Saturday, July 27, 2024
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अभिनेता ही नहीं सामाजिक आंदोलनकारी भी थे नीलू फुले

नीलू फुले के पूर्वजों में महामना जोतीराव फुले और माता सावित्रीबाई फुले सबसे उल्लेखनीय हैं लेकिन वास्तव में नीलू फुले परिवार के उस हिस्से से ताल्लुक रखते थे जिसने आजीवन जोतीराव फुले का विरोध किया। वे सिनेमा में काम जरूर करते थे लेकिन उनका दिल समाज के लिए धड़कता था। वे आजीवन राष्ट्रसेवा दल के साथ रहे लेकिन बाद के दिनों में कुछ उपेक्षित महसूस करने लगे थे। मैं जब भी उनसे मिला या बात करता उनमें वही जज़्बा और जोश होता जो जवानी के दिनों में होता था। वे हर व्यक्ति के मददगार मित्र थे।

नीलू फुले (4 अप्रैल 1930- 13 जुलाई 2009) मराठी रंगमच और सिनेमा के एक धुरंधर अभिनेता थे। उन्होंने कई हिन्दी फिल्मों में भी काम किया। उन्होंने मराठी सिनेमा के सबसे बुरे चरित्रों को निभाकर इतनी ख्याति अर्जित की कि महिलाएँ और बच्चे उनके करीब आने से बचते थे। जाने-माने लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ सुरेश खैरनार कहते हैं कि ‘हिन्दी सिनेमा में जो दर्ज़ा प्राण और अमरीशपुरी जैसे अभिनेताओं का है उतना ही बड़ा दर्ज़ा मराठी सिनेमा में नीलू फुले को हासिल है। बिना कोई संवाद बोले भी नीलू फुले की आँखों के भाव से दर्शकों में सिहरन भर जाती थी।’

लेकिन वास्तविक जीवन में नीलू फुले अपने फिल्मी चरित्रों के ठीक विपरीत थे। यह दिग्गज अभिनेता रियल लाइफ में हीरो था और आजीवन समाज की भलाई के लिए काम करता रहा। वह महामना ज्योतिबा फुले के परिवार से ताल्लुक रखते थे। स्वयं भी वह ज्योतिबा फुले के सामाजिक अनुगामी थे और अपने समय में समाज-कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। पूरे जीवन वह राष्ट्र सेवा दल के सदस्य रहे।

नीलू फुले अपने उसूलों के पक्के और दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे। मराठी सिनेमा में राम विट्ठल नगरकर, नीलू फुले और दादा कोंडके की तिकड़ी प्रसिद्ध थी। ये लोग नक़्क़ाल के रूप में प्रसिद्ध थे। और जहां भी ये तीनों इकट्ठे होते वहाँ हँसी-ठट्ठे का वह आलम बन जाता था कि लोगों का पेट दर्द करने लगता था। रामनगर नाई जाति के थे और अभिनेता के रूप में प्रसिद्ध हो जाने के बावजूद अपना सैलून चलाते थे। नीलू फुले माली जाति से थे और दादा कोंडके कोली अथवा मछुआरा जाति से आते थे। राम नगरकर की बहुचर्चित आत्मकथा रामनगरी में इन तीनों मित्रों के संघर्षों के साथ मराठी के सांस्कृतिक इतिहास की भी गहरी झलक मिलती है।

शुरू से ही सामाजिक कार्यों से जुड़ गए थे

नीलकंठ कृष्णजी फुले उर्फ नीलू फुले का जन्म 4 अप्रैल 1930 को पूना में हुआ था। उनके पूर्वजों में महामना जोतीराव फुले और माता सावित्रीबाई फुले सबसे उल्लेखनीय हैं लेकिन वास्तव में नीलू फुले परिवार के उस हिस्से से ताल्लुक रखते थे जिसने आजीवन जोतीराव फुले का विरोध किया। राष्ट्र सेवा दल के पूर्व अध्यक्ष और जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता डॉ सुरेश खैरनार बताते हैं कि ‘नीलू जी शुरू से ही राष्ट्रसेवा दल से जुड़े हुये थे और उन्होंने समाज के लिए बहुत काम किया। वह महज अभिनेता नहीं थे बल्कि स्वतन्त्रता आंदोलन में भी उनका काम था। छात्र जीवन से ही वे इसमें शामिल हो गए थे। सामाजिक न्याय आंदोलन और बाबा साहब के चवदार तलाव आंदोलन की अगली कड़ी के रूप में ‘एक गाँव एक कुआं’ आंदोलन भी उन्होंने मजबूत किया। दलितों को सार्वजनिक कुएं से पानी भरने की इजाजत नहीं थी। बहुत सी जगहों पर आज भी है। नीलू फुले ने इसके खिलाफ बहुत काम किया। वे जोतिबा फुले से प्रभावित तो थे लेकिन चूंकि उनके दादा-परदादा ने जोतिबा फुले का विरोध किया था। उन्हें सताया था इसलिए इस बात को लेकर शर्मिंदा भी थे।’

विभिन्न भाव भंगिमा में नीलू फुले

सत्रह साल की उम्र में नीलू फुले को सशस्त्र सेना मेडिकल कॉलेज पुणे में माली की नौकरी मिली। उस समय उनकी तनख्वाह अस्सी रुपए थी। विकिपीडिया के अनुसार वे अपनी इस तनख्वाह में से दस रुपए राष्ट्र सेवा दल में दिया करते थे। नीलू फुले अपनी खुद की फूलों की नर्सरी शुरू करना चाहते थे लेकिन अर्थाभाव के कारण सफल नहीं हो सके। इस बात से वह बहुत दुखी थे कि उन्हें अपने सपनों को पूरा करने के लिए पैसे नहीं मिल रहे हैं लेकिन अपने दुख को उन्होंने पुस्तकों के अध्ययन के जरिये कम करने का प्रयास किया।

नीलू फुले गंभीर अध्येता थे। डॉ खैरनार बताते हैं कि ‘इमरजेंसी के बाद होनेवाले चुनाव के दौरान मैंने उनको अमरावती में मुख्य वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया था। वे अमरावती आए तो उनके पास मैंने दो मोटी-मोटी किताबें देखी। अपने प्रवास के दौरान ही नीलू भाऊ ने उन किताबों को पढ़ डाला।’

रंगकर्म और सिनेमा में नीलू फुले

नीलू फुले प्रारम्भ से ही रंगमंच से जुड़ गए। वे लिखने में भी रुचि रखते थे और रबीन्द्रनाथ टैगोर से काफी प्रभावित थे। बीस साल की उम्र में उन्होंने उदयन नामक एक नाटक लिखा। उन्हें 1957 के लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने एक नाटक येद्या गबलाचे काम नाही तैयार किया जिसने उन्हें बहुत लोकप्रिय बना दिया।

मराठी लोकनाटकों में नीलू फुले एक अपरिहार्य अभिनेता बन गए। उनके पहले पेशेवर नाटक कथा अकलेचा कंड्याची के दो हज़ार प्रदर्शन हुये। इसमें उनकी भूमिका इतनी जानदार थी कि उन्हें पहली मराठी फिल्म एक गाव बारा भांगड़ी (1968) मिली और उसमें उन्होंने शानदार अभिनय किया। नीलू द्वारा निभाए गए बुरे चरित्रों की ख्याति तेजी से बढ़ी और वे बड़े खलनायक बन गए। सखाराम बाइंडर में उन्होने यादगार भूमिका की। जब्बार पटेल की फिल्मों  सामना और सिंहासन के अलावा उन्होंने महेश भट्ट की फिल्म सारांश में काम किया। उनकी संवाद अदायगी और गरजती आवाज तो कमाल की थी ही लेकिन वे आँखों से जो भाव पैदा कर देते थे उससे सिनेमा हाल में दर्शक सिहर जाते थे। एक लेख में कहा गया है कि ‘वह अपनी जोरदार आवाज और संवाद अदायगी के लिए जाने जाते थे। उनकी फिल्मों में उनके संवाद मराठी फिल्म उद्योग में सबसे लोकप्रिय संवादों में से एक हैं। ऐसा कहा जाता है कि फिल्मों में खलनायक की भूमिका में उनका अभिनय इतना वास्तविक था कि वास्तविक जीवन में महिलाएं यह सोचकर उनका तिरस्कार करती थीं कि वह वास्तविक जीवन में भी वही पथभ्रष्ट व्यक्ति हैं, और यह उनके कार्यों के लिए एक बड़ी प्रशंसा थी। मई 2013 में, जब फोर्ब्स इंडिया, अमेरिकन बिजनेस मैगज़ीन फोर्ब्स के भारतीय संस्करण ने, भारतीय सिनेमा के 25 महानतम अभिनय प्रदर्शनों की घोषणा की, तो इस सूची में फिल्म सामना में हिंदूराव धोंडे पाटिल के रूप में फुले का अभिनय शामिल था।

फिल्म सामना का एक दृश्य

नीलू ने 1968 से लेकर 2010 तक लगातार काम किया। इस दौरान उन्होंने लगभग एक सौ पाँच मराठी फिल्मों में अभिनय किया। धोती लोटा और चौपाटी, दो लड़के दोनों कड़के, मेरी बीवी की शादी, भयानक, सौ दिन सास के, कसम भवानी की, नरम गरम, शमा, नागिन, चटक चांदनी, गुमनाम है कोई, जरा सी जिंदगी, वो सात दिन, कुली, मर्दानी, चलता है यार, आओ जाओ घर तुम्हारा, मशाल, सारांश, श्रद्धा, ज़ख्मी शेर, हकीकत, मां बेटी, कांच की दीवार, इंसाफ़ की आवाज़, राव साहब, गडबड घोटाला, हिरासत, मोहरे, जागो हुआ सवेरा, औरत तेरी यही कहानी, तमाचा, कब्ज़ा, प्रेम प्रतिज्ञा, ऊंच नीच बीच, घनचक्कर, दिशा, मालमसाला, प्रतिकार, घर बाजार, प्रेम साक्षी आदि उनकी हिन्दी फिल्में हैं।

सारांश में एक यादगार दृश्य

मराठी में एक गांव बड़ा भंगड़ी, मुक्कम पोस्ट ढेबेवाड़ी, गण गौलन, धरतीची लेकरेन, गनाने घुंघरू हरवले, असीच एक रात नग्या, पिंजरा डांस ट्रूप हरिया नारया जिंदाबाद, नारी, थापद्य, सामना, वरात करवा तासा भरवा, फरारी, चोरिचा मामला, सोयरिक, बान्या बापू, नाव मोथा लक्षण खोटा, जैत रे जैत, भिंगरी, मनसा पेरिस मेंधरा बारी, सर्वसाक्षी, पादराच्य सावलिट ससुर्वाशीन मराठी, सुनबाई ओटी भरुण जा, सोबती, सिंहासन, पैजेचा विदा शाक्य, हल्दीकुंकू, डेढ़ शहाणे, ऐत्य बिलावर नागोबा, फटाकड़ी, सर्वसाक्षी, भालू, कड़कलक्ष्मी, सतीची पुण्याई, सिंहासन, पातालिन, मोसंबी नारंगी, आई, लक्ष्मीची पौले, रामनगरी, गली ते दिल्ली, डॉन बाइका फजीती आइका, दिसते तसा नास्ते, भुजंग, भन्नत भानु, अपलेच डाट अपलेच ओथ, भामता, सासु वरचड जवाई, रघुमैना, थाकस महताक, श्रद्धा, बिन कामचा नवरा, काश्यला उद्याची बात, बाईको असवी आशी, बहुरूपी, गाँव तसा चांगला पान वेशिला तांगला, धगाला लागली कला पुढचा फूल, बिजली, मी चेयरमैन बोलतोय, सूत्रधार, सरजा, पूर्णसत्य, पोरीची धमाल बापची कमाल,  शुभमंगल सावधान, कलातय पान वलत नहीं, भटक भवानी, माझा पति करोड़पति, बंदीवन में हया संसारी, सागलीकड़े बोम्बाबॉम्ब, ममला पोरिंचा, मज्जच मज्जा, हमाल दे धमाल, एक रात्र मन्टरलेली, आंटीने वजवली घण्टी, कलात नकलात पाटिल रे पाटिल, धमाल बबल्या गणप्याची, सूर्योदय, हलाद रुसली कुनकू हसला, ज़ुंज़ तुझी मांझी, ठनठन गोपाल, एक होता विदुषक, धरपकड़, पैंजन, लिमिटेड मनुस्की, प्रतिदाव, दुर्गा आली घर, आशी असवी सासु, पैज लगनाची, ज़ांज़ावत, पंढर, सातच्या आत घरत, कदाचित, गाव तसा चांगला, गोष्टा छोटी और लाडी गोदी आदि हैं। इसमें उन्होंने अंतिम भूमिका निभाई।

हरिया नरया जिंदाबाद, इसमें नीलू फुले और राम नगरकर दोनों ने काम किया।

सिनेमा में नीलू फुले के योगदान के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार , महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार (तीन फिल्मों के लिए तीन बार) जयंतराव तिलक मेमोरियल लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड मिला।

राम नगरकर की नज़र में नीलू फुले

मराठी सिनेमा में नीलू फुले, दादा कोंडके और राम नगरकर की तिकड़ी बहुत प्रसिद्ध थी। लोग इन्हें नक़्क़ाल कहते थे। जहां भी जुट जाते वहाँ ठहाके थमते ही न थे। राम नगरकर और नीलू फुले ने कई फिल्मों में साथ काम किया। उनकी दोस्ती आजीवन चलती रही। नीलू फुले ने राम नगरकर के आत्मकथात्मक उपन्यास रामनगरी पर आधारित फिल्म में अभिनय भी किया था। राम नगरकर ने अपनी किताब में नीलू फुले को एक दृढ़ चरित्र, समाजचेता और स्वाभिमानी के रूप में चित्रित किया है। एक प्रसंग पुणे में राम नगरकर के सैलून से जुड़ा है। वे लिखते हैं —

नीलू फुले के नजदीकी मित्र और अभिनेता राम नगरकर लिखित आत्मकथा रामनगरी

‘एक दिन नीलू भाऊ की चिट्ठी आयी कि तिलक रोड पर एक दुकान हूँ। मैं तत्काल चल पड़ा। जगह देखी। पसन्द आयी, पर दुकान का मालिक और मालिक द्वारा मांगी गयी रक़म नहीं पोसा रही थी। जगह छोड़नी नहीं है, इसलिए कुछ दिन रुका। अन्त में, उसकी मर्जी के अनुसार पैसे दिये और दुकान अपने कब्जे में ली।

‘जितने पैसे थे, दुकान खरीदने में लग गये। अब दुकान खड़ी करने के लिए पैसे कहाँ से आते? आठ महीने सिर्फ़ किराया दिया। दुकान बन्द थी। पैसे कैसे इकट्ठे किये जायें, यह सवाल था ही! साथ ही, दूकान एक-दम शानदार होनी चाहिए, यह बात भी दिमाग़ में पक्की बैठ चुकी थी। मैंने विचार किया। बीस लोगों के नाम तैयार किये। सब सेवादल के लोग। हरेक आदमी पाँच सौ दे—यह बात लीलाधर से कहीं। नीलू को भी बताई। वह और मैं आवाबेन देशपांडे के पास गये। उसे बताया। देवी ने झट से पाँच सौ रुपये निकालकर मुहूर्त किया। पैसे जमा करने में मैं, नीलू, दादा बोरकर इसी तरह घूमते रहे। कहीं लोग ‘तंगी है, फिर…. फिर…’कह रहे थे, कहीं तुरन्त दे देते। काफ़ी सफलता भी मिली। लीलाधर हेगड़े और मैं, हरि भाऊ गद्रे के पास गये। इस उद्देश्य से कि महाराष्ट्र बैंक कुछ कर्ज़ दे और वह उद्देश्य सफल हुआ। महाराष्ट्र बैंक ने एक साथ पाँच हजार का कर्ज देकर एक अर्थ में सहारा ही दिया और मैं दूकान खड़ी करने की तैयारी में लग गया।

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पन्द्रह दिन में सारी दुकान सज गयी। खामोलकर आर्किटेक्ट ने दूकान शानदार ढंग से सजायी।  सयाजी लहाने ने इलैक्ट्रिक की जिम्मेदारी संभाल ली। दुकान एयर कंडिशन बनाई। नजर लग जाये,  दुकान ऐसी सज गयी। दुकान सजे एक हफ़्ता हो गया, पर पूजा के पैसे नहीं थे। अब किस से किस मुंह से माँगते! दूसरे, बिना पूजा किये दुकान खोलना भी ठीक नही था! एक बार मन में आया कि नीलूभाऊ से माँगा जाये, परन्तु उसकी और उसके घर की स्थिति मुझे मालूम थी। यह दुकान खड़ी करते समय मैं उसी के घर रुका था। खाना भी वहीं। इसलिए घर की हालत मुझे मालूम थी।

उसकी माँ साक्षात देवी! मेरी फ़जीहत उसे मालूम थी। मैं उसके घर में दो-तीन महीनों तक रहा। मैं नीलूभाऊ से कहता कि तू खाने के पैसे ले ले, पर वह न लेता। एक बार तो गुस्से में यहाँ तक कह डाला कि मैं दूसरी व्यवस्था करता हूँ!

महाराष्ट्र में हर वर्ष अकाल तो पड़ता ही है। उस समय भी जोरदार अकाल पड़ा था। सेवादल ने पुणे से अनाज जमा करके अकालग्रस्त इलाक़ों में भेजने की बात सोची। नीलूभाऊ ने इसमें विशेष पहल की। अनाज एकत्र होने लगा। उसे अच्छा सहयोग भी मिलने लगा। पाँच-छह बोरी अनाज एकत्र हुआ। यह सब नीलूभाऊ के घर रखा गया।

घर में अनाज का दाना न था। गाँठ में पैसे नहीं। खानेवाले मेरे समेत बारह-तेरह। ऐसे में क्या किया जाये? यह समस्या नीलू की माँ के सामने। दरवाज़े पर अनाज के बोरे भरे पड़े थे। उन्हें देखकर वह बोली, “नीलू, कुछ पैसे हैं क्या?”

“पगार तुम्हें दे देता हूँ अब पैसे कहाँ से आयेंगे?” नीलू ने कहा।

“अरे, घर में अनाज का दाना नहीं है। क्या करूँ? बोल।”

“पास-पड़ोस से ले लो।” नीलू ने सुझाया ।

“ले लेती, पर पहला लौटाने से पहले, अब कौन देगा?”

“तू अपना देख ले, मैं राम के साथ जा रहा हूँ !

ऐसा कहकर नीलूभाऊ घर बाहर निकला। जहाँ मैं खड़ा था वहाँ पहुँचा। माँ-बेटे की बात मैंने सुन ली थी। हम चलने ही वाले थे, तभी माँ ने फिर पुकारा। नीलू फिर पीछे मुड़ा। मैं भी दो क़दम पीछे आ गया।

“क्या है ?” उसने पूछा ।

“अरी, मैंने अब भी बताया न, कि मेरे पास पैसे नहीं हैं।”

“अच्छा, ये बता, ये बोरे कब जाने वाले हैं?”

‘चार-पाँच दिन में जानेवाले हैं, पर तू क्यों पूछ रही है?”

“दो-चार दिन बाद भेजना है न, तो फिर आज के लिए में इसमें अनाज ले लेती हूँ। कल वापस डाल दूंगी।”

माँ के इतना कहते ही नीलू भड़क उठा, “सारे भूखों मर जायें, परवाह नहीं, पर इन बोरों को छूना मत!” इतना कहकर वह बाहर आया। मैं सुन रहा था। मुझसे भी ग़लती हुई। इतना सारा दिखने के बावजूद, दुकान के हजारों रुपये जेब में होते हुए भी, मैं मजे से मुफ्त में खा रहा था! वह भी इतनी तंगी में! मुझे बड़ी शर्म आयी अपने-आप पर।

नीलू बाहर आया। ऐसे जैसे भीतर घर में कुछ हुआ ही नहीं। “चलो !” उसने कहा। मैंने लाख उसके हाथों में नोट ठूंसने की कोशिश की, पर वह लेने को तैयार नहीं। तब मैंने आवाज ऊंची करते हुए कहा, “ये यदि नहीं लेगा तो मैं यहाँ नहीं रहूँगा।”

नीलू फुले और दादा कोंडके

तब नीलू ने बड़ी मुश्किल से पैसे लिये। ऐसे नीलू से किस मुंह से पूजा के लिए पैसे माँगता? बग़ल के फूल-वाले को हमारी भाग-दौड़ का पता चला। उसने बिना कहे हमारी आवश्यकता पूरी की और दुकान की पूजा बड़े ठाठ से हुई। नीलू की माँ ने अपने घर की तरह सारा कुछ संभाला। अन्त में दुकान किसी तरह दत्तू के हवाले करके नवीं पेठ में उसे एक कमरा दिलवाया और इत्मीनान से बम्बई लौट आया।’

नीलू फुले को याद करते हुये डॉ सुरेश खैरनार कहते हैं कि ‘वे सिनेमा में काम जरूर करते थे लेकिन उनका दिल समाज के लिए धड़कता था। वे आजीवन राष्ट्रसेवा दल के साथ रहे लेकिन बाद के दिनों में कुछ उपेक्षित महसूस करने लगे थे। मैं जब भी उनसे मिला या बात करता उनमें वही जज़्बा और जोश होता जो जवानी के दिनों में होता था। वे हर व्यक्ति के मददगार मित्र थे।

ग्रास नली में कैंसर हो जाने के कारण 13 जुलाई 2009 को नीलू फुले ने इस संसार को अलविदा कहा।

रामजी यादव कहानीकार और गाँव के लोग के संपादक हैं।

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