मैं नागपुर शहर की हूं जो दिखता तो शहर है, लेकिन है गांव। इसके बारे में कहा जाता है ए बिग विलेज इन द सिटी। मेरे पिता का नाम मधुकर डोगरे और माता का नाम प्रतिभा डोगरे है। मैं पान बेचने वाले चौरसिया समुदाय से आती हूं। हमारे गांव में एक बहुत बड़ा तालाब था। हमारे समुदाय के लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर खेती की जाती थी। ऐसा नहीं था कि हमारे पास पैसे की कमी थी। चूंकि पान खाने वाले बहुत हैं। व्यक्तिगत रूप से ये भले ही गरीब हो लेकिन सामूहिक रूप से देखा जाए तो इनके पास बहुत पैसा है।
जब मैंने ज्योतिबा फुले और अम्बेडकर को पढ़ना शुरू किया तो, मुझे पता चला कि छोटी समझी जाने वाली जातियों को पानी लेने से रोका जाता था। जब ये जातियां गांव से शहर की ओर आती हैं तो टूटती है। जैसा कि बाबा साहब अम्बेडकर भी कहते हैं। ग्रामीण क्षेत्र से शहर आने वाली जातियां जहां पर होती हैं वहां पर उनका घेरा मजबूत होता गया। मैंने नागपुर का घेरा देखा।
मेरे पापा की बैंक में नौकरी लगी। उससे पहले मैंने अपने मां-बाप की गरीबी देखी। मेरे पिताजी ने अपनी मां की मौत देखी थी। वे अपनी मां की मौत से काफी आहत हुए थे। मेरी दादी की समय से पूर्व मृत्यु का कारण काफी हद तक मेरे दादा जी थे। शायद मेरे दादा द्वारा दादी पर किए गए अत्याचार के कारण ही पिताजी ने हम बहनों को बहुत प्यार दिया।
मेरी दादी मेरे अन्दर जिंदा हैं
एक बार मेरी दादी का पांच दिन का निर्जला व्रत था। दादा जी बाहर से आए और दादी को आटे का हलवा बनाने के लिए कहा। दादी ने कहा आज मेरा व्रत है, थोड़ी देर में बना देती हूं तो इतनी सी बात पर दादा को गुस्सा आ गया और उन्होंने दादी को मारा। इस दौरान मेरे पिताजी की दादी ने मेरी दादी को छुड़ाया। इसी छुड़ाने के दौरान मेरे पिताजी की दादी का हाथ दरवाजे की कुंडी में दब गया। इस मारपीट के बाद हमारी दादी खत्म हो गईं। मेरे पिताजी कहते हैं मेरी मां व्रत रहते हुए मुक्त हो गई। लेकिन मैं इसे मुक्ति नहीं मानती। फिर पिताजी कहते कि मेरी मां मर गई वह मुक्त नहीं हुई, लेकिन मैं कहती हूं, यह एक प्रकार की हत्या है, उन्हें कोई मुक्ति नहीं मिली।
हमारे समाज में लोगों के अन्दर यह भरा जाता है कि पतिव्रता होना धर्म है। मनुस्मृति आधारित जो यह भ्रम फैलाया जाता है उसकी खिलाफत करने के बावजूद हम नहीं बोलते। कविताएं कैसे अन्दर से निकलती हैं। गांधी जी ने जो समर्पण किया उसे तो लोगों ने माना, लेकिन महिलाओं ने जो समर्पण या विद्रोह किया, उसे उस रूप में कभी लिया ही नहीं गया। हमारे भारतीय समाज ने स्वीकार ही नहीं किया। मुझे लगता है मेरी दादी मेरे अन्दर जिंदा हैं। बरगद वाली सावित्री को भुलाकर सावित्रीबाई फुले तक आना उस असंतोष के कारण ही हुआ। बीच में मेरे पिताजी आए। मेरे अन्दर उसी का प्रभाव है।
मेरी दादी और उनकी सास क्या करती थीं। मैंने बचपन में देखा था, घर की ये सारी महिलाएं पान का पिटारा लेकर बैठती थीं। 12 साल की उम्र होने तक जब मैं गर्मियों की छुट्टी में अपने दादा के घर में भी जाया करती तो, मैं देखती थी कि महिलाएं गेहूं पीसते समय गाना गाती थीं। उनका बाहर निकलना बहुत कम होता था। बहुत हुआ तो हनुमान जी के मंदिर में शाम के समय दिया जलाने के लिए चली जाया करती थीं।
ये बातें जो मेरे दादा जी के घर की थीं, वह मैंने आपसे बताई। मेरे पिताजी के यहां का इस तरह का माहौल था। लेकिन मेरी मां के घर का माहौल इससे उलट था। मेरी मां एक किसान की बेटी थी। हालांकि मैंने जो किसानी देखी वो अपने नाना के यहां ज्यादा देखी। मेरा ननिहाल नागपुर, उमरेड़ के पास है। मेरे नाना जी अपनी जाति के लोगों में बहुत ही होनहार और तेज व्यक्ति रहे। नाना जी को हम लोग बाबूजी कहकर बुलाते थे।
नानाजी के मेजर बनने पर बदल गया रूतबा
मेरे नाना-नानी की शादी बहुत छोटी उम्र में हो गई थी। छोटी उम्र में शादी होने के कारण उन लोगों को कुल 11 बच्चे हुए। चार बच्चों की मौत हो गई, जबकि 7 बच्चे जिन्दा रहे। मेरी मां पांच बहनें और दो भाई थे। मेरी मां अपनी बहनों में सबसे बड़ी थीं। मेरी नानी और मेरी मां की उम्र में ज्यादा अन्तर नहीं था, क्योंकि मेरी नानी की उम्र 11-12 साल की रही होगी जब उनकी शादी हुई और पहली संतान मेरी मां रही। मेरी नानी छोटी उम्र में घर नहीं संभाल पाती थीं तो मेरी मां ही धीरे-धीरे घर संभालने लगीं।
मेरे बाबूजी (नानाजी) का एक सिनेमा घर छिंदवाड़ा में था। इसके बाद उनका चयन मिलिट्री में हो गया और वे मेजर बन गए तो उनका रूतबा ही बदल गया। उनका रहन-सहन एकदम से बदल गया। बड़े लोगों के बीच उनका उठना-बैठना होने लगा। अब नाना जी को लोग झुरमुरे से राव जी कहने लगे। जगह-जगह उनका ट्रान्सफर होता रहा और लास्ट में वे मिलिट्री से रिटायर हुए। इसके बाद वे रेलवे में स्टेशन डायरेक्टर बने। मेरी आई (मां) बाबूजी (नानाजी) के साथ अनेक जगहों पर रहीं और पढ़ीं तो बचपन में उनकी मुस्लिम लड़कियों के साथ काफी अच्छी दोस्ती थी। उन्हें बचपन में एक अलग तरह का माहौल मिला। देखा जाय तो मेरी आई (मां) एक बड़े घर और सम्पन्न घर से थी।
जब दादा ने मां-पिताजी को घर से निकाला
उस दौरान कितना भी सम्पन्न परिवार रहता था, ब्राह्मणों में भी 18 साल होते-होते शादियां कर दी जाती थी। दसवीं पास करने के बाद दो साल जैसे-तैसे बीत गया। नागपुर में बुआ के घर मेरी आई को लोग लेकर आए और वहां पर उन्हें दिखाया गया। उस समय मेरे पापा के कपड़े भी ठीक नहीं थे क्योंकि मेरे पिताजी को उनके पिताजी ने छोड़ दिया था और वे अपनी बहन के यहां जबलपुर में रहते थे। वहीं पर पढ़ाई की। यहां देखिए, मेरी आई और मेरे पिताजी को एकदम अलग-अलग माहौल मिला था। नागपुर छोड़कर वे अलग-अलग जगह घूमे। मेरी मां दिल्ली, जयपुर और अजमेर गईं तो उसका अनुभव इन दोनों लोगों ने सीखा, देखा और जाना।
मेरे मां-पिताजी को पहली ही रात में उनके पिता ने घर से निकाल दिया। फिर इन्होंने ठाना कि वे जब भी दुबारा घर जायेंगे तो सम्मान के साथ जाएंगे। जिस समय मेरी आई और पिताजी को घर से निकाला गया, उस समय गांधी जी की तरह, जैसा कि सिनेमा में दिखाया जाता है, मेरी आई के पास केवल एक साड़ी थी। क्योंकि मैं अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी, तो वह मैंने देखा। उनकी गरीबी मैंने देखी थी। इस कारण मेरे ऊपर गरीबी का अनुभव था जो कि मैंने अपने मां-पिताजी के दौर को देखकर जाना था। जब मैं सात साल की हुई तो उसके बाद मेरे जितने भी भाई हैं, उन्होंने उस गरीबी को नहीं देखा। मेरे भाइयों ने सिर्फ अच्छा ही दिन देखा। गरीबी के उस दौर से जो मैंने सीखा, वह यही कि हमें जाति के कारण पीछे रखा गया। दूसरी समझ यह कि ये लोग अपनी पत्नियों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। तीसरी समझ यह बनी कि जब हम अपनी संस्कृति को सीखेंगे, तभी हम आगे बढ़ेंगे।
मम्मी-पापा तो बाहर रहने लगे। हम लोग अपने एक रिश्तेदार की बुआ के यहां भाड़े पर सीताबर्डी में रहते थे। सीताबर्ड़ी उस समय केन्द्र था और आज भी है। नागपुर पुल के उस पार गंजीपैठ है। उसके बारे में माना जाता है कि वहाँ पुरातनवादी लोग रहते हैं। उसके थोड़ा दाहिने गए तो रेशमबाग आरएसएस वाला एरिया है। जाहिर है कि आरएसएस का पूरे नागपुर के स्कूलों में बोलबाला था। 6वीं तक तो मैं भिड़े गर्ल्स स्कूल में थी। जब मैं भिड़े गर्ल्स स्कूल के बारे में बाबा साहब अम्बेडकर की किताब पढ़ने लगी तो मुझे अचरज हुआ कि उसके बारे में उन्होंने लिखा है। बाबा साहब ने लिखा है कि मैंने ऐसा स्कूल देखा जहां माली को रखते हुए किसी ने जाति नहीं पूछी। भिड़े स्कूल में एक महार को माली रखा गया।
जब मेरे पिताजी ने बैंक कालोनी भगवानगर कालोनी, बुद्धनगर के पास घर बनवाया तो मैं वहा रहने लगी। मेरा स्कूल भी बदल गया। वह बुद्धनगर में था जो कि आरएसएस की नीतियों पर संचालित होता था। उसका नाम नवई विद्यालय था। वहां पर मैं राष्ट्र सेविका थी। मैं जाम्बिया खेलती थी। लेकिन मेरा मन इन सबसे खुश नहीं रहता था। मेरे मन में बार-बार प्रश्न उठता था। मैं शुरू से ही किसी काम के बारे में जानने को जिज्ञासु रहती थी। रंजना मेरी दोस्त थी। उस समय मैं अपने बुआ के यहां गई हुई थी। वह एक ऐसा दौर था जब लोग अपने बच्चों को अपने रिश्तेदारों के यहां बिना किसी डर के छोड़ देते थे। आज जैसा माहौल उस समय नहीं था। उस समय एक अलग तरह की परिवार व्यवस्था थी। उस समय लोगों में अपनी जिम्मेदारी का एहसास था। लोग सोचते थे, अगर इस बच्ची को मैं अपने घर पर लाया हूं तो इसकी देखरेख की सारी जिम्मेदारी मेरी है। ऐसा नहीं है कि उस समय छेड़खानी या बलात्कार की घटनाएं नहीं होती थीं। घटनांए उस समय भी होती थी, लेकिन आज की अपेक्षा बहुत ही कम।
जब बुआ बोलीं… कठिन तपस्या से मिलता है अच्छा पति
मेरी बुआ मुझे अपने साथ लेकर गईं। उस समय सावित्री जी वाला व्रत था और बुआ मुझे खींचती हुई लेकर गईं। उस समय मैं सातवीं में पढ़ रही थी। बोलीं सात जन्मों के लिए तुम्हें एक अच्छा पति मिले। मैं बुआ से बोली, मेरे पैर में चप्पल नहीं है। वह बोली, ऐसे ही अच्छा पति नहीं मिलेगा, कठिन तपस्या करनी होती है। बरगद के पेड़ में पानी डालकर ही व्रत खोलना है। वहां पर आम था, मैंने कहा मुझे भूख लगी है। आम तो चलता है, आम ही दे दीजिए खाने के लिए। वह बोलीं पहले पानी बरगद में दो और उसके बाद सात चक्कर लगाओ। इसके बाद जो पति तुम्हें मिलेगा, वह तुम्हारा सात जन्मों का पति होगा।
चूंकि उस समय मैं सातवीं में पढ़ रही थी और मेरे साथ लड़के भी पढ़ने लगे थे तो मेरे मन में यह सवाल चलने लगा कि मैं किस लड़के से शादी करूंगी? कौन लड़का मेरा पति होगा? मेरे यहां के स्कूल में सभी तरह के बच्चे पढ़ते थे। मुस्लिमों के बच्चे पढ़ते थे और मारवाड़ियों के भी। हमारे साथ एक मारवाड़ी बच्चा पढ़ता था। वह क्रिक्रेट खेलता था। मैंने सोचा वह अच्छा है। मैं उसी से शादी करूंगी। तब तक मुझे शादी के बारे में बारे में ठीक से कुछ नहीं पता था।
जब बरगद के पेड़ का मैं चक्कर लगा रही थी, एक अच्छा जीवनसाथी चुनने के लिए तो उस समय पेड़ का एक चक्कर लगाने के बाद मैंने सोचा, उस क्रिक्रेट खेलने वाले से शादी करूंगी। फिर दूसरे चक्कर में मैंने सोचा क्रिके्ट वाला कैसा रहेगा, फिर सोचा वह नहीं, वह जो डॉक्टर बनने वाला है, उससे शादी करूंगी। फिर अगले चक्कर में लगा यह नहीं, वह वाला लड़का सही है। इस तरह से मैंने चार चक्कर लगाते हुए चार लड़कों को एक-एक करते हुए रिजेक्ट कर दिया। फिर मेरे मन में यह सवाल आया कि जिसके साथ सात जन्मों के बंधन में बंधना है, उसे बिना देखे, सोचे-समझे मैं कैसे शादी कर सकती हूं? बुआ को बताई तो वे बोलीं, तुम बहुत सवाल करती हो। सातवें फेरे के दौरान मेरे इस प्रश्न से घर में बवाल मच गया। फूफा जब मुझे मेरे घर छोड़ने आए तो मेरी मां से बोले, मधु तुम्हारी बेटी तो बहुत सवाल करती है। हालांकि इसने जो भी सवाल किया, वह सही है। इसके सवाल का हम लोग जवाब नहीं दे पाए।
जब मुझे पहली बार जाति भेद का अनुभव हुआ
जिस भिड़े स्कूल का जिक्र बाबा साहब अम्बेडकर ने किया है, उस स्कूल से जब मैं निकलने लगी तो चित्रा और चारू जोशी दो जुड़वा बहनें थीं। स्काउट-गाइड में हम लोगों का प्रवेश हो रहा था। मैं किसी भी मामले में किसी से कमजोर नहीं थी। सर ने मुझसे कहा कि तुम्हारी ऊंचाई कम है, इसलिए हम तुम्हें नहीं ले सकते। दूसरे दिन मुझे पता चला कि चित्रा ऊंचाई में मुझसे एक इंच कम है, इसके बावजूद उसको ले लिया गया। चित्रा और चारू जुड़वा होने के बावजूद ऊंचाई में एक समान नहीं थी। चित्रा की ऊंचाई छोटी थी। इस बात का जब मुझे पता चला कि वह मुझसे भी एक इंच छोटी है तो मुझसे यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि छोटी होने पर उसे कैसे लिया गया? अमृता मैडम को वह घटना अब भी याद है। उस समय मैडम को जाति के आधार पर ललकारने वाली लड़की मैं पहली थी।
इसी तरह का एक वाकया और है। हम लोगों को उस समय कोचिंग पढ़ाया जाता था, लेकिन आज के दौर की तरह की फीस वाली बात नहीं रहती थी। 9वीं क्लास के कुछ बच्चों का चयन कर अध्यापक लोग अपने घर पर बिना फीस लिए पढ़ाते थे। हम 8-10 बच्चों को अग्रवाल सर रोज पढ़ाते थे। हमारे साथ रामू कामरेकर नाम का एक एससी लड़का पढ़ता था। रामू के माता-पिता पत्थर तोड़ने का काम करते थे। लेकिन रामू पढ़ने में बहुत होशियार था। वह आकाश में जाने वाले विमान को बिना देखे उसकी आवाज से ही पहचान लेता था। एनसीसी और एनएसएस में भी उसका चयन हुआ था। तो वह हमारे स्कूल की शान था। मैंने सर से पूछा, आपने रामू को यहां पढ़ने के लिए क्यों नहीं लिया तो उन्होंने भाभी की तरफ देखा और कहा वह हमारे यहां नहीं बैठ सकता। ‘क्यूं नहीं बैठ सकता? वह तो सबसे होशियार लड़का है और आप तो स्कूल में उसको पढ़ाते हैं फिर घर में क्यों नहीं पढ़ा सकते?’ उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।
फिर मैं घर गई और राखी के मौके पर रामू को राखी बांधी और अपने घर ले गई। मैंने अपने पापा से कहा कि पापा आपको अग्रवाल सर से बात करनी होगी कि वे रामू को भी अपने घर पर पढ़ाएं। पापा ने बात की और रामू को अग्रवाल सर पढ़ाने लगे, लेकिन वे उसे सबसे अलग ही बैठाते थे। मुझे यह नहीं मालूम था कि उस समय मैं जो यह सब कर रही थी, वह आज के दौर में एक क्रांतिकारी कदम माना जाएगा। उस समय मेरे मन में इस प्रकार के जो प्रश्न उठते थे, वह मुझे कोई सिखाता था ऐसा नहीं था। ये प्रश्न बस यूं ही मेरे मन में उठते थे। मैं खुद सोचती थी और उस पर विचार करने के बाद उस पर कदम भी उठा लेती थी।
लड़की होने की कीमत
घर में बड़ी लड़की होने के कारण मेरे ऊपर सबसे ज्यादा जिम्मेदारी होती थी। मेरी मौसी और बुआ घर के लोगों से कहा करती थीं कि इससे सब काम करवाया करिए। यह पुरुषों की तरह हर काम करने में माहिर है। भाग-दौड़ का काम भी यह बड़ी आसानी से कर लेगी। मेरी मम्मी और पापा को मुझ पर नाज था। कोई भाषण प्रतियोगिता हो तो कभी-कभी मेरे पापा मेरा भाषण खुद लिखकर देते थे। मुझसे कहते थे रट लो इस भाषण को। तो मैं कहती थी, मैं रट नहीं सकती। मैं जब तक इसे समझूंगी नहीं तब रट कर नहीं बोल पाऊंगी। तो मेरे पापा कहते थे जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए रटना पड़ेगा। रटोगी नहीं तो आगे नहीं बढ़ पाओगी। इस बात के लिए मुझे पापा से पिटाई भी खानी पड़ी। यह देखकर मेरी बहन ने एक समझौता कर लिया। उसने सोचा मुझे लता की तरह मार नहीं खाना है। मुझे सभी की नजरों में अच्छा बनकर रहना है। इसलिए जब पापा ऑफिस से आते और वह उनकी सायकिल की घंटी की आवाज सुनती तो किताब-कापी लेकर बैठ जाती पढ़ने के लिए और मैं तब तक खेलती रहती थी जब तक पापा सामने नहीं आ जाते थे।
तीसरे नम्बर का मेरा भाई अक्सर बीमार होता था तो पिताजी उसको गोद में उठाकर अस्पताल ले जाया करते थे। इन सबकी चिंता जैसे मुझे ही रहती थी। मौसी की लड़की थी, उसकी भी। लेकिन जैसे ही मैं बुआ के घर जाती थी तो उनके यहां बुआ के लड़के सब संभालते थे। वहां पर सबको सारी सुविधाएं मिली हुई थीं। वहां का एक अलग ही माहौल था। जबकि मेरी आई की जो दूसरी मौसी थीं, उनके यहां गाय-भैंस जैसे जानवर पाले जाते थे। उनके यहां की लड़कियों को सब काम करना पड़़ता था। मैं जब भी उनके यहां गई तब देखा गोबर उठाना, गोबर पाथना, गाय और भैसों को धुलना सब लड़कियां ही करती थीं।
रेखा और शोभा के पापा गणपति राव अय्यर हमारे स्कूल के वाइस प्रिंसिपल थे। वे अध्यापक संघ से भाजपा की ओर से मतदार बने। उनकी बेटी रेखा की हमारे घर में खूब तारीफ होती थी कि वह तो घर का सारा काम कर करती है। उनके कामों को करते देखकर मेरे पापा मुझसे कहते थे कि तुम इतना पानी कुंए से निकाल कर रखना। मुझे काम करने में अच्छा लगता था, इसलिए मैं फटाफट सारा काम करके खत्म कर देती थी। मुझे किताबें पढ़ना अच्छा लगता था इसलिए मैं पलंग के नीचे छुपकर किताबें पढ़ती थी। इसके लिए भी मुझे मार पड़ती थी।
मेरी बहन 8 साल की उम्र से ही शास्त्रीय संगीत सीखने लगी थी। हमारे यहां संगीत का बहुत अच्छा माहौल है। वहां पर म्यूजिक की स्पर्धाएं होती रहती थीं। एक ऐसी ही प्रतियोगिता में आकाशवाणी में अखिल भारतीय गायिका आयी थीं और उन्होंने संध्या को एक अवार्ड दिया था। फिलहाल संध्या अखिल भारतीय गंधर्व विद्यालय की प्रमुख है। संध्या का पूरा नाम संध्या देशमुख है। वह इस समय वर्धा में है। मुम्बई में वह आती-जाती रहती है। संध्या के वर्धा वाले घर में बडी-बड़ी नामचीन हस्तियां परवीन सुल्ताना से लेकर प्रभा अत्रे तक लोग आते हैं। जब वह एमए कर रही थी तो जितेन्द्र अभिषेक का उसको खत आया था कि आप हमारे साथ सीखो।
उसकी शादी अन्तर्जातीय हुई और उसके मन से हुई। उसके बाद उसका पूरा कैरियर ही दाँव पर लग गया। वह वर्धा में ही रह गई। संध्या वर्धा की जानी-मानी हस्ती है। अजय पवनकर, संजीव अम्बेडकर सब लोग उसके यहां आते हैं। इन सब लोगों के गाने हमने उसके यहां सुने हैं। उसके यहां जाकिर हुसैन का तबला, बिस्मिल्ला साहब सभी को आमने-सामने बैठकर सुनने का अवसर मिला। संध्या के कारण हमारे घर का माहौल बदल गया। उसी के कारण हमारे घर में बहुत जानी मानी हस्तियां आने लगीं। ताजूद्दीन बाबा के पास उस्ताद सुरू खांन का तबला सुनाने के लिए ले जाया करते थे।
आई-बाबा के अन्दर बहुत बदलाव आया। वे कहते हैं लता तुम्हारे साथ जो भी हुआ साईं बाबा की कृपा से अच्छा हुआ। इस तरह के माहौल के कारण मेरे अन्दर का विद्रोह उभर नहीं पा रहा था। इसके बाद मेरा रूझान साहित्य की ओर बढ़ा। उस समय मेरे आसपास जो भी लाइब्ररी होती वहां मैं सिर्फ मराठी ही नहीं, हिन्दी भी पढ़ती गई। इस दौरान मैंने महाश्वेता देवी, प्रेमचन्द, आशापूर्णा देवी, मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव सबको पढ़ डाला। बीए करने के दौरान मुझे लगा कि मेरी होड़ मुझसे ही है। हालांकि मुझे बहुत सारे लोगों ने चैलेंज दिया, मुझसे प्रतिस्पर्धा की। मेरे मन में यह सदा रहता कि मुझे सदा नम्बर एक पर रहना है। मेरे सामने अगर कोई मुझसे जीत रहा है तो उसके प्रति मेरे मन में कोई दुर्भावना नहीं रहती थी।
मेरे साथ भेदभाव हुआ
मैंने महसूस किया कि मुझसे जलन के कारण मेरे साथ भेदभाव हुआ। ढोरे सरनेम के कारण। संध्या के बारे में भी मैंने देखा कि जितेन्द्र अभिषेक लिखते हैं कि आप मेरे यहां आइए। अभिषेक उसको अंक देते हैं परीक्षा का। परवीन सुल्ताना और प्रभा अत्रे की गहरी दोस्त रही। संध्या में इतनी प्रतिभा थी बावजूद उसको लोग कहते थे, तुम ढोरे की बेटी हो ना। इतना नामचीन कलाकार होने के बावजूद वह जातिवाद के चंगुल से नहीं निकल पाई। जाति प्रथा को मैंने हर जगह महसूस किया। जाति की इस गहराई को समझकर मैं जब जेपी आंदोलन से जुड़ी, उसी दौरान छात्र युवा संगठन में मैंने ‘जनेऊ तोड़ो इंसान जोड़ो’ का नारा सुना। वहीं पर मैंने सुना, सब लोग बोल रहे हैं, जाति प्रथा खत्म करो।
इसके बाद मेरा रूझान इस तरफ बढ़ने लगा। बीए होने तक फुले और अम्बेडकर की किताबें जो बताई गईं वो सब पढ़ डाली थी। मराठी की किताबों में खांडेकर सामाजिक तौर पर वामा वरेरकर के नाटक हो या फिर आरएसएस ओरिएंटेड जो विचारधारा आपके ऊपर थोपी जाती है, उसमें एक है शिवाजी सावंत का ‘मृत्युंजय’। हालांकि यह कुछ अलग हटकर है। बाकी शिवाजी सावंत की किताबें आरएसएस की विचारधारा के आसपास ही भटकती हैं। मैंने शिवाजी की सारी किताबें पढ़ ली थी। ययाति तो मेरा सबसे पसंदीदा था, उसे भी पढ़ डाला था। व्यक्ति के जीवन पर साहित्य का बहुत असर होता है। मेरे घर में लोगों को लगता था कि लता बहुत घमंडी हो गई है। अपने घर के लोगों के मन की स्थिति भांपकर फिर मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा। फिर मैं ज्यादातर मामलों में चुप ही रहती थी।
45 साल के बाद मैं फिर से पिछड़ी महिलाओं के बीच काम करने लगी। और मैं नर्मदा बचाओ आंदोलन में काम करती रही। इस दौरान मैं गांवों में जाया करती थी। महिलाओं के बीच घाटी यानी नदी के किनारे रहने वाले लोगों के साथ, आदिवासियों के बीच काम किया। मेरी प्रयोग की भूमि नदी के किनारे के आदिवासी थे। वहां पर एक आदिवासी कार्यकर्ता था, उसके साथ मैंने काम किया। वह कातकरी आदिवासियों के बीच काम करता था। मैंने एनरान विरोधी आंदोलन में कोंकण के गांव-गांव में मछुआरों के बीच काम किया। फुले और अम्बेडकर के आंदोलन से मुझे इस बात का एहसास हुआ कि हम कितनी जातियों में बंटे हुए हैं।
शुरू से मेरा रूझान समाजवादी आंदोलन का रहा। बीए करने तक तो उद्धव और आनंद जैसे लोग थे जिन्होंने ग्रामीण साहित्य में एक अलग तरह की पहचान बनाई। उस दौरान जब इन्हें मैंने पढ़ा तो मुझे भारतीय परिवेश और उसके स्वर के बारे में पता चला। नेमाड़े जी की एक किताब ‘कोसला’ बिढार, झूल आई तो उस समय मैं एमए कर रही थी। कोसला और बिढार जब मैं पढ़ रही थी तो मुझे लग रहा था जैसे इसका नायक खुद को दलदल से मुक्त करना चाह रहा है। हालांकि उसके यहां खेती है, किसानी है, जिसमें वह फंसा हुआ है। मैं उसको आईडेंटीफाई करती थी। क्योंकि उसके अन्दर की जो छटपटाहट थी, जो घबराहट थी, वह एक मध्यमवर्गीय लड़के और लड़की की छटपटाहट थी। एक लड़की होने के कारण मेरी पाबंदियाँ लड़कों से अलग। किन्हीं स्तर पर देखा जो भाव-बोध तो हमारा एक ही होता है।
गाँवों से मुझे बहुत लगाव है। आसपास कुंआ हो, खेत और खलिहान हो। उनको देखने का रोमांच अलग ही होता है। हालांकि नागपुर में रहने के कारण लोग पूछते हैं कि तुम तो शहर में रही और वहीं के स्कूलों में पढ़ी-लिखी, फिर तुम्हारा रूझान इस तरह का कैसे रहा?
जब मैं एमए फाइनल कर रही थी तो घटना यह हुई कि 1974 में जेपी का मूवमेंट शुरू हुआ और 1975 में आपातकालीन का दौर चल रहा था। उस समय वामपंथियों और समाजवादियों में कोई नहीं हुआ, जिसने 1975 के इमरजेंसी को ब्लैक एण्ड व्हाइट चित्रण न किया हो। एकमात्र मैं ही हूँ जिसने 1975 के इमरजेंसी का ब्लैक एण्ड वाइट चित्रण नहीं किया। मैंने देखा कि इंदिरा जी के कारण ही हमारे कॉलेज में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस और अन्तर्राष्ट्रीय महिला दशक हुआ। नागपुर का पहला महिला महाविद्यालय होने के कारण इसमें भारत भर और महाराष्ट्र को मिलाकर पहला महिला मुक्ति सम्मेलन कराया गया, जिसमें रूपा कुलकर्णी, नीलम गोरे, सीमा साकरे जैसी लोग भी शामिल थीं। उसमें मैं भी शामिल थी। उस समय मैं 26 साल की थी और हमने मिलकर स्त्री मुक्ति आंदोलन की नींव रखी। तभी से मैंने उड़ना शुरू किया और समझना भी।
जब आसू नामक दलित को काटकर कुंए में डाला
उस समय नितिन गडकरी और श्रीकांत बहुत प्रसिद्ध लोगों में से थे। नितिन गडकरी एवीबीपी के प्रेसिडेंट थे और श्रीकांत एनएसयूआई प्रेसिडेंट थे। उस समय पुरोला में शाही दल बन रहा था। नितिन गडकरी हम लोगों को अपने साथ ले गए वोट दिलवाने के लिए। लेकिन मैंने न तो वोट श्रीकांत को दिया और ना ही नितिन गडकरी को ही दिया। नितिन गडकरी आज मंत्री हैं। उस समय तो हम लोगों के दोस्त हुआ करते थे। कॉलेज के दिनों में युवतियों की लीडरशिप में मैं बहुत आगे थी। नर्मदा आंदोलन के समय नितिन गडकरी पूछते थे, कैसा चल रहा है आपका आंदोलन? उनके मंत्री बनने के बाद से उनसे फिर कभी कोई मुलाकात नहीं हुई।
हमारे यहां आसू नामक दलित हत्याकांड हुआ था। आसू नामक दलित को काटकर कुंए में डाल दिया गया था। उसकी जांच करनी थी। फैक्ट फाइंडिंग कमेटी, जो मानवाधिकार को लेकर एक कमेटी बनती है, जिसमें कुछ सदस्य होते हैं, और मौके पर घटना की जांच करते हैं। उस समय इस प्रकार की कोई गाइडलाइन या रूपरेखा नहीं थी। यदुनाथ थत्ते जो कि ‘साधना’ के संपादक थे। वे पूना से नागपुर आ गए। वे घटनास्थल पर जाना चाहते थे तो बोले मेरे साथ कौन चलेगा? मेरी पीएचडी के दौरान नागेश चौधरी ने मेरा इंटरव्यू लिया था। वे मुझे जानते भी नहीं थे, वे बोले मैं चलूंगा। नागेश चौधरी के साथ दो दलित लड़के अशोक आसेकर, दत्ता निंगुले और मैं 24 किलोमीटर साइकिल चलाकर गए और वापस आए।
मैंने देखा कि गाँव में पूरा सन्नाटा था। सन्नाटे में कुछ महिलाएं झांककर देख रही थी। बस वहां बचे थे तो सवर्ण। दलित तो वहां से भाग गए थे। वहां पर किससे बात की जाय, समझ में नहीं आ रहा था। गांव में एकदम दहशत का माहौल था। फिर महिलाओं से बाचतीत करने के लिए मेरा बहुत उपयोग किया गया। हमने वो कुंआ भी देखा और आसू पर हमारी रिपोर्ट आयी। उस दिन मैंने देखा दहशत क्या है? दलितों पर अत्याचार क्या होता है? उस दिन से मेरा नजरिया एकदम से बदल गया।
मैं जिस बैंक कालोनी में रहती थी, वहां भी मैंने इस प्रकार की चीजें महसूस की। नौवीं के बाद से मेरे अनुभव और गहरे होते गए। मेरी मां ने दसवीं के बाद से डीएड करना शुरू किया तो घर से बहुत दूर तक कोई बस नहीं चलती थी, आने जाने के लिए। उनके पास कोई साधन नहीं था। उस समय मेरे पापा के पास केवल लूना थी। हमारे बगल वाले वाले के पास वेस्पा थी। मेरी आई (मां) पापा के लूना पर बैठकर सीताबर्डी के स्क्वेयर तक फिर वहाँ से पैदल अपने कॉलेज जाती थी। डीएड करने के लिए उन्हें बहुत प्रयास करना पड़ा। पूरा मोहल्ला कहता था ढोरेबाई इनके साथ स्कूटर पर जा रही है। कहां जा रही है ? इस प्रकार का लोग सवाल करते थे। लेकिन जब आई का रिजल्ट आया और वे प्रथम आई तो लोग दंग रह गए।
बैंक कालोनी में 33 घर ब्राह्मणों का था। बस दो घर थे एक कुनबी और एक बरई। उनमें से एक हमारा और दूसरा कुनबी का जो पिछड़ा था। हालांकि बैंक कालोनी के पीछे भी घर थे। उसमें कई जाति के लोग रहते थे। लेकिन वो हमारी कालोनी के नहीं थे। वहीं से एक रास्ता जाता था। वहां पर एक पूरी दलित बस्ती थी। इन लोगों से हमारे परिवार का अच्छा लगाव था। आई जब खाने की चीज बनाती थी तो आई सबको बुलाती थीं। आई के हाथ में एक कला थी, जिसे वे आई से सीखने आती थी। जब आई बना लेती तो इन्हें देती थी और ये लोग अपने बगल में छुपाकर घर ले जाती थी। मैंने देखा कि ये लोग आई की तरह रंगोली नहीं बना सकती थीं। उनकी तरह खाना नहीं बना पातीं। मैं सोचती थी कि आई आखिर कहां से इतना सब सीखकर आई हैं।
उस समय मेरे पापा का ट्रांसफर मुम्बई हो गया था। हम चार नटखट, चतुर बच्चों को संभालना आई के लिए कितना मुश्किल हो गया था। फिर पापा का एक बार खत आया और उन्होंने खत में आई (मां) को लिखा तुम डरो मत, जब तुम्हारा रिजल्ट आएगा तो इन लोगों( कालोनी के लोग)को पता चलेगा कि तुम क्या कर सकती हो। फिर उन्होंने कहा कि तुम लता की सायकिल क्यों नहीं सीख लेती हो? फिर कालोनी के बच्चों के साथ मिलकर हमने आई को सायकिल सिखाई। अब आई सायकिल से आने-जाने लगीं तो लोगों का मुंह बंद हो गया। लोगों ने इधर-उधर की बातें करना छोड़ दिया। इसके बाद लोग आई को बड़ा सम्मान देने लगे। लोग कहते थे इसमें सीखने की कितनी ललक है। इसके साथ मेरा भी सम्मान वहां पर बढ़ने लगा। जब मैं इधर-उधर आने जाने लगी तो लोग इसका ज़िक्र करते।
जब आकाशवाणी में मुझे नौकरी मिली
मैंने उसके बाद जर्नलिज्म चुना और बीजे करने लगी। उस समय सुजाता आनन्दन जो कि मेरी दोस्त थी, अभी उसका देहांत हुआ । सुजाता, शिल्पी सेन और मैं सभी एक साथ पढ़ते थे। उस समय हमें एक अच्छा माहौल मिला। फिर इसके बाद हमारा झुकाव फुले और अम्बेडकर की ओर हुआ। साहित्य में मुझे जो प्रोत्साहन मिला वह यशवंत मनोहर से मिला। यशवंत मनोहर एक बहुत बड़े दलित कवि है, जिन्होंने ‘उत्थंगुंफा’ लिखा है। इतने बड़े लेखक ने मुझे पढ़ाया। उन्होंने मुझे कर्मविपाक सिद्धान्त, फुले और अम्बेडकर से परिचित कराया। फुले के छोटे-छोटे लेख पढ़ना अलग बात है लेकिन फुले के साथ ही अम्बेडकर को समग्र रूप से पढ़ना जिंदगी में पहली बार शुरू हुआ।
मैंने देखा कि मैं नागपुर जैसे छोटे से शहर से होने के कारण कितना भी अच्छा लिखूं सब छपकर आए, ऐसा नहीं होता था। मेरे लिए यह अवसर अच्छा था। आकाशवाणी में मुझे नौकरी मिल गई। नागपुर पत्रिका में मुझे पत्रकार की नौकरी मिली तो रात में घर से आना-जाना पड़ता था। पत्रिका में नौकरी के दौरान मुझे इसलिए निकाल दिया गया कि मैं ज्यादा हंसती थी। हमारे उस समय के संपादक युधिष्ठिर जोशी थे। वह बोले इस लड़की को बाहर करो। यह ज्यादा हंसती है। उस समय मेरे साथ काम करने वाले मेरे काफी सहपाठी थे, जो मेरे साथ पढ़े थे।
हंसने का वाकया मेरी जिन्दगी में बहुत है। मैं जब बचपन में सातवीं में थी और कॉमन स्कूल में आ गयी थी तो मेरा मौसेरा भाई श्रीकांत एक दिन मेरे घर पर आया और पापा से कहा कि मुझे लता के बारे में बात करनी है। पापा ने मुझे बुलाया कि देखो श्रीकांत आया है तो मैं वहां पर गई। फिर वह कहने लगा कि लता लोगों से हंस-हंस कर बात करती है। पापा ने मुझसे कहा कि तुम आज से क्लास में रोना। तब श्रीकांत मेरे पापा से बोला ‘मधु भाऊ तुम उसको (लता को) बिगाड़ दोगे।’ पापा बोले, ‘अभी मेरी बेटी की उम्र हंसने की है और तुम उसकी हंसी पर पाबंदी लगाने के लिए आए हो। अरे! आज उसकी उम्र हंसने कूदने और दौड़ने की है और तुम उस पर पाबंदी लगाने की बात करते हो।’ तो मेरे पापा ऐसे थे। उन्होंने हमें मारा भी। लेकिन जहां पर इस तरह की शिकायत आई, वे हमारे साथ खडे़ नजर आए।
इसी प्रकार से बहन जब गाना सीखती थी और रात-रात में महफिलें लगती थीं। रात को जब संगीत नाटक होता था। नागपुर जैसे जगह पर जब हमारे यहां लाइट नहीं होती थी। अंधेरी रात में सुनसान रास्ते पर टार्च लेकर आना पड़ता था। सायकिल से आ रहे हैं। तबलची साथ में हैं। उस समय मेरी बहन के संगीत वादक के ऊपर हमला हुआ। एक लड़के को यह सब पसंद नहीं था कि लड़कियां रात में इस तरह से जाकर संगीत सीखें। उसकी मानसिकता थी कि यह परंपरा के खिलाफ है। इस हमले के बाद एक-दो लोगों ने अपने बच्चों की पढ़ाई बंद की होती तो वे अपने उद्देश्य में सफल हो जाते, लेकिन मेरे मम्मी-पापा ने नहीं किया। उन्होंने इस गांव की मानसिकता को अपने सफल इरादे से तोड़। उन्होंने हमारे अन्दर की प्रतिभा को हवा दिया।
मेरी मां का नाम प्रतिभा है और मधु मेरे पापा का। प्रतिभा और मधुकर की बेटी यानी लता प्रतिभा मधुकर। लता के नाम के साथ प्रतिभा मधुकर लगाना मैंने तब शुरू किया जब 1980 के दौरान जयप्रकाश नारायण का आंदोलन शुरू हुआ। उसके पहले की ये बातें हैं। जब मैं पत्रकार थी और रात में 11 बजे घर पर आती थी। पापा घर के पास खंभे की लाइट में खड़े होकर हमारा इंतजार किया करते थे। मेरी बहन का इंतजार किया करते थे। जिन घरों के मां-बाप यह कहते हुए पाए गए कि हमारी बेटियां बहुत होशियार हैं। वे बहुत समझदार हैं, उनके घर की बेटियां आज मेरी जैसी बनीं। आज मैं 65 साल की हूं। लता प्रतिभा मधुकर का नाम आंदोलनों में बड़े गर्व के साथ लिया जाता है। आज जो नेतृत्व उभरा है, उसके मूल में इन दोनों की विचारधारा है।
उस समय ये धार्मिक दृष्टि से कर्मठ थे। उस समय मेरा उनसे सबसे बड़ा झगड़ा हुआ। छात्र युवा संगठन में आई या फुले अम्बेडकरवादी विचारों की रही तो उनके साथ ही रिश्तेदारों के साथ मेरा झगड़ा सबसे ज्यादा हुआ। मेरा अन्तर्जातीय विवाह हुआ। मैंने ब्राम्हण लड़के से विवाह किया। तब मैंने अपने पिता की बात नहीं मानी। अब मुझे लगता है कि मुझे पिताजी की बात मान लेनी चाहिए थी। मेरे दादा ने उनसे (मेरे पति से) कहा था ‘अगर तुमने मेरी पोती को छोड़ा तब तुम समझना।’ तब उसने कहा था नहीं छोडूंगा। हमने आंदोलनों में एक साथ काम किया। हमने आंदोलन में तय कर लिया था कि हम शादी करेंगे। मेरे पिताजी ने मुझसे रो कर कहा था कि बेटा तुम किसी से भी शादी कर, लेकिन ब्राम्हण से शादी मत कर।
तब मुझे इतना पता नहीं था कि जाति का भेदभाव इतना होता है। प्रेम की भी बात थी और यह भी था कि मैं तो इससे प्रेम करती हूं, तो प्रेम को निभाने वाली भी बात थी। 27 साल शादी निभाने की बात थी। यह भी था कि मैंने आंदोलनों में सभी को बताया है तो हम कैसे मुकर सकते हैं। लेकिन शादी का बंधन बनाए रखना असह्य होने लगता है, तब हम लोग उसको तोड़ते हैं। ऐसे बहुत सारे अनुभव हैं, जिन्होंने मेरी जिन्दगी को एक नयी सीख दी। ऐसे बहुत सारे अनुभव हैं, जिन्होंने मेरी जिंदगी को पंख लगाने का काम किया।
जब मेरी शादी की बातें की जा रही थी और लोग मुझे देखने आने वाले थे तो उस समय गांव में गर्मियों में लोग छत पर सोते थे। उस समय मेरी एक मौसी की सात बेटियाँ और दूसरी मौसी की तीन बेटियों और खुद मैं दो बहन कुल मिलाकर बारह बहनें थीं। तो हमने सभी को इकट्ठा कर लिया। मैं छत पर गई और एक-एक करके तकिया नीचे फेंकना शुरू किया। मैंने कहा कि मैं छत पर से तब तक नहीं उतरूंगी जब तक आप लोग अपना निर्णय बदल नहीं देते हैं। मैं अभी शादी नहीं करना चाहती। मैं अभी पढ़ना चाहती हूं। यह कहकर मैंने अपने घर के लोगों का विरोध किया। मैं भगवान को नहीं मानती। मैं फुले और अम्बेडकरवादी रही। मेरा मानना है कि मेरे कारण जातीय कड़ियां टूटीं।
जिस दिन मैंने अन्तर्जातीय विवाह किया उसके तीन दिन बाद एक लड़की का खत आया। चूंकि उस समय फोन नहीं था। उसने मुझे लिखा कि तुमने ठीक किया बाहरी जाति में विवाह करके। मैं भी इसी प्रकार से शादी करना चाहती हूं। वह लड़की हमारे दूर की रिश्तेदारी में आती थी। मेरी आई (मां) के बड़े पिताजी थे उनके लड़के, यानी मेरे मामा, जो कि आज अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति का नेशनल अध्यक्ष है ,तब उन्होंने भी अन्तर्जातीय विवाह किया, तेली जाति की एक लड़की से। इसी तरह से मेरे सगे मामा, एक जो दिल्ली में हैं और दूसरे जर्मनी में, इनमें से एक ने सिंधी लड़की से शादी की और एक ने क्रिश्चियन लड़की से।
विकास की क्या परिभाषा है
नर्मदा के लिए मैंने 1990 में काम शुरू किया। 1992 के दौरान इस काम को हमने और गति दी। 1992 के बाद नर्मदा आंदोलन में मैंने अपना पूरा समय देना शुरू किया। जब मैं वहां जाती थी तो लोग मेरी पहचान – लता मुम्बई से आई हैं, कहकर कराते थे। निमाड़ के क्षेत्र में थे। निमाड़ क्षेत्र में मेरा एक साथी था, छोगालाल। छोगालाल के घर में खटिया (चारपाई) पर हम बैठे थे। बहुत सुन्दर घर था उसका। बड़ा-सा आंगन। सुन्दर-सुन्दर पेड़। छोगालाल का भांजा मेरे पास आया और बोला लता दीदी आपने शाहरूख खांन को देखा है? मैंने कहा हां देखा है। फिर उसने कहा शाहरूख का बंगला देखा है? मैंने कहा नहीं वो तो मैंने नहीं देखा है। उसने फिर कहा वहां बहुत सुन्दर और ऊंचे-ऊंचे घर हैं ना! मैंने कहा हां वहां बहुत ऊंचे-ऊंचे घर हैं। फिर उसने पूछा आपका भी घर मुम्बई में है? तो मैंने कहा हां। तो फिर उसने कहा कितनी गायें हैं? मैंने कहा एक भी नहीं। अच्छा कितने बैल हैं? मैंने कहा एक भी नहीं। कितनी भैंस हैं? मैंने कहा एक भी नहीं। मुर्गियां तो होंगी? मैंने कहा एक भी नहीं। उसने कहा फिर किस चीज के आप अमीर हो? जब आपके पास कुछ है ही नहीं।
मैंने कहा हम केवल सीमेंट के बने मकान और खिड़कियों के अन्दर रहने वाले लोग है। फिर भी मुम्बई को लोग अमीर कहते हैं। तो यह विकास की जो परिभाषा है, हम भाषणों में चाहे कितनी बड़ी-बड़ी बातें कर ले, इस छोटे बच्चे ने असलियत बता दिया। कुछ भी नहीं है हमारे पास। मुम्बई में कुछ भी नहीं है। फिर भी लोग मुम्बई को महानगर कहते हैं। लोग कहते हैं यह अमीरों की जगह है। सचमुच हमने क्या-क्या खोया है, उस बच्चे की बातों से पता चला। भले ही यह कहने को एक प्रकार का मजाक था, लेकिन उस प्रश्न के माध्यम से बहुत बड़ी बात पूछ डाली।