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बड़ी संख्या के बावजूद श्रम अधिकारों का हिस्सा नहीं बन पा रहे गिग वर्कर

वाराणसी। ‘कड़ी धूप, बारिश और कड़ाके की ठंड में सामान पहुँचाने के बावजूद प्राइवेट कम्पनियाँ छोटी-छोटी गलतियों पर हमारा आईडी ब्लॉक कर देती हैं, जो एक जटिल और बड़ी समस्या है। इन कम्पनियों की कोई मानवीय सम्वेदना नहीं होती। डिलीवरी के दौरान हमें टेलीकॉलिंग का भी काम करना होता है। कई बार ऐसे ग्राहक मिल […]

वाराणसी। ‘कड़ी धूप, बारिश और कड़ाके की ठंड में सामान पहुँचाने के बावजूद प्राइवेट कम्पनियाँ छोटी-छोटी गलतियों पर हमारा आईडी ब्लॉक कर देती हैं, जो एक जटिल और बड़ी समस्या है। इन कम्पनियों की कोई मानवीय सम्वेदना नहीं होती। डिलीवरी के दौरान हमें टेलीकॉलिंग का भी काम करना होता है। कई बार ऐसे ग्राहक मिल जाते हैं जो बिलकुल बेतुकी बातें करते हैं। इनकी शिकायतों पर भी आईडी ब्लॉक कर दी जाती है। फिर आईडी को खुलवाने में पैसे लगते हैं। डिलीवरी के दौरान कभी-कभी कुछ ग्राहक पैसा नहीं देने की भी धमकी देते हैं। उनसे पैसा लेने में हमें काफी समस्याएँ होती हैं। पुलिस की सहायता भी नहीं ले सकते क्योंकि उससे नौकरी प्रभावित होगी और हमारे कैरेक्टर पर भी सवाल उठ जाते हैं।’

अधिकतर डिलीवरी ब्वॉय यानी गिग (ग्रो इन ग्लोबल) वर्करों की यही समस्या है। नाम न छापने की शर्त पर फ्लिपकार्ट के 22 वर्षीय एक गिग वर्कर ने आगे बताया कि ‘हाल ही में मैंने एक पैकेट डिलेवरी किया। उसके पहले ही ग्राहक ने उस ऑर्डर को कैंसिल कर दिया। कम्पनी की तकनीकि दिक्कत के कारण उस ऑर्डर का कैंसिलेशन मैसेज नहीं आया। पैकेट डिलीवरी करने के कुछ घंटे बाद मालूम चला कि इस सामान का पैसा ग्राहक को वापस चला गया है। अगले दिन जब मैं वह सामान वापस लेने ग्राहक के पास गया तो उसने गाँव चले जाने की बात कह दी। पाँच या छह दिन बात जब मैं दोबारा ग्राहक के किराए के मकान पर पहुँचा तो कुछ दूरी से ही उसे फोन किया। संयोग से वह छत पर ही था, मुझे देखकर बरामदे में छिप गया। मैं तुरंत उसके कमरे पर गया तो उसने कुछ लड़कों को इकट्ठा कर पैसा न देने की बात करने लगा। 15-20 मिनट तक चली बहसबाजी के बाद उसने अपना मोबाइल चेक कराया। कम्पनी द्वारा काफी दिन पहले पैसा वापस आने का मैसेज उसके मोबाइल में दिखा, तब जाकर उसने सामान मुझे दिया। उस सामान को उसने पैकेट खोलकर इस्तेमाल भी कर लिया था।’

कमीशन बढ़वाने के लिए करना पड़ता है धरना

अर्बन कम्पनी में काम करने वाली मुम्बई की रानी (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि ‘2020 में हम लोगों ने एक संस्था के बैनर तले अपने विभिन्न माँगों के समर्थन में हड़ताल किया था। अर्बन कम्पनी वाले ग्राहकों के लिए पैसे तो बढ़ा दिए गए लेकिन हमारा कमीशन नहीं बढ़ा रहे थे। यह साल-दो साल पर होता ही है।’ इश्योरेंस के सवाल पर वह बताती हैं कि ‘इस मामले में कम्पनियाँ काफी शातिर होती हैं। उनकी तरफ से इतने कागजात माँग लिए जाते हैं कि वर्कर परेशान हो जाते हैं। 100 में से मात्र 10 या 15 लोगों को ही इश्योरेंस का लाभ मिल पाता है। समस्याएँ इसलिए भी बढ़ जाती हैं, क्योंकि यह सब ऑनलाइन होता है। इतनी मगझमारी होती है कि आनलाइन दिए गए फार्मों को कोई भर ही नहीं पाता।’

काम की टाइमिंग पर वह बताती हैं कि ‘ऑनलाइन काम है इसलिए कोई नियम नहीं बनाया गया है। कस्टमर नोटिफिकेशन अगर सुबह सात बजे भी आ जाता है तो आपको जाना ही पड़ेगा। अगर व्यस्तता है तो आप ऐप के माध्यम से वह नोटिफिकेशन कैंसिल कर सकते हैं। उसके बाद कस्टमर के पास दूसरे गिग वर्कर को भेजा जाता है।’

ऐप के माध्यम से होता है सारा काम

विश्व स्तर पर और भारत में गिग या प्लेटफॉर्म श्रमिकों (ग्राहकों से जुड़ने के लिए ऐप या वेबसाइट का उपयोग करने वाले) के लंबे समय से चला आ रहे न्यायिक प्रश्न उनके कार्यस्थल से सम्बंधित स्थिति के बारे में हैं। सरल शब्दों में कहें तो क्या वह उस प्लेटफॉर्म के कर्मचारी कहलाने के हकदार होंगे, जहाँ वह काम करते हैं? क्या वह श्रम कानून ढाँचे में कर्मचारियों या श्रमिकों के अधिकारों और लाभ के हकदार हैं? ये दोनों काफी महत्वपूर्ण सवाल हैं।

दुनिया भर में गिग या ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से जुड़ा ‘बिजनेस मॉडल’ इन सवालों की उपेक्षा करता नजर आता है। उनके बिजनेस मॉडल यानी प्लेटफॉर्म पर काम करने वाले लोगों (डिलीवरी एजेंट, फ्रीलांसर, कैब ड्राइवर आदि) को स्वतंत्र ठेकेदार या भागीदार (पार्टनर) माना जाता है, इसलिए कानूनी अर्थ में उन्हें श्रमिक नहीं माना जाता है। प्लेटफॉर्म और उन पर काम करने वाले व्यक्तियों के बीच अनुबंध में ही इस बात का उल्लेख कर दिया जाता है।

बड़ी संख्या के बावजूद होती है अनदेखी

बीते 10 अगस्त को न्यूज क्लिक में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘200 मिलियन से अधिक लोग विश्व स्तर पर ‘गिग’ कार्यबल का हिस्सा हैं, जिनमें विकासशील देशों की भागीदारी अधिक है। भारत में गिग अर्थव्यवस्था सम्भावित रूप से नौ करोड़ नौकरियाँ पैदा कर सकती है और देश की जीडीपी में लगभग 1.25 प्रतिशत का योगदान कर सकती है।’ मोजो स्टोरी में छपी अमन सिंह की रिपोर्ट के मुताबिक ‘भारत में 7.7 मिलियन गिग श्रमिक हैं, जिनकी संख्या 2029-30 तक 23.5 मिलियन तक बढ़ने की उम्मीद है। बावजूद इसके गिग वर्करों के अधिकारों के प्रति अनदेखी काफी निराशाजनक है।

केंद्र सरकार द्वारा 2020 में बनाया गया सामाजिक सुरक्षा कानून। साभार : मोजो स्टोरी

हॉकर्स ज्वाइंट एक्शन कमेटी बनारस के स्टेट कोआर्डिनेटर हरिश्चंद्र बिंद बताते हैं कि आधुनिक समय में ऑनलाइन खरीदारी की व्यवस्था बढ़ती जा रही है। कपड़े से लेकर सुई तक की खरीदारी अब ऑनलाइन हो रही है। यहाँ तक कि किराना यानी ग्रोसरी के सामान भी ऑनलाइन मँगवाए जा रहे हैं। बुक होते ही कम्पनियों द्वारा तय दिन के अंदर वह सामान घर के दरवाजे तक पहुँच जाती है। घरों में लोग उस सामान से लेकर उक्त कम्पनी की तारीफें करने लगते हैं। दूसरी तरफ, दुकानों से लेकर उपभोक्ताओं तक सामान पहुँचाने वाले ‘डिलीवरी ब्वॉय’ की मेहनत और दशा पर शायद ही कोई ध्यान देता होगा। पीठ पर कई किलो का बोझा लादे इन लोगों को सिर्फ डिलीवरी का खर्च मिलता है। 12 रुपये प्रति डिलीवरी इनको मिलता है। उसके लिए भी इन्हें अपनी गाड़ी में पेट्रोल से लेकर उसके मेंटेनेंस का खर्च वहन करना पड़ता है। परिवार की जिम्मेदारियाँ भी निभानी पड़ती हैं। ऑनलाइन शॉपिंग कराने वाली बड़ी-छोटी हर प्राइवेट कम्पनियों में ‘डिलीवरी ब्वॉय’ की भूमिका निभाने वाले इन कर्मचारियों की सुधि लेने वाला कोई नहीं होता है।

हरिश्चंद्र बिंद कहते हैं कि आज ई-कॉमर्स कम्पनियों का जाल तेजी से फैल रहा है। उसी तेजी से उनमें काम करने वाले गिग वर्करों की संख्या भी बढ़ रही है। तमाम परेशानियों को झेलने वाले इन वर्करों पर सरकार और श्रम कानून बनाने वाले मंत्रालयों का कोई ध्यान नहीं रहता। सड़क पर किसी हादसे का शिकार होने पर न तो कम्पनियाँ इन वर्करों की जिम्मेदारी लेती हैं, न ही सरकार। देश में दिनोंदिन बढ़ रही बेरोजगारी के कारण रोजगार की तलाश में लाखों की संख्या में युवा इन कम्पनियों के जाल में फँस रहे हैं। परिवार की जिम्मेदारी उठाने के एवज में इन गिग वर्करों को अपना शोषण करवाना पड़ रहा है। हरिश्चंद्र बताते हैं कि गिग वर्करों की ज़िंदगी छह-सात साल में खटारा गाड़ी की तरह हो जाती है। रीढ़ की हड्डी में दर्द, सड़क के धूल-धक्कड़ से दमा या अन्य समस्याएँ, गर्दन और पैरों में दर्द से लेकर तमाम तरह की शारीरिक बीमारियों का शिकार हो जाते हैं।

बनारस गिग वर्कर एसोसिएशन के प्रभु खरवार बताते हैं कि गिग वर्करों के लिए कोई ठोस कानून नहीं बनाए गए हैं। इन्हें कम्पनियाँ वर्कर नहीं एक शातिर तरीके से पार्टनर का पद देती हैं। हाल फिलहाल में राजस्थान सरकार ने गिग वर्करों के लिए सबसे पहले बोर्ड बनाया है, जो कर्नाटक में प्रस्तावित है। ऐसी व्यवस्था और नियम पूरे देश में लागू हो जाएँ तो गिग वर्करों के जीवनयापन में काफी सुधार आ जाए। प्रभु बताते हैं कि पूरे देश में लाखों की संख्या में गिग वर्कर काम कर रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है बेरोजगारी। यानी कहीं भी काम की उपलब्धता न होना। गिग वर्कर का काम करने वाले अधिकतर युवा हैं। कुछ तो अपनी पढ़ाई करते हुए पार्ट टाईम में यह काम करते हैं।

क्या होते हैं गिग वर्कर्स और कितनी है संख्या 

गिग वर्कर्स उन श्रमिकों को कहा जाता है जिनका काम अस्थायी होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ये किसी काम को टेम्परेरी तौर पर करते हैं। फिर बेहतर अवसर मिलने पर ये अपने काम को बदल भी लेते हैं। स्विगी, फ्लिपकार्ट, अमेजन, जोमैटो, उबर जैसे ऐप के जरिए सामान डिलीवर करने वाले वर्कर्स इसका उदाहरण हैं।

नीति आयोग के 2022 के आँकड़ों के अनुसार, देश में 77 लाख गिग वर्कर्स हैं। इनकी औसत मासिक सैलरी 18 हजार रुपये है। काम के घंटों की सीमा तय नहीं होती है। न इन वर्कर्स को सामाजिक सुरक्षा का फायदा मिलता है। केंद्र सरकार ने 2020 में गिग वर्कर्स के लिए सामाजिक सुरक्षा संहिता का प्रस्ताव किया था। लेकिन, अब तब कोड अमल में नहीं आया है।

राजस्थान ने गिग वर्करों के लिए पास किया बिल

राजस्थान सरकार ने प्लेटफॉर्म आधारित गिग वर्कर्स बिल पारित किया है। इस बिल ने देशभर के गिग वर्कर्स को उम्मीद की किरण दिखाई है। पूरे देश में गिग वर्कस की अच्छी खासी संख्या हो गई है। साथ ही कहा है कि इससे उपभोक्ताओं पर अतिरिक्त भार पड़ेगा। बिल में गिग वर्कस के रजिस्ट्रेशन का प्रस्ताव किया गया है। इन्हें सोशल सिक्योरिटी स्कीमों का फायदा देने की बात कही गई है। इनकी शिकायत सुनने का भी प्रस्ताव है।

बिल में एक बोर्ड बनाने का प्रस्ताव है जिस पर गिग वर्कर्स को विभिन्न सोशल सिक्योरिटी स्कीमों का फायदा सुनिश्चित कराने की जिम्मेदारी होगी। इनमें एक्सीडेंटल और हेल्थ इंश्योरेंस के अलावा पेंशन, स्कॉलरशिप व अन्य चीजें शामिल हैं, जो डिजिटल प्लेटफॉर्म की कमाई का यह 1-2 फीसदी हो सकता है। इसके तहत सभी गिग वर्कर्स का पंजीयन कर कार्ड बनाया जाएगा। इससे वे राजस्थान सरकार की कई जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए प्रार्थी हो जाएँगे। इनमें मुख्य रूप से मुख्यमंत्री दुर्घटना बीमा योजना शामिल है। साथ ही यह बोर्ड गिग वर्कर्स की शिकायत सुन उनका निवारण करेगा। प्रत्येक प्लेटफॉर्म को 1-2 प्रतिशत सेस प्रति ऑर्डर इस बोर्ड को देने होंगे। इसका इस्तेमाल गिग वर्कर्स के कल्याण के लिए किया जाएगा।

नीयत और नतीजे देखने की है जरूरत

एनबीटी में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, पब्लिक पॉलिसी के क्षेत्र में काम करने वाले तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में असिस्टेंट प्रोफेसर अनुपम मानुर कहते हैं कि इसमें नीयत और नतीजों को देखने की जरूरत है। मसलन, अगर सभी प्रमुख फैसले वेलफेयर बोर्ड पर छोड़ दिए गए तो वह मनमानी शुरू कर सकता है। इससे बोर्ड का राजनीतिकरण भी होगा। इसके पहले पहले भी कई वेलफेयर फंड खुले हैं, जिनमें सोशल सिक्योरिटी के मकसद से पैसा जुटाया गया, लेकिन, इन्होंने गिग वर्करों के लिए कोई ठोस काम नहीं किया। राजस्थान में गिग वर्कर्स बिल के पीछे इंडियन फेडरेशन ऑफ ऐप-बेस्ड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स (आईएफएटी) जैसी यूनियनों का भी काफी हाथ है। मजदूर किसान शक्ति संगठन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता निखिल दुबे ने कहा कि पूरी दुनिया में गिग वर्कर्स की जिंदगी में सुधार के लिए काम हो रहा है। आईएफएटी के नेशनल सेक्रेटरी शेख सलाउद्दीन ने इसे गिग वर्कर्स की पहली जीत करार दिया है।

सुप्रीम कोर्ट में दर्ज की गई है याचिका

उल्लेखनीय है कि द इंडियन फेडरेशन ऑफ ऐप बेस्ड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स (आईएफएटी) द्वारा ‘गिग वर्कर्स‘ की ओर से 2021 में एक याचिका दायर की गई है, जो ऐप-आधारित ट्रांसपोर्ट और डिलीवरी वर्कर्स का प्रतिनिधित्व करने वाले ट्रेड यूनियन का एक पंजीकृत यूनियन और फेडरेशन है। याचिका में असंगठित श्रमिक समाज कल्याण सुरक्षा अधिनियम, 2008 की धारा 2 (एम) और 2 (एन) के तहत ‘गिग वर्कर्स’ और ‘ऐप आधारित वर्कर्स’ को ‘असंगठित श्रमिक’ या ‘वेतन कर्मचारी’ घोषित करने की मांग की थी।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

कोर्ट ने इस याचिका पर फैसला सुनाया था कि यदि श्रमिकों का समूह वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन करने के मामले में खुद का श्रम लगाता है, लेकिन इन वस्तुओं, सेवाओं की एक अलग व्यावसायिक इकाई भी है, तो मध्यवर्ती ठेकेदारों की उपस्थिति के बावजूद मुख्य मुद्दा इन मजदूरों के सच्चे मालिक का निर्धारण करना है। मालिक को अलग करने वाला मुख्य कारक श्रमिकों के रोजगार पर उनके आर्थिक नियंत्रण की सीमा है। इस नियंत्रण में उनकी आजीविका, कौशल विकास और नौकरी सुरक्षा सहित कई पहलू शामिल हैं। संक्षेप में कहा जाए तो जो इकाई इन महत्वपूर्ण कारकों पर ऐसा अधिकार रखती है, वास्तव में वही असली मालिक है। इसके अलावा, बीच के ठेकेदारों के साथ कर्मचारी का सम्बंध हालांकि तत्काल और प्रत्यक्ष है, लेकिन सच्चे मालिक का निर्धारण करने में निर्णायक महत्व नहीं रखता है। भले ही श्रमिक ठेकेदारी व्यवस्था के कारण दैनिक आधार पर इन ठेकेदारों के साथ काम करते हैं, यह पहलू अकेले उन्हें श्रमिकों की रोजगार स्थितियों के लिए जिम्मेदार पार्टी के रूप में स्थापित करने के लिए अपर्याप्त है।

अदालत के अनुसार, गिग के वास्तविक मालिक का पता लगाने के लिए, औपचारिक संविदात्मक व्यवस्था का पर्दा उठाना और रोजगार संरचना की व्यापक तस्वीर का विश्लेषण करना आवश्यक है। इसके लिए श्रमिकों के रोजगार को नियंत्रित करने वाली वास्तविक गतिशीलता में भी गहराई से जाना आवश्यक है। यदि अंतिम व्यावसायिक इकाई का श्रमिकों के निर्वाह, कौशल विकास एवं काम के अवसरों पर महत्वपूर्ण नियंत्रण और प्रभाव है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह इकाई, बीच के ठेकेदार के नहीं, असली मालिक की है। अदालत के निर्णय के अनुसार, मामले की जड़ यह है कि प्रबंधन या व्यावसायिक इकाई जो श्रमिकों पर पर्याप्त आर्थिक नियंत्रण रखती है और सीधे उनके रोजगार की स्थिति को प्रभावित करती है, उसे वास्तविक नियोक्ता के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए भले ही उसमें ठेकेदारों की उपस्थिति हो।

ऑनलाइन प्लेटफॉर्म वर्करों, डिलिवरी ड्राइवर, गिग वर्करों के, स्ट्रीट वेंडरों की माँगें

  • भारत में छोटे व्यवसायों की सुरक्षा के लिए तुरंत ई-कॉमर्स नीति बनाएँ।
  • ई-कॉमर्स ऑपरेटर को विनियमित करने के लिए नियमों की अधिसूचित करें।
  • ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स (ONDC) पर स्ट्रीट वेंडरों सहित छोटे व्यवसायों को शामिल करें।
  • व्यापार और निवेश पर भारत सरकार के बोर्ड में स्ट्रीट वेंडर संगठनों के प्रतिनिधियों को शामिल करें।
  • स्ट्रीट वेंडिंग की सुरक्षा और उसे बढ़ावा देने के लिए विशिष्ट नीति बनाएं।
  • सरकार का ई-कॉमर्स डाटा पर अधिकार होना चाहिए और छोटे व्यवसायों के लिए इसके उपयोग की अनुमति होनी चाहिए।
  • सभी स्ट्रीट वेंडर का सर्वे कर वेंडिंग सर्टिफिकेट जारी हो तथा वेंडिंग जोन बनाया जाए।
  • टाउन वेंडिंग कमेटी का नियमत: वोटिंग के द्वारा चुनाव कराकर TVC मेंबरों का प्रतिनिधित्व तय हो।
  • पथ विक्रेता अधिनियम 2014 पूरी तरह से लागू किया जाएँ।

 

अमन विश्वकर्मा
अमन विश्वकर्मा
अमन विश्वकर्मा गाँव के लोग के सहायक संपादक हैं।

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