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ग्राउंड रिपोर्ट

सरकारी नौकरियों में आरक्षण के बावजूद क्यों पूरी नहीं हो पा रही है पिछड़ों, दलितों एवं आदिवासियों की भागीदारी?

भारत में आरक्षण, समाज के सबसे पिछड़े और वंचित समुदाय को मुख्य धारा में शामिल करने की जाति आधारित सकारात्मक कार्रवाई है। भारतीय संविधान के अनुसार केंद्र और राज्य सरकार में सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए शिक्षा, रोजगार और राजनैतिक निकायों में सीटों का प्रतिशत निर्धारित किया गया है। लेकिन  मनुवादी व्यवस्था ने वर्ष 2019 में अपने लिए 10 प्रतिशत सुदामा कोटा हासिल कर लिया, जो उनकी आबादी के हिसाब से है लेकिन पिछड़ों को उनकी आबादी के हिसाब से आधा भी नहीं मिला। इसलिए यह मांग की जाती रही है ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।'

2014 लोकसभा चुनाव में पिछड़ों, दलितों एवं आदिवासियों ने भारतीय जनता पार्टी को यह सोचकर वोट किया कि नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद उनका उत्थान होगा। इसका ठोस कारण यह था कि नरेन्द्र मोदी पिछड़ों, गरीबों एवं किसानों के हिमायती के रूप में सवर्ण मीडिया द्वारा पेश किये गये थे। भाजपा की सरकार ने अपने कार्यकाल का दस वर्ष पूरा कर लिया है। क्या भाजपा की सरकार ने पिछड़ों, दलितों एवं आदिवासियों को सरकारी नौकरियों में उचित भागीदारी दी है? मैं इस आलेख में इस सवाल का उत्तर तलाशने की कोशिश कर रहा हूँ।

भारतीय संविधान के तहत मंडल कमीशन में पिछड़ी जातियों को शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा होने के कारण इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल किया गया। यह भारत का वह वर्ग है, जिसको सत्ता में शामिल मनुवादी तबका कभी हिस्सेदारी नहीं देना चाहता था। ओबीसी के लिए आजाद भारत मनुवादियों के उपनिवेश जैसा था। जब मनुवादियों के इसी उपनिवेश में सेंध लगाते हुए संविधान लागू होने के बयालीस वर्ष बाद पिछड़ी जातियों के लिए मंडल कमीशन के तहत ओबीसी आरक्षण 1992 में लागू किया गया तब मनुवादियों ने सड़कों पर उतरकर इसका खूब विरोध किया।

यहाँ यह भी जानना जरूरी है कि ओबीसी आरक्षण लागू किये जाने के पहले दशक(1992-2002) में उसे किस तरह प्रभावहीन किया गया था? जब ओबीसी आरक्षण लागू किया गया था, तभी उसमें क्रीमीलेयर का बैरिकेड लगा दिया गया था। दुनिया के किसी भी देश में जब आरक्षण में ऐसी शर्त लगाई जाती है, तब उस समाज की शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति का ठोस अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन हमें बताता है कि क्रीमीलेयर जैसी बैरिकेड की शर्त आरक्षण लागू होने के कम से कम 15 साल बाद लागू की जानी चाहिए। लेकिन भारत की सत्ता और न्याय-व्यवस्था में शामिल मनुवादी तबके ने ओबीसी आरक्षण में इस शर्त को 1992 में ही लागू कर दिया था। इसका असर यह हुआ कि उस दौर में पिछड़ी जातियों के जो लोग पढ़-लिख रहे थे, वे क्रीमीलेयर की शर्त के तहत ओबीसी आरक्षण से बाहर हो गये और जो पढ़-लिख नहीं रहे थे, वे स्वतः इसमें शामिल थे और इस आरक्षण का लाभ नहीं ले सकते थे। यह तो ठीक वही स्थिति हो गई कि जो चना चबा सकता था उससे छीनकर बिना दांत वाले आदमी के सामने रख देना, जिसे वह सिर्फ देख सकता है-जैसे मानो वह चिड़ियाघर के किसी जंतु को देख रहा हो। इसीलिए मैं जोर देकर कहता हूँ कि ओबीसी आरक्षण में क्रीमीलेयर की शर्त का ही हासिल है कि आज केंद्र और राज्य की सरकारों में पिछड़ी जातियों के सचिव, मुख्य सचिव एवं प्रधान सचिव जैसे अधिकारी लगभग नगण्य हैं।

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यह तो मनुवादियों की ओबीसी आरक्षण को लेकर पहली रणनीति थी, जिसमें उन्होंने ओबीसी को जन्म लेने से पहले ही मार डाला। लेकिन इसी दौर में उनकी दो और बड़ी रणनीतियाँ साथ-साथ चल रही थीं, जिसमें एक सरकारी कंपनियों या सरकारी सेवायों में कर्मचारियों के स्थायी पदों पर अस्थायी या तदर्थ कर्मचारियों के चयन के रूप में चलायी जा रही थी, जहाँ किसी भी प्रकार के संवैधानिक आरक्षण का पालन नहीं किया जाता है और इसी के साथ-साथ सरकार उदारीकरण की नीतियों के कारण निजीकरण को भी बढ़ावा दे रही थी।

दूसरी बड़ी रणनीति यह थी कि एक साथ सभी सरकारी पदों एवं उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी आरक्षण लागू न करना था। जबकि 2019 में पिछड़ों के वोट के बल पर सत्ता हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी गरीब सवर्णों के लिए 10% सुदामा कोटा (EWS) एक साथ सभी जगह सभी सरकारी पदों पर लागू कर देती है। हद तो तब हो जाती है जब देश के विश्वविद्यालयों में सुदामा कोटे के तहत एक भी असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति नहीं होती है और प्रोफेसर पद का विज्ञापन जारी कर दिया जाता है। जाहिर है कि यहाँ सुदामा कोटे के तहत प्रोफेसर वही बनेगा जो 50% सवर्ण आरक्षण और सवर्ण साक्षात्कार समिति का लाभ लेकर असिस्टेंट प्रोफेसर बना है।

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आरक्षण का गणित समझना होगा

अब आप यह सोच रहे होंगे कि मैंने 50% अनारक्षित सीट को सवर्ण कोटा क्यों कहा? इसका उत्तर आप खुद जानते हैं और नहीं जानते हैं तो जान लें कि दिल्ली विश्वविद्यालय में विगत दो वर्षों में लगभग 4600 स्थायी असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों पर चयन हुआ है। सूचना अधिकार अधिनियम के तहत दिल्ली विश्वविद्यालय से यह जानकारी माँगी जा सकती है कि इन 4600 असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों में कितने पद अनारक्षित श्रेणी (UR) या सवर्ण कोटा के थे और उन पर किन-किन जातियों के अभ्यर्थियों की नियुक्ति की गई है। यदि इस 50% अनारक्षित सीट पर 45% से अधिक सवर्ण अभ्यर्थियों का चयन किया गया है तो क्या इसे सवर्ण कोटा नहीं कहा जाना चाहिए? जबकि इसी अनारक्षित सीट पर गैर सवर्ण अभ्यर्थी भी भारी तादाद में साक्षात्कार दे रहे हैं। लेकिन वे सवर्ण साक्षात्कार समिति की नज़र में अयोग्य हैं और उसकी जाति वाले सवर्ण अभ्यर्थी योग्य. यह जातिवाद की पराकाष्ठा है।

यहाँ यह स्पष्ट तरीके से समझ जाना चाहिए कि भारत की शासन-व्यवस्था किस वर्ग की हितैषी है? यह पिछड़ी जातियों के लिए लागू किये गये ओबीसी आरक्षण और सवर्ण जातियों के लिए लागू किये गये सुदामा कोटा का तुलनात्मक अध्ययन कर जाना जा सकता है। आज भी भारत के कई सरकारी संस्थान और उच्च शिक्षण संस्थान ऐसे हैं, जहाँ ओबीसी आरक्षण लागू नहीं किया गया है। देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के छात्रावासों में ओबीसी आरक्षण लागू नहीं है जबकि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए लागू किये गये सुदामा कोटा को उनमें लागू कर दिया गया और दिल्ली विश्वविद्यालय इन्हीं विश्वविद्यालयों में से एक है।

भारत सरकार ने उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी आरक्षण 2007 में लागू किया गया, जिसके खिलाफ मनुवादियों ने आंदोलन किया और उन्होंने इसे रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में केस किया। 10 अप्रैल 2008 को उच्चतम न्यायालय ने सरकार द्वारा उच्च शिक्षण संस्थानों में 27% ओबीसी आरक्षण देने के फैसले को वैध ठहराया। इस हकीकत को पिछड़ी जातियों के लोग कब समझेंगे कि उनका ओबीसी आरक्षण 2008 में लागू हुआ, जो न तो मंडल कमीशन की रिपोर्ट में दर्ज 52% ओबीसी आबादी के अनुपात में है और न ही अभी पूरी तरह से देश के सभी सरकारी संस्थानों और सेवाओं में लागू है।

पिछड़ी जातियों की शैक्षणिक और आर्थिक उन्नति में पीछे क्यों

यह समझना आसान है कि पिछड़ी जातियों की शैक्षणिक और आर्थिक उन्नति का सबसे बड़ा शत्रु कौन है? यह वही मनुवादी तबका है, जो ओबीसी आरक्षण को दस साल भी पचा नहीं पाया और अपने लिए 10% सुदामा कोटा फरवरी 2019 में लागू करवा लिया। यह उनकी आबादी के अनुपात में है जबकि ओबीसी आरक्षण अपनी आबादी का आधा भी नहीं है। इसीलिए समय-समय पर यह माँग उठती रहती है कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ लेकिन इस माँग पर देश का मनुवादी तबका एक लय में शांत नज़र आता है। उसकी ठीक यही चुप्पी जातिवार जनगणना और महिला आरक्षण में ‘कोटे के भीतर कोटा’ वाली माँग पर भी रहती है।

देश को आजाद हुए पचहत्तर वर्ष पूरे हो गये हैं। इस उपलक्ष्य में भारत सरकार ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ मना रही है।  सरकारी नौकरियों के आँकड़ों के साथ देखना चाहिए कि आजादी का यह अमृत महोत्सव किसके लिए ‘अमृत’ है और किसके लिए ‘विष’?

कार्मिक विभाग के आँकड़ों के मुताबिक, केंद्र सरकार की ग्रुप A की नौकरियों में 74.48% पदों पर कब्ज़ा सामान्य वर्ग या सवर्णों का है जबकि पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की भागीदारी मात्र 8.37% पदों पर है और अनुसूचित जाति की हिस्सेदारी 12.06% पद पर है। केंद्र सरकार की ग्रुप B की नौकरियों में सामान्य वर्ग 68.25% पदों पर कार्यरत है तो ओबीसी मात्र 10.01% और अनुसूचित जाति 15.73% पद पर है। केंद्र सरकार की ग्रुप C की नौकरियों में सामान्य वर्ग 56.79% पदों पर है तो ओबीसी 17.31% और एससी 17.3% पद पर कार्यरत है। हैरानी की बात है कि कार्मिक विभाग ने इन पदों पर अनुसूचित जनजाति का कोई आँकड़ा जारी नहीं किया है। ये आँकड़ें पिछड़ों और दलितों के वोट के बल पर सत्ता हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार के हैं।

ज्ञानप्रकाश यादव
ज्ञानप्रकाश यादव
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं और सम-सामयिक, साहित्यिक एवं राजनीतिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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