कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा, जाति जनगणना की मांग, और विपक्षी नेताओं पर ईडी-सीबीआई की कार्रवाई से बने माहौल के बाद, निश्चित ही संभावना देख रही है कि इस बार मतदाता उसकी ओर फिर से लौटेंगे।
कांग्रेसी काफी कुछ कर्नाटक विधानसभा के पिछले साल हुए चुनावों के नतीजों की तरह ही उम्मीद कर रहे हैं जिसमें जनता ने भारी बहुमत से कांग्रेस को जिताया था, और सत्तारूढ़ भाजपा को किनारे कर दिया था, जबकि प्रधानमंत्री समेत तमाम भाजपा के बड़े नेताओं और मंत्रियों ने बहुत जोरदार और आक्रामक चुनाव प्रचार किया था। यही नहीं, राज्य की जनता ने तीसरी ताकत जेडीएस को भी समेटकर रख दिया था।
कर्नाटक चुनाव परिणामों से कांग्रेस का उत्साहित होना स्वाभाविक है, लेकिन लोकसभा चुनावों में कांग्रेस मूल रूप से उन प्रांतों में बेहतर नतीजों की उम्मीद लगाए है, जहां वह इंडिया गठबंधन के सहयोगियों के सहारे चुनाव लड़ रही है। इन प्रांतों में उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, महाराष्ट्र, झारखंड जैस राज्य शामिल हैं।
सीधे मुकाबले वाले राज्यों पर कांग्रेस का जोर नहीं
हालांकि, कांग्रेस को ज्यादा जोर उन राज्यों पर होना चाहिए था जहां उसका सीधा मुकाबला भाजपा से है, और जिनमें किसी तीसरे दल की सशक्त मौजूदगी नहीं है। इससे न केवल इंडिया गठबंधन की सीटें बढ़ेंगी, बल्कि गठबंधन के अंदर भी कांग्रेस की स्थिति मजबूत होगी।
अपनी मौजूदगी वाले प्रांतों में कांग्रेस कहीं सबसे ज्यादा कमजोर और लाचार लग रही है, तो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, और उत्तराखंड में लग रही है। इन राज्यों में मध्यप्रदेश में 29, छत्तीसगढ़ में 11, राजस्थान में 25, हिमाचल प्रदेश में 4, और उत्तराखंड में 5 लोकसभा सीटें हैं। इस तरह से कुल 74 सीटें हैं जिनमें पिछले दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की झोली सूखी रही है और मुश्किल से 3 सीटें उसे मिलती आई हैं।
वास्तव में कांग्रेस के पिछड़ने की असली वजह यही 5 प्रांत हैं, लेकिन इनमें कांग्रेस न केवल कमजोर दिख रही है, बल्कि लगातार कमजोर होती भी जा रही है। जिस तरीके से भाजपा ने इन राज्यों में कांग्रेस के हर छोटे-बड़े नेता को दलबदल कराने का आक्रामक अभियान चलाया है, उसके आगे कांग्रेस बेबस नजर आ रही है।
5 प्रांतों में आश्वस्त है भाजपा
वास्तव में देखा जाए तो भाजपा के सशक्त होने का मूल आधार भी यही पांच प्रदेश हैं। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इस बात को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त रहता है कि इन पांच प्रदेशों में तो पार्टी स्वीप करेगी ही करेगी, इसलिए वो चिंतामुक्त होकर अन्य ऐसे प्रदेशों में भी ध्यान देता है जहां पहले भाजपा बहुत मजबूत नहीं थी।
कांग्रेस की दिक्कत ये है कि वह इन प्रदेशों में लगभग सभी सीटों पर लड़ती है, किसी अन्य दल पर वोट काटने का आरोप भी नहीं लगा सकती, लेकिन नतीजे उसके पक्ष में बिलकुल नहीं आ रहे हैं।
हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में भी तमाम सत्ताविरोधी लहर होने के बावजूद, उसे मध्यप्रदेश में अब तक की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा, राजस्थान में अपनी सरकार गंवानी पड़ी, और जीते-जिताए माने जा रहे छत्तीसगढ़ में भी उसे मुंह की खानी पड़ी। इसके पूर्व, उत्तराखंड में भी यही हुआ था जहां भाजपा बार-बार मुख्यमंत्री बदल रही थी, लेकिन नतीजे आए तो सरकार उसकी ही बनी। केवल हिमाचल प्रदेश अपवाद रहा जहां कांग्रेस ने भाजपा से सत्ता छीनी थी। ये अलग बात है कि राज्यसभा चुनावों के दौरान भाजपा ने जिस तरह का खेला किया, उसके आगे कांग्रेस की सरकार के बचे रहने की संभावना कम हो गई है।
किन राज्यों से बेहतर नतीजों की उम्मीद है कांग्रेस को
वास्तव में कांग्रेस की सीधे मुकाबले में भाजपा से हार तय रहती है, और इसकी क्षतिपूर्ति वह सहयोगी दलों के प्रभाव वाले राज्यों से करना चाहती है। इसके लिए वह उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल से ज्यादा से ज्यादा सीटें लेने का प्रयास करती है और यह बात भूल जाती है कि उसका जनाधार इन राज्यों में लगातार कमजोर होता जा रहा है और नेता-कार्यकर्ता दल छोड़ते जा रहे हैं।
स्थिति ये है कि यूपी और बिहार में कांग्रेस ने संख्या में अधिक सीटें लेने के फेर में ऐसी ऐसी सीटें ले ली हैं जिन पर उसके पास सशक्त उम्मीदवार तक नहीं हैं। इतना ही नहीं, उसे अब प्रत्याशी घोषित करने के लिए, सहयोगी दलों से प्रत्याशी आयात करने या भाजपा में टिकट न मिलने से नाराज होकर पार्टी छोड़ने वाले नेताओं का इंतजार करना पड़ रहा है।
कांग्रेस जिस सोच के तहत यूपी और बिहार में ज्यादा सीटें लड़ना चाहती है, उसका पीछे दमदार कारण हैं। एक तो कांग्रेस यह भुला नहीं पा रही है कि एक समय ये दोनों ही प्रदेश उसके गढ़ होते थे। दूसरे, उसके अंदर ये कसक भी है कि समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने कांग्रेस को ही कमजोर करके अपने को मजबूत किया है।
कांग्रेस की स्थिति ये है कि उसे अभी तो इन दलों के सहारे चलना ही पड़ेगा, लेकिन कांग्रेस ये काम आधे-अधूरे मन से करती है। जहां कहीं कांग्रेस में कुछ नेता और कार्यकर्ता बचे भी हैं, वो सबसे ज्यादा विरोध समाजवादी पार्टी या राष्ट्रीय जनता दल का ही करते हैं, और गुंजाइश बनाए रखते हैं कि मौका मिलते ही भारतीय जनता पार्टी में जगह बना ली जाए।
बड़ा नुकसान करा चुकी है कांग्रेस
जिन प्रदेशों में कांग्रेस कमजोर है और सहयोगी दलों के भरोसे है, उनमें वह क्षमता से ज्यादा सीटें लेकर पहले भी अपना और सहयोगी दलों का भारी नुकसान करा चुकी है। इसके बावजूद उसे लगता है कि ज्यादा सीटों पर लड़ते रहने से ही उसका वजूद बचा हुआ है।
बिहार में 2020 में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था जबकि वह केवल 19 पर ही जीत पाई। जबकि 144 सीटों पर लड़कर राष्ट्रीय जनता दल 75 सीटें जीता था। कांग्रेस से बहुत बेहतर स्ट्राइक रेट तो सीपीआई-माले और सीपीआई और सीपीएम का रहा था। माले ने तो 19 सीटों पर लड़कर 12 सीटें जीती थीं। इसी तरह से सीपीआई और सीपीएम ने क्रमश: 6 और 4 सीटों पर लड़कर दो-दो सीटें जीती थीं।
तमाम विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस अगर 35 या 40 सीटों पर लड़ती, तो सरकार बनाने से कुछ ही पीछे रह गया महागठबंधन निश्चित ही सरकार बना लेता और भाजपा तथा जेडीयू दोनों ही बिहार में विपक्ष में बैठे दिखते।
यही कारनामा कांग्रेस उत्तर प्रदेश में भी कर चुकी है। 2017 में पहले तो उसने 27 साल यूपी बेहाल का नारा देकर समाजवादी पार्टी पर जोरदार हमला बोला, और बाद में उससे ही गठबंधन कर लिया। गठबंधन में भी अपने शीर्ष नेतृत्व के हस्तक्षेप से और कई अन्य कारणों से, 103 सीटें तक ले लीं, जबकि उसकी स्थिति मुश्किल से 50 सीटों पर ही दमदार तरीके से लड़ पाने की थी।
चुनाव नतीजे आए तो उसे केवल 7 सीटें मिलीं, और विधानसभा में उसकी स्थिति पांचवें नंबर पर पहुंच गई थी क्योंकि अनुप्रिया पटेल के अपना दल को भी कांग्रेस से ज्यादा, यानी 9 सीटें मिली थीं।
कांग्रेस की कमजोरी का नुकसान समाजवादी पार्टी को भी हुआ था, और इसी वजह से समाजवादी पार्टी ने 2022 में कांग्रेस से गठबंधन ही नहीं किया, और 2017 की तुलना में काफी बेहतर सीटें जीत सकी थी। कांग्रेस केवल 2 सीटें ही जीत सकी, और इन दोनों सीटों में से भी एक सीट वही रामपुर खास थी जिसे समाजवादी पार्टी ने निजी संबंधों के आधार पर कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी की बेटी आराधना मिश्रा के लिए छोड़ दिया था।
5 राज्यों में कांग्रेस की वर्तमान स्थिति
अब फिर से बात करें, भाजपा और कांग्रेस के सीधे मुकाबले वाले प्रांतों की, तो विधानसभा चुनावों में हार के बाद, मध्य प्रदेश में कांग्रेस सुप्त पड़ी है। कमलनाथ हटाए जा चुके हैं, दिग्विजय सिंह सीमित सक्रिय हैं, और नए प्रदेशाध्यक्ष जीतू पटवारी अब तक नए ही हैं। पूरा काम, पूरी जिम्मेदारी और पूरी चुनौतियां समझने में उन्हें समय लग रहा है, और इस बीच भाजपा की आक्रामक बॉलिंग के सामने कांग्रेस के दिग्गज विकेट धड़ाधड़ गिरते जा रहे हैं। खुद कमलनाथ बीच में भाजपा में जाते दिखे थे, लेकिन फिर नहीं जा पाए, और अब ऐसा लग रहा है कि वो अपने समर्थकों को धीरे-धीरे भाजपा में शिफ्ट करवाते जा रहे हैं।
राजस्थान में मुख्यमंत्री बनने की जिद पाले बैठे सचिन पायलट अब लोकसभा चुनाव भी नहीं लड़ना चाहते और छत्तीसगढ़ का प्रभार संभाल रहे हैं। राज्य में हार के बाद पूरी कांग्रेस सुस्त है और हारे नेता भाजपा में सेट होते जा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में भी हार के बाद कांग्रेसी पस्त हो चुके हैं। भूपेश बघेल किसी तरह से अपनी लोकसभा सीट निकालने के प्रयास में हैं, लेकिन संगठन के नाम पर अब कोई देखने वाला नहीं है।
उत्तराखंड में तो विधानसभा चुनावों में अप्रत्याशित हार के झटके को ही कांग्रेस अब तक नहीं भुला पाई है, और बचा हिमाचल प्रदेश तो वहां कांग्रेस की प्राथमिकता पहले सरकार बचाना है। सरकार बचती दिखे तो दूसरा संकट प्रत्याशियों की कमी का है।
कुल मिलाकर, कांग्रेस का सबसे बड़ा संकट सीधे मुकाबले वाले 5 हिंदी भाषी राज्यों में उसकी कमजोरी है जिसके दूर होने के आसार अब तक तो नहीं दिखे हैं। इसका असर अन्य राज्यों पर भी पड़ता है क्योंकि कांग्रेस फिर उन राज्यों में अनावश्यक और क्षमता से ज्यादा सीटें लेकर खुद ही हार तो सुनिश्चित करती ही है, साथ ही सहयोगी दलों का भी स्कोर नीचे ले आती है।