महान निर्माता निर्देशक और अभिनेता मनोज कुमार का 87 वर्ष की अवस्था में निधन हो गया। वह पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे। मनोज कुमार न केवल एक प्रतिष्ठित अभिनेता थे अपितु उन्होंने कुछ ऐसी फिल्मों का निर्माण भी किया जो भारतीय सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर हैं। भारतीय जनमानस में किसान और जवान के प्रश्नों को जिस कलात्मकता से उन्होंने उठाया वह काबिले-तारीफ़ है।
मनोज कुमार उस पीढ़ी से आते हैं जिसने विभाजन की त्रासदी को झेला लेकिन अपने व्यक्तित्व पर कभी भी घृणा को हावी नहीं होने दिया। राज कपूर, दिलीप कुमार, देवानंद, बलराज साहनी और बंबइया सिनेमा के अनेकों बड़े नामों की तरह उन्होंने भी भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब को ही आगे बढ़ाया और अपने देश की संस्कृति और हमारे स्वाधीनता संग्राम पर गर्व करना सिखाया।
मनोज कुमार का जन्म 24 जनवरी, 1937 को अविभाजित भारत के एबटाबाद (अब पाकिस्तान) में हुआ। उनका पारिवारिक नाम हरिकृष्ण गिरी गोस्वामी था। देश विभाजन के कारण उन्हें अपने परिवार के साथ दिल्ली पलायन करना पड़ा। दिल्ली के हिन्दू कालेज से बी ए करने के बाद उन्होंने फिल्मों में अपना भाग्य आजमाया।
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हिन्दी सिनेमा में मनोज कुमार लंबी पारी
सन 1957 में उन्होंने फिल्म फैशन के साथ अपने अभिनय की शुरुआत की लेकिन उन्हें कभी कोई बेहतरीन भूमिका नहीं मिल पाई। 1961 में कांच की गुड़िया में उन्हें मुख्य भूमिका मिली जिसमें शैलेन्द्र द्वारा रचित और मुकेश तथा आशा भोंसले द्वारा गया गीत अविस्मरणीय हो गया — साथ हो तुम और रात जवान, नींद किसे अब चैन कहाँ।
इस फिल्म के बाद उन्हें बहुत सी फिल्में मिलीं लेकिन कोई भी उनका भाग्य नहीं बदल पाई, लेकिन 1962 मे आई फिल्म हरियाली और रास्ता ने उनको पहली सफलता दिलाई और फिर इसके बाद उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। दर्शकों को माला सिन्हा के साथ उनकी जोड़ी बहुत पसंद आई। इस फिल्म के सभी गीत सुपरहिट थे। शंकर जयकिशन के संगीत में मुकेश के गीत लोगों को बहुत पसंद आए। लता-मुकेश द्वारा गाये बोल मेरी तकदीर में क्या है, मेरे हमसफ़र अब तो बता, जीवन के दो पहलू हैं, हरियाली और रास्ता, और अल्लाह जाने क्या होगा आगे भी बहुत लोकप्रिय हुआ।
मुकेश की आवाज की गंभीरता अगर राज कपूर के बाद किसी पर जंची तो वह थे मनोज कुमार। इस फिल्म में मुकेश के दो गीत, तेरी याद दिल से भुलाने चला हूँ, और लाखों तारे आसमान में, एक मगर ढूँढे न मिला, देख के दुनिया की दीवाली, दिल मेरा चुपचाप जला आज भी हमारे दिल के करीब हैं।
इसी वर्ष वैजयंतीमाला के साथ उनकी फिल्म डाक्टर विद्या भी हिट रही। शादी (1962) और गृहस्थी (1963) फिल्में भी सफल रहीं लेकिन ऐसी नहीं कि लोग उन्हें आज तक याद रखें। 1964 मे राज खोसला द्वारा निर्देशित फिल्म वो कौन थी उनके लिए कामयाबी के नए मुकाम लेकर आई।
यह फिल्म रहस्य-रोमांच से भरी थी और मनोज कुमार के साथ उनकी लीड हेरोइन के तौर पर साधना थी, जिनकी खूबसूरती ने इस फिल्म में चार चाँद लगा दिए। इस फिल्म के गीत लिखे थे राजा मेहंदी अली खान ने और संगीत दिया था मदन मोहन ने। मजेदार बात यह कि फिल्म के अधिकांश गीत लता मंगेशकर ने साधना के लिए गाए और वे सभी सुपरहिट रहे। इस फिल्म में लता मंगेशकर का गीत लग जा गले आज भी सुना जाता है। इसके अलावा नैना बरसे रिमझिम रिमझिम, तथा जो हमने दास्ताँ अपनी सुनाई, आप क्यों रोए हैं।

शहीद (1965) में मुख्य किरदार में मनोज कुमार, कामिनी कौशल और प्राण हैं। यह देशभक्ति पर आधारित उनकी पहली फिल्म थी। उसके बाद तो उनकी ऐसी फिल्में आती गईं कि वह भारत कुमार के नाम से ही जाने जाने लगे। 1965 की यह सबसे हिट फिल्म थी। अमर शहीदों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की वीरता और बलिदान पर आधारित इस फिल्म ने देशभर में लोगों को इन महान क्रांतिकारियों के दर्शन और वीरता की याद दिलाई। इस फिल्म का गीत मेरा रंग दे बसंती चोला आज भी दिलों की धड़कन बढ़ा देता है।
इस फिल्म के कुछ अन्य गीत भी बहुत पसंद किये गए। मोहम्मद रफी का गाया ऐ वतन, ऐ वतन हमको तेरी कसम, तेरी राहों पर, जान तक लुटा जाएंगे, फूल क्या चीज है तेरे कदमों पे हम, भेंट अपने सर की चढ़ा जाएंगे। भगत सिंह की अमर पक्तियों सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे हैं पर भी एक गीत है। लता मंगेशकर का गाया, जोगी हम तो लूट गए तेरे प्यार मे हाये तुझको खबर कब होगी। इस फिल्म का गीत-संगीत प्रेम धवन का था।
इस फिल्म पर शोध के लिए किए गए परिश्रम पर मनोज कुमार ने एक बातचीत में बताया था कि इस फिल्म के लिए उन्होंने चार सालों तक भगत सिंह के बारे में विभिन्न पुस्तकालयों के चक्कर लगाए। फिल्म की शूटिंग 1963 से शुरू हुई और इस पूरा होते-होते 1965 आ गया।
शहीद के बाद, मनोज कुमार की अगली हिट फिल्म थी हिमालय की गोद में जिसने उन्हें एक भरोसेमंद स्टार बना दिया। यह एक रोमांटिक फिल्म थी जिसमें मनोज कुमार के साथ माला सिन्हा थीं। यह फिल्म साठ के दशक की सबसे हिट फिल्म मानी जाती है। फिल्म में मुकेश का गाया, चाँद सी महबूबा हो मेरी कब, ऐसा मैंने सोचा था। हां, तुम बिल्कुल वैसी हो, जैसा मैंने सोचा था आज भी सच्चे प्यार की अभिव्यक्ति को परिभाषित करता दिखाई देता है। मुकेश ही का गाया, मैं तो एक ख्वाब हूँ, इस ख्वाब से तू प्यार न कर बेहद गंभीर गीत है, लेकिन लता मंगेशकर का गया और माला सिन्हा पर फिल्माया गया नटखट गीत आज भी शादियों के अवसर पर महिला संगीत में खूब चलता है, ‘ कंकड़िया मार के जगाया, तू मेरे सपने में आया, बालमा, तू बड़ा वो है।
इसी वर्ष अभिनेत्री नंदा के साथ आई उनकी रहस्य-रोमांच से भरी फिल्म गुमनाम भी बेहद सफल रही जिसके लिए अभिनेता महमूद को सर्वश्रेष्ठ सहायक कलाकार का सम्मान मिला। 1966 में आशा पारेख के साथ राज खोसला निर्देशित दो बदन ने मनोज कुमार की अभिनय शैली को और निखारा। शकील बदायूँनी के बेहद गंभीर गीतों को रवि के संगीत ने और कर्णप्रिय बनाया, लिहाजा फिल्म सुपरहिट हुई। मोहम्मद रफी के गाए भरी दुनिया में आखिर दिल को समझाने कहाँ जाएँ, या नसीब में जिसके जो लिखा था बहुत चले लेकिन इसके दो गीत रहा गर्दिशों में हरदम मेरे इश्क का सितारा और आशा भोसले का जब चली ठंडी हवा, जब उठी काली घटा, मुझको ऐ जाने वफ़ा तुम याद आए’ आज भी सुना जाता है। इस फिल्म में लता मंगेशकर का गया, लो आ गई, उनकी याद, वो नहींआए, भी एक बहुत गंभीर गीत है।
सन 1967 में आई फिल्म अनीता राज खोसला की सस्पेन्स थ्रिलर थी। यह फिल्म भी राज खोसला द्वारा निर्देशित थी जो ऐसी फिल्में बना रहे थे और वो कौन थी के बाद मनोज कुमार के साथ दूसरी थ्रिलर फिल्म थी। अनीता में साधना उनकी अभिनेत्री थी। हालांकि इस फिल्म को आज कोई याद नहीं करता लेकिन मनोज कुमार के लिए मुकेश के गाए दो गीत आज भी अमर हैं। गोरे-गोरे चाँद से मुख पर काली-काली आंखे हैं और तुम बिन जीवन कैसे बीता, पूछो मेरे दिल से।
सन 1967 में ही आई पत्थर के सनम में मनोज कुमार के साथ दो हीरोइन मुख्य भूमिका में थीं। ये थीं वहीदा रहमान और मुमताज। यह फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर बहुत सफल रही। गुलशन नंदा द्वारा लिखित इस फिल्म में मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा रचित गीत बहुत कर्णप्रिय हुए। मुकेश और लता मंगेशकर का महबूब मेरे महबूब मेरे, तू है तो दुनिया कितनी हंसीं है, जो तू नहीं तो कुछ भी नहीं है, अत्यंत लोकप्रिय हुआ। इसके अलावा मोहम्मद रफी का गाया टाइटल सॉन्ग पत्थर के सनम भी लोगों को बहुत पसंद आया। हल्के-फुल्के गीतों में मुकेश का तौबा ये मतवाली चाल और लता मंगेशकर का कोई नहीं है, फिर भी है मुझको न जाने किसका इंतज़ार गीत भी पसंद किये गए।
सन 1968 में मनोज कुमार अपने सहयोगी अभिनेताओं वहीदा रहमान, राज कुमार और बलराज साहनी के साथ फिल्म नील कमल में दिखाई दिए। राज कपूर की महत्वाकांक्षी फिल्म मेरा नाम जोकर में भी उन्होंने एक छोटी से भूमिका निभाई।
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किसानों, जवानों और भारत की बात करनेवाला निर्देशक
मनोज कुमार ने निर्माता-निर्देशन के तौर पर 1967 में फिल्म उपकार के जरिए प्रवेश किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के प्रसिद्ध नारे जय जवान जय किसान से प्रभावित होकर मनोज कुमार ने सिनेमा के परदे पर एक बेहतरीन फिल्म तैयार की। देशभक्ति के सरोकारों से भरपूर इस फिल्म में अंधाधुंध शहरीकरण और शिक्षा प्रणाली के चलते अपनों से दूर होने या ग्रामीण समाज को हेय दृष्टि से देखने वालों पर कठोर व्यंग्य है।
फिल्म का कथानक और संगीत सभी बेहद सशक्त था। खेतों में हल चलाते मेरे देश की धरती, सोना उगले, उगले हीरे मोती गाते मनोज कुमार हकीकत में भारत पुत्र बन चुके थे। उनकी भाव-भंगिमा में गाँव के युवा का भोलापन था जिसकी सीधी-सच्ची बातें हमारे दिलों को सीधे प्रभावित करती थीं। इस फिल्म ने वर्षों से खलनायक की भूमिका कर रहे प्राण को एक नई जीवंतता प्रदान कर दी। ऐसी प्रभावी भूमिका कि प्राण को मन्ना डे द्वारा गाए कसमें वादे प्यार वफ़ा सब, बाते हैं बातों का क्या को परदे पर गाते देख सभी अपने को जुड़ा महसूस करते हैं।

हरियाणा की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म का एक और गीत दीवानों से ये मत पूछो, दीवानों पे क्या गुजरी है बहुत लोकप्रिय हुआ। इस फिल्म को 6 फिल्मफेयर पुरुस्कार मिले जिनमें मनोज कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए और प्राण को सहायक अभिनेता के लिए चयनित किया गया। मलंग चाचा के किरदार से प्राण को पहली बार एक सकारात्मक भूमिका में इतनी सफलता मिली कि आने वाले समय में वह एक चरित्र अभिनेता के तौर पर ही अधिक नजर आए।
उपकार की अभूतपूर्व सफलता के बाद मनोज कुमार ने 1970 मे एक और सशक्त फिल्म बनाई। यह थी पूरब और पश्चिम। हमारी संस्कृति पर पड़ रहे पश्चिम के असर को मनोज कुमार ने अपनी फिल्मों के जरिए दिखाने की कोशिश की, हालांकि एक तरीके से तो यह अति सामान्यीकरण पर आधारित बात होती है कि कोई गोरी चमड़ी वाली लड़की केवल सिगरेट और शराब ही पीती होगी और अपने माँ-बाप का सम्मान नहीं करती होगी। असल में भारतीय समाज में बढ़ते अपराधीकरण और लगातार टूटते पारिवारिक रिश्तों के लिए हम किसे दोष दें। हमें अपनी गलतियों को छुपाने के लिए कोई खलनायक चाहिए होता है और पूरब और पश्चिम के जरिए मनोज कुमार ने यह बताया कि पश्चिम की नकल के कारण ही हमारे परिवार टूट रहे हैं और अपसंस्कृति पनप रही है। यह बात पूरी तरह से सत्य नहीं है, लेकिन उनका यह सामान्यीकरण जनता को बहुत अच्छा लगा।
असल में उस दौर की फिल्मों में एक ईमानदारी थी कि कलाकार बेहद मेहनत करते थे और गीत-संगीत बहुत सशक्त होता था। मनोज कुमार की फिल्मों में संगीत एक बहुत महत्वपूर्ण पक्ष था। इस फिल्म में जब मनोज कुमार भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ गाते हैं तो हकीकत में आपको भारतीय होने पर गर्व महसूस होता है।
फिल्म के गाने बहुत ही खूबसूरत हैं। मुकेश का गाया, कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे, तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे, तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा, तुम्हारे लिए आज भी बहुत सुना जाता है। लता मंगेशकर का गाया, पुरुआ सुहानी आई रे भी बहुत कर्णप्रिय गीत है। इस फिल्म के गीत-संगीत बहुत लोकप्रिय हुए और फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर कई रिकार्ड बनाए।
सन 1972 में बनी फिल्म शोर एक बेहद संवेदनशील फिल्म थी। मानवीय संवेदना पर आधारित शोर हमें उनलोगों की भावनाओं को समझाने की कोशिश करती है जो सुन नहीं सकते। फिल्म का संगीत अत्यंत कर्णप्रिय था और इसमें मनोज कुमार के साथ जया भादुडी, नन्दा और कामिनी कौशल ने काम किया था। इस फिल्म की सफलता के साथ ही मनोज कुमार का बॉक्स ऑफिस पर कमाल जारी रहा। इस फिल्म का संतोष आनंद द्वारा रचित गीत एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है, जिंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है आज भी सिनेमा की सबसे बेहतरीन रचनाओं में गिना जाता है। महेंद्र कपूर द्वारा गए, जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह शाम और लता मंगेशकर मुकेश का पानी रे पाने तेरा रंग कैसा भी बहुत लोकप्रिय हुए।

सफलताओं की सीढ़ी चढ़ते मनोज कुमार ने अब युवाओं और मध्यवर्ग की समस्याओं की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया और फिर 1974 में आई उनकी फिल्म रोटी कपड़ा और मकान। यह एक मल्टी स्टारर फिल्म थी जिसमें उनके साथ शशि कपूर, अमिताभ बच्चन, जीनत अमान और मौसमी चटर्जी भी थे। यह फिल्म भी अपने समय की सुपरहिट फिल्मों में गिनी जाती है। इस फिल्म के गीत भी संतोष आनंद ने लिखे और वे सभी बहुत लोकप्रिय हुए। इमर्जेंसी का दौर था और लोग मंहगाई मार गई गा रहे थे। जीनत पर फिल्माया गीत, हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी, मुझे पल पल है तड़पाये, तेरी दो टकिया की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए ने तो लोकप्रियता के सारे रिकार्ड तोड़ दिए। इस फिल्म में संगीत लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल का था और संतोष आनंद जी का एक और गीत जिसे लता मंगेशकर और मुकेश ने गाया और परदे पर मनोज कुमार पर फिल्माया गया था वह आज भी अपने बोलों के लिए जाना जाता है। मै ना भूलूँगा /समय की धारा में, उमर बह जानी है/जो घड़ी जी लेंगे, वही रह जानी है/मैं बन जाऊँ साँस आखिरी, तू जीवन बन जा/जीवन से साँसों का रिश्ता, मैं ना भूलूंगी ….मैं ना भूलूँगा…
रोटी कपड़ा और मकान के बाद भी मनोज कुमार ने संन्यासी, दस नंबरी आदि फिल्मों में काम किया। इनके बहुत से गाने हिट भी हुए लेकिन कोई भी ऐसी यादगर फिल्म नहीं रही जिसे याद किया जा सके।
उनके जीवन की शायद सबसे महत्वपूर्ण फिल्म 1981 में आई क्रांति और इसे भी उन्होंने मल्टी स्टारर ही बनाया। इस फिल्म का कथानक भी देशभक्ति पर ही था। मनोज कुमार दिलीप कुमार से बहुत प्रभावित थे और क्रांति ने उनका यह सपना पूरा कर दिया। इस फिल्म में उनके साथ दिलीप कुमार के अलावा, शत्रुघ्न सिन्हा, शशि कपूर, प्रेम चोपड़ा, हेमा मालिनी, परवीन बाबी, सारिका और निरूपा राय भी थीं। फिल्म का संगीत लक्ष्मीकान्त प्यारे लाल का था और कहानी सलीम जावेद की। इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस के सारे पुराने रिकार्ड तोड़ दिए। फिल्म के गाने बेहद लोकप्रिय हुए। इस फिल्म के जरिए बड़े परदे पर दिलीप कुमार ने चार साल के बाद वापसी की।
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दिलीप कुमार से प्रभावित होकर बदला था नाम
मनोज कुमार और उनकी पीढ़ी के अभिनेता दिलीप कुमार के अभिनय और राज कपूर के निर्देशन से बहुत प्रभावित थे। 1949 में आई फिल्म शबनम में दिलीप कुमार और कामिनी मुख्य भूमिका थे। दिलीप कुमार के अभिनय से हरिकृष्ण गोस्वामी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना नाम ही बदल कर मनोज कुमार रख दिया। वर्षों से दिलीप साहब के साथ काम करने का उनका सपना फिल्म क्रांति से पूरा हुआ जब उन्होंने दिलीप कुमार के साथ अन्य बड़े-बड़े कलाकारों को निर्देशित किया। सलीम-जावेद द्वारा लिखित इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर तूफान खड़ा कर दिया था। दिलीप कुमार इस फिल्म में अपने चार वर्षों के ‘अवकाश’ के बाद वापस आए थे।
इस फिल्म को भारतीय सिनेमा की 10 सबसे बड़ी ‘पैसा कमाने वाली’ फिल्मों में शुमार किया जाता है। लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल के संगीत से सजे इस फिल्म के कुछ गाने जबरदस्त हिट हुए। मनोज कुमार अपने लिए अमर गायक मुकेश की आवाज लेते थे और विकल्प के तौर पर उनके लिए महेंद्र कपूर ने भी बेहद कर्णप्रिय नगमें गाए हैं। क्रांति के समय मुकेश नहीं थे लेकिन उनकी याद में मनोज कुमार ने उनके बेटे नितिन मुकेश को लिया और उसका लता मंगेशकर के साथ गाना, जिंदगी की न टूटे लड़ी, प्यार कर ले घड़ी तो घड़ी बहुत प्रसिद्ध हुआ।
लेकिन इस फिल्म का सबसे पॉपुलर गीत हुआ चना जोर गरम जिसमें वह संगीत के दिग्गजों लता मंगेशकर, किशोर कुमार, मोहम्मद रफी, महेंद्र कपूर और नए गायकों शैलेन्द्र सिंह और नितिन मुकेश को एक जगह ला पाए। यह एक अभूतपूर्व प्रयास था और बेहद सफल भी रहा। देशभक्ति से सरोबार क्रांति ने बॉक्स ऑफिस पर क्रांति ला दी। फरवरी 1981 में आई क्रांति मनोज कुमार के जीवन की आखिरी सुपरहिट फिल्म साबित हुई।
इसके बाद उन्होंने कुछ और फिल्में बनाई लेकिन धीरे-धीरे बंबई के सिनेमा में नए कलाकारों और निर्देशकों की भीड़ में वह कुछ कर नहीं पाए। 1980 से लेकर 2010 का दौर लगभग युवाओं को लुभाने का दौर रहा है। वह दौर अभी भी नहीं गया लेकिन देशभक्ति और किसान का उनका फॉर्मूला शायद पुराना हो गया।

सन 1987 में उनकी फिल्म कलयुग और रामायण, 1989 में क्लर्क और 1999 में जय हिन्द बुरी तरह से पिट गई। 1995 में बतौर ऐक्टर वह एक फिल्म मैदान ए जंग में आए लेकिन कुछ नहीं कर पाए और अभिनेता के तौर पर यही फिल्म उनके जीवन की आखिरी फिल्म साबित हुई।
बंबई नगरी में हरेक निर्माता की तरह उन्होंने भी अपने बेटे कुणाल गोस्वामी को अभिनेता के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की और फिल्म जय हिन्द का निर्माण किया लेकिन उनकी यह ख़्वाहिश पूरी नहीं हो पाई क्योंकि फिल्म ऐसी पिटी कि वह दोबारा फिर से फिल्म बनाने की हिम्मत नहीं कर सके। 2004 तक उन्होंने फिल्मी दुनिया से खुद को लगभग अलग-थलग कर लिया था।
भारतीय सिनेमा में अपने शानदार योगदान के लिए मनोज कुमार ने कई अवॉर्ड अपने नाम किए हैं। भारत सरकार ने उन्हें 1992 में पद्मश्री और 2016 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया। इसके अलावा, उन्हें 7 फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिले, जिनमें 1968 में उपकार के लिए बेस्ट फिल्म, बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट स्टोरी और बेस्ट डायलॉग के अवॉर्ड शामिल हैं। उन्हें एक नेशनल अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया है।
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किसानों और जवानों का चितेरा अंतिम दिनों में हिन्दुत्व की चपेट में
मनोज कुमार ने सिनेमा मे भारतीय संस्कृति और विशेषकर किसान और जवान के प्रश्नों को बहुत संजीदगी और ईमानदारी से प्रस्तुत किया। उनकी कहानियों मे एक अपनापन था जिससे लोग उस तरफ खिंच आते थे। पिछले कुछ समय से हिन्दुत्व के प्रति मुंबइया सिनेमा का रुझान बढ़ा था और मनोज कुमार इससे कोई अलग नहीं थे। हालांकि उन्होंने कभी भी कोई नफरती बयान नहीं दिया और वह पार्टी सेमिनारों या सम्मेलनों में भी नहीं जाते थे।
यह बात सोचने वाली है कि मनोज कुमार ने जिस किसान और जवान को फोकस कर अपने सिनेमा का हिस्सा बनाया वर्तमान में दोनों परेशान हैं। आज खेती-किसानी पर हमला है और यह हमला कोई जरूरी नहीं कि गोरों की तरफ से आ रहा है। भारत में स्थित बड़े पूँजीपतियों की नजर भी किसान की जमीन पर लगी हुई है। जवान तो सीमा पर लड़ रहा है अपने देश की भूमि बचाने के लिए लेकिन उसके अपने खेत बिक रहे हैं और उसके घरवाले अपने खेतों को बचाने मे असमर्थ हैं।
शायद बढ़ती उम्र के चलते मनोज कुमार का ध्यान किसान और जवान की दयनीय स्थिति पर नहीं गया हो लेकिन उपकार में भारत का छोटा भाई शहर जाकर ‘शिक्षा’ लेकर जमीन के बंटवारे की बात करता है वहीं भारत सीमा पर अपने देश के लिए अपनी जवानी कुर्बान करने को तैयार है। एक कलाकार की कला ही उसका अंतिम सत्य है। मनोज कुमार ने चाहे आज किसानों या जवानों की हालत पर कुछ न कहा लेकिन उनकी उपकार आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी पहले थी। मनोज कुमार अपने सिनेमा के जरिए हमेशा हमारे दिलों में बसे रहेंगे। हमारी श्रद्धांजलि।