Sunday, September 8, 2024
Sunday, September 8, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमसंस्कृतिनिर्देशक प्रसन्ना की तीन-दिवसीय नाट्य कार्यशाला : श्रम के साथ अभिनय सीखा...

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

निर्देशक प्रसन्ना की तीन-दिवसीय नाट्य कार्यशाला : श्रम के साथ अभिनय सीखा प्रतिभागियों ने

नाटककार प्रसन्ना एक सहज निर्देशक हैं। उन्होंने नाटक के कथ्यों की जटिलता को बहुत ही आसानी से प्रस्तुत करने के गुर कार्यशाला में उपस्थित अभिनेताओं को बताये। कोई भी व्यक्ति एक्शन-रिएक्शन कर लेने या संवाद बोल लेने से अभिनेता नहीं बन जाता बल्कि को चरित्र को जीते हुए उसमें घुसना जरूरी होता है इसका कोई फार्मूला नहीं होता बल्कि उस तक पहुँचने के लिए अभिनय के साथ मंच पर प्रस्तुति के दौरान ध्यान रखी जानी वाली बारीक बातों को प्रसन्ना ने साझा किया।

नाटक बिना लाइट, माइक और बाक़ी तामझाम के भी हो सकता है लेकिन ऐसा नाटक में काम करने वालों के आपसी सहयोग के बिना हो ही नहीं सकता। अगर एक क़िरदार क़ातिल है और दूसरे की भूमिका मरने की है तो मंच पर दोनों में इतना सहयोग व सामंजस्य होना चाहिए कि दर्शकों को वह सच लगे जो सच नहीं है। नाटक सहयोग और मैत्री सिखाता है। नाटक इस अर्थ में बेहतर जीवन और बेहतर मनुष्य बनना सिखाता है।

भारतीय रंगमंच के किंवदंती कहे जाने वाले नाट्य निर्देशक और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रसन्ना हेग्गोडु की तीन-दिवसीय दो नाट्य कार्यशालाएँ इंदौर में 7 जून से 10 जून 2024 तक संपन्न हुईं। चूँकि प्रसन्ना केवल एक नाटककार ही नहीं हैं, एक ज़मीनी काम करने वाले प्रयोगधर्मी एक्टिविस्ट भी हैं इसलिए उनसे दुनिया के बड़े नाटककारों के काम के बारे में जानने के साथ ही उनके गाँवों में किये गए सहकारिता के प्रयोगों को भी सुनना था। यही सोचकर जया मेहता ने तीन दिवसीय कार्यशाला आयोजित करने का प्रस्ताव रखा।

इस कार्यशाला में नाटक के सिद्धांत, जीवन से नाटक के जुड़ाव, श्रम के साथ नाटक के सम्बन्ध, दैत्य अर्थव्यवस्था और उसके बरअक्स मनुष्य की गरिमा को बहाल करने वाली जीवन व्यवस्था, उपभोक्तावाद के बरअक्स जरूरतें कम करने का जीवनदर्शन, सहकारिता आदि विषयों पर घंटों विचार-विमर्श सवाल-जवाब हुए।  सुबह 8 बजे से 11 बजे तक चलने वाली कार्यशाला में प्रसन्ना ने अभिनय की तकनीकें, आवाज़ के उतार-चढ़ाव से भाव के निर्माण आदि बातें प्रतिभागियों को सिखायीं, लेकिन मेरे विचार से इन कार्यशालाओं में प्रतिभागियों ने तकनीक से ज़्यादा कुछ ज़रूरी जीवन मूल्य और कुछ ज़रूरी सवाल सीखे। अनेक प्रतिभागियों के मन में यह सवाल शायद पहली बार ही उठा होगा कि जिस तरह की जीवन पद्धति हमने अपनायी हुई है, उसका नतीजा अगली पीढ़ी के लिए क्या होगा? कितने लोगों ने पहली बार यह सोचा होगा कि हम मशीनों के साथ ख़ुद मशीनी होते जा रहे हैं? कितने ही लोगों को पहली बार ये फ़िक्र महसूस हुई होगी कि पर्यावरणीय बदलावों का असर कितना भयंकर हो सकता है या कितने ही लोगों ने प्रेम में अधिकार और अहंकार से ज़्यादा विनम्रता का महत्त्व सीखा होगा। इस मायने में यह नाट्य कार्यशाला सिर्फ़ नाट्य कार्यशाला नहीं थी, उससे बहुत ज़्यादा थी।

अभिनय की बारीकियाँ सिखाते हुए उन्होंने ‘मैं तुमसे प्यार करता हूँ’ वाक्य को लगभग 50 प्रतिभागियों से बुलवाकर सुना। आख़िर में उन्होंने कहा कि यह वाक्य अहंकार के साथ ‘मैं’  पर ज़ोर देकर कहा जाए तो वह प्यार को  प्रदर्शित ही नहीं करेगा। प्यार में ‘मैं’ होगा तो सही लेकिन विनम्रता और प्रसन्नता से भरा हुआ।  प्यार में प्यार और जिससे प्यार करते हैं, उसका महत्त्व ज़्यादा है, तभी वह वाक्य प्यार भरा वाक्य होगा अन्यथा खोखला होगा। एक यही बात अगर प्रतिभागियों ने ठीक से समझ ली हो तो वो कभी ‘मेल सुप्रीमेसी’ को अपने व्यक्तित्व पर हावी नहीं होने देंगे।

एक सत्र में उन्होंने निराला की कविता ‘वह तोड़ती पत्थर’ की पंक्तियों का विभिन्न प्रतिभागियों से पाठ करवाकर अर्थ की परतें पाठ के ज़रिये कैसे खुलतीं हैं, समझाया।  एक सत्र में उन्होंने प्रतिभागियों से समूह बनाकर ऐसी निरर्थक भाषा में बात करने का अभ्यास करवाया जिसमें एक भी शब्द का कोई अर्थ न हो, हिंदी, अंग्रेजी या किसी भी भाषा का न हो (जिबरिश) और फिर भी जो सुनें, उन्हें लगे कि लोग आपस में कोई काम की बात कर रहे हैं। इस अभ्यास का मक़सद यह महसूस करवाना था कि भावनाओं को व्यक्त करने के लिए सदा भाषा और शब्द ही आवश्यक नहीं होते, बल्कि अनेक हाव-भाव द्वारा भी अपने आपको अभिव्यक्त किया जा सकता है। अनेक अभ्यासों के द्वारा उन्होंने प्रतिभागियों से जो करवाया, उससे आठ साल से सत्तर साल तक के सौ से ज़्यादा प्रतिभागियों ने अपने भीतर एक नये मनुष्य को पहचाना, उसका अहसास उन्हें हुआ।

विभिन्न सत्रों में उन्होंने दुनिया के पिछली सदी के महान नाटककार बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (जर्मनी) से लेकर इब्राहिम अल्काजी और हबीब तनवीर तथा सफ़दर हाश्मी सहित अनेक नाटककारों की विशेषताओं की चर्चा की और उनसे जुड़े प्रसंग भी सुनाये, जिससे माहौल दिलचस्प बना रहा। एक और बहुत महत्त्वपूर्ण बात सहयोग और मैत्री के संबन्ध में उन्होंने यह कही कि फ़िल्म अभिनेता प्राण ने खलनायक की अनेक यादगार भूमिकाएँ कीं, अनेक बार अभिनेत्रियों की अस्मत लूटने वाले दृश्य भी किए लेकिन प्राण के साथ हर अभिनेत्री अपने आपको इतना सहज, सुरक्षित और शंकारहित महसूस करती थी क्योंकि प्राण अपने अभिनय के अलावा निजी ज़िंदगी में सभी महिला साथियों के साथ बहुत सम्मानजनक व्यवहार करते थे। तभी उन्हें अपने क़िरदार को निभाने के लिए उनकी महिला साथी सहयोग करती थीं। कलाकार को सभ्य, और उसके द्वारा निभाए गए पात्र की भूमिका सहज होना चाहिए।

 

एक सत्र में उन्होंने बहुत दिलचस्प तरह से संवादों में, या नाटक में ‘बिंदी’ के प्रयोग को लेकर बात की। उन्होंने कहा कि बिंदी वो चीज है जो दिखती नहीं है लेकिन उसे निर्देशक और अभिनेताओं को देखना आना चाहिए तभी वो कुछ अलग कर सकते हैं। लगभग सभी प्रतिभागी बड़ी उलझन में कि ऐसी कैसी बिंदी है जो होती है पर दिखती नहीं है। खुद मेरे लिए ये बिंदी अत्यंत रहस्यमय होती जा रही थी लेकिन शायद प्रसन्ना का कहने का आशय ये था कि नाटक में और संवादों में ऐसी जगहें आती हैं जहाँ कलाकार या निर्देशक के पास कुछ अलग करने का मौका होता है बशर्ते वो उसे पहचान सके तो। बस वही बिंदी है। ऐसे मौकों को पहचानने का कोई प्रशिक्षण नहीं हो सकता लेकिन करने से वो आता जाता है।

prasnna ipta workshop indore

उन्होंने कहा कि कलाकार को अभिनय के लिए दिए गए पात्र के अभिनय की प्रेरणा अपने अंदर से नहीं, बाहरी प्रतिक्रिया से मिलती है। नाटक क्रिया और प्रतिक्रिया, यानि एक्शन और रिएक्शन से चलता है। जब तक दूसरा क़िरदार आपके एक्शन पर रिएक्शन नहीं देगा, तब तक आपका एक्शन किसी काम का नहीं होगा। और आपने बहुत अच्छा एक्शन किया लेकिन रिएक्शन उतना अच्छा नहीं हुआ तो भी आपके एक्शन का वो असर नहीं पैदा होगा। उन्होंने अलग-अलग ढंग से अभिनय में शरीर के विभिन्न अंगों के इस्तेमाल का भी अभ्यास करवाया। उन्होंने कहा कि अभिनय केवल दिए गए संवादों से ही नहीं होता, कलाकार का शरीर और उसके अंग, विशेषकर आँखें भी बोलना चाहिए, लेकिन अच्छा अभिनय यही है कि जो जितना होना है, उतना ही हो, ज़्यादा हाथ-पैर और भाव-भंगिमाएँ बनाने से भी अभिनय को नुक़सान पहुँचता है। उन्होंने एनएसडी में अपने वरिष्ठ नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, सुरेखा सीकरी, उत्तरा बावकर, अपने समकालीन राज बब्बर और अपने बाद के बैच के रघुबीर यादव के भी अनेक प्रसंग बताए कि वे लोग अपने क़िरदार में जान डालने के लिए कितनी मेहनत करते हैं। एक सवाल उनसे यह किया गया कि नसीरुद्दीन शाह आपसे नाराज़ क्यों रहते हैं? प्रसन्ना ने कहा कि वे मेरे सीनियर भी हैं और बहुत अच्छे अभिनेता भी। उनके लिए मेरे मन में आदर है लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि एनएसडी ने अपने दीक्षांत समारोह में, जो कि आठ-दस वर्षों में एक बार होता है, उसमें एनएसडी प्रशासन ने नसीरुद्दीन शाह को मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया। मैंने एनएसडी को पत्र लिखा कि एनएसडी को किसी ऐसे कलाकार को दीक्षांत समारोह का मुख्य अतिथि बनाना चाहिए था जो मुख्य रूप से नाटक और थिएटर से जुड़ा रहा हो न कि सिनेमा से। इस बात को इस तरह दुष्प्रचारित किया गया कि प्रसन्ना को नसीर के नाम पर एतराज है जबकि ऐसा हरगिज़ नहीं था।

9 जून को प्रतिभागियों से श्रमदान भी करवाया गया और प्रसन्ना के साथ-साथ इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव और प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक तनवीर अख़्तर (पटना) और हबीब तनवीर के नाटकों की प्रसिद्ध अभिनेत्री और गायिका पूनम तिवारी (छत्तीसगढ़) ने तीन फलदार और छायादार वृक्षों के पौधे गाँधी हॉल प्रांगण में रोपे। श्रमदान के बाद के सत्र में साफ़-सफ़ाई के महत्त्व को नाटक और अभिनय के साथ जोड़कर यह भी समझाया कि अगर स्टेज पर कूड़े की ज़रूरत है तो उसे वहाँ होना चाहिए वर्ना जिसकी ज़रूरत नहीं, ऐसी ख़ूबसूरत चीज़ भी कूड़े के समान है। प्रसन्ना ने कहा कि स्टेज पर किसी को थप्पड़ मारने का दृश्य करते हुए सही में थप्पड़ मारना या किसी भी तरह का ऐसा काम नहीं होना चाहिए जो दर्शकों को ख़राब लगे।

उन्होंने कहा कि हमारी नाट्य परंपरा कालिदास, भवभूति और भास की रही है। शहरी नाटक इंग्लिश नाटकों से प्रेरित हैं। गाँव के नाटकों से उनका कोई रिश्ता नहीं रहा है। हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन और लोक कहानियों एवं नाटकों के माध्यम से भारतीय नाट्य परंपरा में ख़ूबसूरत विकास के अध्याय जोड़े हैं। हबीब साहब ने जन सामान्य से नायक तलाशे थे। हबीब तनवीर का थिएटर लोक कला या मनोरंजन मात्र नहीं था बल्कि उन्होंने आधुनिक समय को लोक के माध्यम से व्यक्त किया।  उनके नाटक सामान्य लोगों में से बड़ी मानवीय चीज़ें निकाल कर लाते हैं। बड़ी चीजों की ओर भागना हमारी प्रवृत्ति है। थिएटर और समाज का भी यही सच है। छोटे-छोटे प्रयासों की सफलता स्थाई होती है। थिएटर भव्य स्टेज, रंग बिरंगी रोशनी पर नहीं, दर्शकों पर निर्भर होता है।

प्रसन्ना ने कहा कि एक्टर अपनी प्रस्तुति से निर्मित नहीं होता। वह निरंतर अभ्यास से ही विकसित हो सकता है। नाटक, कलाकार को बोलना सिखाता है। मोबाइल से कला नहीं सीखी जा सकती। जिस तरह देश किसी चुनाव से या सिर्फ़ सरकार से नहीं, बल्कि जन सामान्य के छोटे-छोटे प्रयासों से विकसित होता है, इसकी एक प्रक्रिया है। इसी तरह समाज हो अथवा नाटक उसे ऐसी ही प्रक्रिया के दौर से गुजरना होता है। अगर आप प्रोसेस पूरी नहीं होने देंगे तो अच्छा थिएटर कैसे तैयार होगा। उन्होंने कहा कि फ़िल्म हो अथवा नाटक, बिना रिहर्सल (अभ्यास) के अच्छा नहीं बन सकता। जापान के फ़िल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा और भारत के सत्यजीत राय कलाकारों से महीनों रिहर्सल करवाते थे, उसके बाद ही वे फ़िल्म शूट करते थे।

उन्होंने कहा कि आज हर कोई मुंबई में जाकर सीधे फ़िल्म स्टार बनना चाहता है, जबकि वहाँ कलाकारों का शोषण भी होता है। वर्तमान में शहर और गाँव में द्वंद्व चल रहा है। नगरीय व्यवस्था नौजवानों को महानगरों की ओर खींच रही है। फ़िल्मों में पैसा है तो थोड़ा पैसा कमाने जाइए लेकिन थोड़े दिन बाद वापस आकर अपने शहर में, गाँव में थिएटर कीजिये। फ़िल्मों का अर्थशास्त्र अनैतिक है। थिएटर अपने उत्पादन में भी सहकारिता से होता है और प्रदर्शन में भी,जबकि फ़िल्म में मेहनत तो सबकी होती है लेकिन मुनाफ़े का वितरण बहुत ग़ैर बराबरीपूर्ण होता है। और ज़्यादा  थिएटर किये जाने की, और थिएटर के बारे में समाज का सोच और बेहतर किये जाने की ज़रूरत है। वर्तमान में केवल हिंदी ही नहीं, सभी भाषाओं का थिएटर संकट में है। वैचारिकी के संकट को देखते हुए कलाकारों को प्रतिबद्ध और जागरूक रहना ज़रूरी है। वर्तमान समय में संस्कृति और कला के सामने बड़ा संकट है। भाषा, संस्कृति, नागरिकता बोध सभी ख़तरे में हैं। बाज़ार और राजनीति के हावी हो जाने से आपसी संबंध और मित्रता खो-सी गई है।

उन्होंने कहा कि लोग संस्कृति को कला से कन्फ्यूज़ करते हैं। संस्कृति पूरा जीवन होती है, खाना, पीना, कपड़े, रस्मो-रिवाज़ आदि सब संस्कृति हैं। उसमें सब अच्छा हो, ये ज़रूरी नहीं लेकिन संस्कृति एक पौधा है और कला उसका फूल। कला में सब व्यवस्थित होना चाहिए।  विभिन्न सत्रों में प्रसन्ना ने बताया कि ब्रेष्ट और गोर्की अपनी रचनाओं के ज़रिए राजनीतिक संदेश देते थे। उदाहरणों और कटाक्षों से उन्होंने राजनेताओं द्वारा किये जा रहे ख़राब नाटकीय भाषणों के भी उदहारण दिए।

उन्होंने कहा कि असहजता को सहजता से व्यक्त करना ही एक्टिंग है। भारतीय दर्शक मनोरंजन भी चाहता है। नाटकों में चतुराई से गंभीर संदेश देने में हबीब तनवीर का नाटक चरण दास चोर उल्लेखनीय है। प्रसन्ना ने कहा कि केवल किताबें पढ़कर अभिनय नहीं सीखा जा सकता, उसे करके देखना पड़ता है।

काल और स्थान का महत्त्व समझाते हुए उन्होंने कहा कि अपने स्थान की बजह से कोई चीज अपना अर्थ ग्रहण करती है। रास्ते में गोबर पड़ा है तो गंदगी है, उसे पौधे की जड़ में डाल दो तो वो खाद है। विभिन्न सत्रों का संचालन विनीत तिवारी ने और जया मेहता ने किया।

कार्यशाला के आख़िरी दिन दोपहर के खाने के पहले इप्टा की को लेकर हम कुछ लोग केबिन में भावी योजना पर बातचीत कर रहे थे। राकेश, वेदा, तनवीर अख़्तर, जया मेहता, प्रसन्ना और विनीत तिवारी। बस इतने ही लोग थे। कुर्सियाँ थोड़ी दूर-दूर थीं और भारी भी थीं, तो हमने खींच कर पास-पास कर लीं। जब मीटिंग ख़त्म हुई तो हमने कुर्सियों को वापस उनकी पुरानी जगह रखने के लिए खिसकाया। मैंने मुड़कर देखा तो प्रसन्ना एक भारी कुर्सी हाथ में उठाकर एक-एक क़दम सावधानी से रखते कुर्सी को उसकी पुरानी जगह लादकर ले जा रहे थे। मैंने कहा कि मुझे दे दो, मैं रख देता हूँ। तो मना कर दिया। मैंने सोचा कि संकोच में मना कर रहे होंगे तो मैंने कहा – अच्छा नीचे रख दो, उसे उठाने की ज़रूरत नहीं है। तो प्रसन्ना झुँझलाकर बोले –‘तुम घसीटते हो, इसीलिए नहीं दे रहा हूँ।’ अनावश्यक आवाज़ भी नागवार गुज़रती है – मेरे लिए कार्यशाला से कहिए या प्रसन्ना के साथ से, ये एक और बात मैंने सीखी। अब मैं थोड़े परिश्रम से बचने के लिए कभी शायद ही कुर्सी या कुछ और घसीटूँ। ऐसा करूँगा तो प्रसन्ना का झुंझलाया चेहरा याद या जाएगा, जो बीच-बीच में मुस्कराता भी है।

कार्यशाला में इंदौर के साथ बिहार, राजस्थान, दिल्ली, मुंबई, पुणे, उत्तर प्रदेश  और मध्य प्रदेश के विभिन्न शहरों से अलावा देश के विभिन्न भागों से आए क़रीब 130 प्रतिभागियों ने भाग लिया। बेगुसराय और पटना से चार नौजवान प्रतिभागी बिना भीषण गर्मी में बिना रिज़र्वेशन के 24 घंटे से अधिक का सफ़र में कर शामिल हुए। दिल्ली से एक्टिविस्ट लड़की शामिल हुई। एक ट्रांसजेन्डर साथी भी इसमें शामिल हुए। किसी ने सुबह की कार्यशाला में रजिस्टर करवाया था, किसी ने शाम की। बाहर से आये लोगों ने सुबह-शाम दोनों कार्यशालाओं में भाग लिया। लेकिन प्रतिभागियों की रुचि को देखते हुए दोनों कार्यशालाएँ सभी भागीदारों के लिए खोल दी गईं।

बेंगलुरु से फ्लोरा बोस 10 जून 2024 को हबीब साहब के नाटक “जिन लाहौर नी वेख्या, ओ जन्म्या ही नहीं” की प्रस्तुति के लिए आयीं थीं लेकिन उन्होंने भी सुबह और शाम दोनों कार्यशालाओं के सभी सत्र पूरे ध्यान से सुने। उल्लेखनीय है कि वे बादल सरकार से लेकर हबीब तनवीर तक के निर्देशन में 200 से अधिक नाटकों में काम कर चुकी हैं और अकेले ‘लाहौर’ के ही उन्होंने सैकड़ों प्रदर्शन दुनिया के अनेक देशों और देश के अनेक शहरों और गाँवों में किये हैं। इसी तरह कुछ और भी साथी थे जो सीधे-सीधे नाटक की दुनिया से नहीं थे, कोई कवि, कोई पत्रकार, कोई उद्योगपति, कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर, कोई संघर्षरत नौजवान तो कोई गृहिणी जिसका नाता दशकों से नाटक से छूट गया था, तो कुछ नौजवान ऐसे भी थे जो नाटक के लिए इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़कर अपने शौक को जुनून में बदलने के लिए अपने पर तौल रहे थे। कुछ एक्टिविस्ट भी थे जो कोई बस्तियों में काम कर रहे थे, कोई अल्पसंख्यक समुदायों के साथ तो कोई ग़रीब महिलाओं के बीच तो कोई आदिवासियों के बीच सहकारिता के आधार पर रोज़गार सृजन और जीवन के नये तरीके की तलाश में लगे हुए थे। दस बरस से कम उम्र के एक साहेबान ऐसे भी थे जो अगले ही बरस किसी ऐक्टिंग स्कूल को जॉइन करने के लिए मुंबई जाने वाले थे और यह बात उनके माँ-पिता ने हमें बतायी। कुल-मिलाकर चार दिन तक चलीं 6-7 घंटे रोज़ की यह कार्यशालाएँ नाटक की तकनीक तो जितना सिखा सकीं, सो तो ठीक है ही लेकिन प्रसन्ना जैसे कार्यशील और दार्शनिक व्यक्ति के साथ समय बिताने से यह कार्यशालाएँ जीवन की अनेक ज़रूरी बातें सिखाने वाली रहीं और कुछ नये लोगों से इप्टा का रिश्ता बनाने में भी यह उपयोगी रहीं। अब वो रिश्ते जितने दूर चल सकें उतना अच्छा। आंदोलन और संगठन ऐसे ही चलते हैं। कुछ लोग वहाँ हमेशा बने रहते हैं और कुछ अलग-अलग वजहों से दूर हो जाते हैं लेकिन एक कामयाब साथ वो होता है जिसमें दूर होने के बाद भी आप उन मूल्यों को नहीं भूलते जो आपने एक समूह में रहकर हासिल किए।

कार्यशाला संयोजन इंदौर इकाई के सचिव प्रमोद बागड़ी, अशोक दुबे, सारिका श्रीवास्तव, रवि शंकर तिवारी, विजय दलाल, गुलरेज़ ख़ानआदि ने किया। हेमंत कमल चौरसिया, विवेक सिकरवार, नितिन, विकास और आदित्य ने भी कार्यशाला की तैयारियों में और हर छोटे-बड़े काम को दौड़-दौड़कर पूरा किया। प्रगतिशील लेखक संघ और स्टेट प्रेस क्लब (मध्य प्रदेश) के साथ ही इंदौर के विभिन्न नाट्य समूहों और संस्कृतिकर्मियों ने कार्यशाला के लिए भरपूर सहयोग किया।

विनीत तिवारी
विनीत तिवारी
हेमंत कमल चौरसिया, विवेक सिकरवार

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here