बात 1920 के दशक की है, जब पूर्णिया के सबोत्तर गांव में एक संस्कृत पाठशाला हुआ करती थी। पाठशाला के बाहर खड़े होकर चरवाही करने वाला एक छोटा सा लड़का संस्कृत के पाठ को सुनकर मन ही मन उसे दोहराता था। वह चरवाहा बालक लोगों के कौतूहल का विषय बन गया। कइयों की भांति एक दिन एक अंग्रेज़ अधिकारी का भी ध्यान उसकी ओर गया। उसने उस बच्चे से कुछ सवाल पूछे जिनका उसने सही-सही जवाब दिया। इससे खुश होकर उस अंग्रेज़ अधिकारी ने बच्चे को नकद इनाम दिया और पाठशाला में नाम लिखवाने ले गया, मगर पाठशाला में एक दलित बच्चे का दाखिला कराना उस समय अनहोनी जैसा था, लिहाजा स्कूल के संचालकों ने उस बच्चे को स्कूल में पढ़ने की आज्ञा नहीं दी। पर, बच्चे पर इसका कोई असर नहीं पड़ा और वह पहले जैसे रोज़ स्कूल के बाहर खड़े होकर पाठ दोहराता रहा। इस घटना के करीब 40 साल बाद वह दलित बच्चा बिहार के कद्दावर नेता के रूप में उभर कर आया। इतना कद्दावर कि वह बिहार का पहला दलित मुख्यमंत्री बन गया। उस बच्चे का नाम था भोला, जो अब भोला पासवान शास्त्री बन चुका था। अपनी विलक्षण उपलब्धियों, सादगी और विद्वता के जोर से ऐतिहासिक शख्सियतों बन जाने वाले भोला पासवान शास्त्री ने 21 सितम्बर,1914 को अपने जन्म से बिहार के पूर्णिया जिले के कृत्यानंद नगर प्रखंड अंतर्गत गणेशपुर पंचायत के बैरगाछी गांव को धन्य किया था। उनके पिता पुसर पासवान दरभंगा राज की काझा कोठी की कचहरी में मजकुरी सिपाही थे, जिनका काम था राज के कर्मचारियों को मालगुजारी की उगाही में सहायता करना।
हरवाहा-चरवाहा भोला बन गए भोला पासवान शास्त्री
बाल्यकाल में भोला हरवाही-चरवाही करते थे, किन्तु ज्ञान के प्रति असाधारण ललक के चलते, वह आसपास के गाँवों में चर्चा का विषय बन गए। उनके ज्ञानार्जन के भूख की चर्चा जब अमचुरा गाँव के राममोहन चौधरी तक पहुंची, उन्होंने उनका दाखिला काझा के मिडल स्कूल में करा दिया। भोला वहां सवर्णों के स्कूल में अकेले दलित छात्र थे। उन्हें शिक्षकों और सहपाठी विद्यार्थियों के भयंकर भेदभाव का सामना करना पड़ता, किन्तु वह इससे विचलित हुए बिना वह बेहद प्रतिकूल हालात में भी अध्ययन में लीन रहे। अच्छे अंकों से मिडिल पास करने के बाद पूर्णिया जिले के मशहूर गांधीवादी वैद्यनाथ चौधरी ने उनका नाम रहटा के राष्ट्रीय विद्यालय में लिखा दिया। उनके निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले गांधीवादी वैद्यनाथ चौधरी के सौजन्य से पटना के सदाकत आश्रम में चलने वाले बिहार विद्यापीठ के बाद उन्हें प्रसिद्ध काशी विद्यापीठ में शिक्षार्जन कामौका मिला, जहाँ से वह शास्त्री अर्थात स्नातक की परीक्षा में ससम्मान उत्तीर्ण हुए। अब उनके नाम के साथ जुड़ गयी ‘शास्त्री ‘ की उपाधि और बैरगाछी का हरवाहा-चरवाहा भोला बन गए भोला पासवान शास्त्री! शास्त्री पर गांधी जी की गहरी छाप पड़ चुकी थी, इसलिए वह देश को आजाद कराने के लिए स्वाधीनता संग्राम में कूद गए। उन दिनों उनके रहने की व्यवस्था रानीपतरा गाँव में वैद्यनाथ चौधरी द्वारा स्थापित ‘गोकुल कृष्ण आश्रम’ में थी, जहाँ के वह सचिव भी थे।
स्वाधीनता आन्दोलन के लिए जेल यात्रा
बनारस से शास्त्री की उपाधि लेकर वापस बिहार आने के बाद वह पूर्णिया जिला कांग्रेस की ओर से प्रकाशित साप्ताहिक राष्ट्र–संदेश का संपादन करने लगे। बाद में वे पटना से प्रकाशित होने वाले दैनिक राष्ट्रवाणी के संपादक मंडल में शामिल हो गए। राष्ट्रवाणी उन दिनों बिहार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व व्यापक प्रसार वाला अखबार था। इसके संपादक देवव्रत शास्त्री थे, जो गणेश शंकर विद्यार्थी के अखबार प्रताप में काम कर चुके थे। यह देश का पहला अखबार था, जिसने अगस्त क्रान्ति के दौरान महात्मा की पुकार पर 13 अगस्त, 1942 को अपना प्रकाशन बंद कर दिया था। जब देवव्रत शास्त्री ने राष्ट्रवाणी छोड़ दिया, तब भोला पासवान शास्त्री भी कोलकाता के लोकमान्य अखबार ज्वाइन कर लिया। विएतनाम की यात्रा संस्मरण में उन्होंने जिस स्तर की भाषा, शब्द चयन और वाक्य विन्यास का विरल दृष्टान्त स्थापित किया, वह इस बात पर मोहर लगाती है कि शास्त्री जी विरल लेखकीय क्षमता से संपन्न नेता रहे। बहुत ही गरीब परिवार में जन्म लेने के बावजूद वे सुशिक्षित एवं बौद्धिक रूप से काफी सशक्त थे। बहरहाल स्वाधीनता संग्राम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने के कारण उन्हें ‘भारत छोडो आन्दोलन’ के दौरान 12 सितम्बर, 1942 को गिरफ्तार कर दो साल के लिए जेल भेज दिया गया। दो साल के कारावास के दरमियान उन्हें पूर्णिया, फुलवारीशरीफ और पटना जेल में बंदी बनाकर रखा गया।
शास्त्री बने सफल राजनेता
अंग्रेज भारत में 1946 में बिहार विधानसभा का एक चुनाव हुआ, जिसमें वह वह पूर्णिया सुरक्षित सिट से निर्वाचित हुए। परिसीमन और अन्य कारणों से उनका चुनाव क्षेत्र बदलता रहा, बावजूद इसके वह 1972 तक लगातार चुनावों में विजयी होते रहे। वह 1952 और 1957 में धमदाहा से; 1962 में बन मनखी और 1967, 1969 तथा 1972 में कोढ़ा से निवाचित होकर एक अनोखा रिकॉर्ड बनाया। उनके नाम एक रिकॉर्ड यह भी बना कि 1972 तक किसी राज्य में तीन बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले, पूरे भारत के इकलौते दलित रहे। मुख्यमंत्री का दायित्व निर्वहन करने के पहले उनका प्रशासनिक अनुभव बहुत बहुत व्यापक रहा। 1946 में वह तब के मुख्यमंत्री डॉक्टर श्रीकृष्ण सिंह के लगातार छः साल तक संसदीय सचिव रहे। परवर्तीकाल में वह उनके और विनोदा झा के मंत्रीमंडल में मंत्री का दायित्व भी संभाला। बिहार की राजनीति में महत्वपूर्ण शख्सियत के रूप में अपना नाम दर्ज करा चुके भोला पासवान शास्त्री को 31 मई, 1972 को राज्यसभा का सदस्य चुना गया। राज्यसभा के सदस्य के तौर पर उनका कार्यकाल 2, अप्रैल, 1972 को समाप्त हुआ, किन्तु अगले ही दिन 3 अप्रैल , 1976 को फिर राज्यसभा के लिए चुन लिए गए। उनका वह दूसरा कार्यकाल 2 अप्रैल, 1982 तक रहा। इस मध्य 24 फरवरी, 1978 से 23 मार्च 1978 तक वह राज्यसभा में विपक्ष के नेता भी रहे। इस दौरान उन्हें 5 फरवरी , 1973 को केन्द्रीय मंत्रीमंडल में शामिल किया गया और 10 अक्तूबर , 1974 तक वह निर्माण व आवास मंत्रालय का दायित्व वहन करते रहे।
तीन बार मुख्यमत्री की शपथ लेने वाले देश के पहले दलित
बहरहाल, प्रशासनिक अनुभव से समृद्ध भोला पासवान शास्त्री को कांग्रेस ने तीन बार अपना नेता चुना और वह तीन बार अविभाजित बिहार के मुख्यमंत्री बनाये गए, लेकिन वह कभी भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। 1968 में वह पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने लेकिन केवल 100 दिनों के लिए। फिर 1969 में 13 दिनों के लिए उन्होंने सीएम की कुर्सी संभाली और उसके दो साल बाद यानी 1971 में उन्हें फिर से मुख्यमंत्री चुना गया, लेकिन इस बार भी वह लंबे समय के लिए मुख्यमंत्री पद पर नहीं रहे। 222 दिन यानी करीब 7 महीनों के बाद उनका तीसरा और आखिरी मुख्यमंत्री कार्यकाल खत्म हो गया। मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल निर्विवाद था और उनका राजनीतिक व व्यक्तिगत जीवन पारदर्शी था। भोला पासवान शास्त्री चाहे मंत्री रहें या फिर बाद में मुख्यमंत्री, वह ज्यादातर पेड़ के नीचे सोते और पेड़ के नीचे ही अपना काम भी करते थे। वह खुरदरी भूमि पर कंबल बिछाकर बैठते थे और वहीं अफसरों के साथ बैठक कर मामले का निपटारा भी कर देते थे। सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी निभाने और सार्वजनिक संपत्ति से खुद को दूर रखने के कारण बिहार की राजनीति के ‘विदेह’ कहे गए। उनके विषय में यह बात मशहूर है कि उन्होंने पक्षपात के आरोप से बचने के लिए अपने गांव की सड़कें नहीं बनवाईं और जब कोई आदमी पटना जाकर उनसे बोलता था कि हम आपके गांव से आए हैं, हमारा फलां काम कर दीजिये तो वह उसे कहते थे जाओ, मेरे लिए बिहार का हर एक गांव एक समान है और मेरे लिए पूरा बिहार बैरगाछी है, जैसे आप मेरे बेटा या भतीजा हैं, वैसे पूरा बिहार का लोग मेरा अपना है। आप प्रक्रिया से आइए उसी प्रक्रिया से काम होगा।’ उनकी ईमानदारी ऐसी थी कि जब इनकी मृत्यु हुई तो खाते में इतने पैसे नहीं थे कि ठीक से उनका श्राद्ध कर्म हो सके।
मुख्यमंत्री के रूप में उपलब्धियां
आन्दोलन, लेखन और प्रशासन के अनुभवों से निर्भीक बने शास्त्री तीन बार मुख्यमंत्री बने मगर, ठीक से रंग में आए 2 जून, 1971 के बाद, जब उन्हें तीसरी बार सीएम बन कर सात महीने सरकार चलाने का अवसर मिला। इस बार उन्होंने 70 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिए 20 रूपये मासिक पेंशन का प्रावधान किया। इस बार ही उनकी सरकार ने भूमि सुधार कानून में संशोधन करके भू- हदबंदी की सीमा को 4 हेक्टेयर से बढाकर 12 हेक्टेयर के बीच कर दिया। 1961 के कानून में यह सीमा प्रति व्यक्ति 8 हेक्टेयर से 24 हेक्टेयर के बीच थी। इसके अलावा शहरी संपत्ति को भी हदबंदी के दायरे में लाया गया। उनके इन फैसलों से सरकारी अफसरों और प्रभुत्वशाली जातियों में खलबली मच गई। बिहार में समय-समय पर सामूहिक नरसंहार की घटनाएँ होती रही हैं, किन्तु इस मामले में कठोर कदम उठाने का जैसा दृष्टान्त भोला पासवान शास्त्री ने स्थापित किया, वैसा शायद कोई अन्य मुख्यमंत्री नहीं कर सका। 1971 में घटित पूर्णिया के धमदाहा नरसंहार काण्ड, जिसमे 14 संथाल मारे गए थे, के सिलसिले में अपने मित्र डॉ. लक्ष्मी नारायण सुधांशु को गिरफ्तार करने का आदेश जारी करने में उन्हें कोई झिझक नहीं हुई थी। तीन बार मुख्यमंत्री बनकर भोला पासवान शास्त्री ने ईमानदारी, सादगी, पारदर्शी शासन की जो अनुपम मिसाल कायम की, उसका अनुसरण तो पीएम–सीएम करते ही रहेंगे, लेकिन 23 दिसंबर, 1971 को उन्होंने बिहार के पिछड़े वर्ग के लोगों की बेहतरी के लिए जो आयोग गठित किया, वह सामाजिक न्याय का एक विरल अध्याय साबित हुआ, जिसे पिछड़ी जाति के लोग कृतज्ञता से याद करते रहेंगे।
भोला पासवान शास्त्री और मुंगेरी लाल की जोड़ी
भोला पासवान शास्त्री ने पिछड़ी जातियों को शासन-प्रशासन में हिस्सेदारी दिला कर सामाजिक न्याय का एक विशेष अध्याय रचने के बड़े मकसद से 23 दिसंबर, 1971 को एक आयोग गठित करने का साहसिक निर्णय लिया। इसकी पृष्ठभूमि में भारतीय राजनीति में लोहिया का उभार होता है और कांग्रेस को कुर्सी जाने का डर भी बड़ा फैक्टर रहा। शास्त्री ने इस आयोग के अध्यक्ष पद के लिए जिस मुंगेरी लाल को चुना उनसे उनकी काफी साम्यता थी। 1 जनवरी , 1921 पटना शहर के कुर्जी और दीघा के बीच दाउदपुर में जन्मे मुंगरी लाल का जन्म भोला पासवान शास्त्री की तरह एक दुसाध (पासवान) परिवार में हुआ था। उनके पिता मानकी लाल और माता अनंती देवी खेतिहर मजदूर थे, लेकिन शास्त्री जी की भांति ही मेधावी होने के कारण मुंगेरी लाल को पटना के सबसे प्रतिष्ठित स्कूल ‘सेंट माइकल हाई स्कूल’ में मुफ्त में शिक्षार्जन का अवसर मिला। आगे की पढाई से पहले ही वह भी शास्त्री जी की भाँति महात्मा गांधी से प्रभावित होकर स्वाधीनता आन्दोलन में कूद पड़े। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के कारण उन्हें भी शास्त्री जी की भाँति जेल जाना पड़ा। अपने अदम्य साहस और राष्ट्रभक्ति के कारण वह भी शास्त्री जी की भांति एक लोकप्रिय जननेता बन गए।
आजादी के बाद 1952 में हुए पहला चुनाव वह पटना पश्चिम से लड़े और विजयी हुए। बाद में पटना के पुनपुन और फुलवारीशरीफ विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़े, पर दोनों बार हार गए। लेकिन कांग्रेस में उनका कद इतना बड़ा था कि चुनाव हारने के बावजूद उन्हें हर बार विधान पार्षद बना दिया जाता रहा। अंतिम चुनाव उन्होंने 1980 में लड़ा, लेकिन इस बार भी हार गए। हारने के बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया। संन्यास के बाद अंतिम सांस लेने तक अपने गाँव में ही रहे। सक्रिय राजनीति में रहते हुए उन्हें उत्पाद, राजस्व, स्थानीय प्रशासन, भवन निर्माण विभागों के मंत्री पद को सुशोभित किया था। शालीनता और सादगी की प्रतिमूर्ति मुंगेरी लाल को शास्त्री जी की भांति कभी सिद्धांतो के सामने झुकते या प्रलोभनों के प्रति आकर्षित होते नहीं देखा गया। यही कारण है कि वह भी शास्त्री जी की भांति जीवन भर अभावों से जूझते रहे। शायद उनमें अपने जैसी ढेरों खूबियाँ देखते हुए ही शास्त्री जी ने उन्हें आयोग का अध्यक्ष बनाने का निर्णय लिया था।
मुंगेरी लाल के हसीन सपने
भोला पासवान शास्त्री ने 23 दिसंबर , 1971 को मुंगेरी लाल की अध्यक्षता में जिस बीस सदस्यीय आयोग का गठन किया, उसको इस बात का अध्ययन करना था कि किन-किन वर्गों को सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का सामना करना पड़ रहा है और उन्हें किस प्रकार से आरक्षण या अन्य नीतियों के माध्यम से मुख्यधारा में लाया जा सकता है। बाद में इस आयोग को छोटा कर, सात सदस्यीय बनाया गया। 6 वर्षों के व्यापक सर्वेक्षण, जनसुनवाई और दो-तीन राज्यों का दौरा और सांख्यिकी विश्लेषण करने के आधार पर मुंगेरी लाल आयोग ने 1976 में बिहार सरकार को रिपोर्ट सौंपा। उस रिपोर्ट में मुंगेरी लाल ने सामाजिक, शैक्षणिक, और सरकारी नौकरियों व व्यापार-व्यवसाय में पिछड़ेपन को आधार पर बिहार की 128 पिछड़ी जातियों की एक सूची तैयार की। उन्हें दो भागों में बाँटा जिनमे से 34 जातियों को पिछड़ा जाति और 94 जातियों को अति-पिछड़ा जाति के सूची में रखा। मुंगेरी लाल आयोग ने ही पहली बार गरीब सवर्णों और सभी वर्गों के महिलाओं के लिए आरक्षण की अनुशंसा की थी। लेकिन ज़माने के हिसाब से उनकी सिफारिशें इतनी आगे की चीज थीं लोगों को उस पर विश्वास ही नहीं हुआ और बिहार के राजनीतिक गलियारों से लेकर गली-चौराहों तक इस कदर मज़ाक़ उड़ाया गया कि मुंगेरी लाल के हसीन सपने एक मुहावरा ही बन गया। जो आदमी तमाम वंचित को हक दिलाने की सिफारिश कर रहा था उस आदमी की सोच को हमारे समाज ने मजाक उड़ाया। हद तो तब पार हो गया जब 1989 में प्रकाश झा ने ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ नाम का एक सीरियल बनाकर दूरदर्शन पर प्रसारित भी कर दिया, लेकिन जाने-अनजाने में उनका मजाक उड़ाने वाले लोगों को शायद इस बात का इल्म नहीं रहा कि मुंगेरी लाल की सिफारिश पर ही बिहार के मुख्यमंत्री जन-नायक कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में पिछड़ी जातियों के साथ-साथ महिलाओं और अगड़ी जाति के ग़रीबों के लिए भी आरक्षण का प्रावधान किया, जिससे बिहार पहला ऐसा राज्य बनने का गौरव पाया,जहाँ एससी, एसटी, अत्यंत पिछड़ा, पिछड़ा, सवर्ण और महिलायें एक साथ आरक्षण के दायरे में आईं। मजाक उड़ाने वाले इस बात से भी अनजान रहे कि दो दुसाधों — भोला पासवान शास्त्री और मुंगेरी लाल के युग्म प्रयास से वजूद में आए मुंगेरी लाल आयोग ने ही पिछड़ों के सामजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक अध्ययन के लिए 1980 में बने मंडल आयोग की जमीन तैयार की थी!
भोला पासवान शास्त्री और मुंगेरी लाल के योगदानों का मूल्यांकन
यह सही है कि आजादी के 78 वर्षों में देश ने जो भी विकास किया है, उसमें 90 प्रतिशत से भी ज्यादा योगदान अकेले कांग्रेस का है पर, इस बात को जन-जन तक ठीक से न पहुंचा पाने के कारण, उसका उसे भरपूर लाभ नहीं मिल रहा है। आज पिछड़ों और अतिपिछड़ों में भी पैठ बनाने के लिए उसे अतिरक्त प्रयास करना पड़ रहा है। जबकि सचाई है कि महान गांधीवादी भोला पासवान शास्त्री और मुंगरी लाल के अथक प्रयासों से निकले विचारों से ही हिंदी पट्टी में अत्यंत पिछड़ा, पिछड़ा, सवर्ण और महिलाओं के आरक्षण का मार्ग प्रशस्त हुआ है; इन्हीं दो महान कांग्रेसियों के अध्ययन-मनन से निकले विचार से कर्पूरी ठाकुर और बीपी मंडल के सामाजिक न्याय की राजनीति परवान चढी है। ऐसे में जबकि आज कांग्रेस अतिपिछड़ों को जोड़ने का विशेष अभियान चला रही है, उसे चाहिए कि वह भोला पासवान शास्त्री और मुंगरी लाल को सामाजिक न्याय के पुरोधाओं के रूप में स्थापित करने का विशेष अभियान चलाये। इनको लेकर आत्मविश्वास के साथ महिलाओं, पिछड़ों और अतिपिछड़ों के बीच जाए और इनके योगदानों की याद दिलाए।