मिर्ज़ापुर। पिछले दिनों अदलहाट इलाके से गुजरते हुये मेरी नज़र एक छोटे से गौशाले पर पड़ी। करीब-तीस-बत्तीस गायें रही होंगी लेकिन यह देखकर बहुत दुख हुआ कि किसी के भी शरीर में मुट्ठी भर मांस नहीं था। सबकी ठठरियाँ दिख रही थीं और लगता था कि ये अब चंद दिनों की मेहमान हैं। मुझे लगा कि इसके संचालक से बात करनी चाहिए। गौशाले के पास एक पेड़ के नीचे पड़ी खटिया पर लेते एक अधेड़ को देखकर मैं उसके पास चला गया। बातचीत में उसने बताया कि पहले जब मेरे पास यह प्रस्ताव आया तो मुझे लगा कि शायद यह फायदे का काम होगा लेकिन पाँच साल हो गए यह काम जी का जंजाल बना हुआ है।
उसने बताया कि जब से यह काम कर रहा हूँ ऐसा लगता है कि बेमतलब का काम कर रहा हूँ। ये गायें अब दुधारू नहीं रह गई हैं इसलिए जबरन इनकी सेवा करना किसी मतलब का नहीं है। अक्सर यह होता है कि सरकार की ओर से जो पैसा भेजा जाता है वह कई महीने के बाद आता है। ऐसे में हम गायों को क्या खिलाएँगे यह हमारे लिए बड़ी समस्या हो जाती है। गायें भूख से मरने लगें तो बहुत कष्ट होता है। लेकिन इसको रोकने के लिए हमारे पास कोई उपाय भी नहीं है।
बेसहारा गायों के लिए उत्तर प्रदेश सरकार तीन तरह की योजनाएँ चलाई है। पहली यह कि शहरी इलाकों में बड़े भूखंड पर गौ आश्रय स्थल बनाए गए जिनके लिए डेढ़ से दो करोड़ रुपए खर्च का प्रावधान है। ऐसे गौ आश्रय स्थल लगभग हर जिले में है। दूसरी योजना के तहत ग्राम समाज की ज़मीन पर छोटी गौ शालाएँ बनाई गई हैं और तीसरी योजना के तहत सामान्य गौ पालक को पहले प्रति गाय तीस रुपए प्रतिदिन अथवा नौ सौ रुपया प्रतिमाह था जो अब बढ़कर पचास रुपया प्रतिदिन अथवा पंद्रह सौ रुपए महीने हो गया है। एक गोपालक तीन गायों को पाल सकता है। यह सब पशु चिकित्सा अधिकारी की देख-रेख में होता है। हाल ही में सरकार ने गायों के लिए अभयारण्य बनाना भी शुरू किया है। प्रतापगढ़ में अभयारण्य बनाया गया है।
लेकिन इसके बावजूद इसमें कई तरह के झोल हैं। एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर यह बताया कि गायों की गिनती को लेकर भी ढेरों विसंगतियाँ हैं। बेसहारा गायों की वास्तविक स्थिति और गिनती में बहुत फर्क होता है। किसी किसी जिले में मौजूद पशुओं की तुलना में काफी कम संख्या की रिपोर्ट बनाई जाती है। ऐसा इसलिए कि अधिकारी भी इस राजनीतिक दबाव से ऊब चुके हैं और अब शायद ही कोई इस पचड़े में पड़ना चाहता हो। जबकि वास्तविकता यह है कि बहुत ज्यादा पशु सड़कों पर घूम रहे हैं और फसलों को नुकसान पहुँचा रहे हैं।
गाय अब एक राजनीतिक पशु है
उत्तर प्रदेश भारत का एक ऐसा राज्य है जहां पहली माब लिंचिंग गौ मांस को लेकर हुई थी। इसमें एक मुस्लिम परिवार गलत आरोप का शिकार होकर बर्बाद हो गया। इसके बाद गौ मांस, गौ रक्षा और गौ तस्करी लगातार राजनीतिक शब्दावली बनते गए। गाय एक राजनीतिक पशु बनती गई जिसको कहीं से लाना और ले जाना भी खतरे से खाली नहीं रह गया। तथाकथित गौ रक्षकों की टोलियाँ हमला करने के लिए तत्पर हो गईं। उन्हें न केवल पुलिस-प्रशासन और राजसत्ता की सुरक्षा मिली हुई थी बल्कि वे इतने निरंकुश होते गए कि उनके खिलाफ किसी में खड़े होने की हिम्मत नहीं रह गई। लेकिन यह सब केवल तस्वीर का एक पहलू है। दूसरे पहलू में इतनी विडंबनाएं हैं कि स्वयं गायों का ही जीवन नर्क में तब्दील हो गया है।
गाएँ भारतीय किसान जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा रही हैं जिनके बगैर भारतीय गांवों और अर्थव्यवस्था की कल्पना भी अधूरी है लेकिन उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की नई गौ नीति ने गायों को संगीन पशु बना कर रख दिया जो किसानों की मित्र नहीं बल्कि धीरे-धीरे एक अवांछनीय पशु बनती गई। इस स्थिति के पीछे अनेक कारण हैं और सभी कारण इतने जटिल हो गए हैं कि कोई हल निकालना असंभव की हद तक मुश्किल हो गया है। आवारा गोवंश ने किसानों की फसलों को भारी नुकसान पहुंचाया है। अक्सर खड़ी फसलों को आवारा पशुओं ने तहस-नहस कर दिया है। शहरों में सड़कों पर घूमते आवारा पशुओं की टक्कर से लगातार दुर्घटनाएँ हुई हैं। ऐसी दुर्घटनाओं में सैकड़ों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा है। इन सबको देखते हुये सरकार को इस समस्या का समुचित हल निकालना चाहिए था लेकिन सरकार ने इसको एक राजनीतिक खेल में तब्दील कर दिया है।
बढ़ते आवारा पशुओं की कहानी के पीछे बदलाव की कई परतें हैं
सबसे पहले हमें यह जान लेना चाहिए कि आवारा पशुओं की समस्या कितनी विकराल है और उसके क्या निहितार्थ निकलते हैं? पशुपालन और डेयरी विभाग द्वारा जारी की गई 20वीं पशुधन गणना रिपोर्ट से पता चलता है कि देश में फिलहाल 50.21 लाख आवारा मवेशी सड़कों पर घूम रहे हैं। इनमें सर्वाधिक संख्या राजस्थान में 12.72 लाख है और दूसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश में 11.84 लाख आवारा पशु हैं जो सड़कों पर घूम रहे हैं। अगर इसे उत्तर प्रदेश के पचहत्तर जिलों में विभाजित किया जाय तो प्रत्येक जिले में 15786 आवारा पशु सड़कों पर घूम रहे हैं। इनका कोई पुरसाहाल नहीं है। ये पशु ऐसे हैं जिन्हें कोई भी चारा नहीं देता बल्कि ये यहाँ-वहाँ घूम कर कूड़े के ढेर से भोजन अथवा सब्जी मंडियों में फेंकी गई सब्जियाँ खाकर गुजारा करते हैं। कई ऐसी लोमहर्षक रिपोर्टें छपती रहती हैं जिनमें गायों के पेट में ढेर सारा प्लास्टिक पाये जाने की बात सामने आई है। सड़कों पर घूमते ये पशु न सिर्फ सड़कों पर गंदगी फैलाते हैं बल्कि दुर्घटनाओं के कारण भी बनते हैं।
सवाल उठता है कि इतनी बड़ी संख्या में घूमते इन आवारा मवेशियों के छुट्टा होने का कारण क्या है? एक दशक पहले तक यह समस्या इतनी भयावह नहीं रही है लेकिन पिछले सात-आठ सालों में शहरी और ग्रामीण जनजीवन के लिए यह एक सिरदर्द बन गई है। अपनी खड़ी फसल की बरबादी का शोक मना रहे मिर्ज़ापुर जिले के कठेरवा निवासी एक किसान हरिहर कहते हैं कि हमारी तबाही का कोई अंत नहीं दिखता। चुनाव में भी यह कोई सवाल नहीं बनता और लगता है कोई सरकार किसानों की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है।
हरिहर की तकलीफ और गुस्से को हम उन किसानों की भी अभिव्यक्ति मान सकते हैं जो अपनी खड़ी फसलों की बरबादी के बावजूद आवारा पशुओं को हांक तो सकते हैं लेकिन मारपीट कर भगा नहीं सकते। कब कौन इसके खिलाफ उनकी रिपोर्ट कर दे और उन्हें पुलिस-कचहरी का चक्कर लगाना पड़े इसका कोई ठिकाना नहीं है। कुछ साल पहले अपने खेतों की सुरक्षा के लिए कांटेदार तारों की बाड़ लगाने वाले किसानों को मुकदमे भुगतने पड़े। इस प्रकार आवारा पशुओं की समस्याएँ अब कोई साधारण समस्या नहीं रह गई है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अनेक प्रकार के परिवर्तन हुये हैं और साधारण जीवन पर अनेक तरह के दबाव बढ़े हैं। जो पशु पहले किसानों के खूँटे पर अंतिम समय तक बंधे रहते थे अब दूध न देने की स्थिति में पालक उन्हें छुट्टा छोड़ देते हैं। असल में इसके पीछे चारे का लगातार महंगा होते जाना सबसे बड़ा कारण है। पशुपालकों की ज़िंदगी को नज़दीक से देखने पर पता चलता है कि वे गाय-भैंस पालने में बेहिसाब परिश्रम करते हैं लेकिन इसके बदले में उन्हें कोई खास कमाई नहीं होती। चूंकि वे अब अपने पेशे नहीं बदल सकते इसलिए उसी में लगे रहते हैं। पहले दूध न देनेवाले ऐसे पशुओं को बेच देना आसान था लेकिन अब वह राजनीतिक कारणों से संभव नहीं रह गया इसलिए ऐसे पशुओं को छुट्टा छोड़ देना ही एकमात्र विकल्प बचता है। दूसरा सबसे बड़ा कारण यह है कि नई पीढ़ी में इस तरह का श्रमसाध्य और लगातार घाटे का सौदा करने की कोई रुचि नहीं बची है बल्कि उसके सामने अच्छा और आरामदेह जीवन जीने के लिए दूसरे कामों के अच्छे-खासे विकल्प हैं फिर वे क्योंकर गाय-भैंस पालें और गोबर-मूत्र से सना जीवन जिएँ।
समस्या के और भी पहलू हैं
आवारा पशुओं की समस्या की विकरालता का अंदाज़ा इसी बात से लगता है कि विगत वर्षों में इनकी संख्या में लगातार इजाफ़ा होता गया है। लोगों ने इसके निराकरण की उम्मीद छोड़ दी और स्वयं उत्तर प्रदेश सरकार को इसके लिए एक अलग फ्रंट खोलना पड़ा। चुनार क्षेत्र के समाजवादी पार्टी से जुड़े एक नेता कहते हैं कि ‘यह किसानों और पशुपालकों का काम था कि अपनी अर्थव्यवस्था में गाय को क्या महत्व देते और उनके लिए क्या निर्णय लेते लेकिन हिन्दुत्व के मद में चूर भाजपा इसमें कूद पड़ी और ये लोग गोबर में नहाने, गौमूत्र पीने से लेकर गौरक्षा के नाम पर लोगों की हत्याएं करने तक को महिमामंडित करने लगे। यह एक संवैधानिक सरकार का काम नहीं था कि वह गायों को एक समस्या बना दे लेकिन उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने यही किया। अब उसे इस फ्रंट पर भी सक्रिय होना पड़ा है लेकिन दो बातें तो साफ तौर पर आप देख सकते हैं। एक तो यह कि गौरक्षा के नाम पर ऐसी जमातें सक्रिय हुई हैं जो एक दिन भी गाय की देख-रेख नहीं कर सकते। दूसरे यह कि इस प्रक्रिया में गायों की जिंदगी और भी नारकीय हो गई है। वे चारे और पानी के अभाव में दम तोड़ रही हैं। सरकार और भाजपाई इसे अच्छी तरह देख रहे हैं लेकिन उनकी संवेदनाएं मर चुकी हैं।’
गाय बचाने के खेल के खिलाड़ी
उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार की तमाम योजनाओं और परियोजनाओं में से एक महत्वपूर्ण परियोजना गोरक्षा (संरक्षण, पोषण) अभियान है। इसके तहत आवारा पशुओं के लिए तमाम सुविधाओं से युक्त पूरे प्रदेश भर में गो-आश्रय केंद्र बनाए गए हैं। अनुमान के अनुसार उत्तर प्रदेश में वार्षिक रूप से गौ रक्षा, कान्हा गौशाला एवं बेसहारा पशु आश्रम जैसी योजनाओं पर एक हज़ार करोड़ का बजट खर्च होता है।
लेकिन सारा खेल बहुत जटिल है। गाय बचाने के लिए बनी योजनाओं का लाभ उठानेवाले निहित स्वार्थी तत्वों का एक हुजूम गायों के नाम पर बजट को साफ करने में लगा है। कथित रूप से गौ शालाओं में गायों के लिए हर उन जरूरी चीजों की उपलब्धता होती है जो उनसे संबंधित होती है। यह मैं कागज पर बने बजट ढाँचे के हिसाब से कह रहा हूँ। जबकि दूसरी ओर तमाम अभावों और विसंगतियों से भरा-पूरा यह खेल अधिक भयावह तस्वीर पेश करता है।
योजना के अनुसार चारा, पुआल, भूसा, खली, चोकर, चुनी, पशु-आहार, गुड़ और पानी के साथ ही रोगों से लड़ने और उससे उबरने के लिए अच्छी दवाइयों की भी समुचित व्यवस्था है। इसमें हर महीनें लाखों में बजट आता है। इसमें अस्थाई तौर पर चार-छः लड़के नियुक्त होते हैं। यह बात अलग है कि उनकी नियुक्तियाँ अस्थाई तौर पर ही होती हैं। उन्हें मानदेय भी उचित तौर पर नहीं दिया जाता। उन्हें झूठ का ही प्रशिक्षण दिया जाता है। उन्हें पहले से समझा दिया जाता है कि कोई भी मिले और पूछे तो बताना है चारा इतना आया। इतना खिलाया गया। इतनी दवाएं आई, इतनी खिलायी गईं, वगैरह वगैरह।
मैंने तमाम गो-आश्रय केंद्रों का अनौपचारिक रूप से दौरा, भ्रमण और निरीक्षण किया है, जहाँ पर तमाम पशुओं की हड्डियों और पसलियाँ नंगी आँखों से अवलोकन करने को मिली हैं। कहीं उनके कान काटे गए या छेदे गए हैं उन पर दवाओं का सही इस्तेमाल न होने पर वे सड़-गल गए या रोग ग्रस्त हो गए हैं। कहीं चारे के अभाव में, कहीं पानी के अभाव में उन पशुओं के हलक सूख रहे हैं। कहीं उनके चोट और घाव के स्थानों पर कीड़े पड़ गए हैं तो कहीं मल-मूत्र द्वार सड़ गए हैं। लंबे समय से नहलाए न जाने के कारण तमाम मवेशियों के शरीर पर जूएँ और कीलनियों की भरमार है। कितने पशुओं को देखते ही लगता है कि अब ये कुछ ही देर के मेहमान हैं। न जाने कितने पशुओं का मुल्क -ए-अदम प्रस्थान हो चुका है इसका भी कोई सटीक और सही आंकड़ा मिल पाना संभव नहीं दिखता। न ही इसके लिए कोई आधिकारिक रूप से उत्तरदायी ही मिल पाता है। हेल्पलाइन नंबर से भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिल पाता। वहां से भी इस तरह की सूचनाओं पर कोई त्वरित कार्यवाही नहीं हो पाती। न ही किसी संबंधित व्यक्ति या अधिकारियों पर कोई कार्यवाही ही हो पाती है।
सवाल पैदा होता है कि वर्तमान सरकार किस तरह के गौ सेवा का व्रत ले रखी है? इस तरह के अभियान से किन जन सामान्य जनों का हित साधन है? कितने ही गौ सेवा आश्रय केंद्र खोले गए हैं। इसके वावजूद बहुत बड़ी संख्या में आवारा पशुओं की फौज किसानों की खड़ी फसलों को बर्बाद करने में लगी हुई हैं। किसानों की समस्या तो इतनी विकराल है कि वे अब चारों ओर से निराश हो चुके हैं।
बेसहारा गौ आश्रय स्थलों की नारकीय स्थिति
सोनभद्र जिले में स्थित एक बेसहारा गौ आश्रय स्थल को देखने जब मैं पहुंचा तो मुख्य सड़क से कुछ ही दूर चलने पर मरे हुये पशुओं की बदबू से नाक फटने लगी। किसी तरह नाक पर गमछा रख कर जब मैं वहाँ पहुँचा तो यह देखकर कांप उठा कि जंगल में स्थित यह बेसहारा गौ आश्रय स्थल दरअसल गौ वध-स्थल बना हुआ है। किसी भी तरह से यह अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं था कि लाखों रुपये महीने के खर्च से संचालित यह जगह स्वस्थ गायों की जगह हो सकती है। हाल ही में मरी हुई कई गायों की हड्डियाँ यहाँ-वहाँ बिखरी हुई थीं। आश्रय स्थल के बड़े से गेट पर तैनात एक आदमी ने मुझे फोटो लेते देख ऐसा करने से रोका और झगड़ने लगा। मैंने उससे कहा कि मैं पत्रकार हूँ। मुझे इस जगह के बारे में जानना है तो वह कई और लोगों को बुला लाया। सबने मुझे वहाँ से चले जाने को कहा और धमकाया। मैं किसी भी तरह से उस बाड़े में बंद गायों की दशा देखने में सफल नहीं हो सका।
यह बेसहारा गौ आश्रय स्थल जंगल में बहुत बड़े रकबे में है जिसमें हजारों गायें रखी गई हैं लेकिन यहाँ किसी भी सामान्य व्यक्ति को जाने की अनुमति नहीं है। आस-पास के गाँवों के लोग बताते हैं कि अंदर क्या होता है हमको भी कुछ नहीं पता है। एक व्यक्ति ने तो यहाँ तक कह दिया कि यहाँ पर बंद गायों के साथ क्या होता है यह मत पूछिए। क्या नहीं होता होगा इसका अंदाज़ा लगाइए।
मैंने कई छोटी-छोटी गौशालाओं का भी दौरा किया है और वहाँ भी हालात बहुत खराब हैं। कहीं-कहीं एक बाड़े में दर्जन भर गाएँ हैं लेकिन सबकी सब मरणासन्न अवस्था में हैं। पूछने पर पता चला कि जितना सरकार देती है उतना तो खिला ही रहे हैं। उससे ज्यादा कहाँ से खिलाएँगे। उन्होंने बताया कि बारह रुपए किलो भूसा है और एक गाय के लिए तीन किलो भूसा मिलता है। लेकिन एक गाय दिन भर में पाँच किलो भूसा खा जाती है। ऐसे में ज्यादा भूसा हम कहाँ से लाएँगे?
इसके साथ ही कई लोग बताते हैं कि पानी और भूसे की कमी के साथ बीमार गायों के लिए दवाइयाँ तक नहीं हैं लिहाजा गाएँ मर जाती हैं और हम कुछ भी नहीं कर पाते।
लेकिन पशुपालन विभाग के एक कर्मचारी का कहना है कि गायों की खुराक से जुड़ा मेनू सरकारी तौर पर तय होता है। उनके रखरखाव और स्वास्थ्य की देखभाल के लिए पर्याप्त बजट दिया जाता है। लेकिन जो लोग गौशाला चला रहे हैं वे गायों की खुराक खा जाते हैं। अब इसमें सरकार का क्या दोष है?
कुल मिलकर यह एक जटिल व्यवस्था है। इसमें कौन सच कह रहा है और कौन झूठ बोल रहा है इसका विश्लेषण कर पाना बहुत कठिन है लेकिन इतना तो जरूर है कि यह सब मिलकर भ्रष्टाचार की एक ऐसी कहानी बनाते हैं जिसमें सबसे निर्मम चोट उन गायों को मिल रही है जो न घर की हैं न घाट की।
आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है
बेसहारा और छुट्टा पशुओं की समस्या का अंततः क्या हल होगा इसका कोई भी उत्तर किसी के पास नहीं है। सरकारी योजनाएँ बन रही हैं और अनेक लोग उनके लाभ उठा रहे हैं लेकिन इससे गायों का क्या भला हो रहा है इसके बारे में कौन बता सकता है। गायें कृषि जीवन की एक अनिवार्य घटक थीं और सदियों से एक सुनियोजित व्यवस्था के तहत उनका पालन-पोषण और निस्तारण होता रहा है। एक समय था जब किसानों के पास अधिक खेत थे तब चारे की कोई कमी नहीं थी लेकिन अब कृषि अर्थव्यवस्था पूरी तरह पूंजी की गुलाम बनाई जा चुकी है। इसलिए उससे जुड़े सभी घटक गाय, बैल आदि का जीवन भी पूरी तरह प्रभावित हुआ है। खेती और पशुपालन केवल घुटनभरा और मजबूरी का धंधा है।
दूसरी तरफ सरकार ने गायों को लेकर एक अलग ही राजनीतिक खेल खेला है और इसके बारे में पशुपालकों के हाथ से निर्णय छीनकर धर्मोन्मादियों और फासिस्टों के हाथों में सौंप दिया है। यह एक तरह से किसानों और जनता के ऊपर एक थोपी हुई समस्या है जिसका कोई हल सरकार के पास नहीं है। और न ही इस सरकार की कोई इच्छा शक्ति ही इसको हल करने की है।
तीसरी सबसे बड़ी चीज आवारा गायों की समस्या की जड़ें सामाजिक न्याय का लाभ उठाकर मुख्य धारा में शामिल होनेवाली जमातों को पुनः रिवर्स गियर में ले जाने तक फैली हुई हैं। बदली हुई आर्थिक स्थितियों और अच्छी ज़िंदगी के विकल्पों ने पिछड़ी हुई उत्पादन व्यवस्थाओं को अपने जीवन से निकाल फेंका है और यही उनके भविष्य को लेकर सही भी है जबकि गाय के नए मिथक ने हिन्दुत्व की खोल में ऐसे सपनों पर कुठाराघात किया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि संघी विचारधारा वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने एक गाय के बहाने कई निशाने साधे हैं। उसने जहां पिछड़े समाजों को इसमें उलझाया है वहीं गौ पलकों का ऐसा तंत्र भी विकसित किया है जो सैकड़ों करोड़ की परियोजनाओं को मिल-बाँट कर खा रहे हैं। इसके बावजूद न केवल गायों की ज़िंदगी नर्क से बदतर हो चुकी है बल्कि उनकी समस्या का कोई हल भी नज़र नहीं आ रहा है।