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लोकसभा चुनाव : चंपारण का मीट तो लज़ीज़ पका लेकिन गठबंधन पॉलिटिक्स कच्ची रह गई

पप्पू सर्राफ का बनाया मीट तो उसके ग्राहकों के लिए सुपाच्य है लेकिन राजनीति में पप्पू के तौर पर मशहूर राहुल गांधी का बनाया मीट और उससे निकली पॉलिटिकल संधि बिहार में ‘अपच’ का शिकार हो गई।

ये फरवरी 2022 की शाम थी, जब बिहार के चंपारण में बापू की आदमकद प्रतिमा को तोड़ा गया था। चंपारण वही जगह है जहां मोहनदास गांधी से ‘महात्मा गांधी’ बने थे। मैं बापू की प्रतिमा को तोड़ने की घटना को कवर करने गई थी, लेकिन मोतिहारी (पूर्वी चंपारण जिले का मुख्यालय)शहर में घुसते ही मुझे सबसे पहले चंपारण मीट के लिए प्रसिध्द जायसवाल होटल के दीदार हुए थे।

मोतिहारी शहर से गुजरते एनएच-28 के दोनों तरफ धूल का गुबार था। इसी कभी छंटते-कभी गहराते गुबार के बीच जायसवाल होटल में रंग-बिरंगी डिस्को लाइट लगी थी जो इसके कस्बाई लुक को पूरा कर रहीं थी। जायसवाल होटल के आसपास कई होटल चंपारण मीट ही बेच रहे थे। सारे होटल के बाहर हांडियां, हांडियों में कोयले पर पकता मीट और अंदर ग्राहकों का बेसब्र इंतजार।

चंपारण : मीट से पॉलिटिक्स तक

मोतिहारी के जायसवाल होटल से तकरीबन 1,000 किलोमीटर दूर सितंबर 2023 में चंपारण मीट पक रहा है। इस मीट को पकाने में भारतीय राजनीति के दो दिग्गज लगे हैं। ये दिग्गज हैं राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी।

ये दोनों चंपारण मीट का इस्तेमाल अपनी पॉलिटिकल साझेदारी की मजबूती का संदेश देने के लिए तो कर ही रहे थे, लेकिन साथ ही खान-पान को लेकर देश में बढ़ रही मॉरल पुलिसिंग को भी चैलेंज कर रहे थे।

लालू-राहुल के चंपारण मीट पकाने से पहले ही बिहार की बज्जिका बोली में बनी एक शार्ट फिल्म ‘चंपारण मटन’ ऑस्कर पुरस्कारों में सेमीफाइनल पहुंचने तक का सफर तय कर चुकी थी। यानी गांधी, मीट, फिल्म, गठबंधन पॉलिटिक्स – चंपारण की ये दिलचस्प यात्रा है, जिससे वो बीसवीं और इक्कीसवीं सदी में गुजरा है।

बीते दो दशकों में मशहूर हुए और लोकल से ग्लोबल हुए इस मीट की दास्तान कोई कम दिलचस्प नहीं, जो शुरू होती है मोतिहारी से।

क्या खास है चंपारण मीट में?

वैसे तो चंपारण में मीट के अलग-अलग आइटम तैयार होते हैं, लेकिन इनमें सबसे मशहूर है चंपारण मीट। जिसे चंपारण की हांडी, अहुना मीट या बटलोही मीट भी कहा जाता है। मिट्टी के बर्तन में इस मीट को पकाया जाता है। चूंकि मिट्टी के बर्तन को आहुना बोलते हैं, इसलिए इस मीट का एक नाम अहुना मटन भी है।

सरसों तेल में प्याज, लहसुन, अदरक और मसालों को मिलाकर उसमें मीट मिलाकर मिट्टी की हांडी में डाला जाता है। फिर इस हांडी पर मिट्टी का ही ढक्कन (सकोरा) लगाकर उसे गुंथे हुए आटे से सील किया जाता है, ताकि किसी तरह की हवा आदि बाहर नहीं निकल सके।

Mutton of Champaran in Bihar
लज़ीज़ मटन-चावल की थाली

पकने के लिए तैयार इस हांडी को जलते कोयले पर रखा जाता है। ये मीट पकने में तकरीबन 90 मिनट यानी सवा घंटे लगते हैं। मीट पकने के दौरान हांडी को उठाकर बस हिलाया जाता है ताकि मीट समान रूप से पक जाए। रोटी, पराठे, चावल, भूजा के साथ लोग इसे खाना पसंद करते हैं।

मोतिहारी स्थित एक चंपारण मीट दुकान के मालिक भोला कुमार बताते हैं, ‘ये बिना पानी के धीमी आंच पर पकता है इसलिए इसका स्वाद बहुत लाजवाब होता है। लोग दूर-दूर से इसे खाने आते हैं, अब तो ये चंपारण का ब्रांड एंबेस्डर है। मिट्टी का ढक्कन लगाकर इसे पैक करने से भाप ढक्कन पर ही जमती जाती है और बाद में ठंडी होकर मीट में ही मिल जाती है। इस पूरी प्रक्रिया से इस मीट का एकदम अलग तरह का स्वाद आता है।’

नेपाल के गरूड़ा और कटहरिया की डिश है चंपारण मीट

आज भले ही ये चंपारण मीट के नाम से मशहूर हो गया हो लेकिन जानकार बताते हैं कि इस डिश का फार्मूला नेपाल से आया है। बिहार के उत्तर पश्चिम हिस्से में बसा हुए पूर्वी चंपारण जिले की उत्तरी सीमा नेपाल से सटी है।

‘बिहार के पर्व त्यौहार और खानपान’ किताब में लेखकसुबोध कुमार नंदन लिखते हैं, ‘पहले नेपाल के गरूड़ा और कटहरिया में इस तरह का मीट पकाया जाता था। लेकिन बाद में पूर्वी चंपारण के घोड़ासहन में भी इस तरह से मीट पकाया जाने लगा। नेपाल में ये खुले बर्तन में बनता है जबकि चंपारण में इसे मिट्टी के बर्तन में ढककर पकाया जाता है।’

घोड़ासहन में जब चंपारण मीट के मुरीद बढ़े तो पहले ये जिला मुख्यालय मोतिहारी तक पहुंचा और उसके बाद राजधानी पटना से होते हुए देश विदेश में, लेकिन क्या देश-विदेश में खुली इन दुकानों में आथेंटिक चंपारण मीट मिलता है? आप दुबई, लखनऊ से लेकर पटना तक के चंपारण मीट के दुकानदारों से ये सवाल पूछेंगें तो जवाब आएगा, बिल्कुल आथेंटिक चंपारण मीट की डिश यहां मिलती है।

पचने में आसान होता है चंपारण के बकरों का मीट

लेकिन मोतिहारी और उसके आसपास के इलाके में मीट बेचने वाले इस दावे से इत्तेफाक नहीं रखते। मोतिहारी की एक दुकान में बीते दस साल से चंपारण मीट बना रहे रसोइया गुड्डू कुमार कहते हैं, ‘हमारे यहां के बकरों का मांस बहुत अच्छा होता है। ये मांस बहुत मुलायम होता है जिसकी वजह से ये पकता भी बहुत आसानी से है और पचता भी आसानी से है। पूरे जिले में रोजाना 15 क्विंटल से ज्यादा मांस खप जाता है। इसलिए चंपारण जैसा मीट कहीं और नहीं बन सकता।’

Mutton of Champaran in Bihar
हांडी मटन को तैयार करते हुए दुकानदार

पटना के अदालतगंज में चंपारण मीट की दुकान चला रहे बब्लू कुमार गुड्डू की बातों से नाइत्तेफाकी जाहिर करते हैं। वो कहते हैं, ‘हम लोग तो सालों में पटना से ही बकरे का मांस खरीदकर बनाते हैं। लोग भी बहुत चाव से खाते हैं। किसी से आज तक नहीं कहा कि चंपारण के बकरे का स्वाद अलग है और पटना का अलग।’

हालांकि खानपान की गुणवत्ता में अगर हम भूगोल के महत्व के सिध्दांत मानें तो ये इलाका नेपाल की तराई में बसा है जहां मैगनोलिया (चंपा) का जंगल था। चंपारण गजट के मुताबिक इस इलाके में 43 झील हुआ करती थी जो शहर के बीचोंबीच से बहती थी। प्राकृतिक तौर पर समृध्द चंपारण सहित पूरे उत्तर बिहार के इलाके मांस और मछली के मामले में समृध्द रहे है।

एक अनार सौ बीमार वाली हालत

जैसे चुनावों में एक-एक सीट पर कई दावेदार होते हैं, वैसा ही कुछ हाल चंपारण मीट का है। दुकानों के नाम के आगे सबसे पुरानी मीट की दुकान लिखा होना सामान्य बात है। अगर आप पटना से 160 किलोमीटर दूर मोतिहारी शहर गाड़ी से जाएंगे तो पूर्वी चंपारण के चकिया अनुमंडल से ही चंपारण मीट या मटन की दुकानें मिल जाएंगी। हालांकि इसमें सबसे नामी या मशहूर मोतिहारी स्थित जायसवाल होटल ही है।

इसी तरह पटना में भी चंपारण मीट दुकानों के पुराने होने के दावे हैं। बिहार के वरिष्ठ पत्रकार अरूण श्रीवास्तव कहते हैं,  ‘दरअसल ये एक ऐसी डिश है जो बहुत हाल ही में ट्रेंड में आई है, इसलिए इस पर हो रहे दावे हैरान नहीं करते। पूरी फूड इंडस्ट्री में मार्केटिंग हावी है, इसलिए हर दुकानदार ऐसा क्लेम करके ग्राहकों तक अपने पास लाना चाहते हैं।’

पप्पू की कहानी…..

लेकिन इन दुकानों के दावों के बीच पप्पू सर्राफ रसोइये का नाम ज्यादातर लोग लेते हैं। पप्पू सर्राफ का दावा है कि उन्होनें ही सबसे पहले साल 2000 में पूर्वी चंपारण के घोड़ासहन में पहली दुकान खोली थी। जिसके बाद उन्होंने पार्टनरशिप में मोतिहारी में दुकान खोली, लेकिन वो सफल नहीं रही।

पप्पू सर्राफ कहते हैं कि ये मीट उन्होंने घर में ही अपने बाबा राजाराम साह से बनाना सीखा था। वो कहते हैं, ‘नेपाल में जो बनता है उसको कटिया कहा जाता है और ढाई सौ ग्राम छोटी-छोटी हांडियों में होता है। हमारे यहां ये बड़ी हांडियों में बनता है। ये डिश मेरे बाबा की है। बाकी चंपारण के इलाके का देसी बकरा खेत खलिहान में चरता है, जबकि शहर वाले का खाना अलग है। इसलिए मांस की क्वालिटी यहां बहुत अच्छी होती है।’

मेरी जब पप्पू सर्राफ से बात हुई तो वो घोड़ासहन से झारखंड के झुमरी तिलैया जाने के लिए ट्रेन पर सवार थे। आकाशवाणी में झुमरी तिलैया की गीत की फरमाइशे मशहूर थीं। पप्पू अब झुमरी तिलैया में अपने रिश्तेदार की दुकान में चंपारण मीट बना कर खुद को पॉपुलर करने की कोशिश में है।

पप्पू सर्राफ का बनाया मीट तो उसके ग्राहकों के लिए सुपाच्य है लेकिन राजनीति में पप्पू के तौर पर मशहूर राहुल गांधी का बनाया मीट और उससे निकली पॉलिटिकल संधि बिहार में ‘अपच’ का शिकार हो गई। कम से कम सीट बंटवारेऔर लालू प्रसाद यादव की उसमें चली हनक को देखकर तो यही लगता है।

सीटू तिवारी
सीटू तिवारी
लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं और पटना में रहती हैं।

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