भारतीय उपमहाद्वीप और सम्पूर्ण दक्षिण-पूर्व एशिया के ज्यादातर समाज (खासी, गारो, नैयर, इजवाहा, बुंट एवं बिल्लावा जैसी मातृसत्तात्मक जनजातियों को छोड़कर) पित्तृसत्तात्मक हैं। पुरुष ही संपत्ति का मालिक है, वंशानुक्रम भी पित्तृसत्ता से ही तय होता है, जिसके कारण पुरुष वर्चस्व एवं महिलाओं के दोयम दर्जे की स्थिति सामान्य तौर पर पाई जाती है। भारत में बॉलीवुड, दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाला उद्योग है। यहाँ प्रत्येक विषय पर पिछले सौ से ज्यादा वर्षों से सिनेमा बनता रहा है। भारत के पड़ोसी देशों जैसे बर्मा, इंडोनेशिया, कंबोडिया, मलेशिया, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल इत्यादि में सिनेमा उद्योग की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है।
महिला कामगारों के देश से बाहर जाकर काम करने की बात करें तो भारत में केरल से सर्वाधिक संख्या में महिलाएं खाड़ी देशों में घरेलू कामगारों और फैक्ट्री मजदूर के तौर पर बड़ी संख्या में प्रवास करती हैं। बर्मा (म्यांमार) और इंडोनेशिया व कंबोडिया जैसे अपेक्षाकृत पिछड़े देशों की महिलाएं भी थाईलैंड और सिंगापोर, जापान आदि एशियन टाइगर कहे जाने वाले देशों में ‘फीमेल माइग्रेंट वर्कर्स’ (FMW) के रूप में कार्य करती हैं। अपने मूल देश में ये महिलाएं पुरुष सत्ता के अधीन शोषण की परिस्थितियों में काम करती हैं। प्रवासी देशों में भी उनकी स्थिति में कोई खास अंतर नहीं होता। इस विषय पर बनी फिल्मों में फीमेल माइग्रेंट वर्कर्स के चित्रण से हम इस बात को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।
रेमिटेन्स (2015) यह फिल्म एक फिलीपींस की निवासी महिला मैरी की कहानी है जो सिंगापोर जाकर मेड की नौकरी करती है। जब विदेश मे जाकर काम करने वाला कोई पुरुष या महिला अपने रिश्तेदारों को पैसे भेजता है तो उसे रेमिटेन्स कहते हैं। महिलाएं अपने घर-परिवार और बच्चों की ज़िम्मेदारियों को लेकर ज्यादा संवेदनशील और समर्पित होती हैं। भारत और दक्षिण एशिया के देशों से प्रवास का जो प्रारूप रहा है उसमें घर के पुरुष सदस्य रोटी अर्जक के रूप में प्रवास करते रहे हैं लेकिन भारत के केरल प्रदेश से खाड़ी देशों में बड़ी संख्या में महिलाएं डोमेस्टिक हेल्प वर्कर्स रूप मे जाती रही हैं। वर्ष 2015 मे रिलीज हुई फिल्म रेमिटेन्स एक फीमेल माइग्रेंट वर्कर महिला मैरी की कहानी है जो फिलीपींस के कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण विदेश मे सिंगापुर काम करने आई है।
वह अपनी ज़िंदगी की तमाम परेशानियों से संघर्षरत है। मालिकों की अपेक्षाएं, काम के ज्यादा घंटे, अपने परिवार और बच्चों से दूर रहकर भावनात्मक वंचना से जूझना यह सब कुछ ज्यादा ही उबाऊ है। एक महिला से समाज, परिवार और रोजगारदाता सबको बहुत सारी उम्मीदें और अपेक्षाएं होती हैं जिनका बोझ लेकर वह जीती है। इन सबके बीच एक व्यक्ति या इंसान के रूप में उसकी खुद की ज़िंदगी कहीं गुम हो जाती है। सन नब्बे के दशक में आए उदारीकृत विश्व व्यवस्था में पूँजी और श्रम का जो वस्तुकरण हुआ वह केवल सिंगापुर या थाईलैंड की कहानी न होकर दुनिया के सभी देशों की कहानी बन चुकी है। तीसरी दुनिया के गरीब देशों से महिलाओं का विकसित देशों के लिए प्रवास करना मानवीय इतिहास की बड़ी घटना है। प्रवासी महिलाएं होम और होस्ट दोनों देशों में पितृसत्ता से आज़ादी चाहती हैं क्योंकि वे कहीं भी जाएं अपनी कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण उनके साथ शोषण, अपमान और भेदभाव जारी रहता है। फिलीपींस, इंडोनेशिया और श्रीलंका की जो भी प्रवासी कामगार महिलाएं सिंगापोर में काम करती हैं अगर उनके अपने देश में रोजगार की सुविधाएं मिलें तो उन्हें अपने घर-परिवार से दूर प्रवास करने को बाध्य न होना पड़े। प्रवासी महिलाएं अपनी कमाई का अधिकतम हिस्सा अपने घरों को वापस भेजती हैं ताकि उनके परिवार की स्थिति बेहतर हो सके, उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके। प्रवासी महिलाओं के सामने सबसे बड़ी समस्या उनके अपने समाज के मूल्य हैं जो उनसे शुचिता, पवित्रता और पतिव्रता होने की अपेक्षा रखते हैं। इसी कारण बहुत-सी फ़ीमेल माइग्रेंट वर्कर्स का तलाक होता है और उनकी निजी ज़िंदगी तबाह हो जाती है।
द रोड टू मांडले (2016) फिल्म बर्मा से थाईलैंड जाकर एक बेहतर जीवन जीने की इच्छा लेकर प्रवास करने वाले युवाओं के बारे में है। म्यांमार या बर्मा से एक सपना या उम्मीद लिए बहुत सारे लोग वैध या अवैध तरीके से थाईलैंड जाते हैं। यह फिल्म ऐसे ही दो प्रवासियों, लियनकिंग और गुओ की कहानी है जो एक बेहतर ज़िंदगी की तलाश में थाईलैंड पहुंचते हैं। म्यांमार-थाईलैंड की सीमा पार करने के बाद एक ट्रक में संयोगवश दोनों की मुलाकात होती है। गुओ लियनकिंग की लगातार मदद करता है ताकि उसे एक अच्छी नौकरी, संपर्क, खाना और रुकने का कोई स्थान मिल सके। लियनकिंग को तमाम प्रयासों के बावजूद भी अच्छा काम नहीं मिलता। वह एक दिन में 14 घंटे काम करने और भीड़भाड़ वाले सीमेन्ट फ्लोर में सोने की जगह, गंदी हवा, पुलिस से डर, हर जगह घूस और फीस देना बहुत सारी मुश्किलों के बीच रहना ही इन अवैध प्रवासियों के हिस्से आता है। गुओ ड्रग्स लेकर अपने मुश्किलों और दर्द को भुलाने की कोशिश करता है लेकिन परिश्रमी लियनकिंग इन सबके बीच भी होस्ट कंट्री के कानूनों का पालन करने की कोशिश करती है। गुओ और लियनकिंग बर्मा से थाईलैंड आए हैं, विदेश में रहना उनके लिए बेहद मुश्किल है लेकिन वे एक-दूसरे से प्यार करते हैं, जिसका इज़हार भी करते हैं।
लियनकिंग अवैध प्रवासी होने के कारण पुलिस द्वारा पकड़ी जाती है और कानूनी पेपर्स पाने के लिए पूरा प्रयास करती है चाहे वह फर्जी तरीके से भी मिले। लेकिन फ्रॉड ढंग से नागरिकता या पासपोर्ट के कागजात पाने के लिए बहुत सारे पैसों की ज़रूरत होती है। वह पैसे जुटाने के लिए वेश्यावृत्ति तक करने लगती है जो थाईलैंड में एक वैध कारोबार है। इससे लियनकिंग के पुरुष मित्र गुओ को ‘धक्का’ लगता है और गुस्से में वह उसकी हत्या कर देता है। असल में गुओ बर्मा वापस लौटकर लियनकिंग के साथ शादी कर नई ज़िंदगी आरंभ करना चाहता है लेकिन लियनकिंग बर्मा वापस लौटने को तैयार नहीं होती। इस बात से दोनों के बीच टकराव बढ़ता है जो एक बुरे अंत की तरफ ले जाता है।
इस फिल्म में थाई, बर्मीज, अंग्रेजी एवं चीनी भाषा का प्रयोग हुआ है जिसके कारण विभिन्न संस्कृतियों के बारे में जानकारी मिलती है। इस फिल्म को 2016 के टोरंटो इंटेरनेशनल फिल्म फेस्टिवल मे दिखाया गया था।
पाकिस्तानी फिल्म पिंकी मेमसाब (2018-शाज़िया अली खान) तमाम ऐसी महिलाओं की दास्तान है जो साउथ एशिया के देशों से प्रति वर्ष लाखों की संख्या में खाड़ी देशों में मेड और नैनी के रूप में काम करने जाती हैं। पहले केरल (भारत) और श्रीलंका से महिलाएं काम करने विदेशों मे जाती थीं लेकिन अब बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल की महिलाएं भी दूसरे देशों मे काम करने जा रही हैं। होम और होस्ट दोनों देशों मे पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना होने के कारण लिंग आधारित भेदभाव, मूल्य, प्रतिमान और अपेक्षाएं प्रवास की स्थितियों को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बहुपत्नी प्रथा को अपनाने वाला पिंकी का पति उसे बच्चा न पैदा कर पाने के कारण दूसरी औरत से शादी कर लेता है। असहाय पिंकी को गरीबी और बेरोजगारी से लड़ने के लिए दुबई जाना पड़ता है।
साउथ एशिया के देश शादीशुदा और उम्रदराज महिलाओं को ही विदेश भेजते हैं। इन देशों के कानून भी महिलाओं के प्रवास पर कई तरह के प्रतिबंध लगाते हैं। उपर्युक्त विश्लेषण मे शामिल तीनों फिल्में साउथ एशिया के देशों के सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना और प्रवास की स्थिति में महिलाओं की ढेरों मुश्किलों और चुनौतियों को प्रस्तुत करने वाले दस्तावेज़ हैं जो स्पष्ट करते हैं कि महिलाएं कहीं भी चली जाएँ कितना भी पैसा कमाकर घर वालों का सहयोग करें उनके प्रति पूर्वाग्रह और स्टेरियोटाइप का बोझ कम नहीं होता।
संदर्भ
Cheng, christie (2021) agency, precarity and recognition: reframing south east Asian female migrant workers on screen, in south east asia research vol 29, 2021, issue 2 .
Devasundaram, Ashwini (2020) subalterns and the city: dubai as cross-cultural caravanserai in city of life and pinky memsaab, in transnational screens vol11, issue 3.
यह सच है महिलाओं के प्रति पुरुषों में पूर्वाग्रह और स्टीरियोटाइप मानसिकता होती है। लेख में बहोत ही अच्छी तरह से तीनों फिल्मों के माध्यम से महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराई गई है।??
इतनी बारीकी से प्रवासी जीवन की पितृसत्तात्मक सोच से अवगत कराने के लिए लेखक महोदय का आभार। राकेश कबीर बेहतर लेखक व कवि हैं।
बेहतरीन लेख??
एक कहावत है राजा का लड़का ही राजा होगा, वह दिन लद गए राजा वही होगा जो उसका हकदार होगा ।परंतु इस लेख को पढ़कर यही निष्कर्ष निकलता है कि अभी भी दुनिया के तमाम देशों में महिलाओं के प्रति पुरुषों में पूर्वाग्रह और स्टीरियोटाइप मानसिकता है आपने इस लेख के माध्यम से महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराई है।??????????
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