इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है।
…कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है।
…किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टांग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टांग से
बिल्कुल बेखबर।
बनारस पर केदारनाथ सिंह की इस कविता से श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति नहीं हो सकती।
बनारस देश की उन विरल जगहों में है, जिसने कवियों और कलाकारों को सबसे अधिक प्रेरित किया है। इस मामले में कलकत्ता (अब कोलकाता) से ही संभवतः इसकी तुलना की जा सकती है। अगर सिर्फ कवियों की ही बात करें, तो केदारनाथ सिंह से लेकर ज्ञानेंद्रपति (गंगा तट) तक लंबी कतार है। बिश्वनाथ घोष भी अब इसी रास्ते के यात्री हैं।
और कदाचित इस संयोग की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बनारस के कवि बिश्वनाथ घोष ने अब अपनी गृहस्थी कोलकाता में समेट ली है। बिश्वनाथ घोष की कविताओं में बनारसी मिजाज दिखता है, जब वह कहते हैं, ‘बनारस देखना हो तो जाओ उद्देश्यहीन।’ गंगा तट पर मणिकर्णिका से दरभंगा घाट तक कवि की स्मृतियां जुड़ी हैं।
उनकी कविताएं सिर्फ बनारस पर भावोच्छ्वास नहीं हैं। इन कविताओं में अपने समय का दबाव भी है। जब राजनीतिक विमर्श में बाबा विश्वनाथ की नगरी को सुनियोजित ढंग से काशी कहा जाता हो, तब इस संग्रह की काशी बनाम बनारस कविता अनायास नहीं है। इसके जरिये कवि दोनों का फर्क साफ-साफ बता देता है। संग्रह में दरभंगा घाट पर भी एक कविता है, जो कवि का प्रिय घाट है।
बिश्वनाथ घोष की खासियत यह है कि बेहद हल्के मिजाज में वह समसामयिक मुद्दों को अपनी कविताओं में ले आते हैं, उन मुद्दों को भी, जिन पर अघोषित और सुनियोजित चुप्पी है। यही नहीं, बहुत बहुत सफाई से वह संदेश भी जाते हैं : काशी बनाम बनारस, मतभेद आदि कविताएं इसी का उदाहरण हैं। यहां तक कि बनारस का टूटना भी (संदर्भ-काशी विश्वनाथ कॉरिडोर) इनकी कविताओं में आया है। अलबत्ता आगे बिस्मिल्लाह खान को आधार बनाकर लिखी गई कविता शहनाई की सीख की वाकई बहुत महत्वपूर्ण सीख है : ‘तोड़ने वाला टिक नहीं पाता है/जोड़ने वाला ही लंबा जीता है।’ ‘धागा’ कविता में बिश्वनाथ इसी सोच को आगे बढ़ाते हैं-‘धागे ने कैसे जोड़ रखा है, हिंदू और मुसलमान को। मुसलमान बुनता है, हिंदू पहनता है, दोनों की एक साझा संस्कृति, जिसका नाम है, बनारसी साड़ी। ‘ ऐसे ही दक्षिण दिशा सिर्फ एक कविता नहीं है, वह आज के समय के बारे में भी बहुत कुछ बताती है : जब भी किसी नगरी/की होती है बढ़ोतरी/तो वह दक्षिण की तरफ बढ़ता है/फिर एक समय ऐसा आता है/जब दक्षिण में संपन्नता आती है/और उत्तर में दुर्दशा और इतिहास/दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता, चेन्नई/सब दक्षिण दिशा में ही तो बढ़े हैं/तो भला बनारस क्यों पीछे रहता।
कवि बनारस को उनकी समग्रता में देख पाते हैं, इसका प्रमाण ये पंक्तियां हैं : हर शहर का अपना/भूत और वर्तमान होता है/बनारस में दोनों एक साथ दिखते हैं।
बिश्वनाथ घोष ने अपनी कविताओं के जरिये बनारस को उसकी संपूर्णता में ही व्यक्त नहीं किया है, बल्कि उसकी वास्तविकता भी बताई है। अंग्रेजी के पत्रकार और एमलेस इन बनारस तथा चाय चाय जैसी चर्चित कृतियों के रचयिता को हिंदी में इस पहले लेकिन सफल प्रयास के लिए बधाई दी जानी चाहिए। उनकी कविता की इस पहली किताब की खासियत यह भी है कि इसकी भूमिका दिग्गज कथाकार काशीनाथ सिंह ने लिखी है, जो अपने खांटी बनारसी मिजाज के लिए जाने जाते हैं।