वह कितना अलग थलग है उससे तय होता है कि वह अल्पसंख्यक है। उन्होंने कहा कि जितना अल्पसंख्यक समुदाय में पिछड़ापन है, उस सबसे कई ज़्यादा पिछड़ापन अनुसूचित जातियों में है, वे अनेक तरह के दमन और शोषण के शिकार भी है, इसलिए अल्पसंख्यक वर्ग को जो संरक्षण मिलता है, वो संरक्षण अनुसूचित जातियों को मिलना चाहिए। बल्कि उनसे भी ज़्यादा संरक्षण अनुसूचित जातियों को जरूरत है।

अगला मुद्दा डॉ. अम्बेडकर का उद्योगों को लेकर है। जिनपर उनका स्पष्ट मत है कि उद्योगों का सरकारीकरण या राष्ट्रीयकरण होना चाहिए। जो बड़े उद्योग है वह सरकार लगाए और सभी उद्योग पर भी सरकार का नियंत्रण हो, सरकार द्वारा वे पोषित हो। जिसमें वे निजीकरण का दूर-दूर तक कोई संभावना भी नहीं छोड़ते। क्योंकि यदि उद्योगों का निजीकरण होगा तो जातिगत या साम्प्रदायिक सोच या वर्चस्व की भावना पनपने लगेगी साथ ही समाज में आर्थिक दूरियाँ बढ़ेंगी।

[bs-quote quote=”स्वराज्य पर भी उन्होंने टिप्पणी की इस किताब में। उन्होंने कहा कि मैं स्वराज्य के कल्पना से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ, क्योंकि स्वराज्य भी हमें एक तरह से साम्राज्यवाद की ओर लेकर जाएगा। हम ब्रिटिशों के अंदर शाषित नहीं रहेंगे परन्तु यहाँ के लोग जनता के ऊपर शासन करेंगे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अम्बेडकर ने कृषि को भी एक उद्योग का नाम दिया। हमारी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है और कृषि उद्योग को किस तरह से विकसित किया जाय उसपर उन्होंने विचार इस किताब में किया है। भूमि सुधार के क्षेत्र में भी हम डॉ. अम्बेडकर के प्रयासों और उनकी दृष्टि को देख सकते है। उन्होंने कहा कि हमारे पास जितने खेत हैं, उन्हें सिर्फ बड़े-बड़े जमींदारों के नियंत्रण में न रखा जाए, बल्कि उस प्रदेश के नागरिकों को बिना धर्म-जाति-वर्ण के भेदभाव के पट्टे पर दी जाय। और जो खेती हो उसे Co-Operative Farming (सहकारी) तरीके से हो, जिसमें सभी मिल-जुलकर खेती करें, फसल उत्पादन करें और जितना लागत आ रहा है, वह बाद देकर जितना लाभ आ रहा है वह रुपए सभी में बराबर बंट जाय। इसके पीछे उनका उद्देश्य यह है कि जो राज्य की समाजवादी संकल्पना उनके दिमाग में थी, उसको उन्होंने यहाँ उतारने की कोशिश की। यदि निजी उद्योग होंगे तो वह साम्राज्यवाद को बढ़ावा देंगे। और यदि खेतों में सहकारी खेती हो, उसपर सरकारी नियंत्रण हो तो उससे साम्राज्यवाद की संभावनाएं खत्म होगी और जो राज्य समाजवाद की संभावनाएं है वह मजबूत होंगी जिसमें ना कोई जमींदार होगा, ना कोई भूमिहीन मजदूर होगा, सब एक तरह से बराबर होंगे। सभी अपने खेतों के मालिक होंगे, सभी श्रमिक होंगे, सभी खेतों में हल चलाएंगे, खेती करेंगे, सभी कटे हुए फसलों में हिस्सा लेंगे। जिससे समाज में सभी का जीवन सुखमय होगा और जो आर्थिक दूरियाँ है वो मिटेगी साथ ही वर्चस्ववाद समाज में ख़त्म हो जाएगा।

अम्बेडकर ने निर्वाचक मंडल को सुझाव दिया कि जब संविधान बने, तो उस संविधान में ऐसा प्रावधान हो और उससे भी पहले कहा था कि अनुसूचित जातियों और सारे अल्पसंख्यक वर्गों को उनके संख्या के अनुपात में उचित प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। र वह प्रतिनिधित्व उन्हें राजनीति, शिक्षा, कार्यपालिका हर जगह मिलना चाहिए। राजनीतिक प्रतिनिधित्व में वे कहते है कि यदि सामान्य मत प्रणाली से अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधि आएंगे, चूंकि वे दूसरे समुदायों के वोट से चुनकर आएंगे, तो वे सही मायने में उनका प्रतिनिधित्व नहीं करेंगे। और इसके पहले से ही जो अल्पसंख्यकों को पृथक निर्वाचन मंडल मिला हुआ था, जो मुस्लिमों, सिखों, ईसाइयों को मिला हुआ था तो अम्बेडकर ने उसी तरह का कि जिस तरह से ये अल्पसंख्यक समुदाय है, उसी तरह का हम भी अल्पसंख्यक समुदाय है और जिस तरह का पृथक निर्वाचन मंडल इन्हें मिला हुआ है, उसी तरह का हमें भी पृथक निर्वाचन मंडल मिलना चाहिए। ताकि हम भी अपने वोटों से अपने प्रतिनिधि भेज सकें जब सही मायने में हमारा प्रतिनिधित्व करेंगे और हमारे हितों का संरक्षण करेंगे। और यदि वो दूसरे समुदायों के वोट से चुनकर जाते है तो हमारे प्रतिनिधि होने के बावजूद वे उनके नियंत्रण में होने के कारण हमारे हितों का संरक्षण नहीं कर पाएंगे। इस प्रकार यह प्रावधान संविधान में लाने के लिए उन्होंने इस किताब में कहा।

[bs-quote quote=”धर्मनिरपेक्षता पर भी अम्बेडकर ने इस पुस्तक में चर्चा की है। उन्होंने कहा कि राज्य का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष हो। जहाँ किसी धर्म को विशेष महत्व ना मिले। सभी धर्म को अपनी गतिविधियां चलाने का, समान अवसर का लाभ मिले, किसी एक धर्म कप बहुत ज़्यादा और किसी को बहुत कम महत्व नहीं होना चाहिए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

स्वराज्य पर भी उन्होंने टिप्पणी की इस किताब में। उन्होंने कहा कि मैं स्वराज्य के कल्पना से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ, क्योंकि स्वराज्य भी हमें एक तरह से साम्राज्यवाद की ओर लेकर जाएगा। हम ब्रिटिशों के अंदर शाषित नहीं रहेंगे परन्तु यहाँ के लोग जनता के ऊपर शासन करेंगे। अम्बेडकर ने इस किताब में कहा था कि “भारत में लोकतंत्र में पाए जाने वाला बहुमत एक बहुसंख्यक समुदाय का बहुमत है। वह सभी समुदायों के वोटों का बहुमत नहीं बन रहा है। जैसे यहाँ हिंदुओ बहुसंख्यक हो तो यहां हिंदुओं का ही बहुमत रहता है। इसलिए दूसरे समुदाय केे लोगों का सत्ता में आने की संभावनाएं बहुत कम रहती हैं। और वह आता है तो उसी बहुमत के साथ जुड़कर आता है, अपना अलग बहुमत नहीं बना पाता है। इसलिए राजनीति में ये सारी चीज़ें टूटनी चाहिए, क्योंकि जब ये टूटेगा तो ही एक सफल लोकतंत्र की स्थापना हो पाएगी। यदि अनुसूचित वर्ग को इस तरह के संरक्षण मिल जाते हैं, आगे बढ़ने के मौके मिल जाते हैं, राजनीति में भी उनको अपना सही तरीके का प्रतिनिधित्व मिल जाता है, तो यह अल्पसंख्यक समुदाय भी आपस में मिलकर बहुमत बना सकते हैं। लेकिन जबतक ऐसा नहीं होता और वे उन्ही बहुसंख्यक समुदाय के वोट से चुनकर आते हैं तब तक वे अपना बहुमत बनाने की स्थिति में नहीं होंगे और उसी बहुमत से वे संचालित रहेंगे।” इसे यदि आज के संदर्भ से जोड़कर देखते हैं तो आज जो दलित राजनीति की अवधारणा आयी है वहीं से आयी है। जिसमें दलितों ने यह बताया कि सत्ता में हम होने चाहिए, कानून निर्माण में, शक्ति नियंत्रण में हम होने चाहिए। क्योंकि सिर्फ तभी दलित वर्ग, पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित वर्ग के हितों का संरक्षण सम्भव है।

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धर्मनिरपेक्षता पर भी अम्बेडकर ने इस पुस्तक में चर्चा की है। उन्होंने कहा कि राज्य का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष हो। जहाँ किसी धर्म को विशेष महत्व ना मिले। सभी धर्म को अपनी गतिविधियां चलाने का, समान अवसर का लाभ मिले, किसी एक धर्म कप बहुत ज़्यादा और किसी को बहुत कम महत्व नहीं होना चाहिए। किसी धर्म को राजधर्म के रूप में मान्यता नहीं देनी चाहिए। अम्बेडकर हिन्दू राष्ट्र जैसी किसी भी संकल्पना को स्वीकार नहीं करते थे, वे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की संकल्पना को पूरा करने के पक्ष में थे।

अम्बेडकर कहते थे कि जो उत्पीड़न या शोषण होता है उसके विरुद्ध संविधान में भी गारंटी होनी चाहिए, प्रावधान होना चाहिए। सन 1947 के समय में अनुसूचित जातियों के साथ हुए अत्याचार के विरुद्ध संरक्षण हो जिससे ये घटनाएं ना हो। क्योंकि उस समय अनुसूचित जातियों पर लगातार अत्याचार के मामले सामने आ रहे थे, जिसमें से कुछ का वर्णन तो अम्बेडकर ने इस पुस्तक में किया है। डॉ. अम्बेडकर ने बेगारी और दासता के विरुद्ध संरक्षण की गारंटी या प्रावधान की मांग भी संविधान में की।

[bs-quote quote=”370 के जरिए कश्मीर के मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी में अन्य राज्यों के हिंदुओं को भरा जाने लगा जिससे साम्प्रदायिक संतुलन बिगड़ जाए। साम्प्रदायिक संतुलन बिगड़ने से यानी आज वहाँ यदि मुस्लिम बहुसंख्यक हैं तो उन्हें अल्पसंख्यक में लाया जाए और उसे हिन्दू बहुसंख्यक बनाया जाए। इस तरह से यदि हम किसी राज्य में जाकर करते हैं तो वह राज्य की सत्ता के लिए और राज्य के सामाजिक संतुलन के लिए ठीक नहीं है। इसलिए राज्य का नागरिक कहीं भी जाकर रहे परन्तु इन सब चीज़ों पर थोड़ा ध्यान रखना चाहिए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इस प्रकार जब संविधान बन जाता है तो हम देखते है कि इन  सारी चीज़ों पर संविधान द्वारा संरक्षण दिया गया है। इस प्रकार यह किताब संविधान में एक आधारभूत कार्य करती है। एक और सन्दर्भ में मैं चर्चा करना चाहूंगा कि अभी कुछ महीनों पहले जब कश्मीर के मुद्दा 370 चर्चा में था तो बाबा साहेब अम्बेडकर की बातों को कोट करके कहा गया कि “राज्य का कोई भी नागरिक किसी भी राज्य में जाकर रह सकता है।” जो निश्चित रूप से इसी पुस्तक से लिया गया था। लेकिन साथ में उन्होंने यह भी कहा था कि “कोई राज्य किसी नागरिक को अपने राज्य का नागरिक बनाने से मना भी कर सकता है, और दो कारणों से वह मना कर सकता है। पहला, यदि कोई नागरिक उस राज्य के साम्प्रदायिक संतुलन को बिगाड़ना चाहता हो। या व्यक्ति का आचरण अपराधी प्रवृत्ति का हो। तो कश्मीर के मुद्दे में बाबा साहेब के बातों का गलत ढंग से उपयोग किया जा रहा था। असल में जम्मू में अधिकतर लोग हिन्दू हैं और कश्मीर में मुसलमान हैं। 370 के जरिए कश्मीर के मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी में अन्य राज्यों के हिंदुओं को भरा जाने लगा जिससे साम्प्रदायिक संतुलन बिगड़ जाए। साम्प्रदायिक संतुलन बिगड़ने से यानी आज वहाँ यदि मुस्लिम बहुसंख्यक हैं तो उन्हें अल्पसंख्यक में लाया जाए और उसे हिन्दू बहुसंख्यक बनाया जाए। इस तरह से यदि हम किसी राज्य में जाकर करते हैं तो वह राज्य की सत्ता के लिए और राज्य के सामाजिक संतुलन के लिए ठीक नहीं है। इसलिए राज्य का नागरिक कहीं भी जाकर रहे परन्तु इन सब चीज़ों पर थोड़ा ध्यान रखना चाहिए।

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एक बहुत महत्वपूर्ण बिंदु जो बाबासाहेब ने इस पुस्तक के ज़रिए बहुत सारे उदाहरण देकर मांग की कि अनुसूचित जातियों के लोग जिस गांव में रहते है, उनकी बस्तियाँ अलग हैं। वह बहुत गन्दी है। उनसे गन्दे, घृणित काम करवाये जाते हैं, जिसकी उनकी अलग तरह की पहचान बनती है। हमारे वर्ण व्यवस्था में उनका जो काम निर्धारित किया गया है, वही काम उनसे गांव में कराए जाते हैं। यानी यदि कोई चर्मकार है तो यह चमड़े का काम करेगा। कोई भंगी है तो तो उससे हाथ से मैला सफाई करवाया जाता है। धोबी से कपड़े धुलवाए जाएंगे, कुम्हार से बर्तन बनवाये जाएंगे, लोहार से हल, फावड़े बनवाये जाएंगे। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था में जो उनके निर्धारित कर्म हैं वही उन्हें करने पड़ते हैं, उससे हटकर कोई दूसरा काम यदि कोई अनुसूचित जाति का व्यक्ति करे तो वह चल नहीं पाता, जैसे कोई चमार जाति का व्यक्ति चाय की दुकान खोल दे तो वह दुकान चल नहीं पाती। जहाँ सभी जातियों के ग्राहक आ सके ऐसा कोई दुकान यदि कोई अनुसूचित जाति का आदमी खोल दे तो वह नहीं चल सकती।

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इसलिए डॉ. अम्बेडकर का यह विचार था कि दलितों की गाँव, बस्तियाँ अलग बसाई जानी चाहिए। उससे यह होगा कि अनुसूचित जातियों का गाँव यदि अलग बस जाएगा तो उस गाँव में जो भी काम चाहे वह खेती का काम, श्रम का काम सभी काम वे खुद करेंगे जिससे उनके बीच कोई हीनताबोध, उच्चताबोध नहीं रहेगा और जिस कारण वह हीनताबोध और उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं वे उनसे मुक्त हो जाएंगे साथ ही अलग होकर वे स्वतंत्रता के साथ अपना जीवन जी सकेंगे। क्योंकि गाँव की व्यवस्था में उनको  किसी प्रकार की स्वतंत्रता का अनुभव नहीं हो पाता है। वे हमेशा दबे रहते हैं और आज भी गाँवों में ऐसी ही स्तिथि है। हम आये दिन ऐसी खबरों से रूबरू होते हैं कि कोई दलित दूल्हा घोड़ी पर चढ़कर बारात नहीं निकाल पाता, दलित लोगों को मंदिरों में जाने पर मार-पीट दिया जाता है, उनसे जबरदस्ती खेतों में काम करवाया जाता है, उनके अधिक मजदूरी मांगने पर उनपर कोड़े बरसाए जाते, कइयों की तो हत्या कर दी जाती है, घर जला दिया जाता है, उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार किया जाता है, उनके बाहर जाने के रास्ते बंद कर देना। यहसारी चीज़ें आज भी सामान्य है।

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बहुत सारे दलित लोग आज भी सवर्णों के गाँव में चप्पल, जूते पहनकर नहीं चल सकते हाथ में लेकर जाना होता है, कपड़े घुटने के नीचे नहीं पहनते उठाकर उनके गाँवों, रास्तों से जाते हैं, कई जगह तो नए कपड़े पहनने की भी इजाज़त नहीं है, गाँव के बाहर जाकर नए कपड़े पहनते हैं जब शादी या किसी समारोह में जाना होता है तो। जब आज 21वीं सदी में भी यह सब चीज़ें हो तो उस समय कितनी ज़्यादा होगी यह आंकलन करना मुश्किल है। तो ऐसे में दलित कैसे स्वतंत्रता का अनुभव करेंगे? कैसे इस सब से निकलेंगे? कैसे समाज में समानता आएगी? इसलिए डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि दलितों की अलग बस्तियाँ बसनी चाहिए। मुझे लगता है कि यह अवधारणा कई बार लोग कहते भी हैं कि जिस प्रकार मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का अलग गठन किया, क्योंकि वे हिंदुओं के साथ मिलकर नहीं रह सकते। इसलिए दलितों के गाँव अलग बसाना कोई अतिवादी मांग नहीं है, एक वास्तविक चीज़ है जो समझे जाने की जरूरत है कि जिन भारतीय गाँवों पर हम गर्व करते है कि गाँव कितना अद्भुत है, सुंदर है, हरियाली है, गाँवों की लोक-संस्कृति कितनी प्यारी है, बहुत सारे लोगों ने भारतीय गाँवों पर साहित्य लिखा, कविता लिखी ग्राम देवता नमस्कार जैसे लेकिन उसी गाँव में जहाँ इस तरह की स्थिति दलितों की है, तो वे कैसे उसपर गर्व करें? कैसे उस गाँव को अपना गाँव कहे? कैसे उस उत्पीड़न से बचे? इस प्रकार यह एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा था।

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केवल पैसा ही नहीं खींचता था बल्कि दिमागों पर काबू भी रखता था सिनेमा का सांप

डॉ. अम्बेडकर ने इस पुस्तक में पूना पैक्ट के प्रति असंतोष व्यक्त करते हैं, उन्होंने कहा कि पूना पैक्ट में जो भरोसा दिया गया था वह पूरा नहीं हुआ।

  1. पूना पैक्ट का उद्देश्य ऐसी विधि बनाना था जिससे अनुसूचित जाति के लोग अपने पसन्द के प्रतिनिधि विधानमंडल में भेज सके। यह उद्देश्य असफल हो गया क्योंकि वह माना नहीं गया।
  2. पूना समझौते ने अनुसूचित जातियों के मताधिकार को पूरी तरह से ख़त्म कर दिया है क्योंकि जो उम्मीदवार प्राथमिक निर्वाचनों में अनुसूचित जातियों के इच्छा के सही सूचक थे वे असफल हुए और सवर्ण के वोट सेवी अंतिम निर्वाचन में जीत गए। जिसे हम पृथक निर्वाचन मंडल कहते हैं। सब चीज़ें जब असफल छप गई तो अम्बेडकर को कहना पड़ा कि पूना समझौता शरारतपूर्ण है, इसे गांधी के अनशन के दबाव में आकर तथा इस शर्त पर स्वीकार किया गया था कि सवर्ण हिन्दू अनुसूचित जातियों के पृथक निर्वाचन में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। लेकिन बाद में गाँधी और सारे सवर्ण हिन्दू अपने वादे से मुकर गए और अगले निर्वाचन में ही सभी सवर्णों ने हस्तक्षेप किया। जिससे अनुसूचित जातियों के अपने उचित प्रतिनिधि जीतकर नहीं आ पाए और जो जीतकर गए वे सिर्फ सवर्ण हिन्दुओ के वोट से और उन्हीं के ही प्रतिनिधि बनकर वे विधानसभा में चले गए।

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जब हम लोकतंत्र की बात करते हैं और चूँकि हम एक लोकतांत्रिक गणराज्य है और बहुत सारे चीज़ों में हम आगे बढ़ गए हैं जैसा कि इस किताब में है कि जो देशी राज्य हैं उन्हें कैसे भारत संघ में शामिल किया जाए, और जो शामिल नहीं होते हैं उनके साथ किस तरह का व्यवहार किया जाय। उन राज्यों में अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व किस तरह से, क्या होना चाहिए ये भी इस किताब में है। अब देशी राज्य नहीं है सब मिलाकर भारतीय संघ का निर्माण हो चुका है और बाकि 29 राज्य हैं। इसलिए जातियों के निर्धारण में जो सूचियाँ बनाई जाए जिसमें संघ की सूची अलग हो, जाति की सूची अलग हो, एयर जातियाँ है वह उन राज्यों के जनसंख्या के अनुपात में हो। जिस राज्य में जिस जाति की जितनी संख्या है उसके आधार पर उनको प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। संघ की सूची में देश की जितनी जनसंख्या है उस जनसंख्या में अनुसूचित जातियों का जितना अनुपात बनता है उस अनुपात में उनको प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।

जारी…

जयप्रकाश कर्दम हिन्दी के जाने-माने कवि-कथाकार और विचारक हैं। 

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