फतेहपुर। राजनीति की बहुत सी बातें तब जुमले में बदल जाती हैं जब सच्चाई के वायदे और गल्प से अलग होती है। वर्ष 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत मिशन को देश का मिशन बताते हुए प्रयागराज के कुम्भ मेले के दौरान खुद सफाई कर्मियों के पैर धोकर उनको सम्मानित किया था। जज्बाती तौर पर यह बड़ी घटना थी और भविष्य के बड़े बदलाव का संकेत भी थी। इस इवेंट से देश को एक बड़ा सन्देश भी दिया गया था और छुआ-छूत के खिलाफ देश में अलग माहौल बनता भी दिखा था। इस इवेंट ने देश भर के उन तमाम सफाईकर्मियों के मन में एक उम्मीद पैदा करने का काम किया था, जिनकी जिंदगी में दूसरों की गन्दगी साफ़ करने के अलावा ख़ुशी और बेहतर भविष्य की कोई उम्मीद नहीं थी। सड़कों, गलियों, नालों की साफ-सफाई करने वालों को हम सफाईकर्मी कहते हैं। मगर सच तो यह है कि बहुत बार इन्हें सफाईकर्मी कहलाने का सम्मान भी नहीं मिलता और लोग इन्हें डोम-चमार जैसे शब्द से संबोधित करते हैं। यह जाति सूचक शब्द इनके लिए गाली के तौर पर भी इस्तेमाल किए जाते हैं। कुछ लोग तो इन्हें गंदगी और मैला उठाने वाला भी कहते हैं। इनके लिए हमारे समाज में इन शब्दों के अलावा कोई और उपयुक्त शब्द है भी या नहीं? भारत में सफाई एक पेशा है, जिसे समाज में कुछ चिन्हित जातियों के लिए ही बचा कर रखा गया है। इन जातियों में भंगी, मेहतर, डोम आदि शामिल हैं। वाल्मीकि समुदाय के लोगों ने साफ-सफाई का बोझ अपने माथे पर ले रखा है। इनकी अपनी ज़मीन ना होने के कारण ये लोग खानाबदोश हैं।
गांव में रहने वाले स्वच्छकार परिवार कई वर्षों से सफाई का काम व मानव मल ढोने का काम कर रहे हैं। इसके बावजूद गांव में सुलभ शौचालय का केयरटेकर अन्य समाज को बना दिया जाता है। सुप्रीमकोर्ट ने इस समाज की बदहाल जीवनस्थिति देखते हुए इनके पुनर्वास के बारे में सरकार को सलाह भी दी थी और एक स्पष्ट गाइड लाइन भी जारी की थी। सुप्रीमकोर्ट की गाइड लाइन के अनुसार आज भी इस समाज के पुनर्वास की दिशा में कोई ठोस पहल देखने को नहीं मिलती। प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत मिशन की पहल से इनके मन में जो उम्मीद भी बनी थी, वह भी अब ख़त्म हो चुकी है। 2014 के बाद स्वच्छ भारत मिशन योजना के अंतर्गत तमाम गांव में व्यक्तिगत शौचालय के साथ सुलभ शौचालयों का निर्माण भी किया गया है।सफाईकर्मी परिवार को आशा थी कि सुलभ शौचालय के सञ्चालन का कांट्रैक्ट उनको दिया जाएगा’ जिससे उनके परिवार को काम मिलेगा। लेकिन सुलभ शौचालयों का स्वामित्व दूसरे या उच्च वर्गीय जाति-समाज के हाथो में जाने से यह आशा भी अब ख़त्म हो चुकी है जबकि वास्तविक तौर पर काम आज भी इसी समाज से लिया जाता है।
कोविड-19 के बाद से स्वच्छ कार समाज की स्थिति काफी दयनीय हो गई है। उनके समाज के लोगों को मानव मल ढोने वाले काम की वजह से कोई और काम नही मिलता। शहरों से लेकर गांव तक सफाई कर्मचारी इस समस्या से जूझ रहे हैं।
सामाजिक और सरकारी स्थिति के अनुसार देखा जाय आज सफाई पेशा तीन भागों में विभक्त हो चुका है। एक सफाई कर्मचारी झाड़ू लगा रहा है उसका वेतन 55000 है, दूसरा संविदा कर्मचारी सफाई कर रहा है उसका वेतन 22000 है, और तीसरा आउटसोर्सिंग कर्मचारी भी उसी विभाग में झाड़ू लगा रहा है और उसको मात्र 10,000 मिल रहा है। एक और बड़ी बात यह है कि कूड़ा उठाने का काम करने वाला आदमी जो डोर टू डोर काम कर रहा है उसको सिर्फ 8000 महीना ही मिल पा रहा है। ऐसे लगता है जैसे पूरी व्यवस्था इनके खिलाफ अन्याय कर रही है। जबकि देश का संविधान कहता है कि ‘समान कार्य करने वालों को समान वेतन दिया जाए।’ जबकि वास्तविक स्थिति यह है कि सरकार एक काम के लिए अलग-अलग सैलरी दे रही है।
[bs-quote quote=”सुप्रीमकोर्ट ने इस समाज की बदहाल जीवनस्थिति देखते हुए इनके पुनर्वास के बारे में सरकार को सलाह भी दी थी और एक स्पष्ट गाइड लाइन भी जारी की थी। सुप्रीमकोर्ट की गाइड लाइन के अनुसार आज भी इस समाज के पुनर्वास की दिशा में कोई ठोस पहल देखने को नहीं मिलती।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
आउटसोर्सिंग के नाम पर सरकार स्वच्छकार परिवारों के साथ अन्याय और शोषण कर रही है। उनके परिवारों के साथ खेल खेला जा रहा है। रेलवे हो, जिला अस्पताल हो या देश के अन्य प्रतिष्ठान हो आउटसोर्सिंग के नाम पर कर्मचारियों का शोषण के सिवाय कोई भी सुविधा नहीं दी जाती है। पीएफ के नाम पर पूरे देश में बहुत बड़ा फर्जीवाड़ा चल रहा है, जिसकी जांच होना अति आवश्यक है। शहरों में नगर निगम, नगर पालिका तथा अन्य प्राइवेट संस्थानों में भी इस समाज का शोषण होता है। जितने भी लोग सफाई मजदूर हैं उनको उचित वेतनमान नहीं दिया जाता है। सरकार ने सफाई कार्य प्राइवेट संस्थानों के नाम कर दिया है जबकि यह काम मैनुअल एक्ट के अनुसार स्थाई किया जाता है। तमाम सरकारी संस्थानों में देखा गया है कि स्वच्छकार समाज को छुआछूत के साथ-साथ गैर बराबरी का भी सामना करना पड़ता है।
2014 के बाद से जिन परिवारों ने मानव मल ढोने का काम छोड़ा था। उनका आज तक पुनर्वास नहीं हो सका तथा उन लोगों को आज भी कोई काम नहीं मिला है। जो परिवार दिल्ली, मुंबई, पुणे, गुजरात में काम करते थे वह जब करोना के बाद से वापस घर आये, उनको अब तक कोई काम नहीं मिला। जिन हालातों में वह गांव छोड़ कर गए थे, वही हालात गांवों में अब भी है, कुछ नहीं बदला। छुआछूत, भेदभाव, गैर बराबरी आज भी उन परिवारों के साथ होती है। चुनावी राजनीति ने पैर धोकर अपना काम तो कर लिए परंतु सफाईकर्मियों का यह समाज आज भी उसी स्थिति में खड़ा है। इस आउटसोर्सिंग के दौर में एक बार फिर इस देश का स्वच्छकार समाज गुलाम बनता दिख रहा है।
रन्नो देवी राजरानी व मीना ने बताया कि हम लोगों ने मानव मल ढोने के काम छोड़ा है। परंतु आज तक सरकार से हमें एक फूटी कौड़ी भी नसीब नहीं हुई। गांव में हमारे पास मजदूरी के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा है। छुआछूत की वजह से और कोई काम नहीं मिलता है।
भिक्खू बाल्मीकि ने बताया कि सरकार की जितनी भी योजना है। हमें उसका लाभ नहीं मिला है। हमारा काम सूप, डलिया बनाना है। लेकिन आज के इस आधुनिक दौर में परिवार का खर्चा नहीं चलता है। उन्होंने बताया कि गांव में हम लोगों के पास जमीन ना होने की वजह से हमारी स्थिति काफी कमजोर है। पिछले 50 वर्षों से हम लोगों के पास थोड़ी जमीन थी, उस जमीन पर भी गांव के दबंग लोगों ने कब्जा कर लिया। हम चाहते हैं कि सरकार हम लोगों को कम से कम तीन एकड़ खेतिहर भूमि दे ताकि हम अपने परिवार का गुजारा कर सकें और हम लोगों का सम्मानजनक पुनर्वास हो सके।
धीरज कुमार सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार हैं।