भरत और शत्रुघ्न के व्यवहार को देखकर मुझे उनके राजपुत्र होने में ही संदेह होता है। इतनी संस्कारहीतना और रिश्तों के प्रति अवमाननापूर्ण आचरण की उम्मीद किसी भी सभ्य व्यक्ति से नहीं की जा सकती।यहाँ पर मैं लक्ष्मण की माँ सुमित्रा के मुख से कहलवाई गयी इस चौपाई को उद्धृत करना अनिवार्य समझता हूँ :
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुत होई।।
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी।।
अर्थात, संसार में वही युवती स्त्री पुत्रवती है जिसका पुत्र श्रीरघुनाथजी का भक्त हो। नहीं तो जो राम से विमुख पुत्र से अपना हित जानती है, वह तो बाँझ ही अच्छी। पशु की भाँति उसका ब्याना (पुत्र प्रसव करना) व्यर्थ ही है।
यह प्रसंग उस समय का है जब लक्ष्मण राम के साथ वन जाने के लिये उनसे आज्ञा लेने जाते हैं। सुमित्रा के मुख से तुलसीदास ने इस चौपाई को कहलवाकर एक तीर से कई शिकार किये हैं। स्त्री को स्त्री के विरुद्ध खड़ा कर दिया है। राम की भक्ति को अंधभक्ति में तब्दील कर दिया है। उन सारी स्त्रियों को रामद्रोही सिद्ध कर दिया है जिनके पुत्र राम के भक्त नहीं हैं। तुलसी ने ऐसी स्त्रियों द्वारा पुत्र जनने की क्रिया के लिये पशुओं के लिये प्रयुक्त किये जाने वाले शब्द ‘ब्याना’ का प्रयोग करके जो घृणित कुकृत्य किया है उसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व के किसी अन्य साहित्य में होगा, मुझे नहीं लगता। इस चौपाई का यह भी सन्देश है कि किसी स्त्री को अपने अधिकार के लिये आवाज़ नहीं उठानी चाहिए और सबसे घातक बात तो यह है कि उसे केवल राम की सेवा करने के लिये ही पुत्र पैदा करना चाहिए। अर्थात ‘बच्चा-बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का’ जैसे नारों का स्रोत है तुलसी का यह ग्रन्थ।
यहाँ एक और बात का उल्लेख करना अनिवार्य है। क्रम संख्या 41 पर दिये गये उद्धरण से यह भी सिद्ध होता है कि जिसे हम अयोध्या के नाम से जानते हैं, वह कोई बहुत बड़ा साम्राज्य नहीं बल्कि एक नगर मात्र था।
शत्रुघ्न के हाथों मंथरा की कुटाई करानेवाले तुलसीदास स्वयं उसके बारे में क्या कहते हैं यह भी ध्यातव्य है :
दोहा- नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गयी गिरा मति फेरि।।
अर्थात, मन्थरा नाम की कैकेयी की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गयीं।
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाज कवन बिधि राती।।
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती।।
अर्थात, वह दुर्बुद्धि नीच जाति वाली दासी विचार करने लगी कि किस प्रकार से यह काम रात-ही-रात में बिगड़ जाये, जैसे कोई कुटिल भीलनी शहद का छत्ता लगा देखकर घात लगाती है कि इसको किस तरह से उखाड़ लूँ |
[bs-quote quote=”तुलसीदास के लिये तो सभी स्त्रियाँ ‘सभी धान बाइस पसेरी’ की कहावत की तरह हैं लेकिन स्त्रियों द्वारा ही जब स्त्रियों का आकलन होता है तो जातिगत दंभ की भावना हावी हो जाती है। यही भारतीय समाज का स्थाई रोग है जो अपना असर दिखाये बिना नहीं चूकता और यही एक ब्राह्मण की सृजन प्रक्रिया है जो अपना वार चलाने में नहीं चूकता और तुलसीदास तो इस हुनर के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मन्थरा एक व्यक्ति के रूप में अच्छी भी सकती है और बुरी भी लेकिन उसकी तुलना किरात जाति की स्त्री से करते हुए इस जाति समस्त स्त्रियों को चोर बना देना तो बस तुलसी का ही कौतुक हो सकता है। स्त्री देखी और मन निंदा करने के लिये मचल उठा। यही तुलसी की विशेषता है और कोई विशेषज्ञ अपने लक्ष्य से कैसे चूक सकता है। लेकिन कैकेयी भी कोई अपवाद नहीं है। वह भी मन्थरा के बारे में उसी धारणा से ग्रस्त दिखती है जब वह कहती है :
दोहा- काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय विसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुस्कानि।।
अर्थात, कानों, लंगड़ों और कुबड़ों को कुटिल और कुचाली जानना चाहिए। उनमें भी स्त्री और खासकर दासी! इतना कहकर भरतजी की माता कैकेयी मुस्कुरा दीं।
इस मामले में पुरवासियों की भी राय अलग नहीं है। वे कहते हैं :
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।।
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई। जानि न पाई नारि गति भाई।।
अर्थात, कवि सत्य ही कहते हैं कि स्त्री का स्वभाव सब प्रकार से पकड़ में न आने योग्य अथाह और भेदभरा होता है। अपनी परछाहीं भले ही पकड़ में आ जाये, पर भाई! स्त्रियों की गति (चाल) नहीं जानी जाती।
दोहा- काह न पावक जारि सक का न समुद्र समाइ
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ।।
अर्थात, आग क्या नहीं जला सकती! समुद्र में क्या नहीं समा सकता! अबला कहाने वाली प्रबल स्त्री(जाति) क्या नहीं कर सकती! और जगत में काल किसको नहीं खाता!
क्या अब कुछ बचा, जिससे स्त्री की दुष्टताओं की तुलना की जा सके ?
तुलसीदास के लिये तो सभी स्त्रियाँ ‘सभी धान बाइस पसेरी’ की कहावत की तरह हैं लेकिन स्त्रियों द्वारा ही जब स्त्रियों का आकलन होता है तो जातिगत दंभ की भावना हावी हो जाती है। यही भारतीय समाज का स्थाई रोग है जो अपना असर दिखाये बिना नहीं चूकता और यही एक ब्राह्मण की सृजन प्रक्रिया है जो अपना वार चलाने में नहीं चूकता और तुलसीदास तो इस हुनर के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी हैं।
सीता-अनसूया संवाद के बाद राम आगे बढ़ते हुए दण्डक वन में प्रवेश करते हैं। यहाँ उनकी भेंट शूर्पणखा से होती है। दण्डक वन अपने नाम से ही इतिहास की एक पूरी श्रृंखला का बयान कर देता है। यह इलाका भारत के मूलनिवासियों का है जो अपने दमन से घबराकर अपना अस्तित्व बचाने के लिये इन घने जंगलों में शरण लेने पर बाध्य हुए। मूलनिवासी इन ब्राह्मणों के स्वाभाविक शत्रु हैं। शूर्पणखा रावण की बहन है। उसका इस क्षेत्र का निवासिनी होने का सीधा अर्थ यह हुआ कि रावण इस देश का आदिवासी या तुलसी के शब्दों में प्राकृत सम्राट था। उसकी और उसके लोगों की सुख-समृद्धि ब्राह्मणों की आँखों में न चुभे, यह हो ही नहीं सकता। बस उन्होंने रावण के विनाश की योजना बना डाली और इसके लिये राम का इस्तेमाल किया। राम पूरी उम्र केवल इस्तेमाल होते रहे। ब्राह्मणों ने उन्हें कभी भी चैन से साँस तक नहीं लेने दिया, राज करने की तो बात ही छोड़िये! शूर्पणखा का प्रसंग आते ही प्राकृत विरोधी तुलसी के अंदर का कुटिल दंभ एक दम से चंचल हो जाता है। इस मनोदशा का भी अपना एक नशा होता है जो अपने स्वभाव के अनुरूप इससे ग्रस्त व्यक्ति को राह से भटका देता है और तुलसी भी भटक गये। उन्होंने शूर्पणखा के बहाने समूची स्त्री जाति का जैसा चरित्र-हनन किया है, उसे पढ़कर सभ्य समाज के किसी भी व्यक्ति का सिर शर्म से झुक जायेगा। आप भी पढ़िये :
सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी।।
पंचबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा।।
अर्थात, शूर्पणखा नामक रावण की एक बहिन थी, जो नागिन के समान भयानक और दुष्ट हृदय की थी। वह एक बार पंचवटी में गयी और दोनों राजकुमारों को देखकर विकल (काम से पीड़ित) हो गयी।
[bs-quote quote=”सीता-अनसूया संवाद के बाद राम आगे बढ़ते हुए दण्डक वन में प्रवेश करते हैं। यहाँ उनकी भेंट शूर्पणखा से होती है। दण्डक वन अपने नाम से ही इतिहास की एक पूरी श्रृंखला का बयान कर देता है। यह इलाका भारत के मूलनिवासियों का है जो अपने दमन से घबराकर अपना अस्तित्व बचाने के लिये इन घने जंगलों में शरण लेने पर बाध्य हुए। मूलनिवासी इन ब्राह्मणों के स्वाभाविक शत्रु हैं। शूर्पणखा रावण की बहन है। उसका इस क्षेत्र का निवासिनी होने का सीधा अर्थ यह हुआ कि रावण इस देश का आदिवासी या तुलसी के शब्दों में प्राकृत सम्राट था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
इस चौपाई में तुलसीदास द्वारा प्रयुक्त किये गये शब्द ‘बिकल’ का अर्थ व्याख्याकार ने अपनी तरफ से ‘काम से पीड़ित’ लगाकर कुछ अधिक ही दूरदर्शिता का परिचय देने का प्रयास किया है। इसके पीछे उसकी मंशा शायद राम के कुकृत्य को औचित्यपूर्ण सिद्ध करना रहा हो। इसलिए आगे बढ़ने से पहले एक और दृष्टान्त यहाँ उद्धृत करना अनिवार्य समझता हूँ। विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण का जनकपुरी में प्रवेश हो चुका है, जहाँ ये दोनों सीता को पहली बार देखते हैं | उस दृश्य का जैसा वर्णन तुलसी ने किया है, उसमे से मैं दो उदाहरण यहाँ दे रहा हूँ :
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि।
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही।।
अर्थात, कंकण (हाथों के कड़े), करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर श्रीरामचन्द्रजी हृदय में विचारकर लक्ष्मण से कहते हैं -(यह ध्वनि ऐसी आ रही है) मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का संकल्प करके डंके पर चोट मारी है।
यह तो तब है जब रघुवंशी सपने में भी पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं डालते। देखिये राम की स्वीकारोक्ति :
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ।।
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी।।
अर्थात, रघुवंशियों का यह सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता। मुझे तो अपने मन का अत्यंत विश्वास है कि जिसने (जाग्रत की कौन कहे) सपने में भी पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली।
एक दृश्य धनुष यज्ञ के समय का है जो इस प्रकार है :
भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा।।
डगइ न संभु सरासनु कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें।।
अर्थात, तब दस हज़ार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले नही टलता। शिवजी का वह धनुष कैसे नहीं डिगता था, जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन (कभी) चलायमान नहीं होता।
कोई भी व्यक्ति यह सोचकर ही सिहर उठेगा कि यदि ये दसो हज़ार राजा सम्मिलित रूप से धनुष को तोड़ देते तो क्या सीता इन सब की सामूहिक पत्नी होतीं? इससे बुरा अपमान सीता का और क्या हो सकता था जिसकी कल्पना भक्त शिरोमणि तुलसीदास कर बैठे? लेकिन जो बात मैं कहना चाहता हूँ कि स्त्री का प्रसंग छिड़ते ही तुलसी का मन काम से आक्रांत हो जाता है और उपमा देने के लिये इससे अधिक उपयुक्त पात्र उन्हें सूझता ही नहीं, वह चाहे सीता हो, चाहे शूर्पणखा अथवा कोई अन्य। पाठक सहज अनुमान लगा सकते हैं कि जब उन्होंने सीता जैसी अप्राकृत और अपनी आराध्या जगतजननी सीता को नहीं बख्शा तो शूर्पणखा जैसी प्राकृत स्त्री को वह कैसे बख्श देते, जबकि प्राकृत विरोध उनकी नस-नस में समाया हो। इसलिये शूर्पणखा को अपमानित करने में उन्होंने सारी मर्यादाओं की तिलांजलि दे दी और माध्यम बनाया मर्यादा पुरुषोत्तम राम को। देखिये :
भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी।।
होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहिं बिलोकी।।
अर्थात, (काकभुशुण्डिजी कहते हैं) हे गरुणजी! (शूर्पणखा-जैसी राक्षसी, धर्मज्ञान से शून्य कामान्ध) स्त्री मनोहर पुरुष को देखकर, चाहे वह भाई, पिता, पुत्र ही हो, विकल हो जाती है और मन को नहीं रोक सकती। जैसे सूर्यकान्तमणि सूर्य को देखकर द्रवित हो जाती है (ज्वाला से पिघल जाती है )।
[bs-quote quote=”स्त्री और वह भी तथाकथित नीच जाति की हो तो शब्द चयन करते समय तुलसी एकदम मूढ़ नजर आते हैं। वह जितनी निंदा करना चाहते हैं, उसके अनुरूप उनके पास शब्द ही नहीं होते और जिस शब्द भी का प्रयोग करते हैं, वह उन्हें छोटा लगता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि यहाँ पर तुलसी ने न केवल मर्यादा की हत्या की है बल्कि एकदम झूठ भी बोला है। किसी भी साहित्य में ऐसा कोई साक्ष्य नहीं उपलब्ध है जिसमें शूर्पणखा के चरित्र पर इस प्रकार की अश्लील टिप्पणी की गयी हो। शूर्पणखा तो खैर सम्राट रावण की बहन थी, पूरे आदिवासी समाज में न तो पूर्व में और न ही आज कोई इस प्रकार की प्रथा का प्रचलन है। तुलसी के अपने समाज के विपरीत जहाँ इस प्रकार के प्रसंगों की भरमार है, आदिवासी समाज में स्त्रियाँ न केवल स्वतन्त्र हैं बल्कि अपने परिवार और समाज के प्रति नैतिक रूप से निष्ठावान भी हैं। तुलसी ने एक पूरे समुदाय पर अनर्गल आरोप लगाकर जघन्य अपराध किया है और इसके लिए उनकी जितनी भी भर्त्सना की जाये कम है।
अब आते हैं, शबरी-आख्यान पर। तुलसी ने स्वयं शबरी के मुँह से अपने बारे में जो घृणित टिप्पणी करवाई है, वह इस प्रकार है :
पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी।।
केहि बिधि अस्तुति करहुँ तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी।।
अर्थात, फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गयीं। प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया।(उन्होंने कहा) मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़बुद्धि हूँ।
अधम ते अधम अधम अति नारी | तिन्ह महँ मतिमंद अघारी ||
अर्थात, जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि हूँ।
स्त्री और वह भी तथाकथित नीच जाति की हो तो शब्द चयन करते समय तुलसी एकदम मूढ़ नजर आते हैं। वह जितनी निंदा करना चाहते हैं, उसके अनुरूप उनके पास शब्द ही नहीं होते और जिस शब्द भी का प्रयोग करते हैं, वह उन्हें छोटा लगता है।
शबरी प्रकरण का पटाक्षेप योगाग्नि से उसके जलकर मरने में होती है। उसने इस तरह मृत्यु का वरण क्यों किया, इसका कोई खुलासा नहीं है, लेकिन तुलसी इसे उसका हरिपद में लीन होकर उसकी मुक्ति मानते हैं और उद्घोष करते हैं :
दोहा- जातिहीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्ह अस नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि।।
अर्थात, जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महादुर्बुद्धि मन ! तू ऐसे प्रभु को छोड़कर सुख चाहता है?
यह भी पढ़ें :
अब राम लक्ष्मण आगे बढ़ते हैं | पशु-पक्षियों को जोड़े सहित देखकर राम लक्ष्मण से कहते हैं :
राखिअ नारि जदप उर माहीं | जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं ||
अर्थात, स्त्री को चाहे हृदय में ही क्यों न रखा जाये, तो भी स्त्री, शास्त्र और राजा किसी के वश में नहीं रहती।
स्त्रियों के प्रति अपनी मंशा को राम नारद से इस प्रकार प्रकट करते हैं
सुनु मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता।।
जप तप नेम जलाश्रय झारी | होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी ||
अर्थात, हे मुनि ! सुनो, पुराण, वेद और संत कहते हैं कि मोहरूपी वन (को विकसित करने) के लिये स्त्री वसंत ऋतु के समान है। जप, तप, नियमरूपी सम्पूर्ण जल के स्थानों को स्त्री ग्रीष्मरूप होकर सर्वथा सोख लेती है।
काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका।।
दुर्बासना कुमुद समुदाई | तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ||
अर्थात, काम, क्रोध, मद और मत्सर ( डाह) आदि मेढक हैं। इनको वर्षा ऋतु होकर हर्ष प्रदान करनेवाली एकमात्र यही (स्त्री) है। बुरी वासनाएँ कुमुदों के समूह हैं ।उनको सदैव सुख देनेवाली यह (स्त्री) शरद ऋतु है।
धर्म सकल सरसीरुह बृंदा। होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा।।
पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई।।
अर्थात, समस्त धर्म कमलों के झुण्ड हैं| यह नीच (विषयजन्य) सुख देने वाली स्त्री हिम ऋतु होकर जला डालती है | फिर ममतारूपी जवास का समूह ( वन ) स्त्रीरूपी शिशिर ऋतु को पाकर हरा-भरा हो जाता है।
पाप उलूक निकर सुखकारी | नारि निबिड़ रजनी अँधियारी ||
बुधि बल सील सत्य सब मीना | बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना ||
अर्थात, पापरूपी उल्लुओं के समूह के लिये यह स्त्री सुख देनेवाली घोर अन्धकारमयी रात्रि है | बुद्धि, बल, शील और सत्य– ये सब मछलियाँ हैं और उन [ को फँसाकर नष्ट करने ] के लिये स्त्री बंसी के समान है, चतुर पुरुष ऐसा कहते हैं।
दोहा- अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि |
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ||
अर्थात, युवती स्त्री अवगुणों की मूल, पीड़ा देनेवाली और सब दुखों की खान है। इसलिये हे मुनि ! मैंने जी में ऐसा जानकर तुमको विवाह करने से रोका था।
बालकाण्ड में याज्ञवल्क्य और भारद्वाज मुनि के बीच में संवाद पढ़ने को मिलता है, जिसमें भारद्वाज अपनी शंकाओं के निवारण हेतु याज्ञवल्क्य के साथ संवाद करते हैं। इसमें एक चौपाई की एक अर्द्धाली निम्नवत है :
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा। भयउ रोषु रन रावन मारा।।
अर्थात, उन्होंने (राम ने) स्त्री के विरह में अपार दुख उठाया और क्रोध आने पर युद्ध में रावण को मार डाला।
राम द्वारा नारद को दिया गया उपदेश निश्चित रूप से स्त्री विषयक उनका नीति-वक्तव्य है। पाठक इस लेख के माध्यम से अब तक यह जान गये होंगे कि इसके पूर्व भी अनेक स्थलों पर उन्होंने स्त्रियों के सम्बन्ध में अपने नकारात्मक विचारों को व्यक्त किया है। ऐसी स्थिति में भारद्वाज मुनि द्वारा यह कहा जाना कि रावण के वध का कारण सीता के विरह से उत्पन्न राम का क्रोध था, संदेह उत्पन्न करता है। यदि इस संदेह को संदेह ही रहने दिया जाये तो भी राम को स्त्रियों के पक्षधर के रूप में नहीं ही माना जा सकता। राम ही नहीं स्वयं तुलसीदास भी सारी मर्यादाओं को ताक पर रखकर स्त्रियों की निंदा और भर्त्सना करते हैं और हद तो यह है कि स्वयं स्त्रियों के मुँह से इसे मान्यता दिलाते हैं। स्त्री जो पुरुष की जननी होती है, वह यदि अपनी औलाद के द्वारा ही नकार दी जाये तो पूरी सृष्टि की संरचना ही व्यर्थ हो जायेगी। इतना ही नहीं बदलते समय ने यह निर्विवाद रूप से सिद्ध कर दिया हैं कि स्त्रियाँ किसी भी मामले में पुरुषों से कमतर नहीं होतीं, बल्कि अनेक क्षेत्रों में तो उन्होंने स्वयं को पुरुषों से श्रेष्ठ भी सिद्ध कर दिखाया है। विडम्बना यह है कि समय बदला, समय की आवश्यकताएँ बदलीं लेकिन मान्यताएँ नहीं बदलीं। आखिर स्त्री विरोधी राम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में और रामचरितमानस धर्मग्रन्थ के रूप में क्यों पूज्य हैं, यह सवाल एक अभिशाप के रूप में इस देश के समाज को जकड़े हुए है। इसका एकमात्र कारण मानसिक अनुकूलन है और यह मानसिक अनुकूलन धर्म के हथियार का इस्तेमाल करके किया जाता है। धर्म चूँकि प्रश्नातीत है, इसलिए इस अनुकूलन की परिणति भी प्रश्नातीत नियतिवाद में होती है। इसे हम भाग्यवाद भी कह सकते हैं। भाग्य और भगवान पर भरोसा करनेवाला आदमी जड़मति और मानसिक गुलाम हो जाता है। उसके अंदर की प्रश्नाकुलता समाप्त हो जाती है। जब प्रश्न मर जाते हैं तो प्रतिरोध करने की इच्छाशक्ति भी मर जाती है। आदमी इसे अपनी नियति का दैवीय विधान और अपरिवर्तनीय मानकर जीता रहता है और इसके विरुद्ध कोई आवाज़ निकालने की ज़रूरत ही नहीं समझता। शोषण का यह नायाब तरीका संभवतः विश्व के किसी भी सभ्य समाज में नहीं होगा। इस नियतिवाद या भाग्यवाद का प्रभाव इतना प्रबल होता है कि इस देश का संविधान और इसके सारे कानून इसके आगे पानी भरते हैं और समाज का शोषक तबका इसका फायदा उठाकर निर्विरोध शोषण करता रहता है। इसने लोगों के अंदर बिना पढ़े ही राय बनाने की प्रवृत्ति पैदा जकर दी है। जितनी दुर्गति वर्ण व्यवस्था ने कर रखा है, उससे अधिक बिना तर्क किये इसे स्वीकार करने की आदत ने कर दिया है। इसलिए इस लेख के माध्यम से मैं इस देश की आधी आबादी का आह्वान करता हूँ कि वे अपनी सामाजिक आज़ादी और आत्मसम्मान के लिए तर्क शक्ति का प्रयोग करना सीखें।
सन्दर्भ:
-
तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस, गीता प्रेस गोरखपुर, एक सौ छठा संस्करण, सुन्दरकाण्ड 59/3
-
—– तदैव ——— बालकाण्ड 11/3
3.से 7. —— तदैव ———– बालकाण्ड 247/1 से 4 और 247
-
—— तदैव ———- बालकाण्ड 336 से पूर्व
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—— तदैव ——– बालकाण्ड 326/3
-
——- तदैव ——– अयोध्याकाण्ड 61/2
-
और 12. —— तदैव ———अयोध्याकाण्ड 67/2 और 3
13.से 22. ——- तदैव ——- अरण्यकाण्ड 5/3 से 10 और 5क व 5 ख
-
——- तदैव —— किष्किन्धाकाण्ड 15/4
-
——- तदैव —— बालकाण्ड 101
25.से 27. ——- तदैव —— बालकाण्ड 102/ 1 से 3
-
——– तदैव —— बालकाण्ड 334/4
-
——– तदैव —–बालकाण्ड 108/1
-
——– तदैव —– बालकाण्ड 109
-
——- तदैव —– बालकाण्ड 112/2
-
——- तदैव —– बालकाण्ड 120/2
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——- तदैव —— बालकाण्ड 210/4
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——– तदैव —– बालकाण्ड 210
35.से 38. ——- तदैव —– बालकाण्ड 211/1 से 4
-
—— तदैव —-बालकाण्ड 211
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से 43 —— तदैव —- अयोध्याकाण्ड 161/1 से 4
-
——- तदैव —– अयोध्याकाण्ड 161
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से 48. —— तदैव ——- अयोध्याकाण्ड 162/1 से 4
-
——- तदैव ——– अयोध्याकाण्ड 162
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से 53. —— तदैव —— अयोध्याकाण्ड 163/1 से 4
-
——– तदैव —— अयोध्याकाण्ड 75/1
-
——- तदैव ——- अयोध्याकाण्ड 12
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——— तदैव —— अयोध्याकाण्ड 13/2
-
——– तदैव ——- अयोध्याकाण्ड 14
-
——— तदैव ——- अयोध्याकाण्ड 47/4
-
——— तदैव ——- अरण्यकाण्ड 17/2
-
——– तदैव —— बालकाण्ड 230/1
-
——– तदैव —— बालकाण्ड 251/1
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——– तदैव —— अरण्यकाण्ड 17/3
63 और 64. ——– तदैव —— अरण्यकाण्ड 35/ 1 और 2
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——- तदैव —— अरण्यकाण्ड 36
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——- तदैव —— अरण्यकाण्ड 37/5
67.से 70. ——– तदैव —— अरण्यकाण्ड 44/1 से 4
-
——– तदैव —— अरण्यकाण्ड 44
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——- तदैव ——- बालकाण्ड 46/4
मूलचन्द सोनकर हिन्दी के महत्वपूर्ण दलित कवि-गजलकार और आलोचक थे। विभिन्न विधाओं में उनकी तेरह प्रकाशित पुस्तकें हैं 19 मार्च 2019 को उन्होंने इस संसार को अलविदा कहा।
मेरा ख्याल है कि लेखक का मानसिक संतुलन सही नहीं है
जैसे कि उनके नाम से ही पता लग रहा है मूलचंद सोनकर वह अपनी औकात दिखा रहे हैं तू कितनी बड़ी समझ के मालिक थे पता नहीं उन्होंने इतनी सारी किताबे कैसे लिखी और उनकी किताबें पढ़कर के कौन-कौन लोग गुमराह हुए बस इतना कहेंगे कि उनके लेखन में मंघड़ंत बकवास के अलावा कुछ नहीं है
Ek baat jarur kahenge ki dalit Chhota hai nahin jitna usko ehsas dilvaya jata hai aur dalit utna Chhota hai nahin jitna vah apni soch se sabit kar deta hai
सनातन को बदनाम करने की कोशिशें यह घटिया लोग पहले भी करते रहे हैं अभी कर रहे हैं और आगे भी करेंगे क्योंकि एक कहावत है कुत्ते की पूंछ 12 साल नाली में पड़ी रही मगर टेढ़ी की टेढ़ी यहां थोड़ी सी कहावत को बदलेंगे कि कुत्ते की पूंछ 12 युग भी नाली में पड़ी रहे तो भी टेढ़ी ही रहेगी
बेवकूफ कही के। रावण और उसके वंसज को मानस में और अन्य ग्रंथो में उच्च ब्राह्मण कुल का बताया गया है और तुम आदिवासी आदि बता रहे हो। इसीलिए तुलसी जी ने सही ही लिखा है। थोड़ा पढ़ना आ गया तो अर्थ समझने के बजाय अनर्थ करने लगे खुद को सुपर बुद्धिमान मान कर। बात तो तब होती जब अपनी पढ़ाई का सदुपयोग करते और अगर सच मे पढ़े लिखे हो और स्त्रियों के ऊपर धार्मिक ग्रंथों पर लिखे गए शब्दो आदि पर बोलना चाहते हो तो अन्य धर्मिक ग्रंथो में पढो और वहां स्त्रियों पर लिखे गए चीजों का इंटरप्रटेशन करो हिम्मत हो तो। महोदय अन्य धर्म या उनके ग्रंथों पर टिप्पणी करोगे तब सर छुपाते घूमोगे। रावण ब्राह्मण था और आज वह हर साल जलाया जाता है यह तो अच्छा है कि वह किसी अन्य जाति का नही था वार्ना तुम जैसे विशुद्ध रूप से मूर्ख बेहूदे विचार रखने लगते। पढ़ लिख लेना विद्वता नही है बल्कि उचित अनुचित का ज्ञान भी होना चाहिए। बौद्ध बन गए हो या मुस्लिम हो गए हो अतः हिन्दुओ पर टिप्पणी करोगे ही।