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कथनी और करनी में फर्क (डायरी 17 जनवरी, 2022) 

बचपन से सुनता आया हूं कि कथनी और करनी में बहुत फर्क होता है। हालांकि बचपन में यह महसूस नहीं होता था। इसकी वजह शायद यह कि कथनी को करनी में बदलने की उम्र नहीं थी। उम्र तो थी बस जो मन में आए करने की। पढ़ने में मन बहुत लगता था तो पढ़ा भी […]

बचपन से सुनता आया हूं कि कथनी और करनी में बहुत फर्क होता है। हालांकि बचपन में यह महसूस नहीं होता था। इसकी वजह शायद यह कि कथनी को करनी में बदलने की उम्र नहीं थी। उम्र तो थी बस जो मन में आए करने की। पढ़ने में मन बहुत लगता था तो पढ़ा भी बहुत। मन करता कि आज खेलना है तो खूब खेला भी। खेल भी कैसे-कैसे होते थे उन दिनों। डोलपत्ता, कबड्डी और लुकाछिपी। पापा सख्त मिजाज के आज भी हैं और मेरे बचपने को तो उन्होंने अपने काबू में कर रखा था। कांच की गोलियां खेलने, पतंग उड़ाने और लट्टू नचाने पर पाबंदियां थीं।

कथनी को करनी को में बदलने का वक्त तो तब आया जब मैट्रिक पास किया। मालूम चला कि आगे पढ़ने के लिए कोई सहायता नहीं मिलनेवाली है। पढ़ना है तो कमाओ। तब कमाना भी बहुत मुश्किल काम था। लेकिन करना तो था ही, सो कमाना भी शुरू किया और वह भी 16-17 साल की उम्र में। तब केवल पांच सौ रुपए मिलते थे महीने के। दो घंटे के लिए पटना के बुद्ध मार्ग स्थित एक चार्टर्ड एकाउंटेंट के यहां जाता था। उनका नाम था– ओमप्रकाश बजाज। काम अधिक नहीं होता था। बस कुछ आंकड़े और रोज के कुछ पत्र टाइप करने होते थे।

[bs-quote quote=”पहली बार कथनी और करनी वाली बात समझ में आयी। मतलब यह कि विंडोज के सहारे में हर कथनी को करनी में बदल सकते थे। लेकिन समस्या तो तब भी थी। मल्टीटास्किंग इतना आसान नहीं होता था। हालांकि तब माइक्रोप्रोसेसर की टेक्नोलॉजी में बहुत विस्तार हो चुका था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

उन दिनों कंप्यूटर साइंस की बारीकियां सीख रहा था। आपरेटिंग सिस्टम के रूप में विंडोज का चलन तब शुरू ही हुआ था। यह एक कमाल का आपरेटिंग सिस्टम था। हालांकि मैं मैक व अन्य आपरेटिंग सिस्टम के चलन में आने के बावजूद इसे कमाल का आज भी मानता हूं। तब तो विंडोज ही सबकुछ था मेरे लिए। मल्टीटास्किंग की क्षमता वाला आपरेटिंग सिस्टम था यह और इतना आसान कि कोई कमांड रट्टा मारने की जरूरत नहीं। पहली बार कथनी और करनी वाली बात समझ में आयी। मतलब यह कि विंडोज के सहारे में हर कथनी को करनी में बदल सकते थे। लेकिन समस्या तो तब भी थी। मल्टीटास्किंग इतना आसान नहीं होता था। हालांकि तब माइक्रोप्रोसेसर की टेक्नोलॉजी में बहुत विस्तार हो चुका था। इंटेल ने तो जैसे क्रांति ही ला दी थी। होता यह था कि माइक्रोप्रोसेसर की क्षमता बहुत अधिक हाेती थी और उसके लिए आवश्यक प्राइमरी मेमोरी की क्षमता बहुत कम। बेचारा विंडोज उलझकर रह जाता था।

ओह, आज मैं कहां खो गया। मैं तो यह बात करना चाह रहा था कि कथनी और करनी में फर्क अखबारों के मामले में भी होता है। मतलब यह कि कई बार होता यह है कि अखबारनवीस कहना कुछ और चाहते हैं और हेडिंग कुछ और लगा देते हैं और जब कभी ऐसा होता है तो पूरा मामला हास्यास्पद हो जाता है। अब यदि इस तरह की बात दैनिक हिन्दुस्तान और दैनिक जागरण जैसे अखबारों के मामले में हो तो, आश्चर्य नहीं होता। हैरत तो तब होती है जब दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता में इस तरह की हास्यास्पद बात हो। उदाहरण के लिए आज ही जनसत्ता ने अपने पृष्ठ संख्या 8 पर एक खबर प्रकाशित किया है। हेडिंग है – टीकाकरण के खिलाफ लड़ाई हुई बेहद मजबूत : मोदी।

अब इस हेडिंग पर हंसा ही जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी से जुड़ी खबर के मामले में ऐसी चूक! खैर, खबर यह है कि प्रधानमंत्री ने कहा है कि कोविड महामारी का मुकाबला भारत बेहद मजबूती से कर रहा है। उनका कहना है कि सरकार ने सही समय पर वैक्सीन का निर्माण कराया और शीघ्रता से लोगों का टीकाकरण कराया जिसके कारण भारत के लोगों की जान बच गयी। वहीं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा का बयान भी इसी खबर का हिस्सा है, जिसके मुताबिक भारत के 92 फीसदी आबादी का कम से कम एक बार टीकाकरण अवश्य हो चुका है।

अब चूंकि देश के पांच राज्यों में चुनाव है तो प्रधानमंत्री इसका क्रेडिट लेने से क्यों चूकें? यदि मैं व्यंग्य लिख रहा होता तो यह जरूर लिखता कि इस महानतम उपलब्धि के लिए प्रधानमंत्री को भारत के सभी टीका प्राप्त कर चुके लोगों को एक दिन भोज देनी चाहिए। भोज में मनचाहा भोजन हो। आखिर प्रधानमंत्री की जीत में भारत के करोड़ों लोग शामिल हैं। उन्हें भी तो इसका अहसास होना चाहिए कि अब वे टीकाधारी लोग हैं और उन्हें तो कोरोना क्या उसका बाप भी कुछ नहीं बिगाड़ेगा।

[bs-quote quote=”प्रधानमंत्री के स्तर पर बात करूं तो बेचारे माइक्रोप्रोसेसर बनकर रह गए हैं। 24 घंटे में 48 घंटे का काम करते हैं। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि वे प्रधानमंत्री और प्रचार मंत्री दोनों की भूमिका का निर्वहन एक साथ कर रहे हैं। भागवत भी उन्हें साथ देने को आगे नहीं आ रहे। यह भी नहीं हो रहा है कि अपने सभी संघियों को कोरोना का महायोद्धा बनने के लिए आह्वान करें ताकि टीकाकरण की गति तेज हो।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

परंतु, मैं कोई व्यंग्य नहीं लिख रहा। मैं तो कथनी और करनी की बात कर रहा हूं। मेरे सामने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का आधिकारिक वेबसाइट है और यह बता रहा है कि कल रात साढ़े दस बजे तक भारत में कोरोना के तीसरी लहर के दौरान संक्रमितों की संख्या में बीते 24 घंटे में 2 लाख 65 हजर 432 की वृद्धि हुई है। इसी अवधि के दौरान यानी बीते 24 घंटे में मरनेवालों की संख्या में 375 की वृद्धि हुई। सनद रहे कि इन आंकड़ों में त्रिपुरा और झारखंड के आंकड़े शामिल नहीं हैं।

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अब सवाल यह है कि कथनी और करनी में फर्क क्यों है?

मुझे लगता है कि इसकी कई वजहें हैं। प्रधानमंत्री के स्तर पर बात करूं तो बेचारे माइक्रोप्रोसेसर बनकर रह गए हैं। 24 घंटे में 48 घंटे का काम करते हैं। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि वे प्रधानमंत्री और प्रचार मंत्री दोनों की भूमिका का निर्वहन एक साथ कर रहे हैं। भागवत भी उन्हें साथ देने को आगे नहीं आ रहे। यह भी नहीं हो रहा है कि अपने सभी संघियों को कोरोना का महायोद्धा बनने के लिए आह्वान करें ताकि टीकाकरण की गति तेज हो। दूसरी ओर टीकाकरण करनेवाले चिकित्साकर्मी। वे तो कमाल के हैं। अभी कल ही पटना से एक खबर आयी कि मेरे इलाके के एक स्वास्थ्य उपकेंद्र में पिछले एक सप्ताह से पदस्थापित चिकित्सक नहीं आ रहे हैं। इसके कारण वहां टीकाकरण नहीं हो रहा है। मैंने सूचना देनेवाले से पूछा कि आखिर ऐसे चिकित्सक के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है, तो उसने कहा कि चिकित्सक सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री का दामाद सरीखा है। दामाद सरीखा का मतलब क्या? तो उसने कहा कि चिकित्सक एक मंत्री के दामाद का भाई है।

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बिहार से एक बात याद आयी कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी कोरोना हुआ है। कोई खबर नहीं आ रही। हालांकि मुझे पूरा विश्वास है कि वे आम आदमी नहीं हैं कि कोरोना उनकी जान लेने की हिमाकत करेगा। कोरोना को तो उनके मामले में हारना ही होगा। मैं तो नीतीश कुमार के दीर्घायु होने की कामना करता हूं।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

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