Tuesday, July 1, 2025
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सिनेमा

मनोज कुमार : किसानी, देशभक्ति और भारतीय संस्कृति के जटिल प्रश्नों पर पॉपुलर सिनेमा के कर्णधार

हिन्दी सिनेमा में साठ और सत्तर के दशक में खेती और किसानी के बढ़ते संकटों, बेरोजगारी की विकराल होती समस्या, जमाखोरी, भ्रष्टाचार, महिलाओं की असुरक्षा और भारतीय समाज में आ रहे अन्य अनेक बदलाओं को मनोज कुमार ने अपनी फिल्मों में बहुत बारीकी से चित्रित किया। इस तरह मुख्यधारा के हिन्दी सिनेमा में उन्होंने उन विषयों को अपने स्तर पर बरतने का प्रयास किया जो लगभग पीछे छोड़ दिये जा रहे थे। एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में मनोज कुमार ने एक लंबी पारी खेली और अनेक सफल और उल्लेखनीय फिल्में दी। हिन्दी सिनेमा में उनकी एक अलग पहचान है। उन्होंने भारतीय सामाजिक संरचना में बेशक बहुत से सामाजिक और सांस्कृतिक रिश्तों को स्थूल रूप में देखा और चित्रित किया हो लेकिन भारतीय समाज को उन्होंने उसकी बुनियादी उत्पादकता के आधार पर देखा। खासतौर से कृषि समाजों के ऊपर बढ़ते दबावों के मद्देनज़र उनकी फिल्मों को नए सिरे से विश्लेषित किए जाने की जरूरत है। 4 अप्रैल को 87 वर्ष की अवस्था में उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा। इस मौके पर उन्हें याद कर रहे हैं जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक विद्याभूषण रावत।

सिनेमा : पर्दे से ज्यादा भयावह है वेश्यावृत्ति की वास्तविक दुनिया 

सन 2011 में प्रकाशित (Foundation Scalles) की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में सेक्स वर्कर्स की कुल संख्या 42 मिलियन है जो मुख्य रूप से सेंट्रल एशिया, मध्य पूर्व और अफ्रीका में पायी जाती है। इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ सेक्स वर्कर्स की वेबसाइट के अनुसार ‘विश्व में सेक्स वर्कर्स सर्वाधिक संख्या अमेरिका, चीन, आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, तुर्की, रूस, नाइजीरिया, जर्मनी और भारत में पायी जाती है। वर्तमान में पूरी दुनिया में 52 मिलियन सेक्स वर्कर्स हैं जिनमें 41.6 मिलियन महिलायें और 10.4 मिलियन पुरुष हैं। ‘दुनिया के कई देश हैं जहाँ वेश्यावृत्ति को क़ानूनी वैधता मिली हुई है और वे सेक्स टूरिज्म के बड़े केंद्र माने जाते हैं। उन देशों की अर्थव्यवस्था में वेश्यावृत्ति का बहुत बड़ा योगदान है। इनमें न्यूजीलैंड, आस्ट्रिया, बांग्लादेश, बेल्जियम, ब्राज़ील, कनाडा, कोलम्बिया, डेनमार्क, जर्मनी, ग्रीस, नीदरलैंड, स्विटज़रलैंड, मेक्सिको, वेनेजुएला, सियरा लिओन, बोलीविया, पेरू और अन्य कई देश प्रमुख हैं’ (भट्टाचार्या, रोहित 2024)। जिन स्थानों पर वेश्यावृत्ति का धंधा होता है उन्हें कोठा, चकला, वेश्यालय, रेड लाइट एरिया, ब्रॉथेल्स आदि नामों से जाना जाता है। आज के इनफार्मेशन और कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के युग में तमाम वेबसाइट/पोर्टल उपलब्ध हैं जो सेक्स वर्कर्स के बारे में सूचनाएं उपलब्ध कराते हैं। पोर्नोग्राफी वेबसाइट्स, कॉलगर्ल, पॉर्न स्टार्स, जिगोलो जैसे नाम और व्यवसाय आज की वैश्वीकृत दुनिया में जाने जाते हैं। अंतर-धार्मिक घृणा के तहत किए गए हमले और औरतों को बंधक बनाकर जबरदस्ती यौन हिंसा का शिकार बनाने की घटनाएँ दुनिया के कई क्षेत्रों में बढती जा रही हैं। सीरिया, लेबनान, जॉर्डन, अफगानिस्तान और इराक ऐसी हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित हैं जहाँ महिलाओं को वेश्यावृत्ति करने को मजबूर किया जाता है। पढ़िये जाने-माने कवि-कथाकार राकेश कबीर का विचारोत्तेजक आलेख।  

फिल्मों में वैसे ही जाति-गौरव बढ़ रहा है जैसे अर्थव्यवस्था और राजनीति में सवर्ण वर्चस्व

किसी जमाने में 'साहब बीवी और गुलाम' जैसी फिल्मों ने ढहते हुये सामंतवाद का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जिससे लगता था कि अब यह बीते जमाने की बात होने वाला है। हालाँकि इसके पीछे उनकी डूबती हुई अर्थव्यवस्था सबसे प्रमुख कारण था। चीजें और स्थितियाँ तेजी से बदल रही थीं। ऐसा लगता था कि अब कमानेवाला खाएगा और लूटनेवाला जाएगा लेकिन हाल के दशकों में इसे मुड़कर देखने की जरूरत आ पड़ी है। मेहनतकश समुदायों के लिए स्थितियाँ लगातार बद से बदतर होती गई हैं। देश में मजदूर विरोधी कानून लगातार बने और अधिकारों का संघर्ष धूमिल होने लगा। इसके बरक्स राजनीति और अर्थव्यवस्था में ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ मजबूत होता गया। जातिवादी सामाजिक सोपान पर जिन जातियों को ढहते हुये सामंतवाद के साथ ध्वस्त होते जाने का अनुमान था उन्होंने अपनी सामाजिक एकता को फिर से मजबूत कर लिया और पैसे कमाने के नए-नए ढर्रों में अपने-आप को ढाल लिया। सरकारी और गैर सरकारी ठेकों और विभिन्न एजेंसियों के हासिल करने से मजबूत हुई अर्थव्यवस्था ने उन्हें राजनीतिक ताकत हासिल करने को प्रेरित किया और इस प्रकार अपराध और राजनीति का एक दबंग रूप सामने आया। ज़ाहिर है इसका असर सिनेमा में भी व्यापक रूप से हुआ और पर्दे पर जातीय दंभ और हेकड़ी की एक भाषा ही हावी होती गई। भूमंडलीकरण के बाद इसमें पर्याप्त इजाफा हुआ। प्रकाश झा, तिग्मांशु धूलिया और अनुराग कश्यप जैसे हिन्दी प्रदेश के निर्देशकों की फिल्मों में दिखाई गई जातीय प्रस्थिति, भाषा और कार्य-व्यापार चाहे जितने मौलिक और रचनात्मक बताए जा रहे हों लेकिन इनके निहितार्थों पर ठहर कर सोचना जरूरी है। जाति के मसले पर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता राकेश कबीर के लंबे लेख की अंतिम और समापन कड़ी।

पा रंजीत और अन्य फ़िल्मकारों का सिनेमा : संवेदना, चेतना और चित्रण में जाति का सवाल

हिन्दी सिनेमा में जाति का सवाल बहुत पुराना है लेकिन उसे हल करने के लिए जिस शिद्दत और संवेदना की जरूरत थी वह नहीं थी लिहाजा या तो एकांगी चित्रण होता रहा अथवा फ़िल्मकार इससे मुंह चुराते रहे। हालिया वर्षों में दलित परिवारों से निकले फ़िल्मकारों ने अपनी फिल्मों से दलित चित्रण का व्याकरण बदल दिया है। अब वे नए ढंग के मूल्यांकन की मांग कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने दलित जीवन की घिसी-पिटी परिपाटी को तोड़कर अधिकारबोध और स्वाभिमान से भरे हुये नायकों को पर्दे पर उतारा है। जाने-माने कवि और सिनेमा के अध्येता राकेश कबीर ने पा रंजीत और नागराज मंजुले की फिल्मों के आधार पर इसकी गहरी छानबीन की है। साथ में नायकत्व की अवधारणा और सामान्य जीवन के अंतर्विरोधों को भी समझने का प्रयास किया है।

क्या जाति के मुद्दों पर सिनेमा बनानेवालों ने जाति की विनाश की दिशा में कोई काम किया

जाति व्यवस्था के बारे में इतिहास में कई व्याख्याएँ मौजूद हैं। प्रकार्यात्मक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से जाति भारतीय समाज की एक अनूठी संस्था है और दुनिया में इसका संगठन सबसे अलग है। जाति ने ऊंच और नीच के आधार पर सम्पूर्ण समाज का एक सीढ़ीगत वर्गीकरण स्थापित कर रखा है। दूसरी अवधारणाओं में व्यवसाय के आधार पर जाति के विभाजन को देखा जाता है। जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में जाति निर्णायक भूमिका निभाती है। चाहे कितना भी आधुनिक संदर्भ बनाया जाय लेकिन उसकी पृष्ठभूमि की गहरी छानबीन करने पर उसकी बुनियाद जाति व्यवस्था में ही मिलती है। इसलिए जाति व्यवस्था को हमेशा दो पहलुओं से देखने पर अधिक मुकम्मल तस्वीर सामने आती है कि कैसे एक ही व्यवस्था एक ही देश और समाज में दो भिन्न स्तरों पर काम करती रही है। एक पहलू तो यह कि जो वर्ग जाति व्यवस्था के सभी लाभ (आय के स्रोत, संपत्ति और सामाजिक सम्मान) ले रहा है, उसके मुक़ाबले एक दूसरा बड़ा वर्ग है जो जाति व्यवस्था के कारण हर प्रकार की हानियों (श्रम का अवमूल्यन, निर्धनता और अपमान) को सदियों से झेल रहा है। यहाँ तक कि भाषा और संस्कृति के स्तर पर भी वह हमेशा कमजोर रहा है और अपने नायकों की जगह अपने उत्पीड़कों को सम्मान देने को अभिशप्त रहा है। कहना चाहिए कि जाति व्यवस्था ने सामाजिक अन्याय पैदा किया। जाति व्यवस्था में भरोसा रखनेवाला हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में सामाजिक अन्याय का पोषक है। लेकिन इस अन्याय को वह धर्म-अध्यात्म और मिथकों की चासनी में लपेटकर बड़े पैमाने पर परोसता रहा है। इसलिए भारत के बड़े जनसमूह का प्रायः एकतरफा व्याख्याओं की जाल में फंसना स्वाभाविक है। साहित्य, कला, रंगकर्म और सिनेमा ने भी इसे एक मोहक भुलावे में ही रचा और प्रसारित किया। यह सब सामाजिक न्याय के विरुद्ध सामाजिक अन्यायवादियों का एक बड़ा एजेंडा रहा है। भारतीय सिनेमा में जाति के सवाल को लेकर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता राकेश कबीर का विचारोत्तेजक विश्लेषण।

सिनेमा : प्रवासी महिलाएं होम और होस्ट दोनों देशों में पितृसत्ता से आज़ादी चाहती हैं..

तीसरी दुनिया के गरीब देशों से महिलाओं का विकसित देशों के लिए प्रवास करना मानवीय इतिहास की बड़ी घटना है। प्रवासी महिलाएं होम और होस्ट दोनों देशों में पितृसत्ता से आज़ादी चाहती हैं क्योंकि वे कहीं भी जाएं अपनी कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण उनके साथ शोषण, अपमान और भेदभाव जारी रहता है।

अभिनेता ही नहीं, सामाजिक आंदोलनकारी भी थे नीलू फुले

नीलू फुले के पूर्वजों में महामना जोतीराव फुले और माता सावित्रीबाई फुले सबसे उल्लेखनीय हैं लेकिन वास्तव में नीलू फुले परिवार के उस हिस्से से ताल्लुक रखते थे जिसने आजीवन जोतीराव फुले का विरोध किया। वे सिनेमा में काम जरूर करते थे लेकिन उनका दिल समाज के लिए धड़कता था। वे आजीवन राष्ट्रसेवा दल के साथ रहे लेकिन बाद के दिनों में कुछ उपेक्षित महसूस करने लगे थे। मैं जब भी उनसे मिला या बात करता उनमें वही जज़्बा और जोश होता जो जवानी के दिनों में होता था। वे हर व्यक्ति के मददगार मित्र थे।

बनारस के मनोज मौर्य की बनाई जर्मन फिल्म ‘बर्लिन लीफटाफ’ फिल्म समारोह की बेस्ट फीचर फिल्म बनी

मनोज मौर्य एक युवा फ़िल्मकार हैं। गाजीपुर में जन्मे और बनारस में पले-बढ़े मनोज अपने को बनारसी कहने में फख्र महसूस करते हैं। लंबे समय से मुंबई में रह रहे मनोज की इस वर्ष दो फीचर फिल्में , हिन्दी में 'आइसकेक' और जर्मन में 'द कंसर्ट मास्टर' रिलीज हो रही हैं। 'द कंसर्ट मास्टर' बर्लिन सहित अनेक फिल्म समारोहों में दिखाई गई और तगड़ी प्रतियोगिता करते हुये बेस्ट फीचर फिल्म नामित हुई।

फिल्म आत्मपॅम्फ्लेट : मराठी की फॉरेस्ट गंप, जो देश के बहुजन सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों पर सहजता से प्रहार करती है

फिल्म आत्मपॅम्फ्लेट,ब्लैक कॉमेडी के माध्यम से समाज में चल रही जाति, धर्म और अन्य गंभीर सामाजिक मसलों को बहुत ही संतुलित तरीके से पेश करती है। निर्माता-निर्देशक के लिए आज के समय में ऐसी प्रस्तुति वाकई  साहस का काम है।  फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह दो अलग विषयों प्रेम और सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को बहुत ही खूबसूरती से एक साथ लेकर चलती है।

विघटनकारी नैरेटिव को मजबूती देते हुए, सच को तोड़-मरोड़ कर दिखाती फिल्म स्वातंत्र्यवीर सावरकर 

वर्ष 2014 के बाद, जब से लोगों के दिमाग में राष्ट्रवादी विचारधारा ज्यादा मजबूती से हावी हुई है, तब से समाज के सांस्कृतिक परिदृश्य में इसका प्रभाव भी बढ़ा है। जिसमें एक माध्यम सिनेमा भी है, जिसके माध्यम से जनता सबसे ज्यादा अपने ज्ञान को समृद्ध करने पर विश्वास करती है। अभी हाल में ही रणदीप हुड्डा की फिल्म स्वातंत्र्यवीर सावरकर रिलीज हुई है, जिसमें सावरकर को झूठे तथ्यों के साथ महान बताया गया है। 

हिंदी सिनेमा में जाति के चित्रण की समझदारी

दिवंगत सुजाता पारमिता अभिनेत्री, रंगकर्मी, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। वह राष्ट्रीय फिल्म एवं टेलीविज़न संस्थान, पुणे की स्नातक थीं। उन्होंने दिल्ली में आह्वान थियेटर समूह की स्थापना की। सुजाता विविध कलात्मक रुचियों से समृद्ध थीं और वारली लोककला पर विशेष काम किया था। यह लेख  उनकी पुस्तक 'मानसे की ज़ात' से लिया गया है। 
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