Friday, April 26, 2024
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मेरिट का मिथक और सबके लिये समान शिक्षा

वर्ण व्यवस्था समाज का सोपानीकृत विभाजन मात्र नहीं है। यह योग्यता के आकलन का जातिगत मापदंड भी है। लेकिन बहुप्रचारित और बहुमान्य धारणा के विपरीत यह मानक अयोग्यतम व्यक्तियों को योग्य सिद्ध करने के लिये ब्राह्मणों द्वारा रचा गया मानवविरोधी षड्यन्त्र है। यह बात मैं अपने अध्ययन के आधार पर कह रहा हूँ। जो जितना […]

वर्ण व्यवस्था समाज का सोपानीकृत विभाजन मात्र नहीं है। यह योग्यता के आकलन का जातिगत मापदंड भी है। लेकिन बहुप्रचारित और बहुमान्य धारणा के विपरीत यह मानक अयोग्यतम व्यक्तियों को योग्य सिद्ध करने के लिये ब्राह्मणों द्वारा रचा गया मानवविरोधी षड्यन्त्र है। यह बात मैं अपने अध्ययन के आधार पर कह रहा हूँ। जो जितना अधिक अयोग्य है उसका क्रम उतना ही ऊपर है। पूरा संस्कृत वांग्मय पढ़कर देख लीजिये, ब्राह्मणों की कुत्सित मानसिकता के आख्यान भरे पड़े हैं इन ग्रंथों में। इन आख्यानों के आधार पर यदि इनका आकलन किया जाये तो इनसे अधिक निकृष्ट कोई अन्य व्यक्ति या समुदाय नहीं मिलेगा लेकिन इन्होंने स्वयं को न केवल सर्वश्रेठ अपितु पाद-पूज्य भी घोषित कर रखा है।

क्षत्रिय जो वर्ण व्यवस्था के दूसरे सोपान पर स्थापित हैं और जिनके बारे में कहा जाता है कि वे देश और समाज की रक्षा के लिये बनाये गये थे, केवल ब्राह्मणों की दासता की भूमिका में ही चित्रित किये गये हैं। ब्राह्मणों ने इनका जितना शारीरिक और आर्थिक शोषण किया है उसे पढ़कर इनकी निरीहता पर अफसोस होता है। क्षत्रियों ने कभी देश निर्माण के लिये कोई युद्ध जीता हो ऐसा कहीं पढने को नहीं मिलता। समाज की रक्षा के नाम पर ब्राह्मणों ने इनका उपयोग अपने विरोधियों की हत्याएँ करवा कर उनकी सम्पत्ति हड़पने के लिये ही किया है।

विडम्बना यह भी है कि ब्राह्मणों ने अपने विरोधियों को राक्षस और उनकी हत्याओं को धर्म की स्थापना का नाम देकर न केवल औचित्यपूर्ण ठहराया बल्कि उन्हें सामाजिक स्वीकृति भी दिलवा दी जो आज भी बदस्तूर जारी है। ब्राह्मणों ने शाप नामक जिस मारक हथियार का आविष्कार कर रखा था, उसका जमकर दुरुपयोग इसी कौम के विरुद्ध किया है। विडम्बना यह भी है कि क्षत्रियों ने कभी भी ब्राह्मणों के कुकृत्यों पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाये और आँख मूँदकर उनकी आज्ञाओं का पालन करते रहे। अपने अवधारित उत्तरदायित्वों से अनभिज्ञ और ब्राह्मणों के चंगुल में फँसी हुई किसी जाति को योग्य नहीं कहा जा सकता।

[bs-quote quote=”आज देश और प्रदेश में उन्हीं लोगों की सरकार है जो स्वयं को मेरिटधारी कहते हुए नहीं अघाते लेकिन ये जिस प्रकार अक्षम और नकारा साबित हुए हैं उसकी मिसाल वे स्वयं हैं। इनकी समझ में कुछ भी उसी प्रकार नहीं आ रहा है जिस प्रकार शोलापुर की आम सभा में बोलते हुए तिलक ने अपनी नासमझी को स्वीकार किया था । लेकिन इनकी नासमझी ने मेरी इस समझ की पुष्टि जरूर की है कि वर्ण व्यवस्था का निर्धारण योग्यतम से अयोग्यतम की बजाय अयोग्यतम से योग्यतम की ओर अग्रसर व्यवस्था है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

मूलचंद सोनकर

वैश्य जो वर्ण व्यवस्था के तीसरे सोपान पर स्थापित हैं, का काम केवल धनोपार्जन करके अपनी स्वार्थ सिद्धि और ब्राह्मणों को खुश रखना मात्र रहा है। बाबा साहब ने बनियों पर दो टूक टिप्पणी इन शब्दों में की है-‘‘बनिया के समान निकृष्टतम परजीवी पूरे इतिहास में कोई अन्य नहीं है। धनोपार्जन ही उसकी एकमात्र वृत्ति है। धन के प्रति उसकी अंतहीन लिप्सा उसकी संस्कृति और प्रवृत्ति है । वह ऐसा दलाल है जो महामारी के दौरान फलता-फूलता है। दलाल और बनिया में यह अन्तर है कि दलाल महामारी नहीं फैलाता जबकि बनिया फैलाता है। वह अपने धन का इस्तेमाल उत्पादन के लिये नहीं करता। वह अनुत्पादक कार्यों के लिये अपने धन को ब्याज पर उधार देकर गरीबी दर गरीबी पैदा करता है। वह ब्याज पर जिन्दा रहता है और चूँकि उसे अपने धर्म में यह सिखाया जाता है कि मनु ने उसके लिये ब्याज पर धन उधार देने का ही पेशा निर्धारित किया है, उसे अपना धंधा उचित और धर्मसंगत लगता है। वह ब्राह्मण जजों, जो उसके मामले में उसके अनुकूल निर्णय सुनाने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं, के बल पर अपना व्यवसाय चलाता रहता है। वह ब्याज के ऊपर ब्याज जोड़ता जाता है और इस प्रकार अनेक परिवारों को हमेशा के लिये अपने चंगुल में फँसाये रहता है। कर्जदार उसकी उधारी चाहे जितना चुकाता रहे, हमेशा कर्जदार ही बना रहता है। उसकी अंतरात्मा इतनी मरी हुई होती है कि वह अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु किसी भी सीमा तक झूठ और फरेब रच सकता है। पूरा राष्ट्र उसकी मजबूत पकड़ में फँसकर छटपटाता रहता है। भारत की सारी गरीब, भूखी और अशिक्षित आबादी बनिया के यहाँ बंधक बनी रहती है। सारांश यह कि, ब्राह्मण मस्तिष्क को गुलाम बना कर रखता है और बनिया शरीर को।‘‘ (वॉल्यूम 9 पृष्ठ 216 हिंदी अनुवाद मेरा)

ये रहा ऊपर के तीनों वर्णों की चरित्रगत विशेषता का संक्षिप्त विवरण। इनके बरक्स वर्ण व्यवस्था के चौथे सोपान पर रखी गयीं और शूद्र के नाम से परिभाषित तथा वर्ण वाह्य अन्त्यज जातियों पर नजर डालें तो यही पायेंगे कि इसमें आने वाली सभी जातियाँ उत्पादन में संलग्न जातियाँ हैं। ये श्रमशील,सृजनशील नवपरिवर्तनकामी, कल्पनाशील, नवोन्मेषी, नवोन्मुखी और दुर्धर्ष संघर्षशील जातियाँ हैं और देश तथा समाज की उन्नति तथा निर्माण में मात्र इन्हीं का योगदान रहा है। लेकिन बड़े सलीके और करीने से इन जातियों को इनके योगदान के लाभ और उत्पादन के उपभोग से न केवल वंचित किया गया बल्कि इस प्रक्रिया से इन्हें विपन्न बनाकर इनपर अयोग्यता का स्थायी लेबल भी चस्पाँ कर दिया गया। कालान्तर में अयोग्यता की यह धारणा इतनी रूढ़ हो गयी कि इसे स्वयं उन लोगों ने भी स्वीकार कर लिया जो इसके शिकार थे। कहने का आशय यह है कि सभी संभावित प्रतिभाओं की धनीभूत और पुन्जिभूत जातियाँ अयोग्य घोषित कर दी गयीं। डॉ. अम्बेडकर ने इस विपन्नीकरण के पीछे निम्न कारणों को रेखांकित किया है:

  1. विभिन्न वर्गों के बीच सोपानीकृत असमानता ;
  2. शूद्रों और दलितों के लिये हथियार रखने पर पूरी पाबंदी ;
  3. शूद्रों और दलितों की शिक्षा पर पूर्ण निषेध ;
  4. शूद्रों और दलितों के लिये शक्ति और अधिकार के पद प्राप्त करने की पाबंदी ;
  5. शूद्रों और दलितों को सम्पत्ति हासिल करने के अधिकार पर पाबंदी ;
  6. स्त्रियों की अधीनता और दमन ; (वॉल्यूम 9 पृष्ठ 215, अनुवाद मेरा)

वस्तुतः यह तथाकथित हिन्दू धर्म के स्थायी गुणसूत्र हैं जिन्होंने पूरी मानवता को कलंकित और कलुषित कर रखा है लेकिन वर्ण व्यवस्था के पोषक इसे दुनिया की सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ सामाजिक व्यवस्था मानकर इतराते रहते हैं। उन्हें इस बात की कतई चिंता नहीं रहती कि उनकी इस इतराहट के नीचे इस देश की बहुसंख्यक आबादी की बेहतरी और सामाजिक समानता के सवाल दम तोड़ बैठे हैं।

किसी भी व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता को उसकी जाति के आधार पर तय किया ही नहीं जा सकता। अभी तक किसी भी ऐसी वैज्ञानिक तकनीक को खोजा नहीं जा सका है जो जाति और मेरिट को एक-दूसरे का पर्याय सिद्ध कर सके। इस पर बाबा साहेब  का दृष्टिकोण बिल्कुल साफ था। इसे उनके इस कथन में देखा जा सकता है, ‘‘इस सामान्य सिद्धान्त से कोई भी व्यक्ति असहमत नहीं हो सकता कि ऐसा कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे योग्यतम व्यक्ति योग्यतर व्यक्ति से, योग्यतर व्यक्ति योग्य व्यक्ति से और योग्य व्यक्ति अयोग्य व्यक्ति से अतिक्रमित हो जाये…

लेकिन मनुष्य कोई मशीन नहीं है। वह कुछ लोगों के प्रति सहानुभूति की भावनाओं और कुछ लोगों के प्रति विद्वेष की भावनाओं से युक्त एक जीवित प्राणी है। यह बात किसी श्रेष्ठतम और योग्यतम व्यक्ति के मामले में भी उतनी ही सच होती है जितनी सच किसी भी अन्य व्यक्ति के मामले में होती है। वह भी अपने वर्ग के साथ सहानुभूति की और पराये वर्ग के साथ विद्वेष की भावना से ग्रस्त रहता है। इस दृष्टिकोण से देखा जाये तो शासक वर्ग का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति शासित वर्ग के लिये निकृष्टतम व्यक्ति में बदल जाता है। शासक वर्ग और शासित वर्ग के व्यक्तियों का एक-दूसरे के प्रति रवैया ठीक उसी प्रकार का होता है जिस प्रकार का रवैया एक देश के व्यक्ति का दूसरे देश के व्यक्ति के साथ होता है।’’ (वॉल्यूम 9,पृष्ठ 475-76 अनुवाद मेरा)

अपने इस कथन के द्वारा बाबा साहेब ने भारतीय समाज की शिनाख्त करते हुए उसे दो समूहों में विभाजित किया है। एक शासक समूह और दूसरा शासित समूह। कहना अन्यथा न होगा कि वर्ण व्यवस्था के ऊपरी तीनों सोपानों पर स्थापित जाति समूह अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य शासक समूह और समाज का बड़ा हिस्सा जिसे शूद्र और अन्त्यज की श्रेणी में रखा गया, शासित समूह में आते हैं। इन दोनों समूहों का एक-दूसरे के प्रति वैसा ही रवैया होता है जैसा कि एक देश के निवासी का दूसरे देश के निवासी के प्रति। और चूँकि शासक समूह हर तरह से अधिकार सम्पन्न, शक्ति और साधन सम्पन्न होता है इसलिए वह शासित समूह को हमेशा दबा कर रखने सफल रहता है। यही होता रहा है इस देश में और यही हो रहा है इस देश में। शासक समूह ने कभी भी शासित समूह को अपने समाज का अंग नहीं माना। उसने कभी भी उसे अपनी बराबरी पर आने के लिये समुचित अवसर नहीं दिया। उसे बेबस बनाये रखा। उसका जी भर कर शोषण करता रहा। उसे तरह-तरह के लांछन से आरोपित करता रहा। उसे शत्रु देश का निवासी समझ कर शत्रुवत् दमन करता रहा। यदि वह अपने इस दास तुल्य शासित समूह को किसी भी मेरिट में स्थान नहीं देता तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह शासक समूह के अपवित्र गंठजोड़ से निसृत विकृत मानसिकता की पराकाष्ठ है। यही मानसिकता जातिगत मेरिट निर्धारण में एकमात्र भूमिका अदा करती है। यह सामाजिक सच आज भी उसी तरह जारी है।

भारतीय राजनीति में गाँधी को तिलक का उत्तराधिकारी कहा जाता है। यह बात इस आधार पर सही है कि तिलक के बाद गाँधी ने ही कांग्रेस की बागडोर सम्भाली थी और कांग्रेस को भारतीय राजनीति का पर्याय मानने की खुशफहमी लोगों में व्याप्त है। ब्राह्मण तिलक के बनिया उत्तराधिकारी गाँधी ने तिलक की सामाजिक नीतियों को पूरी कुशलता से आगे तो बढ़ाया ही, बनिया-ब्राह्मण गंठजोड़ को भी मजबूत किया। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, कांग्रेस में किसी क्षत्रिय को कभी भी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं मिली। ऐसा इसलिये भी हो सकता है कि आधुनिक काल में ब्राह्मणों के लिये क्षत्रियों की वह भूमिका कारगर होना सम्भव नहीं है जो अतीत में हुआ करती थी। अब उनके पास न तो राज्य है और न ही राज्य पोषित वह अधिकार जिसके बल पर ब्राह्मण उनका उपयोग अपने विरोधियों को मरवाने तथा उनसे धन-सम्पत्ति ऐंठने में किया करते थे। ऐसी स्थिति में धनाढ्य बनिये ही उनके आर्थिक स्रोतों के रूप में सामने आते हैं और ब्राह्मण उनको क्षत्रियो पर वरीयता प्रदान करना नहीं चूकते। सम्भवतः यह बात क्षत्रियों को दिखाई नहीं देती और वह नाहक ही जातिगत घृणा को गले से लगाये हुए दलितों का उत्पीड़न और उनकी हत्याएँ करते रहते हैं।

तिलक कट्टर ब्राह्मण थे। ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है‘ उनका सर्वव्याप्त लोकप्रिय नारा है लेकिन यह नारा उछालते समय वह इस तथ्य को क्यों नहीं स्वीकार करते कि बिल्कुल यही जन्मसिद्ध अधिकार उन दलितों को भी है जिन्हें  हजारों साल से सवर्ण हिन्दुओं ने अपना गुलाम बना रखा है? अपनी आजादी की माँग करने वाले तिलक का यह नैतिक दायित्व था कि वह पहले दलितों को सवर्ण हिन्दुओं की गुलामी से आजाद कराते। लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि जिस प्रकार अंग्रेजों की गुलामी से स्वतन्त्र होने को वह अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे, ठीक उसी प्रकार दलितों को अपना गुलाम बनाये रखने को भी अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे। यही अन्तर है शासित और शासक समूहों की सोच में, जिसकी शिनाख्त डॉ. अम्बेडकर ने की है।

तिलक की जातिगत कुंठा और घृणा कितनी प्रबल थी इसे डॉ.अम्बेडकर ने उनके एक व्याख्यान के हवाले से उजागर किया है जो इस प्रकार है-‘‘1918 में जब गैर-ब्राह्मण और पिछड़ी जाति के लोगों ने विधायिका में अलग प्रतिनिधित्व की माँग को लेकर आन्दोलन शुरू किया तो शोलापुर में आयोजित एक आम सभा में बोलते हुए तिलक ने यह कहा कि उनकी समझ में यह नहीं आ रहा है कि ये तेली, तम्बोली, धोबी इत्यादि के लोग विधायिका में क्यों जाना चाहते हैं। उनकी राय यह थी कि इन जातियों के लोगों का काम हमारे बनाये हुए कानूनों का पालन करना है और उन्हें कानून बनाने वाली शक्तियों का हिस्सा बनने की इच्छा नहीं पालनी चाहिए।’’ (वॉल्यूम 9,पृष्ठ 209,अनुवाद मेरा)

इसी पृष्ठ पर सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरु और विजय लक्ष्मी पण्डित के बारे में भी बताया गया है लेकिन इस लेख को अनावश्यक विस्तार देने से बचने के उद्देश्य से सभी को यहाँ पर उद्धृत करने की जरूरत नहीं लगती। बस इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि कांग्रेस ही क्या इस देश का सम्पूर्ण उच्च जातीय सवर्ण तबका दलितों को एक ही तरह की हेय दृष्टि से देखने के लिये अभिशप्त है।

गाँधी ने तिलक की परम्परा को किस प्रकार आगे बढ़ाया इसे बताने के लिये मैं एक दृष्टान्त उद्धृत करना चाहूँगा। यह इस प्रकार है -‘‘सन् 1929 में बॉम्बे प्रेसीडेंसी में मंदिर-प्रवेश और सार्वजानिक कुओं से पानी लेने के अपने नागरिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये दलितों ने हिन्दुओं के विरुद्ध सत्याग्रह आन्दोलन चलाया था। उन्हें विश्वास था कि इस आन्दोलन के लिये उन्हें गाँधी का आशीर्वाद प्राप्त होगा क्योंकि अनुचित कृत्य को सही करने के लिये सत्याग्रह उन्हीं का हथियार है। जब उनसे समर्थन देने की अपील की गयी तो गाँधी ने हिन्दुओं के विरुद्ध चलाये जा रहे सत्याग्रह आन्दोलन की भत्र्सना करते हुए एक बयान जारी करके दलितों को आश्चर्यचकित कर दिया। उनका कहना था कि सत्याग्रह का प्रयोग विदेशियों के विरुद्ध किया जाना चाहिए; इसका प्रयोग अपने भाई-बन्धु तथा देशवासियों के विरुद्ध नहीं किया जाना चाहिए और चूँकि हिन्दू दलितों के भाई-बन्धु और देशवासी हैं इसलिये नियमतः सत्याग्रह का प्रयोग हिन्दुओं के विरुद्ध नहीं किया जा सकता।’’ (वॉल्यूम 9, पृष्ठ 264, अनुवाद मेरा ) इसी मानसिकता के कारण गाँधी ने अस्पृश्यता को मिटाने के लिये एक बार भी भूख हड़ताल नहीं किया। इसी पुस्तक के पृष्ठ संख्या 248 पर बताया गया है कि उन्होंने 21 बार भूख हड़ताल किया था। इसके बाद भी क्या गाँधी को दलित-हितैषी कहा जा सकता है?

सवाल यह है कि यदि दलित वास्तव में मेरिटोरियस न होते तो उन पर तमाम धर्मसंगत वर्जनाएँ थोपी ही क्यों जातीं? चीजें वही प्रतिबंधित होती हैं जिनका अस्तित्व होता है। सच्चाई यह है कि दलितों को जिन भी चीजों और गुणों से वंचित किया गया वे उन सभी चीजों और गुणों से न केवल लैस थे बल्कि ब्राह्मणों के लिये हमेशा चुनौती भी बने रहते थे। उनकी यही चुनौतीपूर्ण हैसियत उनके आड़े आई और वे ब्राह्मणों की चाल के आगे टिक नहीं सके तथा इस अधोगति को प्राप्त हुए। मैं यहाँ पर रामचरितमानस से दो उदाहरण देकर अपनी बात को स्पष्ट कर रहा हूँ। पहला उदाहरण अरण्यकाण्ड के दोहा संख्या 34 की चैपाई संख्या एक है जो निम्नवत् है:

सापत ताड़त  परुष कहंता। बिप्र  पूज्य अस गावहिं संता।।

पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।

अर्थात् शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं। शील और गुण से हीन भी ब्राह्मण पूजनीय है। और गुणगणों से युक्त और ज्ञान में निपुण भी शूद्र पूजनीय नहीं है।

इस चैपाई के माध्यम से तुलसीदास ब्राह्मणों पर शूद्रों की न केवल श्रेष्ठता को स्वीकार कर रहे हैं बल्कि उनके व्यभिचारी स्वभाव, जिसे मैं ऊपर इंगित कर चुका हूँ, को भी स्वीकार कर रहे हैं लेकिन इन व्यभिचारियों को पूजने का आदेश देकर क्या वे शूद्रों पर ब्राह्मणों के आतंक को धर्मसंगत नहीं ठहरा रहे हैं? यह एक अत्यन्त गम्भीर विचारणीय प्रश्न है।

दूसरा उदाहरण उत्तरकाण्ड का दोहा संख्या 99 है जो निम्नवत् है:

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।

जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि।। 

अर्थात् शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं और कहते हैं, कि हम तुमसे कुछ कम हैं ? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। ऐसा कहकर ,वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं।

इस दोहे के द्वारा तुलसीदास यह स्वीकार करते हैं कि ब्रह्म जैसी जटिल अवधारणा की गुत्थी सुलझाने की सलाहियत शूद्रों में ब्राह्मणों की तुलना में न केवल बेहतर है बल्कि वे तर्क-वितर्क में भी ब्राह्मणों पर भारी पड़ते हैं और यही कसक तुलसीदास के मन को भारी कर देता है और वह अपने मूढ़ से मूढ़ स्वजातीय बंधुओं की रक्षा के लिये ऊल-जलूल धर्मादेश पारित करने का दुस्साहस कर बैठते हैं। तुलसीदास और रामचरितमानस दोनों ही भारतीय सवर्ण समाज के आदर्श हैं और रामचरितमानस को तो धर्म ग्रन्थ का रुतबा भी हासिल है । जब तुलसीदास के मन में शूद्रों के प्रति इतनी घृणा है तो उनके अनुयायी इस मामले में भला क्यों पीछे रहेंगे ? वे क्यों शूद्रों की बौद्धिक क्षमता का सम्मान करके उनकी मेरिट को स्वीकार करेंगे ?

और मेरिट की भयावह विडम्बना देखिये। आज देश और प्रदेश में उन्हीं लोगों की सरकार है जो स्वयं को मेरिटधारी कहते हुए नहीं अघाते लेकिन ये जिस प्रकार अक्षम और नकारा साबित हुए हैं उसकी मिसाल वे स्वयं हैं। इनकी समझ में कुछ भी उसी प्रकार नहीं आ रहा है जिस प्रकार शोलापुर की आम सभा में बोलते हुए तिलक ने अपनी नासमझी को स्वीकार किया था । लेकिन इनकी नासमझी ने मेरी इस समझ की पुष्टि जरूर की है कि वर्ण व्यवस्था का निर्धारण योग्यतम से अयोग्यतम की बजाय अयोग्यतम से योग्यतम की ओर अग्रसर व्यवस्था है।

[bs-quote quote=”मेरिट के मिथक का शल्य परीक्षण करने के उपरांत आइये अब सबके लिये समान शिक्षा उपलब्ध कराने के दावों का परीक्षण करते हैं। इस तथ्य को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि आजादी के बाद प्रारंभिक और पूर्व माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा को सर्व सुलभ बनाने की दिशा में सरकार ने सकारात्मक कदम उठाये थे और इस कदम से दलित एवं वंचित समूह का एक बड़ा तबका लाभान्वित भी हुआ था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

ये स्वयंभू मेरिटधारी वास्तव में कितने मेरिटोरियस होते हैं इसे मात्र एक  उदहारण के माध्यम से सिद्ध करना चाहूँगा। मासिक पत्रिका समयांतर के जून 2017 के अंक में डॉ. नगेन्द्र के कारनामों पर केन्द्रित एक लेख इसके दिल्ली मेल नामक नियमित कॉलम में प्रकाशित हुआ है। इस लेख में बताया गया है कि उन्होंने किस प्रकार प्रतिभाशाली और डिजर्विंग बच्चों के हकों को मारकर अपने चहेते-चहेतियों को लाभान्वित किया था। लेख का यह अंश यहाँ उद्धृत किया जा रहा है-‘‘साफ बात यह है कि नगेन्द्र अपने भाई-भतीजावाद और तानाशाही के लिये बदनाम थे। उन्होंने इस तरह हिंदी साहित्य और उसके समाज का जो अहित किया, उसका असर आज हिंदी विभागों के बौद्धिक पतन और नियुक्तियों में होने वाले भ्रष्टाचार में देख सकते हैं। यही नहीं कि अपनी बेटियों को प्रथम श्रेणी दिलवाने के लिये उन्होंने भ्रष्ट तरीके अपनाए, अपनी चहेतियों को भी हर किस्म के पदों में पहुँचने में मदद की। उनकी बेटियाँ ही नहीं दामाद भी नौकरियों में लगे। बल्कि हुआ यह कि उनके कृपापात्रों के बेटे-बेटियाँ, दामाद, बहुएँ आदि सब को एक-एक कर फिट किया गया और इस सिलसिले की प्रक्रिया इन लोगों के अध्ययन काल से ही शुरू कर दी गयी। यानी परीक्षाओं को मैनीपुलेट किया गया, अंक बढवाए गये। इस प्रक्रिया में प्रतिभाशाली और डिजर्विंग बच्चों को उनके हक से वंचित रखा गया। इन सारे कारनामों से ऐसा नहीं है कि त्रिपाठी अपरिचित हों।

नगेन्द्र किस तरह काम करते थे उसका एक उदहारण सन् 1957 का दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का परिणाम है जिसमें एमए में 11 छात्र प्रथम श्रेणी में पास हुए और इनमें से अधिकांश अयोग्य थे पर उनकी सबसे बड़ी योग्यता उनका रसूखदार होना था। इनमें भक्तों और अध्यापकों से लेकर राजनीतिकों तक के बच्चे और रिश्तेदार थे । इस ‘प्रतापी’ आलोचक ने अपना प्रभाव क्षेत्र मूलतः आदान-प्रदान ( दान ) के अलावा राजनीतिकों को अनुग्रहित करके बनाया था। अन्यथा हिंदी विभाग के अध्यक्ष में ऐसे कौन से सुरखाब के पर लगे थे कि वह मैनेजिंग कमेटियों को जब चाहे धमका दे या फिर कुलपति को ठेंगे पर रखे और वह भी केएन राज जैसे को !’’

यह तो एक बानगी भर है इन मेरिटधारियों की। ऐसे न जाने कितने दृष्टान्त उद्धृत किये जा सकते हैं। बल्कि मैं तो यह कहना चाहूँगा कि इन मेरिटधारियों की पूरी नींव छल-प्रपंच और बेईमानी पर टिकी है। लेकिन विडम्बना तो यह है कि इनकी चाहे जितनी पोल खोली जाये ये रत्ती भर भी विचलित होने वाले नहीं हैं क्योंकि हर क्षेत्र में इन्हीं का वर्चस्व है और इनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। दलित न कभी रसूखदार होंगे और न किसी मेरिट के लायक समझे जायेंगे। दूसरे शब्दों में वर्ण व्यवस्था सामाजिक अन्याय की नींव पर टिकी हुई व्यवस्था है और इस व्यवस्था का महिमामंडन करने वालों से सामाजिक न्याय की उम्मीद करना बेमानी है और बिना सामाजिक न्याय के शासित समूह कभी मेरिटधारी नहीं हो सकता।

मेरिट के मिथक का शल्य परीक्षण करने के उपरांत आइये अब सबके लिये समान शिक्षा उपलब्ध कराने के दावों का परीक्षण करते हैं। इस तथ्य को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि आजादी के बाद प्रारंभिक और पूर्व माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा को सर्व सुलभ बनाने की दिशा में सरकार ने सकारात्मक कदम उठाये थे और इस कदम से दलित एवं वंचित समूह का एक बड़ा तबका लाभान्वित भी हुआ था। यह तबका शिक्षित होकर न केवल विभिन्न पदों पर आसीन हुआ बल्कि समाज की मुख्य धारा में अपना स्थान बनाते हुए देश के निर्माण में प्रभावी भूमिका भी निभाने लगा। उसकी इस उपलब्धि में निश्चित रूप से संविधान प्रदत्त राजनैतिक और सरकारी सेवाओं में आरक्षण की भी महती भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसा  लगने लगा था कि देश एक समतामूलक समाज के निर्माण के लिये स्वयं को मानसिक स्तर पर तैयार कर रहा है लेकिन सरकार शनैः शनैः अपने दायित्वों से विमुख होती गयी और न केवल शिक्षा व्यवस्था बल्कि वे सभी व्यवस्थाएँ जिन्हें जन साधारण को सुलभ कराना सरकार का नैतिक एवं संवैधानिक दायित्व एवं कर्तव्य था, से विमुख होती गयी। इसके पीछे सरकार के चाहे जो भी तर्क रहे हों लेकिन मेरा मानना है कि वास्तविक कारण वर्ण व्यवस्थाजन्य जातीय मनोमालिन्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है जिसका एक मात्र उद्देश्य वंचितों को वंचित बनाये रखने का ही होता है क्योंकि आजादी के बाद से लगातार तमाम निर्णायक पदों पर वही लोग काबिज चले आ रहे हैं जिन्हें दलितों के उत्थान से स्वाभाविक एलर्जी होती है।

मूलचन्द सोनकर हिन्दी के महत्वपूर्ण दलित कवि-गजलकार और आलोचक थे। विभिन्न विधाओं में उनकी तेरह प्रकाशित पुस्तकें हैं 19 मार्च 2019 को उन्होंने इस संसार को अलविदा कहा।

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