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सत्ता और समाज परिवर्तन का ब्लूप्रिंट है बेगमपुरा

दूसरा और अंतिम भाग गौरतलब है, शोषण-उत्‍पीड़न के मामले में यदि सत्ता और बहुलतावादी समाज का गठजोड़ हो जाता है तो उत्‍पीड़ित की स्थिति बेहद दयनीय या यूं कहें कि असहनीय हो जाती है। यदि हम अभी पांच-सात वर्ष के भाजपाई कार्यकाल को देखें स्थितियां स्‍पष्‍ट हो जाती हैं। वर्तमान सत्ता द्वारा धार्मिक बहुलतावादी समाज […]

दूसरा और अंतिम भाग

गौरतलब है, शोषण-उत्‍पीड़न के मामले में यदि सत्ता और बहुलतावादी समाज का गठजोड़ हो जाता है तो उत्‍पीड़ित की स्थिति बेहद दयनीय या यूं कहें कि असहनीय हो जाती है। यदि हम अभी पांच-सात वर्ष के भाजपाई कार्यकाल को देखें स्थितियां स्‍पष्‍ट हो जाती हैं। वर्तमान सत्ता द्वारा धार्मिक बहुलतावादी समाज की पीठ पर हाथ रखने के परिणाम हमारे सामने हैं। इतना ही नहीं नागरिकता संशोधन कानून और धारा 370 से जुड़े मसले ऐसे हैं जो सत्ताधारी समाज की तानाशाही में हिन्‍दू बहुलतावादी समाज की निरंकुशता को पंख लगाते हैं और साम्‍प्रदायिता की आग में घी डालने का काम करते हैं।

संभवत: संत रैदास भी ऐसी ही विषम स्थितियों का सामना कर रहे हों जिस प्रकार की परिस्थितियों का सामना आज का मुस्लिम,दलित व अन्‍य कमजोर वर्ग कर रहे हैं यानी अपने आप को असुरक्षित व भयभीत महसूस कर रहे हैं। इसलिए मुझे लगता हे कि बर्बर सत्ता और बहुलतावाद की जुगलबंदी के नेक्‍सस को तोड़ने के लिए बेगमपुरा से बेहतर और कोई दूसरा विकल्‍प नहीं हो सकता। मुझे लगता है हमें बेगमपुरा को पराधीनता की बेडि़यों को खोलने वाली चाबी या बेडि़यां तोड़ने के रूप में देखे जाने की जरूरत है न कि इसे किसी शहर या राज्‍य की अवधारणा के रूप में। सत्ता परिवर्तन या सत्ता और समाज की मानसिकता परिवर्तन के बिना अन्‍य किसी चाहत के कोई मायने ही नहीं रह जाते।

अगर हम संत रैदास के काल की परिस्थितियों की रोशनी में वर्तमान परिस्थितियों पर गंभीरता से दृष्टिपात करें तो ऐसा लगता है जैसे आज की सरकारी नीतियां गरीब विरोधी लगती हैं। इन नीतियों से दलित-शोषित व मुस्लिम जो अधिकतर गरीब हैं, ज्‍यादा बुरी तरह प्रभावित नजर आते हैं। यदि संत रैदास के चिंतन-दर्शन को मार्क्‍सवादी नजरिए से देखें तो अमीर एक कौम में तब्‍दील नजर आती है और दूसरी कौम गरीब। गरीबों की दुर्दशा का मंज़र देखने के लिए पहले नोटबंदी को देखा जा सकता है, जिसमें लाखों लोगों के व्‍यवसाय तबाह हो गए और सैंकड़ों की संख्‍या में असामयिक मौत भी किसी से छिपी नहीं हैं। दूसरे एपीसोड के रूप में कोरोना की पहली लहर के दौरान मजदूरों क पलायन, उनकी भयंकर दुर्दशा और सैंकड़ों दर्दनाक मौतों के रूप में देखा जा सकता है।

[bs-quote quote=”संत रैदास की यह अवधारणा हमें चार्वाक व लोकायत संस्कृति की गोद में लाकर बैठा देती है जिसका अनुगामी जन आजीवक है। यह लोकायत/चार्वाक संस्‍कृति भी पूरी तरह प्रकृति और व्‍यक्ति के श्रम यानी पुरुषार्थ पर टिकी है। इसके अनुसार-‘लोकायत-सिद्धांत अनुगामी जन ही ‘आजीवक’ नाम से इसलिए अभिहित होते थे कि शरीरात्मवादी होने के कारण शरीर के सदुपयोगार्थ, उसकी रक्षा के लिए आजीवक को, अर्थात भ्रमात्मक आजीविका को, वे मुख्य कर्तव्य के रूप में अपनाते थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इस दौरान न कहीं सरकार नजर आती है और न ही गरीबों की आखिरी उम्‍मीद अदालतें। यह पराधीनता जैसी स्थिति की ओर संकेत करती है। कोरोना की तीसरी लहर का कहर ऐसा बेकाबू हुआ इसने आज की सारी हदों को ही पार कर दिया। यहां मुद्दा वर्तमान हालात की समीक्षा करना नहीं है बल्कि इन्‍हें पराधीनता के साथ तुलनात्मक अध्‍ययन के रूप में ठीक से समझनाहै ताकि संत रैदास के काल और वर्तमान पीडि़त समाज की मनस्थिति को समझा जा सके और पराधीनता से मुक्ति के लिए बेगमपुरा जैसे किसी मार्ग की तलाश की जा सके।

जब संत रैदास ‘कौम की सत्ता’और सामाजिक असमानता से आजादी का ब्लूप्रिंट को तो‘बेगमपुरा’के रूप में पेश कर देते हैं लेकिन बेगमपुरा में लोगों की जीवन शैली और क्रियाकलापों केविस्‍तार से जुड़े अन्‍य पहलुओं को खुलासा होना भी बेहद जरूरी है तभी तो संत रैदास के मीत लोगों की संख्‍या में इजाफा होगा और स्‍वतंत्रता का सपना साकार होगा। इसके लिए सबसे पहले धर्म की स्थिति स्‍पष्‍ट होना जरूरी है। सत्तासीन कौम का अपना धर्म होता है। जिस धर्म के व्‍यक्तियों के हाथ में सत्ता होती है, आमतौर पर उसका अपना एक हिडन ऐजेंडा होता है। वे अपने धर्म को प्रोत्साहित करते हैं और दूसरे धर्मों को हतोत्‍साहित।

ऐसी परिस्थितियां विभिन्‍न धर्मों की अपनी सत्ता और धर्म की राजनीति विभिन्‍न धर्मों को सत्ता के सामने लाकर खड़ा कर देते हैं। इसके बाद अपने-अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने की जंग शुरु होती है। यह भी तय ही है कि जंग में किसी का भला नहीं होता और जाने-अनजाने सभी इंसानियत की जंग हार जाते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि उस दौर में भी धर्म की इस जंग में हिन्‍दू और मुस्लिम दो विरोधी पार्टियां आमने-सामने थी और आज भी ये दोनों ही आमने-सामने खड़े नजर आते हैं। फर्क इतना है कि पहले सत्ता मुसलमानों के हाथ में थी और कह सकते हैं कि आज यह सत्ता हिन्दुओं के हाथ में है। उस समय की जंग को विराम देने की गरज से संत रैदास कहते हैं-

मंदिर-मस्जिद एक हैं, इन मह अंतर नाहिं।

रैदास राम-रहमान का, झगड़ऊकोऊनाहिं ।।

धरम की कोई जाति नाहिं, न धर्म जाति के माहिं।

रैदास सो चले धर्म पर, करेंगे धरम सहाय ।।

जाहिर है,संत रैदास हिन्‍दू और मुस्लिम दोनों से अपनी अलग राय रखते हैं। इसलिए वे जहां एक ओर कौम के शासन की कुरूपता को बेनकाब करते हैं वही दूसरी ओर वे मंदिर-मस्जिद व राम-रहीम के झगड़े की आग में पानी डालने का काम करते हैं। वे तथागत बुद्ध की तर्ज पर व्‍यक्ति को अपना दीपक खुद बनने की सीख देने की गरज से बताते हैं कि धर्म की न कोई जाति होती है और जाति का कोई धर्म। यहां वे इंसानियत को इंसान के धर्म के रूप में देखते नजर आते हैं और इसे ही असली धर्म-कर्म के मार्ग के रूप में देखते हैं। संत रैदास बेगमपुरा में जात-धर्म के कोढ़ और इसकी खाज से मुक्त रखने के पक्षधर हैं क्‍योंकि ये विवादों को जन्‍म देते हैं और इंसान प्रगति व खुशहाली में बाधक हैं।

[bs-quote quote=”संत रैदास का बेगमपुरा एक प्रकार से सत्ता व समाज के प्रति विद्रोह का बिगुल फूंकने जैसा है और दोनों को परास्त कर अपना नया शहर यानी अपना नया संसार बनाने जैसा है। मान लो संत रैदास का बेगमपुरा तो बन गया उसमें शासन व समाज की कुरीतियों के लिए कोई जगह नहीं है लेकिन इस बेगमपुरा में रहने वालों के जीवनयापन की शैली का उल्‍लेख बेगमपुरा नामक कविता में मौजूद नहीं है। यदि यह कहा जाए कि बेगमपुरा में व्‍यक्तियों की जीवनयापन की शैली के अभाव में यह विद्रोह अधूरा है, तो गलत नहीं होगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

हम इस बात से भलीभांती परिचित हैं लेकिन आज भी यह कोढ़ हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा है। भले ही आज हम लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में रह रहे हैं जहां जातिवाद व साम्प्रदायिकता के लिए कोई जगह नहीं है लेकिन हम जातिवाद और सम्‍प्रदायवाद के कोढ़ से मुक्‍त नहीं हैं। आज सत्ता हिन्‍दू बहुल वर्ग के हाथ में है जिसके चलते हम आज भी हिन्‍दू-मुस्लिम भावनाओं का भड़काकर अपनी सत्ता पर काबिज रहना चाहते हैं। धर्म और जाति का घिनौने खेल समाज और राजनीति में जमकर खेला जा रहा है। संत रैदास इसे बेगमपुरा में एकदम वर्जित करार देते हैं। यह उनके चिंतन-दर्शन के धर्म-निरपेक्ष चरित्र से साक्षात्‍कार कराता है और इसे अनुकरणीय बताता है जिसमें सभी के हित सुरक्षित हैं।

संत रैदास का बेगमपुरा एक प्रकार से सत्ता व समाज के प्रति विद्रोह का बिगुल फूंकने जैसा है और दोनों को परास्त कर अपना नया शहर यानी अपना नया संसार बनाने जैसा है। मान लो संत रैदास का बेगमपुरा तो बन गया उसमें शासन व समाज की कुरीतियों के लिए कोई जगह नहीं है लेकिन इस बेगमपुरा में रहने वालों के जीवनयापन की शैली का उल्‍लेख बेगमपुरा नामक कविता में मौजूद नहीं है। यदि यह कहा जाए कि बेगमपुरा में व्‍यक्तियों की जीवनयापन की शैली के अभाव में यह विद्रोह अधूरा है, तो गलत नहीं होगा। मगर इसकी पूर्ति के लिए संत रैदास अपने विचार अन्‍य स्‍थानों पर व्‍यक्‍त करते हैं जो जीवनयापन की शैली के संबंध में बेगमपुरा की पूर्णता के मार्ग में आने वाली बाधा को दूर करने में सक्षम है। संत रैदास के अनुसार-

रैदास स्रम करि खाइए, जौ लौ पार बसाय।

नेक कमाई, जो करहूं, कबहूं न निहफल जाय ।।

स्रम को ईसर जानि के, जऊ पूजहिं दिन रैन।

रैदास तिम्हाहि संसार में, सदा मिलिहिं सुख चैन।।

यहां संत रैदास का फोकस कमा कर खाने से है। वो कहते हैं कि जब तक व्‍यक्ति के वश चले उसे कमाकर खाना चाहिए। वो परिश्रम और ईमानदारी से की गई कमाई को नेक कमाई कहते हैं। वे अपने अनुभव से दावा करते हैं कि यह मेहनत की कमाई कभी व्यर्थ नहीं जाती।

संत रैदास इससे एक कदम और आगे बढ़कर इस नेक कमाई के लिए किए गए श्रम को ईश्‍वर की संज्ञा देते हैं। वे दिन रात इसकी पूजा की बात करते हैं। यहां पूजा का संबंध सर्वोच्‍च सम्‍मान से है। वे श्रम को सर्वोच्‍च सम्‍मान से भी और अधिक ऊंचे पायदान पर रखकर श्रम को पवित्रता का जामा पहनाते हैं। संत रैदास इतने पर ही नहीं रुकते वह घोषणा करते हैं कि संसार में सुख-चैन का इससे बेहतर कोई विकल्‍प नहीं है।

यह बेहद सुकून का विषय है कि रैदास पूजा पाठ की परजीवी संस्‍कृति को श्रम से रिप्‍लेस कर एक महान क्रांतिकारी काम करते हैं। जहां भी वे अपने राम का जिक्र करते हैं हमें यह मानकर चलना चाहिए कि उनका राम दशरथ सुत नहीं है। यह राम हमारे शरीर में रमा हुआ है और शरीर में ही क्‍यूं यह पूरे संसार में विद्यमान है। मुझे लगता है कि संत रैदास के राम और ईश्‍वर दोनों श्रम के पर्याय हैं और इसके अतिरिक्‍त और कोई नहीं।

रैदास हमारो राम जी, दशरथ करि सुत नाहिं।

राम हमउ महिं रमि, विसव कुटुंबह माहि ।।

 संत रैदास की यह अवधारणा हमें चार्वाक व लोकायत संस्कृति की गोद में लाकर बैठा देती है जिसका अनुगामी जन आजीवक है। यह लोकायत/चार्वाक संस्‍कृति भी पूरी तरह प्रकृति और व्‍यक्ति के श्रम यानी पुरुषार्थ पर टिकी है। इसके अनुसार-‘लोकायत-सिद्धांत अनुगामी जन ही ‘आजीवक’ नाम से इसलिए अभिहित होते थे कि शरीरात्मवादी होने के कारण शरीर के सदुपयोगार्थ, उसकी रक्षा के लिए आजीवक को, अर्थात भ्रमात्मक आजीविका को, वे मुख्य कर्तव्य के रूप में अपनाते थे। एतदतिरिक्त यह भी कारण था आजीवक नाम से उनके पुकारे जाने का, कि वे श्रमोपयोगी स्वास्थ्य के लिए सदा सचेष्ट रहते थे। क्योंकि आजीवक का दूसरा अर्थ, पूर्ण रूप से जीवन का, अर्थात स्वास्थ्य जीवन का संपादन भी होता है। शरीर को आत्मा मानने वाले अपने स्वास्थ्य-स्वरूप जीवन के संपादन में सर्वथा सचेष्ट हों, यह सर्वथा युक्तिसंगत ही है। इन सारी बातों पर ध्यान देने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह दर्शन जन-जीवन से घनिष्ठता रखने वाले कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि, राजनीति-स्वरूप दण्डनीति और स्वास्थ्यप्रद आयुर्वेद इन तीनों से पूर्ण रूप से सम्बद्ध था।’ (आचार्य आनंद झा, चार्वाक दर्शन (दूसरा संस्करण 1983) नामक पुस्‍तक का प्राक्‍कथन, पृ. 08-09)

[bs-quote quote=”संत रैदास का मुद्दा देश या राज्‍य की भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं है। इसका सीधा संबंध राज्‍य के अंदर लोगों का जीवन कैसा होगा, इस पर अधिक फोकस करता है। जब हम संत रैदास के वैचारिक वन-उपवन की सैर करते हुए आगे बढ़ते हैं तो सारे भ्रम को तोड़ने वाले और मंजिल के निष्कर्षों पर पहुंचाने वाले एक विशाल दरख़्त का दीदार होता है। इसे बेगमपुरा की सारी भागदौड़ की दूसरी पंच-लाइन भी कह सकते हैं क्‍योंकि पहली पंच लाइन तो बेगमपुरा कोई शहर या राज्‍य तक सीमित नहीं बल्कि सत्ता व समाज परिवर्तन का ब्लूप्रिंटहै।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आजकल हमारे यहां वैज्ञानिक टेम्‍परॅमेंट का नारा खूब उछाला जाता है लेकिन खेद के साथ कहना पड़ता है कि व्‍यवहार से इसका कोई लेना-देना नहीं है। वैज्ञानिक टेम्‍परॅमेंट का नारा देने वाले कभी गणेश की गर्दन पर हाथी के सिर लगाने को जस्टिफाई करने लगते हैं, कभीरावण के दस मुंह, हनुमान को वायु से पैदा होने, हनुमान के पसीने से मछली के पेट से हनुमान का बेटा पैदा हो जाता है…ये उदाहरण तो अंधविश्वास के समुद्र से चुल्‍लूभर पानी जैसा है वरना इनकी संख्‍या अथाह है जो समाज को कोल्‍हू का बैल जैसा बनाकर छोड़ देता है।खैर…

लेकिन मुझे लगता है संत रैदास का बेगमपुरा वर्तमान अंधविश्वास से कोई मेल नहीं खाता। संत रैदास अपने तर्क-विवेक के आलोक में इसे परिभाषित करते हुए कहते हैं-

चख-विहीन कर तारि चलतु हैं

तिनहि न अस भुज दीजे।

अद्भुत तर्क है संत रैदास के पास। वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विहीन यानी अंधभक्तों को अंधों की जमात समझते हैं। वे अपने आपको यानी बेगमपुरा के निवासी जो बेगमपुरा की अवधारणा के पक्षधर और संत रैदास के अनुसार उनके मीत हैं, को इस अंधों की जमात से अलग मानते हैं। वे कहते हैं कि अंधे जिस प्रकार एक दूसरे की बांह पकड़कर और लाइन बनाकर चलते हैं, उस प्रकार मैं अपनी बांह किसी के हाथ में नहीं देने वाला। यह बात धर्म, राजनीति और जीवन से जुड़े प्रत्‍येक क्रियाकलाप से जुड़ती है जिसपर संदेह करने के लिए कोई जगह नहीं है।स्‍पष्‍ट है कि वे अपने तर्क-विवेक को प्राथमिकता प्रदान करते हैं और अपने मार्ग स्‍वयं ईजाद करने के पक्षधर हैं। जाहिर है,  रैदास के बेगमपुरा में तो वही चलेगा जो संत रैदास और उनके मीत यानी चाहने वालों के तर्क-विवेक की कसौटी पर खरा उतरेगा।

बेगमपुरा को लेकर एक अजीब-सा भ्रम पैदा होता है कि संत रैदास किसी शहर की बात कर रहे हैं जिसका नाम वे बेगमपुरा बताते हैं। लेकिन मैं शुरू से मानकर चल रहा हूं कि यह बेगमपुरा एक अकेला शहर नहीं है बल्कि शहरों और गांवों का समुच्‍चय है जिससे मिलकर एक देश बनता है, राज्‍य बनता है। इससे भी बढ़कर संत रैदास का मुद्दा देश या राज्‍य की भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं है। इसका सीधा संबंध राज्‍य के अंदर लोगों का जीवन कैसा होगा, इस पर अधिक फोकस करता है। जब हम संत रैदास के वैचारिक वन-उपवन की सैर करते हुए आगे बढ़ते हैं तो सारे भ्रम को तोड़ने वाले और मंजिल के निष्कर्षों पर पहुंचाने वाले एक विशाल दरख़्त का दीदार होता है। इसे बेगमपुरा की सारी भागदौड़ की दूसरी पंच-लाइन भी कह सकते हैं क्‍योंकि पहली पंच लाइन तो बेगमपुरा कोई शहर या राज्‍य तक सीमित नहीं बल्कि सत्ता व समाज परिवर्तन का ब्लूप्रिंटहै। यह दूसरीपंच-लाइन कुछ इस प्रकार है-

ऐसा चाहो राज्य में, जहां मिलै सबन को अन्न।

छोट-बड़ो सब सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न ।।

स्‍पष्‍ट है कि संत रैदास तर्क-विवेक और वैचारिक महासागर में गोता लगाने वाली कोई साधारण प्रतिभा नहीं हैं। वे एक गंभीर, ईमानदार व जिम्मेदार नागरिक हैं। तभी तो वे सारे गांव और शहर के सारे भ्रम को एक झटके में तोड़ देते हैं और अपनी अभिलाषा का खुलासा इन दो लाइनों में कर डालते हैं। संत रैदास सबसे पहली ख्‍वाहिश बताते हैं कि वो ऐसा राज्‍य चाहते हैं कि जहां सभी को अन्‍न यानी पर्याप्‍त खाद्य सामग्री उपलब्‍ध हो। इसे व्‍यापक अर्थों में देखें तो पाते हैं कि संत रैदास यहां व्‍यक्ति की मूलभूत भौतिक आवश्यकताओं व सुख-सुविधाओं की बात कर रहे हैं।

इस अभिलाषा की दूसरी कड़ी नागरिकों के समान रूप से बसने की बात करती है अर्थात समता, स्‍वतंत्रता और बंधुत्व की ओर संकेत देती है जहां कोई भी छोटा-बड़ा नहीं होगा यानी सभी लोग समान होंगे। जाहिर है, समानता की अवस्था में ही भाईचारे का मार्ग प्रशस्‍त होता है। जब समानता और भाईचारे का माहौल होगा तबन तो बोलना कोई अपराध होगा और न जुबान को किसी अपराध के डर से मूक रहकर तरसना पड़ेगा। इस स्थिति को संत रैदास प्रसन्‍नता की संज्ञा देते हैं यहां यह प्रसन्‍नता साधारण नहीं है बल्कि परम-आनंद वाली अनुभूति है।

उपरोक्त चर्चा से साफ है कि बेगमपुरा के अस्तित्व में आने के पीछे तथागत बुद्ध के प्रतीत्‍यसमुत्‍पाद का सिद्धांत काम करता है। इसके चलते संत रैदास परिस्थितियों का अपने तर्क-विवेक के आधार पर अवलोकन करते हैं, तथ्यों का मूल्‍यांकन करते हैं और बेगमपुरा के रूप में अपनी रणनीति को अंतिम रूप दे देते हैं। संत रैदास शून्य रूपी घटनाओं को अपने कर्म और विपाक (कर्म का परिणाम) के रूप बेगमपुरा का मार्ग प्रशस्‍त करते हैं। बेगमपुरा बर्बर व पूर्वाग्रही सत्ता के परिवर्तन का ब्लूप्रिंट तैयार ही नहीं करता बल्कि अपनी वैचारिक तर्क-शक्ति से समाज परिवर्तन का भी ब्‍लूप्रिंट तैयार करते हैं जिसमें संत रैदास के मीत लोग निरंतर बेगमपुरा की ओर आकर्षित होंगे।

यदि हम संत रैदास के बेगमपुरा को समसामयिक संदर्भ में देखें तो । ऐसा नहीं है कि आज बेगमपुरा जैसी अवधारणा विलुप्‍त हो गई है या इस नजरिए से सोचने वालों का अकाल पड़ गया है। आज इसे गांवों की ओर से शहरों की ओर पलायन के रूप में देखा जा सकता है। यहां परिवार का कोई भी व्‍यक्ति या व्‍यक्तियों का समूह अपनी आर्थिक व भौतिक जरूरतों की पूर्ति के लिए अपना बेगमपुरा चुनता है। इस पलायन के पीछे व्यक्ति अपने दुख,अपनी समस्याएं और अपने गम से मुक्ति मात्र एक विकल्‍प होता है। यह अलग बात है कि व्‍यक्ति अपना बेगमपुरा गांव में बनाता है या पूरे परिवार सहित किसी शहर या कस्‍बे में पलायन कर वहां अपना बेगमपुरा बनाता है। इसी तर्ज पर कोई अपना बेगमपुरा विदेश में भी बना सकता है और बहुत सारे लोगों ने बनाए हुए भी हैं।

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कुछ लोगों का अपने गम दूर करने का साधन शराब की शरण में जाना हो सकता है और अन्‍य किसी के लिए नशे के कैसे भी मार्ग खोल सकता है। कोई अपने गमों को दूर करने के लिए अनैतिक क्रियाकलाप अपना सकता है और नए गमों के लिए जमीन तैयार कर सकता है। कुछ लोग भक्ति को अपना बेगमपुरा बना सकता है और इसका कैसा भी प्रयोग कर सकता है। कुछ लोग गमों और दुखों से मुक्ति के लिए आत्महत्या तक कर डालते हैं और इस संसार के गमों से मुक्‍त हो जाते हैं। यह अलग बात है कि ऐसे लोग खुद तो शायद मुक्‍त हो जाते हैं लेकिन वे अपनों के लिए गमों का संसार बसा जाते हैं। अगर एक लाइन में कहूं तो यह सारा खेल निजता है और निजता के अतिरिक्‍त कुछ नहीं। आज के तथाकथित साधु, संतों और बाबाओं के बारे में उनके बेगमपुरा के बारे में पहले टिप्‍पणी कर चुका हूं इसलिए यहां टिप्‍पणी करना उचित नहीं है।

अंत में लाख टके का सवाल अभी भी मौजूद है कि इतने सारे बेगमपुरा हो सकते हैं तो ऐसा खास क्‍या है जो संत रैदास को चर्चा के केन्‍द्र में लाता है और उनके चिंतन-दर्शन पर बात करने को विवश करता है। निस्‍संदेह यह महत्‍वपूर्ण सवाल है, इस पर भी चर्चा होनी चाहिए। दरअसल, अकेला तो कोई पशु भी जैसे-तैसे अपना जीवनयापन कर लेता है लेकिन लोक-कल्‍याण के लिए जीना या सामूहिक बेहतरी के साथ जीवनयापन करना इंसानों का काम है।यह लोक-कल्‍याण व सामूहिक बेहतरी की अवधारणा ही इंसान को जानवर से अलग करता है। संत रैदास की सामूहिक कल्याण की अवधारणा यानी बेगमपुरा संत रैदास के कद को विशाल ऊंचाइयांप्रदान करता है। संत रैदास का सत्ता को चुनौती देना और पूरे समाज में आमूल-चूल परिवर्तन की दिशा में संघर्षरत होना संत रैदास को साहसी और प्रासंगिक ही नहीं बनाता बल्कि अनुकरणीय भी बनाता है। संत रैदास का चिंतन-दर्शन इतना व्‍यापक है कि मुझ जैसे साधारण से व्‍यक्ति लिए अंजुलीभर निकाल पाना दुर्लभ कार्य है। मैंने सिर्फ बेगमपुरा की अवधारणा को लेकर एक साधारण-सा प्रयास किया है। शेष इस विषय के विशेषज्ञों पर निर्भर करेगा कि वे बेगमपुरा की अवधारणा को किस रूप में देखते हैं।

ईश कुमार गंगानिया जाने-माने कवि और लेखक हैं। 

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