आज जब हमारे देश की महिलाएं शिक्षित होकर पुरुषों के समान हर मुकाम हासिल कर रही हैं, कहीं-कहीं उनसे भी बेहतर कर रही हैं, तो ऐसे में याद किया जाना चाहिए कि ऐसा कैसे संभव हुआ। 19वीं शताब्दी के चौथे- पांचवें दशक से पूर्व तक जब शिक्षा पर धर्मशास्त्र और मनुवाद का कब्जा था और उनके अनुसार महिलाओं को पढ़ने-लिखने का अधिकार नहीं था, तब यह कल्पना भी नहीं किया जा सकता था कि डेढ़ सौ साल बाद शिक्षा के क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों के बराबर या उनसे आगे निकल जाएगी। यह सब कुछ संभव हुआ शिक्षा की देवी और दूर दृष्टि रखने वाली देश की पहली महिला शिक्षिका माता सावित्रीबाई फुले की वजह से। ससुराल जाने तक वह भी शिक्षा से वंचित थी लेकिन उनके पति जोतिराव फुले ने उन्हें खेत में पेड़ के तले भोजनावकाश मेंं व्यक्तिगत रूप से पढ़ाकर शिक्षित किया। इसके बाद माता सावित्रीबाई फुले ने भिड़ेवाड़ा पुणे में महिलाओं के लिए 1 जनवरी 1948 में पहला स्कूल खोली। जिसमें न केवल शुद्रों के घर से अपितु प्रभु समाज यानि ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य परिवार से भी महिलाएं स्कूल जाने लगी।
1848 से 1952 के बीच चार वर्ष के भीतर उन्होंने महाराष्ट्र में महिलाओं के लिए कुल 18 स्कूल खोल दिए। आज यह सुनने में सामान्य-सा लगता है लेकिन महिलाओं एवं शुद्रों के शिक्षा के लिए यह असाधारण कार्य था। शिक्षा की आलावा माता सावित्रीबाई फुले ने समाज में छुआछूत मिटाने तथा शुद्रों एवं महिलाओं के अधिकार के लिए भी बहुत संघर्ष किया है। वह विधवाओं के अवैध शिशुओं के लिए शिशु हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना एवं विधवाओं को सम्मान से जीवन जीने का अधिकार दिलाईं। महामारी के दौरान भी माता सावित्रीबाई फुले ने हजारों लोगों के इलाज से लेकर खाने-पीने एवं रहने तक की व्यवस्था की।
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महात्मा जोतिबा फुले का मिला साथ
आज के डेढ़ सौ साल पहले हिंदू धर्म शास्त्र के अनुसार शुद्रों और महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा जाता था इसलिए ज्योतिबा फुले की शिक्षा दीक्षा अंग्रेजी मिशनरी स्कूल में हुई। इसके बाद उन्होंने दलित वंचित और पिछड़े समाज को भी शिक्षित करने का संकल्प लिया। क्योंकि जोतिब फुले ने यह बहुत पहले समझ लिया था कि शिक्षा के बिना जीवन अधूरा है शिक्षा के अभाव के कारण ही हम सब गुलाम हैं और इस गुलामी से मुक्ति पाने का एकमात्र साधन शिक्षा ही है। जब उनका सावित्रीबाई फुले से विवाह हुआ तो उस समय माता जी की उम्र मात्र नव वर्ष थी। वह 13 वर्ष की उम्र में पढ़ना आरम्भ की। जब ज्योतिराव जी उनसे पढ़ने की बात करते थे तो वह हँस पड़ती और कहती- ‘शिक्षा! और वो भी महिलाओं के लिए! ना, ना! यह तो उच्च जाति के पुरुषों के लिए है और हमारे नियम- धर्मशास्त्र के विरुद्ध है।’ लेकिन कुछ ही दिनों में माता सावित्रीबाई फुले को यह बात समझ में आ गयी कि शिक्षा कितना जरूरी है और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करने में कोई हर्ज नहीं है। वह अपने मेहनत और लगन से पति से शिक्षा पाकर शिक्षित हो गई लेकिन उनके मन में यह कसक बनी हुई थी कि इससे तो सिर्फ मैं जागरूक हुई यदि यही शिक्षा और महिलाओं को दिया जाए तो हमारा पूरा समाज जागरूक हो जाएगा। माता सावित्रीबाई फुले ने अपने पति महात्मा जोतिबा फुले के साथ मिलकर संपूर्ण समाज को जागरूक करने का संकल्प ले ली। वह अपने जीवन में दृढ़-प्रतिज्ञ थी, यानि एक बार जो संकल्प पर ले लेती थी उसे अवश्य पूरा करती थी। इसके बाद दोनों स्कूल खोलने से लेकर जीवन पर्यंत समाज से उच्च नीच का भेद मिटाने, विधवा पुनर्विवाह कराने, बाल शिशु हत्या पर प्रतिबंध लगाने एवं सत्यशोधक समाज की स्थापना तक साथ-साथ कार्य करते रहे। माता सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले का यह दांपत्य जीवन दुनिया का सबसे शानदार जीड़ी माना जाता है।
सगुणाबाई और फातिमा शेख का योगदान
सगुणाबाई ज्योतिबा फुले की मौसेरी बहन थी। 1832 ईस्वी में महिलाओं के लिए पहला स्कार्टिश मिशनरी स्कूल खुला था। जिसमें ब्राह्मणों की दबाव के कारण महिलाओं को पढ़ने के लिए जिलाधिकारी से अनुमति लेनी पड़ती थी। इसके लिए काफी मुश्किलें होती थी और हर वर्ग की महिलाएं नहीं पहुंच पाती थी। सगुणाबाई क्षीरसागर को भी उस स्कूल में पढ़ने के लिए डीएम से अनुमति लेने में काफी संघर्ष करना पड़ा था। ब्राह्मणों के विरोध के कारण वह स्कूल ज्यादा दिनों तक चल नहीं पाया और उसका मिशन अधूरा रह गया। जोतिबा फुले की भी शिक्षा मिशनरी स्कूल में हुई थी। उनके माता जी के निधन के बाद उनकी पढ़ाई रुक गई थी लेकिन सगुणाबाई ने ही उन्हें दुबारा स्कूल भेजी और उन्हें पढ़ाने की जिम्मेदारी ली और सावित्रीबाई को भी पढ़ाने के लिए हमेशा प्रेरित करती रही एवं उनके साथ चलती रही। माता सावित्रीबाई फुले ने सह शिक्षा (को एजुकेशन) स्कूल चलाने की मुख्य जिम्मेदारी सगुणाबाई को ही दिया। सगुणाबाई ने इस पुनीत कार्य में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
माता सावित्रीबाई फुले को रहने एवं स्कूल खोलने में फातिमा शेख एवं उनके भाई उस्मान शेख ने अपने घर में जगह दिया और माता जी के साथ फातिमा शेख ने बतौर शिक्षिका के रूप में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने माता सावित्रीबाई फुले एवं ज्योतिबा फुले के सपने को टूटने नहीं दिया और स्कूल खोलने में काफी मदद किये। लेकिन विधिवत स्कूल चलाने के लिए एक बड़े मकान की आवश्यकता थी। जिसकी तलाश में ज्योतिराव फूले और माता सावित्रीबाई फुले ने कई दिनों तक खोज करते रहें अंत में एक सज्जन ब्राह्मण तात्वा साहब भिंडी ने अपनी हवेली देकर स्कूल खोलने के सपने को साकार कर दिया।
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आसान नहीं रहा महिलाओं को शिक्षित करना
माता सावित्रीबाई फुले जब महिलाओं को पढ़ाने के लिए स्कूल जाती थी तो उस समय ब्राह्मण समुदाय के लोग रास्ते में उनके ऊपर गोबर और कीचड़ फेंकते थे तथा बुरी भद्दी गालियां देते थे। लेकिन माता जी उनका प्रत्यक्ष जवाब नहीं देती थी। वह जानती थी कि उनसे लड़ने का सबसे सही उपाय उनके समक्ष अन्य महिलाओं को शिक्षित करके खड़ा करना ही है। वे उन तमाम मुश्किलों को सहती गई और महिलाओं को शिक्षित करती गई । यहां तक कि वह स्कूल जाते हुए अपने लिए एक साड़ी अलग से ले जाती थी। स्कूल में पहुंचने के बाद गोबर और कीचड़ से सने हुए साड़ी को बदलकर दूसरी साड़ी पहन लेतीं और महिलाओं को शिक्षा देने का काम करती थी। एक बार एक ब्राह्मण युवक ने माता जी का रास्ता रोक कर उनके साथ अश्लील हरकत करने की कोशिश किया तो माताजी ने उन्हें कई थप्पड़ लगाए और युवक वहां से भाग खड़ा हुआ। यह बात पहलवान गुरू लहू साल्वे को पता चली और उन्हें यह जानकारी हुई कि वह हमारे ही लोगों को शिक्षित करके उन्हें आगे बढ़ाने का पुनित कार्य कर रहे हैं तो उन्होंने उनके साथ अपने शिष्यों को लगा दिया। तब से ब्राह्मण लोग उन्हें परेशान करना छोड़ दिए और वह निश्चिंत होकर विद्यालय जाने लगी। माता फातिमा शेख भी उनके साथ अध्यापन का काम करती थी। उनके द्वारा शिक्षित की गई अनेक बालिकाओं ने देश और समाज के लिए अग्रणी भूमिका निभाई। उनकी स्कूल में पढ़ने वाली कक्षा 3 की 14 वर्षिय छात्रा मुक्त साल्वे निबंध दलित साहित्य और चेतना का पहला निबंध है। जिसे पढ़ कर महारानी विक्टोरिया काफी प्रभावित हुई थी।
जब उनके श्वसुर ने पति सहित उन्हें घर से निष्कासित कर दिया
ब्राह्मणों ने देखा कि फुले दंपति के स्कूल खोले जाने से शूद्र और महिलाएं काफी मात्रा में शिक्षित हो रहे हैं तो उन्हें जलन होने लगी। इसके बाद वे उनके पिता से धमकी भरी शिकायत करने लगे कि ‘तुम्हारे बेटे और बहू धर्मशास्त्र और नियम विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। वे ईश्वर के द्वारा बनाए गए नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं। इससे ईश्वर नाराज जाएगा। वे लोग पाप और अधर्म का कार्य कर रहे हैं। ईश्वर उनके साथ तुम्हें भी दंडित करेंगे। वे नहीं तो हम स्वयं तुम्हारे बहू और बेटे को श्राप दे देंगे अच्छा होगा कि उन्हें घर से निकाल दो।’ उनके श्वसुर अपने बहू-बेटे से बहुत लगाव रखते थे लेकिन वे ब्राह्मणों के द्वारा कही गई बात को टाल नहीं पाते थे। उन्होंने बहू बेटों को समझाया कहा कि शुद्य और महिलाओं को शिक्षा देना छोड़ दो लेकिन दोनों इसके लिए तैयार नहीं हुए। तब उनके पिता ने हिदायत देते हुए कहा कि तुम्हें शुद्र और महिलाओं की शिक्षा देने का कार्य छोड़ना होगा या घर। दो में से एक चुन लो। तो फुले दंपति ने मजबूर होकर घर छोड़ना ही उचित समझा। उनके उत्तरोत्तर विकास को देखते हुए बाद में उनके पिता को भी समझ में आ गया कि बहू और बेटे को घर से निकलने का मेरा निर्णय गलत था और उनको अपने कृत्य पर बहुत पछतावा हुआ और वे उन्हें अपने घर बुला लिए।
विधवा विवाह एवं शिशु प्रतिबंधक गृह निर्माण
राजा राममोहन राय के द्वारा सती प्रथा का विरोध करने के बाद ब्रिटिश सरकार ने 1929 में कानून बनाकर इसे बंद तो कर दिया लेकिन विधवाओं को मौत के मुंह से निकलकर उन्हें प्राश्रय देने और उनका पुनर्विवाह करने की शुरुआत माता सावित्रीबाई फुले ने ही की। उस समय महिलाओं के विधवा होने पर उनका मुंडन कर दिया जाता था और उन्हें घर में रखने के लिए कोई तैयार नहीं होता था। माताजी ने उनके लिए प्राश्रय गृह की व्यवस्था खुद की और नाई समाज को इकट्ठा करके उनके बीच संदेश दिया कि विधवाओं के बाल न काटे जाएं। उनके इस कार्य का काफी विरोध हुआ लेकिन लहू साल्वे जी और उनके दो शिष्यों धोडिपा कुम्भारे और धोडिपा राणे का उन्हें साथ था तो उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था तब तक वह विद्यालय की स्थापना करके अपने समाज को काफी जागरूक भी कर चुकी थी। उस समय जिन विधवाओं के गर्भ में अवैध रुप से बच्चा ठहर जाता था तो उसको मार दिया जाता था या वह आत्महत्या कर लेती थी। यह समस्या पुरोहित समाज में ज्यादा थी। माता सावित्रीबाई फुले ने एक ब्राह्मण महिला काशीबाई को नदी में कूद कर आत्महत्या करने की कोशिश करते हुए देखा तो उन्होंने उसे आत्महत्या करने से बचा लिया और उसको अपने यहां संरक्षण दिया। इससे वह पूरे समाज का सच समझ गई और ऐसी महिलाओं के लिए अलग से प्रसूता गृह का निर्माण की। जिसमें सैकड़ों विधवाएं रहती थी। काशीबाई के बच्चे को फूले दम्पत्ति ने गोद लिया और उनके पालन-पोषण से लेकर पढ़ने-लिखने और सफलता की राह दिखाने तक की पूरी जिम्मेदारी ली। लेकिन माता सावित्रीबाई फूले और महात्मा ज्योतिराव फूले के पास संतान न थी तो समाज के लोग ताना मारते थे और कहते थे कि आपने धर्मशास्त्र के विरुद्ध कार्य किया है इसलिए इसका फल है तो माता सावित्रीबाई फुले कहती कि मेरे खुद की भले कोई संतान न हो लेकिन ये सैकड़ो बच्चे हमारे ही संतान हैं जो हमारे आश्रम में पल रहे हैं।
थॉमस क्लार्कसन का प्रभाव
थॉमस क्लार्कसन अमेरिका के महान समाजसेवी थे। उन्होंने अमेरिका में अंग्रेजों के द्वारा काले-नेग्रों लोगों पर अत्याचार होते हुए देखा था और उनके विरुद्ध कड़ा संघर्ष किया था। जहां अंग्रेज अपना उपनिवेश स्थापित करके काले लोगों के साथ तमाम प्रकार के भेदभाव और अत्याचार करते थे। माता सावित्रीबाई फुले उनकी जीवनी को पढ़ी और यही भेदभाव भारत में महिलाओं और शूद्रों के साथ होते हुए देख रही थी। यह भेदभाव और अत्याचार भारत में कोई और नहीं बल्कि अपने ही देश के पुरोहित समाज के लोग कर रहे थे। थॉमस क्लार्कसन से प्रेरणा लेकर माताजी ने उनके विरुद्ध लड़ने के लिए संकल्पित हुई और इस लड़ाई में उन्होंने शिक्षा को ही सबसे बड़ा हथियार बनाया।
आधुनिक कविता की जननी माता सावित्रीबाई
भारत में आधुनिक हिंदी साहित्य की शुरुआत भारतेंदु युग यानि 1950 से माना जाता है। तब तक हिंदी साहित्य में आम जनमानस की पीड़ा का उल्लेख नहीं हो पाया था। उनके साहित्य में राजा रानी की कहानी और दरबारीपन था। यूरोप में आधुनिक युग की शुरुआत इससे पहले हो चुकी थी। जिसका प्रभाव माता सावित्रीबाई फुले के साहित्य पर सीधा दिखाई देता है उन्होंने आम जनमानस की पीड़ा एवं उनसे जुड़े मुद्दों को अपने साहित्य में सबसे पहले अभिव्यक्त किया। उनकी कविताएं पारंपरिक लेखन से अलग में आधुनिक विचारधारा से ओत-प्रोत है । जिसमें अव्यवस्था के प्रति कुठाराघात, शुद्रों एव़ महिलाओं की पीड़ा का चित्रण तथा प्रतिरोध का स्वर दिखाई पड़ता है। माताजी ने अपने लेखन से आठ पुस्तकों की रचना की जिसमें से अब मात्र अच्छा ही उपलब्ध हैं। साहित्य के मनीषियों एवं आलोचकों ने इन्हें मुख्य धारा में कभी शामिल ही नहीं किया। वे लोग हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, बंगाली तमाम भाषाओं की पड़ताल कर रहे थे लेकिन अपनी कविताओं से समाज को जागृत करने वाली इस महान मराठी कवयित्री की तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया या जानबूझकर इन्हें समीक्षा एवं आलोचना के पोथियों में शामिल नहीं किया गया। आज भी लोगों ने अपने ग्रंथों में शामिल करने से कतराते हैं।वे अपनी कविताओं में समाज की कुरीतियों और रूढ़िवाद पर घातक प्रहार करती थीं। उनकी कविताओं का एक अंश इस प्रकार हैं-
पत्थर पर सिंदूर पोतकर
उसे तेल में डुबोकर
जिसे समझ लिया जाता है देवता
वह असल में होता है एक पत्थर
मन्नत मांगते
काटते बकरा
करें हलाल
चढ़ावा चढ़ावे
पत्थरों पर पुत्र का जन्म होने पर
यदि पत्थर पूजने से मिलते बच्चे
तो फिर व्यर्थ में
नर नारी क्यों रचते हैं शादी?