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गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है

वरिष्ठ कवि तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे आगे चलकर एक प्रमुख लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्यातिलब्ध हुये। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। इनमें बचपन में दूसरों के बाग में घुसकर अमरूद तोड़ना हो या मनीराम भैया से भाभी को लेकर किया हुआ मजाक हो, वह उनके जीवन के ख़ुशनुमा पल थे। एक दलित के रूप में उन्होंने छूआछूत और भेदभाव को भी महसूस किया और भोगा है। वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने उन्हीं दिनों को याद किया है किकिस तरह उन्होंने गाँव के शरारती बच्चे से अधिकारी तक की अपनी यात्रा की। उन्होंने चतुर्थ श्रेणी कर्मचरियों की भर्ती के लिए बने बैंक प्राधिकरण के इंटरव्यू बोर्ड में सम्मिलित होने पर अनुसूचित जाति का कोटा पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उल्लेखनीय है कि तेजपाल जी बारह बार इंटरव्यू बोर्ड के सदस्य रहे।

बचपन में बगीचे के फल 

स्कूल के रास्ते में आम और अमरूद के बाग पड़ा करते थे। आम के मौसम में तेज हवा और आंधी चलने पर कच्चे-पक्के आम अक्सर पेड़ से टूटकर जमीन गिर जाते हैं। चोरी-छुपे हम बाग में घुस जाते और जमीन पर पड़े कच्चे-पक्के आम उठाकर भाग जाते थे। अमरूदों के मौसम में अमरूदों के बाग में सबका एक साथ घुसना और इस पेड़ से उस पेड़, उस पेड़ से इस पेड़ की डालियों को झुकाकर कच्चे-पक्के अमरूद तोड़कर झट से बाहर सड़क पर आ जाना, हमारा दैनिक उपक्रम हुआ करता था। कुछ अमरूद खाना, कुछ को चखकर फेंक देना, हमारे लिए खेल जैसा हुआ करता था। कई बार पकड़े भी जाते थे। पिटाई तो होती नहीं थी क्योंकि सभी बागवाले जान-पहचान वाले होते थे। ज्यादा से ज्यादा वे हमारे घर पर हमारी शिकायत कर देते थे। सो घर पर डांट तो जरूर पड़ती थी लेकिन डांट का असर थोड़ी-बहुत देर ही रहता था। अब मैं कुछ बड़ा हो गया था तो शरारत भी बढ़ती चली गईं।

किसी पेड़ की आड़ लेकर मैं खुद ही दूध पी जाता था

मेरे जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं किंतु सबका यहाँ उल्लेख करना संभव नहीं है। गाँवों भैंस या गाय जब ब्याती (बच्चा देती है) हैं तो उसका पहला या जैसे भी संभव हो दूध एक सप्ताह के अंदर लोकल देवी-देवताओं को चढ़ाते हैं। यह लोक परम्परा का एक अटूट हिस्सा है। हमारे घर चार-पाँच भैंस रहा करती थीं। सो एक-दो महीने में एक ना एक भैंस बच्चा देती ही थी। तो मां हमेशा ही मुझे ही चामुंडा माई पर दूध चढ़ाने भेजा करती थी। यह सिलसिला मेरे पांच-छ: साल का होने से बदस्तूर शुरु हो गया था। मां मुझे मिट्टी की कुल्हड़ में दूध देकर चामुंडा माई को चढ़ाने के लिए भेज दिया करती थी और मैं चामुंडा माई तक जाने वाले रास्ते पर पड़ने वाली बरसाती नदी के किनारे किसी पेड़ की आड़ लेकर दूध खुद ही पी जाता था। घर आ जाता तो मां पूछ्ती…बड़ी जल्दी आ गया। मैं मां को बहका दिया करता था कि…भागकर गया था…भागकर ही आया हूं …सो जल्दी आ गया। मामला खत्म हो जाता था। फिर खेल-कूद शुरू …. दरअसल ऐसा करने के पीछे कोई ग्यान नहीं था, बस दस-बीस ईटों का मठ बनाकर उनकी पूजा करती  महिलाओं देखकर पता नहीं क्यूं मन-ही-मन घृणा होती थी…मन ही मन सोचता था कि भला ऐसा करने से क्या हो जाएगा ?

आप बाज़ार जा रहे और सुमरती भाभी एक आदमी ….. 

बीरवार के दिन पास के कस्बे सठले में बीर बाजार (पैंठ) लगा करती थी। मैं भी बाजार जा रहा था कि रास्ते में बाजार जाते हुए भाई मनीराम मिल गए। उनसे राम-राम की और पूछा कि आप कहाँ जा रहे हैं, भाभी सुमरती तो एक आदमी के साथ खेतों की ओर जा रही थी।….. मनीराम जी का इतना सुनना था कि उलटे पाँव खेतों की ओर दौड़ लिए… देखा कि वहाँ तो कोई भी नहीं था। अब वह समझ गए कि ये शरारत तेजपाल की ही है। अब वे दोनों पति पत्नी मेरी तलाश में गाँव-भर को नाप गए। जब मैं उन्हें नहीं मिला तो वे हमारे घर आ गए। वहाँ तो मुझे मिलना ही था।…..हंसते हुए दोनों मेरे पास आए और गुस्से और प्यार से मेरे कंधों पर हलके के धौल जमाई और बोले बदमाश! आगे से कोई ऐसी शरारत किसी के साथ भी की तो पिटेगा बहुत। इतना कहकर दोनों हंसते हुए अपने घर चले गए। और मैंने भी अंदर-अंदर ही शर्म महसूस की और कभी ऐसी शरारत न करने की ठान ली।

ऐसे मिटीं आपस की दूरियां

शायद आठवीं क्लास की बात होगी, मेरे एक स्कूली  मित्र और मैं दोनों अक्सर ही साथ-साथ स्कूल जाते थे और साथ-साथ स्कूल से घर आ आते थे। एक बार मुझमें और उसमें किसी बात को लेकर तू-तू मैं-मैं हो गई। बात तू-तू मैं-मैं तक ही रहती तो ठीक होता किंतु बात मार-पीट में बदल गई। गर्मियों के दिन थे सो दोनों पसीना-पसीना हो गए। मेरा मित्र मुझसे एक क्लास पीछे था यानी मुझसे छोटा था। खैर! मार-पीट समाप्त होने पर दोनों अपने-अपने घर चले गए। घर जाने पर मुझे महसूस हुआ कि आज जो कुछ भी हुआ ठीक नहीं हुआ। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। मैंने बस्ता रखा और मनमुटाव मिटाने के भाव से अपने मित्र के घर जा पहुंचा। उसके घर का दरवाजा अंदर से बंद था।  मैंने दरवाजा बजाया किंतु उसने दरवाजा नहीं खोला। मैंने फिर उसे आवाज लगाई और दरवाजा खोलने के लिए कहा लेकिन फिर भी उसने दरवाजा दरवाजा नहीं खोला।

उसका मुझसे नाराज होना स्वाभाविक ही था। आखिर मैंने रोते हुए उससे कहा कि जब तक तू दरवाजा नहीं खोलेगा मैं भी घर नहीं जाऊंगा। आखिरकार उसने दरवाजा खोल दिया और हम दोनों एक दूसरे से मिले तो सही, किंतु दोनों जड़वत। आखिर मेरी आँख भर आईं। फिर क्या था संतराम और मैं रोते-रोते एक हो गए। बाद में मैं अपने घर वापिस आ गया। इस तरह हमारे बीच की दूरी मिट गई और फिर वही पुराना सिलसिला चालू हो गया। यहाँ तक कि हमारी दोस्ती और गहरी हो गई। उल्लेखनीय है कि मेरा मित्र पढ़ने में इतना होशयार था कि उसने आर्ट साइड में होते हुए दसवीं और बारहवीं में प्रथम श्रेणी प्राप्त की। फलत: योग्यता के आधार पर उसकी नौकरी भारतीय डाक सेवा में लगने पर सीधा मेरे पास ही दिल्ली आया। तब मैं दिल्ली परिवहन अंडरटेकिंग में अस्थायी संवाहक की नौकरी कर रहा था किंतु मेरे मित्र की नौकरी लगने की बात सुनकर मैं इतना खुश हुआ कि जीजा जी से चिल्लाकर कह उठा कि जीजा जी इसकी नौकरी लग गईं। इतना सुन जीजा ने मुझसे कहा कि मुझे पता है… पहले तू घर आया कि तू …..। हम दिल्ली में भी कुछ महीनों साथ-साथ भी रहे।

अब तो रिजल्ट देखना ही बाकी है

इसी क्रम में एक बात और याद आई कि मैं जब बारहवीं कक्षा में था तो गांव का एक और लड़का 12वीं कक्षा में ही था। उससे काफी नजदीकियां भी थीं। उसने मुझसे कहा के कुछ किताबें आप खरीद लो और कुछ किताबें मैं खरीद लूंगा, इस प्रकार हम एक सेट से ही पढ़ाई कर लेंगे। मैंने तो निर्धारित किताबें खरीद लीं और पढ़ने के लिए दूसरे लड़के को दे दीं। जब उसने मेरे सेट को पढ़कर वापिस किया तो मैंने उससे उसके द्वारा खरीदी गईं किताबें पढ़ने  के लिए मांगी। उसने कहा कि मैं तो पैसे न होने के कारण किताबें खरीद ही नहीं सका। इस प्रकार मैं कुछ किताबें जो नोटबुक के रूप में थी, नहीं पढ़ सका। हां! पाठ्य पुस्तक मैंने जरूर पढ़ीं थी। अब बारहवीं की फाइनल परीक्षा पास आ गई लेकिन उस लडके ने मेरी किताबें तो पढ़ ली और मुझे उसने अपनी किताबें पढ़ने के लिए नहीं दी।

उल्लेखनीय है उसकी शादी में मेज कुर्सी साइकिल व घड़ी आदि उपहार स्वरूप मिले थी। जाहिए है कि वह अपनी पढ़ाई कुर्सी-मेज पर ही  करता था; संयोगवश फाइनल परीक्षा का आखरी पेपर देने के बाद हम घर वापस आ रहे थे तो मैं सीधे उसके  के घर ही चला गया।  उसके घर जाकर देखा कि उसने मेज पर बोरी डाल रखी थी। मैंने उसे एक हाथ से खीच कर हटा दिया तो पाया कि उस बोरी के नीचे उसने वे किताबें छिपा रखीं थीं। यानी उसको जो किताबें खरीदनी थीं, उसने खरीद ली थी लेकिन मुझसे मना कर दिया था कि मैंने किताबे खरीदी ही नहीं।

मेज पर बोरी के नीच छुपाई गई उन किताबों को देखकर मैं अवाक रह गया। जब मैंने उससे से इस बावत बात की तो वह गुस्सा दिखाने लगा लेकिन मैं मन मसोसकर रह गया। उसका सिर शर्म से कुछ देर के लिए झुक जरूर गया था किंतु उसे इस हरकत का मलाल कतई नहीं था। पेपर तो हो ही चुके ठे। मैंने अपना गुस्सा दबाते हुए उससे कहा कि अब तो पेपर हो गए हैं। अब  तो रिजल्ट देखना ही बाकी है। देखते हैं क्या होता है। रिजल्ट आने तक हम दोनों एक दूसरे से कभी नहीं मिले। रिजल्ट आया तो वह बारहवीं कक्षा में फेल हो गया और मैं 12वीं में पास हो गया। (मैं उस छात्र का नाम जानबूझकर नहीं दे रहा हूँ क्योंकि किसी को नीचा दिखाना मेरा मकसद नहीं अपितु मानवीय घात-प्रतिघात से सावधान करना ही मेरा मकसद है।)

वह दिन मेरे लिए बहुत बड़ी सीख का दिन था। मुझे शिक्षा मिली कि जहां विश्वास होता है, अविश्वास भी वहीं होता है। घात-प्रतिघात के माने मैं पूरी तरह समझ गया था और भविष्य में अक्सर सदैव सजग रहने का प्रयास किया। किन्तु यदि किसी के मन की शान्ति को कोई बलात भंग करता है तो पीड़ित इस प्रकार की दुर्दांत पीड़ा को जीवनपर्यंत याद कर-करके, यदा-कदा ही सही, दुखी हो उठता है, क्योंकि उसे मन की शांति छीने जाने का कारण मालूम होता है….कि नहीं?

मैंने थोड़े ही कहा था, ‘मेरा टिकट भी ले लेना’

सरस्वती काटन मिल, अबोहर : 1969 की बात है कि बुलन्दशहर रोजगार कार्यालय के माध्यम से  सरस्वती कॉटन मिल, अबोहर में बंडल चेकर की नौकरी के लिए अबोहर गया।  मेरे साथ एक लड़का और था।  हम दोनों दिल्ली से साथ-साथ अबोहर गए थे। कंपनी की तरफ से हमें वहां रहने के लिए अलग-अलग कमरे  दिए गए लेकिन कंपनी में हमें बंडल चेक करने की नौकरी न देकर साधारण बुनकर की नौकरी दी गई, जबकि रोजगार कार्यालय बुलंदशहर से हमें बंडल चेकर की नौकरी के लिए भेजा गया था। मेरे हाथों में छाले पड़ गए। बाद में हमने दिल्ली वापस आने का फैसला लिया। हमने दिल्ली से अबोहर जाने के लिए रेलगाड़ी पकड़ी। मैंने अपने साथी शेरा से मेरा टिकट लेने के लिए भी कहा लेकिन उसने मना कर दिया। मैंने  उससे कहा कि मैंने भी कि दिल्ली से अबोहर का तेरा भी किराया तो दिया था।… कम से कम से कम वही पैसे मुझे लौटा दो लेकिन वह नहीं माना। कहा कि मैंने तेरे से थोड़े कहा था कि मेरा टिकट भी ले लेना, तूने अपने आप ही तो लिया था।

हमारे पास में गाड़ी में बैठे दो-तीन सरदार हमारी  बातें  सुन रहे थे। उनमें से एक सरदार ने मेरे साथी को पकड़कर उसे मेरे पैसे लौटाने के लिए कहा। वह फिर भी पैसे देने के लिए तैयार नहीं हुआ तो  फिर उन तीनों सरदारों ने उस पर दबाव बनाया और तब उसने मेरे पैसे मुझे लौटाए। अब  सरदारों ने मुझे ट्रेन से उतारा और कहा कि अब आप जाओ। मेरे साथी को उन्होंने वहां पकड़ कर रखा। इस प्रकार मैं दिल्ली से बुलंदशहर तक आया। बुलंदशहर आते-आते मेरी जेब में कुछ नहीं था। फिर मैं पैदल ही अपने बहन की ससुराल गया।

जीवन की राहों पर पहली साइकिल 

दिल्ली आने के तुरंत  बाद ओनिल्को कैमिस्ट के यहाँ काम करने के लिए एक साइकिल की जरूरत थी। मेरे पास न तो साइकिल थी और न ही साइकिल खरीदने के लिए पैसे। संयोगवश थोड़ी देर बाद ही रामभज जी के एक मित्र – हकीकत राय  आ गए। चाय पानी हुई…फिर वो दोनों अपनी बातों में लग गए। मैं बैठा-बैठा उनकी बातें सुनता रहा। अचानक हकीकत राय रामभज जी से मेरे बारे में जानकारी लेने लगे। जब सारी जानकारी हकीकत राय जी को दे दी गई तो रामभज जी के मुंह से अचानक निकल पड़ा कि अब इसे एक साइकिल की जरूरत है। हकीकत राय जी बिना किसी सोच-विचार के बोले ये भी कोई बड़ी बात है। मैं आज साइकिल पर ही आया हूँ… कल ही खरीदी है। अब इसकी हो गई। हकीकत राय जी बोले…ले साइकिल की जरूरत तो पूरी हो गई…और बता। मैं साइकिल के कीमत पूछने लगा। तो हकीकत राय जी ने पैसे न लेने की बात आगे कर दी। किंतु मैंने कहा कि सर मुफ्त में तो मैं साइकिल नहीं लूंगा…कीमत बतादें … मैं दस रुपये महीने की किस्तों में अदा कर दूंगा।… हकीकत जी और रामभज जी एक दूसरे की ओर देखने लगे। आँखों-आँखों में ही कुछ बात हुई और हकीकत राय जी बोले…ठीक है पैसे देने ही हैं तो एक हजार रुपये 10 रुपये महीने की किस्तों में देते रहना। इतना सुनकर मैं सकते में आ गया कि नई रॉबिनहुड साइकिल की कीमत केवल 1000/- रुपये.. हकीकत राय जी बोल उठे ‘मैं समझ रहा हूँ कि अब तू क्या सोच रहा है। अब कुछ भी सोचना बंद कर और ये ले साइकिल की चाबी’

पहला अच्छा काम 

मैं जब 16/17 साल का ही रहा हूंगा। मेरे भाई की लड़की की शादी होना तय हो गई थी। 60-70 के दशक में बारात दो रात और तीन दिन दुलहन के गाँव में रुका करती थी। गरीब/मजदूर लोग इस परंपरा को तोड़ने की बात तो करते थे किंतु आगे कौन आए यह साहस कोई नहीं कर पाता था। खैर! मैंने अपने भाई से बारात को केवल एक रात रोकने की बात की तो उत्तर में मुझे एक जोर का चाँटा मिला। साथ में यह ताना भी कि दो अक्षर क्या पढ़ गया, चला है हमें पढ़ाने…पता है गाँव वाले क्या कहेंगे। यही न कि खाना खिलाने से मुंह चुरा लिया।

भाई के सामने बोलने का मुझमें साहस नही था। लेकिन भाई के चांटे ने मुझे  और ताकत दे दी। अब चुपके-चोरी शादी में बिचौली कर रहे व्यक्ति से मिला। वह हमारे घर आते–जाते रहते थे इसलिए मुझे अच्छे से जानते थे। एक दिन मौका पाकर मैं उनके घर पहुंच गया। दुआ-सलाम हुई…वह कहने लगे आज कैसे आया भई? अच्छी  बात यह थी कि वह भी एक अग्रणी समाजसेवी थे। सो मैंने डर को साधते हुए उनसे कहा कि आपसे एक निवेदन करने आया हूँ  लेकिन इसका भाई को पता नहीं चलना चाहिए नही तो वह मुझे मारेंगे।

वह बोले कुछ बोल तो, नहीं बताउंगा तेरे भाई को। मैंने अपने मन की बात उन्हें खुलकर बता दी और एक झूठ भी बोला जो एक रात और दिन के खाने में पैसा लगेगा, वह दहेज के रूप में दे दिया जाएगा। वह मेरी ओर आंख फाड़ कर देखने लगे…बोले एक बुराई तोड़ने के साथ-साथ दूसरी बुराई को बढ़ावा..वाह, भई वाह। वह हंसते हुए बोले, सच बोल दहेज वाली बात झूठ बोल रहा है न? मैंने भी हंसकर स्वीकार कर लिया। अंत में उन्होंने बारात के एक रात ही रुकने की बात का समर्थन करते हुए कहा – चल ऐसा ही होगा। अब तू जाने या मैं।

मुझे नहीं पता की लड़के वालों को कैसे इस बात के लिए मनाया। लेकिन लड़के वालों की ओर से मेरे भाई के पास एक रात बारात रुकने के प्रस्ताव रखवा दिया। अब भाई के सामने कोई विकल्प शेष नहीं रह गया। लड़के वालों की हां मैं हां मिलानी पड़ी। किंतु भाई ने मुझसे आंखें तरेड़कर कहा, करली न अपने मन की।…अब झेलना गाँव वालों के ताने।

हुआ भी यही, बारात जाने के बाद गांव वालों ने जाने क्या-क्या न कहा। लगभग दो साल बाद मैं दिल्ली चला आया। और जब पहली बार दिल्ली से गांव गया तो गांव के कुछ लोगों के मुंह से यह सुना कि भैया तुझे लोगों ने एक रात रोकने को लेकार क्या-क्या न कहा पर तूने किसी के सामने मुंह नहीं खोला। सच कहें तेरी इस शरारत ने बहुत से गांव वालों को कर्जा लेने से बचा लिया। यह सुनकर मेरा दिल बाग-बाग हो गया। और जो भी मेरे भाई को मुझसे शिकायत थी वह भी दूर हो गई।

शाखा प्रबन्धक की जातिवादी चेतना 

शायद सन 1980 की बात है। सतना के नजदीकी कस्बे की शाखा का निरीक्षण चल रहा था। एक दिन शाखा प्रबंधक मुझे अपने घर ले गए। शायद घर पर भोजन कराने का कार्यक्रम था। खाने की मेज पर तरतीबवार नियत संख्या में बर्तन रखे हुए थे। शाखा प्रबंधक ने मुझे इशारे से बताया कि आप साहेब को बता देना कि इस (अमुक) कुर्सी पर न बैठें। इतना सुन मेरा सिर चकरा गया और इसका कारण पूछ ही लिया। डाइनिंग रूम में हम दोनों के अलावा और कोई नहीं था, फिर भी बी. एम. महोदय मेरे कान से मुँह सटाकर धीरे-धीरे बोले, ‘सिंह साहब बात तो कुछ भी नहीं है किंतु मेरी माँ पूरी जातिवादी है। किंतु हमारे अकाउंटेंट भंगी जाति से हैं, माँ उनको सबके साथ खाना खाने पर आफत काटे हुए है। मैंने बड़ी मुश्किल से मनाया है कि अकाउंटेंट जिन बर्तनों में खाना खाएंगे, उन्हें अलग रख देंगे। अब इस बात को अपने तक ही सीमित रखना….।

इस बातचीत के बाद हम बैंक वापिस आ गए। बी. एम. साहब अपनी केबिन में चले गए और मैं अपने बॉस पी. डी. शर्मा के पास।  …….मैं कुछ देर खड़ा ही रहा किंतु शर्मा जी ने टोका ….कब  तक खड़ा रहेगा….बैठ जा न। उनके कहने पर बैठ तो गया किंतु दिमाग में एक तूफान सा आया हुआ था। शर्मा जी फिर कह उठे…अरे! बोल न, बात क्या है? मैंने सारी बात शर्मा जी को बतला दी।…. और यह भी कह दिया कि मैं बी. एम. के यहाँ खाने पर नहीं जाऊँगा। …. शर्मा जी भी कुछ चौंके और बोले क्या तुझे उस कुर्सी का पता है जो अकाउंटेंट के लिए नियत की गई है? मैंने हाँ में कहा, जी पता है। इतना सुनते ही शर्मा  जी अपनी सीट से उठे और मुझे बाहों में भरके बोले ….तो हो गया समस्या का हल…. बेकार परेशान हो रहा है।     …अब ध्यान से सुन, ‘तुझे खाने के मेज पर उसी सीट पर बैठना है जो एकाउंटेंट के लिए नियत की गई है। …ठीक है! फिर मैं तुझे उस सीट से उठाकर उस सीट पर बैठ जाऊँगा।…हो गया न समस्या का समाधान…अब सामान्य हो जा।

मैंने हाँ में हाँ तो मिला दी किंतु मन में कुछ न कुछ संशय इसलिए बना रहा कि कहीं मेरे बॉस शर्मा जी की बात में भी कूटनीति तो नहीं? अकाउंटेंट के लिए नियत कुर्सी पर मुझे बैठने की बात कहीं दोहरी तो नहीं क्योंकि शर्माजी को तो अच्छी तरह मालूम था कि तेजपाल भी तो अनुसूचित जाति से ही है। मेरे उस सीट पर बैठ जाने के बाद यदि किसी दूसरी कुर्सी पर बैठ गए तो जाने-अनजाने वे बी.एम. की बात का ही समर्थन न करदें। किंतु ऐसा हुआ नहीं…।

मैं अकाउंटेंट के लिए नियत कुर्सी पर बैठ गया। बी. एम. महोदय मुझे उस कुर्सी पर से उठने का इशारा करते रहे किन्तु मेरे बॉस शर्मा जी ने मुझे उस कुर्सी से उठाया और खुद बैठ गए। यह देखकर आयोजनकर्ता शाखा प्रबन्धक अपना सा मुँह लेकर रह गए। वह अंदर ही अंदर मेरी ओर देखकर जैसे परेशान हो रहे हों। भोजनापरांत जब सब शाखा में आ गए तो मेरे बॉस ने बी. एम. को अपने केबिन में बुलाया और उनसे बोले कि जब हम आपकी शाखा में आए थे तो आपने हमारी जाति क्यों नहीं पूछी? मेरे नाम में तो “शर्मा” लगा है पर मेरे सहायक के नाम के साथ अनुसूचित जाति का न होने का कौन सा तमगा लगा था?  क्या हमने आपकी और आपके स्टाफ की जाति पूछी थी? क्या हमने आपसे भोजन का निवेदन किया था? इतना सुनकर शाखा प्रबंधक शर्म के मारे बिना कुछ कहे अपने केबिन में चले गए।….शाखा प्रबंधक महोदय ने मेरे बॉस को शाखा बंद होने के बाद अपने घर पर आमंत्रित किया किंतु उन्होंने उनके इस निमंत्रण को ठुकरा दिया।

तुम्हारे मन में मेरे प्रति जो भी भावना बनी हुई है उसे निकाल दो

लगभग 1987-88 की बात होगी। संयोगवश उनका L.F.C. का एक बिल मेरे पास भुगतान हेतु आया। उल्लेखनीय है कि मैं लगभग 13 वर्ष निरन्तर ऑफिस एडमिनिस्ट्रेशन अनुभाग में  रहा था। यह भी कि उन दिनों LFC के बिलों पर एक नियत राशि से ऊपर की राशि पर आयकर काटने का सरकारी आदेश था। इस प्रावधान के तहत मैंने बत्रा जी के बिल की राशि में से आयकर काटकर उन्हें बता भी दिया था। बत्रा जी ने मुझसे तो कुछ नहीं कहा किन्तु बत्रा जी ने मेरे अनुभागाध्यक्ष पी.के. पाठक से कहा कि टी पी से कहो कि मेरे LFC के बिल से आयकर न काटे। मेरे इंचार्ज ने मुझसे इस बावत बात की।

मैंने अनुभागाध्यक्ष से यह कह दिया कि सर बिल तो आपको ही पास करना है। मैं बिल की देयराशि की गणना करके आपके पास भेज देता हूँ, आप बिल को पास करते समय आयकर के रूप में  काटी गई राशि को अपने स्तर से न काटकर बिल का भुगतान कर देना, किन्तु अपने स्तर पर मैं ऐसा नहीं कर  पाऊँगा। ….अनुभागाध्यक्ष ने धीरे से मुझसे कहा– यार समझा कर, बत्रा जी एक तेज-तर्रार AGM  हैं.. कर दे न। कुछ देर बाद ही मैंने बत्रा जी के बिल से आयकर काटकर अपने अनुभागाध्यक्ष के पास भुगतान हेतु पास करने के लिए भेज दिया। उन्होंने मुझे बुलाया और बोले, यार मैंने बिल को तो ज्यों का त्यों पास कर दिया है। पर ये AGM बहुत खतरनाक है, मौका मिलते ही डंक मार देगा।….उनकी बातें सुनकर मैं तनावग्रस्त अपनी सीट पर आकर बैठ गया। इस घटना के बाद मेरी और बत्रा साहब से अनेक बार दुआ-सलाम हुई किंतु उन्होंने हमेशा मेरी नमस्ते का हँसकर ही जवाब दिया।

बिल वाली घटना को गुजरे कई महीने हो गए। बिल की बात भी आई-गई हो गई। एक दिन बत्रा जी ने मुझे अपने केबिन में बुलाया। यह खबर पाकर मेरे मन में कुछ-कुछ डर का माहौल पैदा होने लगा क्योंकि उनका कोई भी काम मेरी डेस्क पर बाकी नहीं था। खैर! मैं बत्रा जी के केबिन में पहुंच गया। बत्रा जी खड़े हुए थे। मेरे पहुंचते ही मुस्कराते हुए बोले – बैठो! किंतु  मैं नहीं बैठा। ‌मैंने  कहा, सर आप खड़े हैं तो मैं कैसे बैठ जाऊं। तब वह कुर्सी पर बैठ गए। मुझसे कहा अब तो बैठ जाओ। अब  मैं बैठ गया लेकिन मन में अभी भी कुछ-कुछ डर भरा हुआ था।  बत्रा जी अपनी कुर्सी  से उठे और अपनी अलमारी खोली… उसमें से एक बहुत अच्छा पैन-सेट निकाला और मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने उसे ले लिया फिर वह बोले अब मेरा ट्रांसफर हेड ऑफिस हो गया है। कभी कोई काम पड़े तो बताने से मत झिझकना। उनके साथ काम करने वाले लोग बत्रा जी को फायरिंग मैन के रूप में जानते थे। एक दिन अचानक बोले कि मेरे मन में तुम्हारे प्रति कोई बात नहीं है। और जो तुम्हारे मन में मेरे प्रति भावना बनी हुई है उसे निकाल दो। मेरे दिमाग में आपकी छवि एक कर्मठ और ईमानदार अधिकारी के रूप मे उसी दिन बन गई थी जब आपने बिना किसी झिझक मेरी बात को सीधे नकार दिया था अन्यथा बहुत से लोग तो मेरा नाम सुनते ही…

मेरे आफिस में मुझे कई निक नामों से पुकारा जाता था

यहां यह भी उल्लेख करना विषय से बाहर न होगा कि मैंने बैंक में कार्य करते हुए जिस कार्य-कुशलता का परिचय दिया, उसके बल व बैंक प्रबंधन और अधिकारी संगठन के सहयोग के चलते अपने 35 वर्ष के सेवाकाल में से लगभग 23 वर्ष स्थानीय प्रधान कार्यालाय/दिल्ली आँचलिक कार्यालय, नई दिल्ली में ही कार्यरत रहा। मुझे बैंक में कई निक नामों से जाना जाता था…. यहाँ काम करते हुए मुझे कोई तो चलता-फिरता ट्रेनिंग सेंटर कहता तो कोई विदुर या फिर कवि कहता।

देखते हैं – आप इस सीट पर कब तक रहते हैं

यह भी कि मैंने मई 1980 से 1982 मी तक केंद्रीय कार्यालय के लेखा परिक्षा में निरीक्षक सहायक के रूप में कार्य किया था। 1982 में ही मेरा प्रोमोशन हो गया और राजस्थान की सीकर शाखा में नियुक्त कर दिया गया। सीकर से 1985 में दिल्ली वापिस आया तो मुझे दिल्ली आँचलिक कार्यालय के ऑफिस मैनेजर अनुभाग में नियुक्त किया गया। मुझे स्टाफ व सामान्य बिलों के भुगतान वाली सीट पर इस शर्त पर नियुक्त किया गया कि इस सीट पर आज तक छ: माह से ज्यादा कोई नहीं टिका है, देखते हैं कि आप इस सीट पर कब तक रहते हैं। खैर, मैंने सीट का चार्ज ले लिया। देखा तो लगभग 6/7 महीने के बिलों का भुगतान लम्बित पडा था। पहले तो थोड़ा मनोबल गिरा लेकिन मैंने धैर्य पूर्वक काम किया और पेंडिंग काम को लगभाग एक माह की अविधि में ही क्लियर कर दिया। इसके बाद मेरे ऑफिस मैनेजर कार्य कुशलता और कार्य करने की क्षमता को देखकर न सिर्फ़ आश्चर्यचकित हुए अपितु मेरी पीठ भी थपथपाई। इस सीट पर मैंने साढ़े नौ वर्ष तक काम किया।  केंद्रीय कार्यालय लेखा परीक्षा (मोबिल) में काम करने का बहुत अधिक लाभ मिला।

जब मुझे प्रथम बार इंटरव्यू बोर्ड में शामिल किया गया

विदित हो कि बैंक प्राधिकरण ने जब मुझे प्रथम बार चतुर्थ श्रेणी कर्मचरियों की भर्ती के लिए बने इंटरव्यू बोर्ड में शामिल किया तो मुझे कुछ अजीब सा लगा। वह इसलिए कि उस समय मैं केवल स्केल वन फसर था। खैर! मेरे मन में बहुत से प्रश्न भी उठे। मैं उन सवालों के समाधान के लिए मुख्य प्रबंध ( एच.आर.)- एच सी सरीन के पास ही चला गया। दुआ-सलाम के बाद मैंने उन्हें  इंटरव्यू बोर्ड में मुझे शामिल करने के लिए धन्यवाद दिया। वे स्वयं ही पूछ बैठे… कहो कैसे आना हुआ? मैंने उनसे कहा कि सर बोर्ड में शायद मेरा गलत चयन हो गया है… आप तो मेरी विचारधारा से अच्छी तरह से वाकिफ़ हैं। मेरे मतानुसार पहले रोजी उसके लिए होनी चाहिए जिसे रोटी की ज्यादा आवश्यकता हो। लेकिन आजकल का मिजाज आप जानते हैं कि मेरी विचारधारा से कतई मेल नहीं खाती। इतना सुनकर सरीन साहब अपनी सीट से उठे और मेरे पास आकर कहा, अब तो बोर्ड में तु जरूर ही रहेगा…और बता?

मैंने कहा सर तब बोर्ड के कमरे में कोई फोन नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि ठीक है…फोन भी नहीं रहेगा। ऐसा होने पर मैं अपने वर्ग का समुचित कोटा पूरा करवाने सफल हुआ। इसका परिणाम ये हुआ कि मुझे 12 बार इंटरव्यू बोर्ड में शामिल किया जाता रहा।

 

तेजपाल सिंह 'तेज'
तेजपाल सिंह 'तेज'
लेखक हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार तथा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित हैं और 2009 में स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त हो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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