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ग्राउंड रिपोर्ट

आर्थिक समानता की नई लड़ाई का संकल्प लेने की जरूरत

अशिक्षा को दलित, पिछड़ों और महिलाओं की गुलामी के प्रधान कारण के रूप में उपलब्धि करनेवाले जोतिराव फुले ने वंचितों में शिक्षा प्रसार एवं शिक्षा को ऊपर से नीचे के विपरीत नीचे से ऊपर ले जाने की जो परिकल्पना की उसी क्रम में भारत की पहली अध्यापिका सावित्री बाई फुले का उदय हुआ। मान्यवर कांशीराम का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिन्होंने इतिहास की कब्र में दफ़न किये गए बहुजन नायक/नायिकाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व को सामने ला कर समाज परिवर्तनकामी लोगों को प्रेरणा का सामान मुहैया कराया, जिनमें से वह सावित्रीबाई फुले भी एक हैं, जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के सहयोग से देश में महिला शिक्षा की नींव रखी। आज माता सावित्री बाई फुले की 194 वीं जयंती है। इस उपलक्ष्य में आज की शैक्षिक और सामाजिक स्थितियों से तुलना से तुलना करते हुए पढ़िए यह लेख।

आज देश की पहली महिला अध्यापिका व नारी मुक्ति आंदोलन की पहली महानायिका  सावित्रीबाई फुले का जन्म दिन है। इसे लेकर विगत कई दिनों से सोशल मीडिया में उस बहुजन समाज के जागरूक लोगों के मध्य भारी उन्माद है, जो उन्हें अब राष्ट्रमाता के ख़िताब से नवाज रहे हैं। सोशल मीडिया से पता चलता है कि आज के दिन देश के कोने-कोने में भारी उत्साह के साथ बहुजनों की राष्ट्रमाता की जयंती मनाई जाएगी। इसके लिए निश्चय ही हमें मान्यवर कांशीराम का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिन्होंने इतिहास की कब्र में दफ़न किये गए बहुजन नायक/नायिकाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व को सामने ला कर समाज परिवर्तनकामी लोगों को प्रेरणा का सामान मुहैया कराया,जिनमें से  वह सावित्रीबाई फुले भी एक हैं, जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के सहयोग से देश में महिला शिक्षा की नींव रखी।

3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के नायगांव नामक छोटे से गांव में जन्मीं व 10 मार्च 1897 को पुणे में परिनिवृत हुईं सावित्रीबाई फुले ने उन्नीसवीं सदी में महिला शिक्षा की शुरुआत के रूप में घोर ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को सीधी चुनौती देने का काम किया था। उन्नीसवीं सदी में यह काम उन्होंने तब किया जब छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह, तथा विधवा-विवाह व शुद्रातिशुद्रों व महिलाओं की शिक्षा निषेध जैसी सामाजिक बुराइयां किसी प्रदेश विशेष में ही सीमित न होकर संपूर्ण भारत में फैली हुई थीं। महाराष्ट्र के महान समाज सुधारक, विधवा पुनर्विवाह आंदोलन तथा स्त्री शिक्षा समानता के अगुआ महात्मा ज्योतिबा फुले की धर्मपत्नी सावित्रीबाई ने अपने पति के सामाजिक कार्यों में न केवल हाथ बंटाया बल्कि अनेक बार उनका मार्ग-दर्शन भी किया।

दरअसल अशिक्षा को दलित, पिछड़ों और महिलाओं की गुलामी के प्रधान कारण के रूप में उपलब्धि करनेवाले जोतिराव फुले ने वंचितों में शिक्षा प्रसार एवं शिक्षा को ऊपर से नीचे के विपरीत नीचे से ऊपर ले जाने की जो परिकल्पना की उसी क्रम में भारत की पहली अध्यापिका का उदय हुआ। स्मरण रहे अंग्रेजों ने अपनी सार्वजनीन शिक्षा नीति के जरिये शूद्रातिशूद्रों के लिए भी शिक्षा के दरवाजे जरुर मुक्त किये, पर उसमें  एक दोष था जिसके लिए जिम्मेवार लार्ड मैकाले जैसे शिक्षा-मसीहा भी रहे। मैकाले ने जो शिक्षा सम्बन्धी अपना ऐतिहासिक सिद्धांत प्रस्तुत किया था उसमें व्यवस्था यह थी कि शिक्षा पहले समाज के उच्च वर्ग को दी जानी चाहिए। समाज के उच्च वर्ग को शिक्षा मिलने के पश्चात्,वहां से झरने की भांति झरते हुए शिक्षा निम्न वर्ग की ओर जाएगी.निम्न वर्ग को शिक्षा देने की आवश्यकता नहीं। समाज के उच्च वर्ग को शिक्षा देने के पश्चात् अपने आप शिक्षा का प्रसार निम्न वर्ग की ओर हो जायेगा। पहाड़ से नीचे की ओर आते पानी की तरह शिक्षा का प्रसार होगा। ’फुले ने ऊपर से नीचे की शिक्षा के इस सिद्धांत को ख़ारिज करते हुए शिक्षा प्रसार का अभियान अपने घर ही शुरू किया।

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पहले प्रयास के रूप में महात्मा फुले ने अपने खेत में आम के वृक्ष के नीचे विद्यालय शुरु किया। यही स्त्री शिक्षा की सबसे पहली प्रयोगशाला भी थी, जिसमें उनके दूर के रिश्ते की विधवा बुआ सगुणाबाई क्षीरसागर व सावित्रीबाई विद्यार्थी थीं। उन्होंने खेत की मिटटी में टहनियों की कलम बनाकर शिक्षा लेना प्रारंभ किया।दोनों ने मराठी का उत्तम ज्ञान प्राप्त कर लिया। उन दिनों पुणे में मिशेल नामक एक ब्रिटिश मिशनरी महिला नार्मल स्कूल चलाती थीं। जोतीराव ने वहीं सावित्रीबाई और सगुणाबाई को तीसरी कक्षा में दाखिल करवा दिया जहाँ से दोनों ने अध्यापन कार्य का भी प्रशिक्षण लिया। फिर तो शुरू हुआ हिन्दू-धर्म-संस्कृति के खिलाफ अभूतपूर्व विद्रोह। जिस हिन्दू धर्म-संस्कृति का गौरव गान कर आज हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया चलाई जा रही है उसका एक अन्यतम वैशिष्ट्य ज्ञान-संकोचन रहा है, जिसका शिकार शुद्रातिशूद्र और नारी बने। इन्हें ज्ञान क्षेत्र से इसलिए दूर रखा गया था क्योंकि ज्ञान हासिल करने के बाद ये दैविक-दासत्व (डिवाइन-स्लेवरी) से मुक्त हो जाते और डिवाइन-स्लेवरी से मुक्त होने का मतलब उन मुट्ठी भर शोषकों के चंगुल से मुक्ति होना था, जिन्होंने धार्मिक शिक्षा के जरिये सदियों से शक्ति के तमाम स्रोतों (आर्थिक-राजनैतिक-शैक्षिक और धार्मिक) पर एकाधिकार कायम कर रखा था। जोतीराव इस एकाधिकार को तोड़ना चाहते थे इसलिए उन्होंने 1 जनवरी,1848 को पुणे में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की, जो बौद्धोत्तर भारत में किसी भारतीय द्वारा स्थापित पहला विद्यालय था।  सावित्रीबाई फुले ने इसी विद्यालय में शिक्षिका बन कर आधुनिक भारत की पहली अध्यापिका बनने का गौरव हासिल किया. इस विद्यालय की सफलता से उत्साहित हो कर फुले दंपत्ति ने 15 मई ,1848 को पुणे की अछूत बस्ती में अस्पृश्य लडके-लड़कियों के लिए भारत के इतिहास में पहली बार विद्यालय की स्थापना की। थोड़े ही अन्तराल में इन्होने पुणे और उसके निकटवर्ती गाँवों में 18 स्कूल स्थापित कर दिए। चूंकि शिक्षा के एकाधिकारी ब्राह्मणों ने शुद्रातिशूद्रों और महिलाओंके लिए  शिक्षा-ग्रहण व शिक्षा-दान धर्मविरोधी आचरण घोषित कर रखा था, इसलिए इस शिक्षा रूपी धर्मविरोधी कार्य से फुले दंपति को विरत  करने के लिए धर्म के ठेकेदारों ने जोरदार अभियान शुरू किया।

जब सावित्रीबाई फुले स्कूल के लिए निकलतीं,वे लोग उनपर गोबर-पत्थर फेंकते और भद्दी-भद्दी गालियाँ देते लेकिन लम्बे समय तक यह कार्य करके भी जब वे सफल नहीं हुए तो शिकायत फुले के के पिता तक पहुंचाए। पुणे के धर्माधिकारियों का विरोध इतना प्रबल था कि उनके पिता को कहना पड़ा- या तो अपना स्कूल चलाओ या मेरा घर छोड़ो! फुले दंपति ने गृह-निष्कासन वरण किया। इस निराश्रित दंपति को पनाह दिया उस्मान शेख ने। फुले ने अपने कारवां में शेख साहब की पत्नी बीबी फातिमा शेख को भी शामिल कर अध्यापन का प्रशिक्षण दिलाया। फिर अछूतों के एक स्कूल में अध्यापन का दायित्व सौंप कर फातिमा शेख को उन्नीसवीं सदी की पहली मुस्लिम शिक्षिका बनने का अवसर मुहैया कराया।

भारत में जोतीराव तथा सावि़त्री बाई ने शुद्र एवं स्त्री शिक्षा का आंरभ करके नये युग की नींव रखी।  इसलिये ये दोनों युग-पुरुष और युग-स्त्री का गौरव पाने के अधिकारी हुये। दोनों ने मिलकर 24 सितम्बर, 1873 को ‘सत्यशोधक समाज‘ की स्थापना की। उनकी बनाई हुई संस्था ‘सत्यशोधक समाज‘ ने शुद्रातिशूद्रों और महिलाओं में शिक्षा प्रसार सहित समाज सुधार के अन्य कामों में ऐतिहासिक योगदान किया। बहुजनों के राष्ट्रपिता महात्मा जोतीराव फुले की मृत्यु सन् 1890 में हुई। तब सावित्रीबाई ने सत्यशोधक समाज के जरिये उनके अधूरे कार्यों को आगे बढाया। 10 मार्च 1897 को प्लेग के मरीजों की देखभाल करने के दौरान सावित्रीबाई की मृत्यु हुई। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से धन्य बहुजन भारत उन्हें अब राष्ट्रमाता के रूप में याद करता है।

इसमें कोई शक नहीं कि एक ऐसे दौर में जबकि भारतीय रेनेसां के महानायक राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्या सागर इत्यादि जैसे लोग सती और विधवा–प्रथा के जरिये उच्च वर्ण महिलाओं के दशा सुधार में सर्वशक्ति लगा कर समाज सुधार के रोल मॉडल बन रहे थे,  वैसे दौर में जोतीराव फुले ने अपनी जीवन संगिनी सावत्री बाई फुले को लेकर जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत शुद्रातिशूद्रों और सम्पूर्ण आधी आबादी की मुक्ति का असंभव सा सपना देखा। उन्होंने जहाँ समाज के प्रबल विरोध के मध्य इन वर्गों को अविद्या के अंधकार से निकालने की शुरुआत किया, वहीँ गुलामगिरी, जिसे कई लोग बहुजन मुक्ति का घोषणापत्र मानते हैं, के जरिये आरक्षण की विचार प्रणाली को जन्म देकर भारत में सदियों से प्रवाहमान हिन्दू आरक्षण की सबसे प्रभावी काट पैदा किया, जिसका अनुसरण करने हुए छत्रपति शाहू जी महाराज और डॉ. आंबेडकर इत्यादि ने विषमता के चैम्पियन भारत में सामाजिक समानीकरण का मार्ग प्रशस्त किया।

स्मरण रहे हिन्दू धर्म का प्राणाधार जिस वर्ण-व्यवस्था के जरिये भारत समाज सदियों से परिचालित होता रहा, वह बुनियादी तौर पर एक आरक्षण व्यवस्था रही है, जिसे हिन्दू आरक्षण कहा जाता है एवं जिसके प्रवर्तक विदेशागत आर्य रहे।  हिन्दू आरक्षण में शक्ति के समस्त स्रोत – आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक और धार्मिक आर्य समुदाय के अंतर्गत आने वाले ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों के लिए आरक्षित रहे।  इस हिन्दू आरक्षण में विदेशागत आर्यों ने दलित, आदिवासी, पिछड़ों और सभी वर्णों के महिलाओंको शक्ति के समस्त स्रोतों से बहिष्कृत कर मानवेतर और नर- पशु में तब्दील कर दिया था।  फुले ने मानवेतरों के लिए सदियों से बंद शक्ति के स्रोतों को रुद्ध द्वार को खोलने की परिकल्पना की। उनकी परिकल्पना को सीमित पैमाने पर मूर्त रूप देने का जो कार्य शाहूजी महाराज ने शुरू किया, उसे शिखर पर पहुँचाया बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने. डॉ. आंबेडकर के प्रयासों से हिन्दू आरक्षण की जगह आधुनिक आरक्षण ने ले लिया, जिसका मूल विचार जोतीराव फुले ने दिया था।

आंबेडकरी आरक्षण से जब  दुनिया के सबसे अधिकार-विहीन अस्पृश्य समुदाय के लोग डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, सांसद- विधायक बनने का चमत्कार घटित करने लेगे, उसका असर विश्वव्यापी हुआ। अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ़्रांस, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि ने भारत से आंबेडकरी आरक्षण की आइडिया उधार लेकर अपने-अपने देशों में अश्वेतों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं इत्यादि को आरक्षण के जरिये शक्ति के स्रोतों में शेयर देना का प्रावधान किया।  पिछली सदी के शेष दशक में आरक्षण के दायरे में भारत की पिछड़ी जातियां भी आ गईं। ऐसा होते ही जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग  के छात्र और उनके अभिभावक, साधु- संत, लेखक – पत्रकार और पूंजीपतियों के साथ राजनीतिक दल भी आरक्षण के खात्मे में सर्वशक्ति से जुट गए।  इसका जो वीभत्स परिणाम होना चाहिए वह मई 2024 में वर्ल्ड इन इक्वालिटी लैब रिपोर्ट में दिखा, जिसमें बताया गया था कि देश की संपत्ति में 89% हिस्सा सामान्य वर्ग का है, जबकि दलित समुदाय 2.8 % और विशालतम पिछड़े समुदाय की हिस्सेदारी महज 9% है। इस रिपोर्ट ने साबित कर दिया कि फुले दम्पत्ति के अनुकरणीय प्रयासों से प्रेरित होकर बाद के वर्षों शाहू जी महाराज, बाबा साहेब अंबेडकर, लोहिया, साहेब कांशीराम, जागदेव प्रसाद इत्यादि सहित असंख्य बहुजन बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों ने सामाजिक और आर्थिक सामानीकरण का जो अभियान चलाया वह व्यर्थ हो चुका है, इसलिए आज सावित्री बाईं फुले के जन्मदिन पर समानीकरण की लड़ाई को नये रुप में आगे बढ़ाने का संकल्प लेना होगा।

समानीकरण की लड़ाई में उतरने पर भारत में भीषणतम रूप में फैली आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी  के चौंकाने  वाले दो पक्ष नजर आयेंगे। इनमें सबसे बड़ा एक  पक्ष यह है कि इस समस्या की विकरालता बढ़ाने वाले सकल जनसंख्या के 7.5 प्रतिशत सवर्ण पुरुष हैं, जो शासकों द्वारा विषमता के खात्मे की दिशा में सम्यक प्रयास न किये जाने के कारण लगभग 80 से 85 प्रतिशत शक्ति के स्रोतों का भोग कर रहे हैं। इसका दूसरा और सबसे स्याह पक्ष यह है कि देश की आधी आबादी अर्थात महिलाएं इससे सर्वाधिक पीड़ित है। भारत की आधी आबादी इससे किस कदर पीड़ित है, इसका अनुमान पिछले वर्ष आई ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट से लगाया जा सकता है।

वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा प्रकाशित ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 में बताया गया कि भारत की आधी आबादी को आर्थिक समानता पाने में 257 साल लग जायेंगे. यह आंकड़ा आम भारतीय महिलाओं का है। यदि आम भारतीय महिलाओं को 257 साल लगने हैं तो दलित महिलाओं को 300 साल से अधिक लगना तय  है। भारी अफ़सोस की बात है कि पिछले दिनों हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी ने ‘विश्व असमानता रिपोर्ट – 2022’ और ‘ ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट- 2021’ की रिपोर्ट पर एक शब्द भी नहीं बोला। जबकि गोल्बल जेंडर गैप रिपोर्ट ने साबित कर दिया है कि आर्थिक और सामाजिक विषमताजन्य समस्या का सबसे बड़ा शिकार भारत की आधी आबादी है और उसे आर्थिक समानता पाने में 300 साल से अधिक लगने है, इससे बड़ी समस्या आज विश्व में कोई नहीं। अगर आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है तो आज की तारीख में इस समस्या का सर्वाधिक शिकार भारत की आधी आबादी ही है। इसलिए भारत में समानता की लड़ाई लड़ने वालों की प्राथमिकता में आधी आबादी के आर्थिक समानता की लड़ाई शीर्ष पर होनी चाहिए।

वर्तमान में मोदी सरकार द्वारा लैंगिक समानता के मोर्चे पर जो कार्य किए जा रहे हैं, उससे भारत में लैंगिक समानता अर्जित करना एक सपना ही बना रहेगा। कम से कम कम आर्थिक और शैक्षिक मोर्चे पर तो दलित, आदिवासी, पिछड़े वंचित वर्गों की महिलाओं को समानता दिलाने में सदियों लग जाना तय है। ऐसे में यदि कुछेक दशकों के मध्य हम इच्छित लक्ष्य पाना चाहते हैं तो इसके लिए हमें अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में दो उपाय करने होंगे। सबसे पहले यह करना होगा कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में सवर्ण पुरुषों को उनकी संख्यानुपात पर रोकना होगा ताकि उनके हिस्से का औसतन 70  प्रतिशत अतिरक्त(सरप्लस) अवसर वंचित वर्गो, विशेषकर आधी आबादी में बंटने का मार्ग प्रशस्त हो सकें।  दूसरा उपाय यह करना होगा कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में घोषित हो आधी आबादी का पहला हक़, चूंकि महिलाओं में अतिदलित महिलाएं असमानता का सर्वाधिक और अग्रसर सवर्ण महिलाएं न्यूनतम शिकार हैं, इसलिए ऐसा करना होगा कि सामान्य वर्ग का छोड़ा 70 प्रतिशत अतिरिक्त अवसर सबसे पहले अतिदलित महिलाओं को मिले।  इसके लिए अवसरों के बंटवारे के पारंपरिक तरीके से निजात पाना होगा. पारंपरिक तरीका यह है कि अवसर पहले सामान्य वर्ग अर्थात सवर्णों के मध्य बंटते हैं, उसके बाद का बचा हिस्सा वंचित अर्थात आरक्षित वर्गो को मिलता है. यदि हमें 300 वर्षो के बजाय आगामी कुछ दशकों में लैंगिक समानता अर्जित करनी है तो अवसरों और संसाधनों के बंटवारे के रिवर्स पद्धति का अवलंबन करना होगा.

हमें भारत के विविधतामय प्रमुख सामाजिक समूहों- दलित, आदिवासी, पिछड़े, धार्मिक अल्पसंख्यकों और जेनरल अर्थात सवर्ण – को दो श्रेणियों -अग्रसर अर्थात अगड़ों और अनग्रसर अर्थात पिछड़ों – में विभाजित कर, सभी सामाजिक समूहों की अनग्रसर महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देने का प्रावधान करना होगा. इसके तहत संख्यानुपात में क्रमशः अतिदलित और दलित; अनग्रसर आदिवासी और अग्रसर आदिवासी; अति पिछड़े और अग्रसर पिछड़े ;  अनग्रसर और अग्रसर अल्पसंख्यकों तथा अनग्रसर और अग्रसर सवर्ण महिलाओं को संख्यानुपात में अवसर सुलभ कराने का अभियान युद्ध स्तर पर छेड़ना होगा. इस सिलसिले में निम्न क्षेत्रों में क्रमशः दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक और सवर्ण समुदायों की अनग्रसर अर्थात पिछड़ी महिला आबादी को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी सुलभ कराना सर्वोत्तम उपाय साबित हो सकता है-:1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों; 2-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप; 3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी; 4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन; 5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों,  विश्वविद्यालयों,तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन,प्रवेश व अध्यापन; 6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों,उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि; 7- देश –विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ)को दी जानेवाली धनराशि; 8-प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मिडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों; 9-रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खाली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो एवं 10-ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय,संसद-विधासभा की सीटों;राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों;विधान परिषद-राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि के कार्य बल में!

 यदि हम उपरोक्त क्षेत्रों में क्रमशः अनग्रसर और अग्रसर दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यक, और सवर्ण समुदायों की महिलाओं को इन समूहों के हिस्से का 50 प्रतिशत भाग सुनिश्चित कराने में सफल हो जाते हैं तो भारत 257 वर्षों के बजाय 57  वर्षों में लैंगिक समानता अर्जित कर विश्व के लिए एक मिसाल बन जायेगा। तब मुमकिन है हम लैंगिक समानता के चार आयामों में से तीन आयामों- पहला, अर्थव्यवस्था में महिलाओं की हिस्सेदारी और महिलाओं को मिलने वाले मौके; दूसरा, महिलाओं की शिक्षा और तीसरा, राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी- में आइसलैंड, फ़िनलैंड, नार्वे, न्यूलैंड, स्वीडेन इत्यादि को भी पीछे छोड़ दें। उपरोक्त तीन आयामों पर सफल होने के बाद हमारी आधी आबादी अपने स्वास्थ्य की देखभाल में स्वयं सक्षम हो जाएगी। यही नहीं उपरोक्त क्षेत्रों के बंटवारे में सर्वाधिक अनग्रसर समुदायों के महिलाओं को प्राथमिकता के साथ 50 प्रतिशत हिस्सेदारी देकर लैंगिक असमानता के साथ भारत से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या(आर्थिक और सामाजिक असमानता) के खात्मे में तो सफल हो ही सकते हैं, इसके साथ ही भारत में भ्रष्टाचार को न्यूनतम बिन्दू पर पहुंचाने, लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण, नक्सल/ माओवाद के खात्मे, अस्पृश्यों को हिन्दुओं के अत्याचार से बचाने, आरक्षण से उपजते गृह-युद्ध को टालने, सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय की बदहाली को खुशहाली में बदलने, ब्राह्मणशाही के खात्मे और सर्वोपरि विविधता में एकता को सार्थकता प्रदान करने जैसे कई अन्य मोर्चों पर भी फतेह्याबी हासिल कर सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा लाभ तो यह होगा कि जिस हिन्दू धर्म संस्कृति के जयगान और मुस्लिम विद्वेष के जरिये हेट पॉलिटिक्स को शिखर पर पहुंचा कर भाजपा हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना देख रही, उपरोक्त क्षेत्रों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का मुद्दा उठाने से भाजपा के हेट पॉलिटिक्स का बारूद पूरी तरह फुस्स हो जायेगा।

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

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