मूलचन्द सोनकर
साहित्य
मृत्युंजय के लिए मेरे मन में आजीवन गिल्ट रहा क्योंकि मेरे लिए बच्चे से भी बढ़कर था -2
जी करता है घर छोड़कर भाग जाऊं लेकिन मैंने दो बच्चे पाले हैं। उनका ख्याल आते ही रुक जाता हूँ।’ मैंने पूछा कौन बच्चे? वे दोनों कुत्ते? उन्होंने तुरंत बात काटते हुए कहा – कुत्ते न कहो,उनका नाम चेरी और फेथ है। मृत्युंजय और टफी भी था अब दोनों नहीं हैं। इस बातचीत से मूलचन्दजी के कुत्तों से विशेष प्रेम का पता चलता है। मृत्युंजय …मूलचन्दजी का एक पालतू कुत्ता था, जिसके बारे में बहुत ही मार्मिक लेख उन्होंने उसके मृत्यु के बाद लिखा। कोई भी इंसान अपने पाले हुए जानवर के साथ रहते हुए कैसे उससे जुड़ जाता और उसे परिवार का एक सदस्य जैसा मानने लगते हैं। दो भागों में प्रकाशित इस लेख में मृत्युंजय के जीवन से लेकर मृत्यु तक की कहानी जो एक रूखे दिखने वाले व्यक्ति के मन की अंदरूनी परतों को खोलती है। वैसे बता दूँ कि हर किसी से दो-दो हाथ करने को तत्पर मूलचन्द सोनकर वास्तव में बहुत दोस्तना, सहयोगी और संवेदनशील इंसान थे।
संस्कृति
मृत्युंजय के लिए मेरे मन में आजीवन गिल्ट रहा क्योंकि मेरे लिए बच्चे से भी बढ़कर था -1
जी करता है घर छोड़कर भाग जाऊं लेकिन मैंने दो बच्चे पाले हैं। उनका ख्याल आते ही रुक जाता हूँ।' मैंने पूछा कौन बच्चे? वे दोनों कुत्ते? उन्होंने तुरंत बात काटते हुए कहा - कुत्ते न कहो,उनका नाम चेरी और फेथ है। मृत्युंजय और टफी भी था अब दोनों नहीं हैं। इस बातचीत से मूलचन्दजी के कुत्तों से विशेष प्रेम का पता चलता है। मृत्युंजय ...मूलचन्दजी का एक पालतू कुत्ता था, जिसके बारे में बहुत ही मार्मिक लेख उन्होंने उसके मृत्यु के बाद लिखा। कोई भी इंसान अपने पाले हुए जानवर के साथ रहते हुए कैसे उससे जुड़ जाता और उसे परिवार का एक सदस्य जैसा मानने लगते हैं। दो भागों में प्रकाशित इस लेख में मृत्युंजय के जीवन से लेकर मृत्यु तक की कहानी जो एक रूखे दिखने वाले व्यक्ति के मन की अंदरूनी परतों को खोलती है। वैसे बता दूँ कि हर किसी से दो-दो हाथ करने को तत्पर मूलचन्द सोनकर वास्तव में बहुत दोस्तना, सहयोगी और संवेदनशील इंसान थे।
संस्कृति
ब्राह्मणवादी नफरत और षड्यंत्र का शिकार एक कृषक-कवि
घाघ की ज्यादातर कहावतें कृषि से सम्बन्धित हैं। भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है और आज भी कमोबेश इसकी यह स्थिति बनी हुई है। कृषि पूरी तरह मौसम पर आश्रित उद्यम है और मौसम के मिजाज का पूर्वानुमान आसान नहीं है। घाघ इसी काम को आसान बनाते हैं। उनकी कहावतें मौसम के बारे में लगभग सटीक भविष्यवाणी करती हैं। इतना ही नहीं, वह विभिन्न फसलों को बोने के लिये जमीन और चक्र का भी निर्धारण करती हैं। अधिक पानी और कम पानी वाली फसलों की बात करती हैं। पशुओं की नस्लों की चर्चा करती हैं। किसानों की घर-गृहस्थी की बात करती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि घाघ की कहावतें स्वयं उनकी जाति को इंगित करती हैं।
संस्कृति
रामचरितमानस में स्त्रियों की कलंकगाथा (आखिरी भाग )
तुलसीदास के लिये तो सभी स्त्रियाँ 'सभी धान बाइस पसेरी' की कहावत की तरह हैं लेकिन स्त्रियों द्वारा ही जब स्त्रियों का आकलन होता है तो जातिगत दंभ की भावना हावी हो जाती है। यही भारतीय समाज का स्थाई रोग है जो अपना असर दिखाये बिना नहीं चूकता और यही एक ब्राह्मण की सृजन प्रक्रिया है जो अपना वार चलाने में नहीं चूकता और तुलसीदास तो इस हुनर के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी हैं।
संस्कृति
रामचरितमानस में स्त्रियों की कलंकगाथा (भाग – 1)
तुलसीदास कृत रामचरित मानस उत्तर भारत की पिछड़ी जातियों के लिए धर्मग्रंथ बना दिया गया। बहुत स्पष्ट रूप से बहुजन संतों और समाजों को अपमानित करने वाली इस किताब की यह स्वीकार्यता यूं ही नहीं है बल्कि बहुजन समाजों को भ्रमजाल में बनाए रखने का एक मजबूत सांस्कृतिक हथियार है। सवर्ण बुद्धिजीवी भले ही इसे बहुत महिमामंडित करते हैं लेकिन बहुजनों को लिए यह एक जहरीली किताब है। सुप्रसिद्ध दलित साहित्यकार मूलचंद सोनकर ने इसे स्त्रियॉं की गुलामी और अपमान के मद्देनजर देखा है।
शिक्षा
मेरिट का मिथक : अपनी करनी से गांधी सिर्फ सवर्णों के राष्ट्रपिता हो सकते थे
तथाकथित मेरिटधारियों ने समाज में अपने झूठे वर्चस्व को बनाये रखने का उपक्रम आज से ही नहीं बल्कि प्राचीन समय से बनाया हुआ है. ब्राह्मणों ने इस वर्चस्व के लिए ग्रंथों, वेद-पुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथों में खुद इसका उल्लेख कर अपनी श्रेष्ठता को स्थापित कर हमेशा शूद्रों को उनके अधिकारों से वंचित किया है. मूलचन्द सोनकर ने तथ्यामक रूप से अनेक उदाहरणों के माध्यम से उनके स्थापित झूठे मूल्यों की मजम्मत की है.. पढ़िए उनके विचार समाज की चिंता को दर्शाते हुए। प्रस्तुत आलेख गाँव के लोग 2018 के अंक प्रकाशित हुआ था।
शिक्षा
मेरिट का मिथक और सबके लिये समान शिक्षा
आज देश और प्रदेश में उन्हीं लोगों की सरकार है जो स्वयं को मेरिटधारी कहते हुए नहीं अघाते लेकिन ये जिस प्रकार अक्षम और नकारा साबित हुए हैं उसकी मिसाल वे स्वयं हैं। इनकी समझ में कुछ भी उसी प्रकार नहीं आ रहा है जिस प्रकार शोलापुर की आम सभा में बोलते हुए तिलक ने अपनी नासमझी को स्वीकार किया था । लेकिन इनकी नासमझी ने मेरी इस समझ की पुष्टि जरूर की है कि वर्ण व्यवस्था का निर्धारण योग्यतम से अयोग्यतम की बजाय अयोग्यतम से योग्यतम की ओर अग्रसर व्यवस्था है।