गाजीपुर। खेतों से निकलकर हवलदार सिंह सीधे मेरे पास आए और बोले ‘बड़े दिनों की लालसा अब पूरी होने जा रही है। खेत को अच्छी तरह से जोतकर उसमें की घास निकालकर अच्छी तरह से बना रहा हूं। कोशिश कर रहा हूं कि कोई कोर-कसर न छूट जाय। जिससे अगली बार लाइसेन्स मिलने में भी कोई दिक्कत नआये। अगर फसल अच्छी रही और मौसम ने साथ दे दिया तो एक ही झटके में चार-पाँच फसलों की कीमत निकल आएगी और अपनी गरीबी भी धीरे-धीरे दूर हो जाएगी। मैं ही नहीं मेरा पूरा परिवार हाड़तोड़ मेहनत कर रहा है। अफीम की खेती करने में फायदा तो बहुत है लेकिन रिस्क भी बहुत होता है। अगर आँधी-तूफान से बच गया तो कीड़ों का प्रकोप। अगर इनसे भी बच गया तो विभिन्न प्रकार के रोगों के कारण भी किसान मार खा जाता है। अधिकारी लोग इस बात को नहीं समझते और वे खेत और फसल के हिसाब से माल की मांग कर देते हैं। किसान यहीं असहाय और निराश हो जाता है।’ यह कहना है नूरपुर गाँव के किसान हवलदार सिंह का। नूरपुर गाँव गाजीपुर जिला मुख्यालय से एक से डेढ़ घंटे की मोटर साइकिल की यात्रा करके पहुंचा जा सकता है। जमानिया ब्लॉक पोस्ता (अफीम) की खेती के लिए जाना जाता है। हवलदार को 25-30 वर्षों बाद इस साल अफीम की खेती करने का ददनी (लाइसेन्स) मिला। इससे उनकी खुशी देखते ही बनती थी। पुराने दिनों को याद करते हुए वे आगे बोले ‘मेरे दादा जब तक जिंदा थे तब तक लगातार हमें अफीम का लाइसेन्स मिलता रहा। लेकिन दादा के के मरने के बाद हमारा लाइसेन्स रद्द कर दिया गया। इसके बाद तो जैसे हमारा बुरा दौर शुरू हुआ और खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। लेकिन अब ददनी (लाइसेन्स) फिर से मिल गया है तो अब कोशिश यही रहेगी कि अब हमारे हाथ से यह जाने न पाये और बुढ़ापा ठीक से कट जाय।’
ज्ञात हो की गाजीपुर जिला मुख्यालय से 25-30 किलोमीटर दूर स्थित जमानियां ब्लॉक में आज से 20-25 वर्षों पूर्व बड़े पैमाने पर अफीम की खेती होती थी। यहां के अधिकांश किसान इसकी खेती करते थे। धीरे-धीरे करके लोगों को लाइसेन्स मिलना कम होता गया। आज देखा जाय तो जमानिया ब्लॉक में मात्र 20-25 लोगो को ही ददनी (लाइसेन्स) मिला हुआ है जैसा कि हवलदार दावा करते हुए कहते हैं ‘पूरे जमनिया में इस बार केवल 25 लोगों को ही ददनी मिला है। यह अत्यंत दुखद है। क्योंकि यहां के अधिकांशतः किसान अफीम की खेती करके अपनी माली हालत को ठीक करना चाहता है लेकिन सरकार की तरफ से ददनी ही नहीं मिल रहा है, इसलिए लोग निराश हैं।’ हवलदार की बातों से सहमति जताते हुए पास में बैठे नूरपुर के पूर्व ग्राम प्रधान एवं अध्यापक श्याम नारायण सिंह कहते हैं ‘आज से 20-25 वर्षों पूर्व जमानिया ब्लॉक में बड़े पैमाने पर अफीम की खेती हुआ करती थी। इससे किसानों की आमदनी भी अच्छी हो जाया करती थी। घर की माली स्थिति भी ठीक-ठाक रहती थी। मैं खुद अफीम की खेती कर चुका हूं । मेरा ददनी (लाइसेंस ) जब से रद्द कर दिया गया तब से यह खेती मैं भी नहीं कर रहा हूं। इधर आसपास के क्षेत्रों में सुना है कि 20-25 लोगों को ददनी मिला है। मुझे अगर लाइसेंस मिल गया तो फिर से यह खेती करना शुरू कर दूंगा, क्योंकि इसकी खेती से आमदनी ठीक-ठाक हो जाती है लेकिन अब तो ददनी (लाइसेंस) मिलना ही बड़ा मुश्किल काम हो गया है।
श्याम नारायण सिंह के घर से थोड़ी ही दूर चलने पर रमेश सिंह कुशवाहा मिल गए। अफीम की खेती के बाबत पूछने पर जैसे मैंने उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। वे बोले ‘1970-75 के दौर में हमारे यहां भी अफीम की खेती होती थी। दादा को ही ददनी मिली थी। जब तक वे जिंदा थे तब तक हमारे यहां इसकी खेती होती थी। दादा की मौत के बाद हमारी ददनी खत्म हो गयी। मैंने कई बार ददनी लेने की कोशिश की। कई बार मैं बाराबंकी गया लेकिन हर बार मुझे निराशा ही हाथ लगी। कई बार प्रयास करने के बाद मैंने हार मान ली और अब तो मैंने प्रयास ही करना छोड़ दिया।’ वे सवाल पूछने वाले अंदाज में कहते हैं ‘पहले इतनी संख्या में लोगों कों ददनी यहां पर मिल जाती थी लेकिन क्या कारण है कि आज लोगों के लाख प्रयास के बावजूद ददनी नहीं मिल रही है। इसका मतलब साफ है। ददनी देने की प्रक्रिया के दौरान कहीं ना कहीं कुछ न कुछ तो गड़बड़ है। सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए।’
इसी गाँव के लालजी कुशवाहा भी रमेश की बातों से सहमत होते हुए दिखाए देते हैं। ‘कुछ न कुछ तो विभाग में गड़बड़ी है जिसकी वजह से बाराबंकी में इतनी बड़ी संख्या में लोगों को ददनी मिल जा रही है और यहां के जो लोग पोस्ता (इसके पौधे से ही अफीम निकलती है) की खेती करना चाहते हैं उन्हें ददनी ही नहीं मिल रही है।’ लालजी अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहते हैं ‘खेती तो मैं भी करना चाहता हूं लेकिन ददनी प्राप्त करना मतलब रेगिस्तान से पानी निकालना है।’
कोई भी किसान बिना लाइसेंस के अफीम की खेती नहीं कर सकता है। इसके लिए कानून बनाया गया हैं। केंद्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो से आएनडीपीएस अधिनियम, 1985 की धारा 8 के तहत किसानों को लाइसेंस लेना होता है। अधिनियम में कई सारे निर्देश दिए गए हैं। उन निर्देशों का पालन हर हाल में किसानों को करना होता है। सामान्यत: अक्टूबर से नवंबर के बीच इस खेती की बुआई होती है। अफीम के पौधे की लंबाई 3 से 4 फिट तक होती है। बड़ा होने पर शीर्ष पर गांठनुमा बन जाते हैं। यह हरे रेशों और चिकने कांडवाला पौधा होता है। अफीम के पत्ते लम्बे, डंठलविहीन और गुड़हल के पत्तों की तरह होते हैं। फूल सफ़ेद और नीले रंग और कटोरीनुमा होते हैं। अफीम का रंग काला होता है और टेस्ट करने पर यह बहुत कड़वा लगता है।
सरकार की ओर से लाइसेंस देने में हिला-हवाली होते देख स्थानीय लोगों का अफीम की खेती से मोहभंग भी होने लगा। वे अपनी सारी ऊर्जा दूसरी फसलों कों पैदा करने में लगाने लगे। लेकिन अब भी जमानिया में बड़ी संख्या में ऐसे बहुत सारे किसान हैं जो अब भी पोस्ता (अफीम) की खेती करना चाहते है लेकिन उन्हें ददनी ही नहीं नहीं मिल पा रही है जिससे उनके अंदर निराशा है। उन्हीं में से गोहदा वीसनपुर निवासी देवेंद्र कुमार सिंह अपनी खीझ निकलने वाले अंदाज में कहते हैं ‘ददनी मिलना हालांकि अब बहुत ही टेढ़ा हो गया है। स्थानीय स्तर पर नेताओं की इसमें बहुत बड़ी भूमिका होती है। अगर नेता दमदार है तो जितने लोग चाहे उतने लोगों को ददनी दिलवा सकता है। लेकिन नेता कमजोर है तो जमानिया जैसी ही स्थिति हो जाती है। गाजीपुर में आज कोई बड़ा नेता नहीं रह गया, वरना हम लोगों को भी आसानी से ददनी मिल जाती और पोस्ते की खेती करके हम भी मालामाल हो जाते।’
हालांकि पोस्ता की खेती करने में आने वाली कठिनाइयों की चर्चा करते हुए देवेंद्र कहते हैं चार मंडा की खेती करने में 25-30 हजार रुपए किसानों को मजदूरी देनी पड़ जाती है। निराई-गुड़ाई से लेकर पानी, खाद, दवा सब करना पड़ता है। कहीं कोई जानवर इसको नुकसान न पहुंचा दे, इसका भी ध्यान देना पड़ता है। बहुत बार ऐसा हो भी होता है कि लोग चोरी से फसल को काट ले जाते हैं। कई बार प्राकृतिक आपदा या फिर रोग लग जाने से भी फसल को काफी नुकसान हो जाता है। इन सब कारणों से किसानों को बड़ा नुकसान सहना पड़ता है। यही नहीं कभी-कभी तो पौधे ही कमजोर होते हैं जिसके कारण फसल ठीक नहीं होती इसलिए भी किसानों को घाटा उठाना पड़ जाता है। लेकिन अधिकारी, वह तो फसल और खेती के आकार-प्रकार के हिसाब से ही माल की डिमांड करता है। डिमांड पूरी ना होने पर व्यक्ति का लाइसेंस काट दिया जाता है।’ फसल की पैदावार के दौरान आने वाली कठिनाइयों की बाबत वे आगे बोले ‘सब कुछ ठीक-ठाक रहा और जब फसल तैयार हो जाती है तब चीर मारा जाता है और सुबह के समय में फलों से रस इकट्ठा किया जाता है। एक बार जब व्यक्ति खेत में हिलता है तब चाहे कोई भी आ जाय वह अपना काम करके ही खेत से निकलता है। एकत्र किए गए माल को खुद ले जाकर विभाग को सौंप दिया जाता है। माल को सरकार को सौंपने के दौरान भी बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती है। जितने भी लोग पोस्ता की खेती कर रहे हैं वे सब लोग एक समूह में माल गोदाम तक पहुंचाते हैं। लोगों में इस बात का डर भी रहता है कि कहीं रास्ते में कोई उनके ऊपर हमला करके उनका माल छीन ना ले।’
जमानिया से वापसी के दौरान रास्ते में मिले नूरपुर के निवासी मलूदन अफीम खेती करने वालों के दर्द को बयां करते हुए कहते हैं ‘चार गाटे की फसल को ठीक-ठाक पैदा करने के लिए किसान पच्चीस से तीस हजार रुपए खर्च करता है। अगर फसल ठीक-ठाक हो गई तो उसकी आमदनी ठीक-ठाक हो जाती है नहीं तो कभी-कभी तो ऐसी भी स्थिति आ जाती है कि किसी-किसी को माल घर से खरीद कर जमा करना पड़ता है’ सरकार को सीख देने वाले अंदाज में मलूदन बोले ‘सरकार को चाहिए कि अगर फसल ठीक-ठाक पैदा नहीं हुई है तो जितना माल किसान द्वारा पैदा किया गया है उसे रख लेना चाहिए।’ वे अपनी बात को आगे जारी रखते हुए कहते हैं ‘सरकार का रवैया अगर इसी प्रकार से रहा तो पोस्ते की खेती करना सब लोग छोड़ देंगे। फिर क्या होगा आम जनता का। आज बहुत सारी दवाओं में अफीम का इस्तेमाल किया जाता है। घुटने के दर्द वगैरह में यह बहुत कारगर दवा सिद्ध होती है। जब लोग खेती करना ही बंद कर देंगे तो बहुत सारी दवाएं हमारे देश में बनना बंद हो जाएंगी। फिर ये दवाएं बाहर से मंगानी पड़ेंगी जो काफी मंहगी होगी और इसका भार जनता को वहन करना पड़ेगा। सरकार को इस पर भी ध्यान देना चाहिए। जिस प्रकार से गाजीपुर में धीरे-धीरे अफीम की खेती का कारोबार खत्म होता जा रहा है, अन्य जगहों की भी तो यही स्थिति हो जाएगी। मैं भी इस खेती को करना चाहता हूं लेकिन अफसरों की कड़ाई देखकर हिम्मत छूट जा रही है। सोचता हूं दो पैसे कम ही कमाओ लेकिन सुख और चैन की रोटी खाऊं।’
वैश्विक स्तर पर यदि हम अफीम के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो हम देखते हैं कि 3400 ईसा पूर्व अफीम की खेती मेसोपोटामिया में की जाती थी। सुमेरियन इसे हुल गिल के नाम से जानते थे जिसका अर्थ होता है ‘खुशी का पौधा’। 460 ईसा पूर्व औषधि के जनक हिपोक्रेट्स ने माना कि इसका इस्तेमाल अंदरूनी बीमारियों, स्त्रियों के माहवारी के इलाज में काम आती है। जबकि 330 ईसा पूर्व सिकंदर महान ने परसिया और भारत के लोगों को अफीम से परिचय कराया।
गाजीपुर में अफीम की फैक्ट्री से जुड़ी अनेक किंवदंतियाँ अभी भी कही जाती हैं। यह दर्द निवारक गुणों वाला पौधा है इसलिए इसकी लोकप्रियता बहुत है। गाजीपुर के जेवल गाँव में जन्मे जाने-माने शायर और रेलवे के पूर्व अधिकारी बी आर विप्लवी कहते हैं कि ‘मेरी माँ अफीम के किसानों के यहाँ काम करती थीं और जब मैं साल भर से भी कम का था तब वह मुझे अफीम चटा देती थीं ताकि मैं काम के समय रोऊं न और वह बिना खलल के काम करती रहें।’ अफीम आज दर्द निवारक दवाइयाँ बनाने का प्रमुख घटक है लेकिन कई कारणों से उसकी उपज लगातार सीमित होती गई है। मार्च 2009 को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा घोषित किया गया कि दुनिया की 80% जनसंख्या के पास पर्याप्त मात्रा में दर्द निवारक सुविधा का अभाव है।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने बनारस अफीम एजेंसी की नींव रखी जिसका मकसद अफीम के व्यापार को बढ़ाना था। 1818 में बनारस से अलग होकर एक नया जिला बना। गाजीपुर के अलग जिला बनने की प्रक्रिया 1793 में शुरू हो गई थी। उससे पहले यह सब क्षेत्र काशी नरेश के अधीन आता था। 1791 में काशी नरेश के उत्तराधिकारी शेर सिंह को सत्ता से बेदखल कर ईस्ट इंडिया कंपनी ने कब्जा जमा लिया था। गाजीपुर के वर्तमान गोरा बाजार इलाके के 73 एकड़ जमीन को कैंटोनमेंट घोषित किया गया था। कैंटोनमेंट एरिया में ही ब्रिटिश अधिकारियों के बंगले और ऑफिस थे। शहर में अन्य प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यालय खोले जाने की प्रक्रिया इस दौरान शुरू हो गई थी।
यह सब 1793 में शुरू हुआ। उस दौरान ब्रिटिश हुकूमत के डिप्टी कलेक्टर रॉबर्ट बार्लो गाजीपुर में शहर बनाए जाने की जिम्मेदारी संभालने गाजीपुर में ही बैठा करता था। इस दौरान गंगा पार इलाके में कई सौ एकड़ के क्षेत्र में पॉपी की खेती होती थी। अफीम पॉपी के फूल से ही निकाली जाती है। उस दौरान अफीम शोधन जिला जेल में किया जाता था। साल 1818 में ही अंग्रेजों ने अफीम फैक्ट्री बनानी शुरू कर दी। इसके दो साल बाद 1820 में अफीम फैक्ट्री बनकर तैयार हुई। तब जेल से अफीम शोधन के काम को फैक्ट्री में लाया गया।
1 अप्रैल 1950 से भारत में अफीम की खेती और उत्पादन पर भारत सरकार का पूर्ण नियंत्रण हो गया। इस प्रकार से देखा जाए तो 6 नवंबर 1950 से अफीम का व्यापार यानी लेनदेन बनारस अफीम एजेंसी, बिहार अफीम एजेंसी और मालवा अफीम एजेंसी के माध्यम से शुरू हुआ। इसके बाद पूरे देश में अफीम के उत्पादन पर सामान नियंत्रण रखने के लिए एक केंद्रीय संगठन बनाया गया। इस संगठन को अब केंद्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो के नाम से जाना जाता है। इसका मुख्यालय पहले शिमला में था जिसे 1960 में ग्वालियर में स्थानांतरित कर दिया गया।
काले बाजार में एक किलोग्राम अफीम की कीमत लगभग 1 से 1.5 लाख रुपये की हो सकती है परन्तु सरकारी रेट लगभग 2500 से 3000 रुपये प्रति किलोग्राम होती है। अफीम के पौधे का हर भाग महत्वपूर्ण और मूल्यवान होता है। यहां तक की इससे निकलने वाला खराब पदार्थ भी बेचा जाता है। अक्सर इसको भी सरकारी विभाग के अधिकारी अपने साथ ले जाते हैं जिससे किसी अन्य प्रकार का गलत प्रयोग ना किया जा सके।
केंद्र सरकार द्वारा जारी लाइसेंस नोटिफिकेशन में कहा गया है कि ऐसे किसानों को लाइसेंस पहले दिया जाएगा जिन्होंने फसल वर्ष 2018-19 , 2019-20 और 2020-21 के दौरान खेती की हो। साथ कुल क्षेत्रों का 50 फीसदी से अधिक मात्रा में जुताई कर दी हो।
वर्ष 2020-21 के दौरान अफीम पोस्ता की खेती करने वाले किसान भी पात्र होंगे। शर्त यह है कि उनके मार्फीन की औसत उपज 4.2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से कम न रही हो। नेशनल नारकोटिक्स ब्यूरो की देखरेख में फसल वर्ष 2018-19, 2019-20 और 2020-21 के दौरान अपनी संपूर्ण पोस्ता की फसल की जुताई करने वाले किसान भी पात्र होंगे लेकिन शर्त यह है कि वे किसान वर्ष 2017-18 के दौरान अपनी सम्पूर्ण पोस्ता फसल की जुताई नहीं थी।ऐसे किसान जिन्होंने फसल वर्ष 2020-21 या किसी अगले वर्ष में पोस्ता की खेती की हो और जो अगले वर्ष में लाइसेंस के लिए पात्र थे, किन्तु किसी कारणवश स्वेच्छा से लाइसेंस प्राप्त न किया हो अथवा, जिन्होंने अगले फसल वर्ष में लाइसेंस प्राप्त करने के बाद किसी कारणवश अफीम पोस्ता की खेती वास्तव में न की हो। अंतिम और खास शर्त यह है कि ऐसे किसानों को लाइसेंस मिल सकता है जिन्हें किसी दिवंगत पात्र किसान (पूर्व) ने फसल वर्ष 2020-21 के लिए कॉलम 11 में नामित किया हो।
केंद्र सरकार द्वारा जारी नोटिफिकेशन में यह कहा गया है कि किसी भी किसान का लाइसेंस तब तक मंजूर नहीं होगा, जब तक कि वह इन शर्तों को पूरा न करता हो।
पहली शर्त यह है कि किसान ने फसल वर्ष 2020-21 के दौरान पोस्त की खेती के लिए लाइसेंसशुदा वास्तविक क्षेत्र से 5 फीसदी क्षेत्र से अधिक क्षेत्र में खेती न की हो। दूसरी शर्त यह है कि उस किसान ने कभी भी अफीम पोस्त की अवैध खेती न की हो। तीसरी उस किसान पर नारकोटिक औषधि व मनःप्रभावी द्रव्य पदार्थ अधिनियम 1985 और उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों के अंतर्गत किसी अपराध के लिए किसी न्यायालय में आरोप नहीं सिद्ध किया गया हो।
और इस प्रकार से काला सोना (अफीम) की खेती का विस्तार धीरे-धीरे बढ़ता ही गया। लोग बड़े पैमाने पर खेती करते गए। देखा जाए तो उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के नवाबगंज, रामनगर, फतेहपुर, रामसनेही घाट हैदरगढ़, गौसपुर तो लखनऊ में राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान, लखनऊ (प्रायोगिक प्रयोजन के लिए) तथा सेंट्रल इंस्टीट्यूट आफ मेडिसिन एंड एरोमैटिक प्लांट (प्रयोगगिक प्रयोजन के लिए)। तो शाहजहांपुर में कंत (तहसील सदर), जलालाबाद कलान और तिल्हाड़। वही बदायूं में बिसोली, दातागंज और बिलसी। बरेली के बरेली मीरगंज , आंवला और फरीदपुर। रायबरेली के कुमहरावान और महाराजगंज में भी अभी खेती होती है। जबकि गाजीपुर के जमानिया में काला सोना कहे जाने वाले अफीम की खेती तो हो रही है लेकिन नाम मात्र की।
केंद्रीय नारकोटिक्स ब्यूरो की वेबसाइट से प्राप्त आंकड़ों की बात करें तो वर्ष 2023-24 के लिए जहां बाराबंकी के 892 किसानों को पोस्ता की खेती के लिए पात्र पाया गया है तो लखनऊ के 29 किसानों को और फैजाबाद के नौ लोग अफीम की खेती करने के विभागीय पैमाने पर खरे उतरे।
आज देखा जाए तो बड़े पैमाने पर युवा वर्ग नशे की दुनिया में अपना कदम रख चुका है। बात चाहे महानगरों की की जाए या फिर छोटे शहरों की। हर जगह हमें युवा वर्ग नशे की अवस्था में दिख जाता है। हालांकि नशे के इस व्यापार में काले और सफेद पोशों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। गाजीपुर और आसपास के क्षेत्र के युवाओं को नशे के क्षेत्र में उतरने का कारण अफीम की खेती को मानते हुए गाजीपुर जिले के जमानिया के वरिष्ठ पत्रकार राजकमल कहते हैं ‘गाजीपुर में जैसे ही अफीम की खेती शुरू हुई यहां का युवा वर्ग धीरे-धीरे नशे का आदी होता गया। लेकिन सच कहूं तो आज की जो युवा पीढ़ी है वह अपने पूर्व के नशेड़ियों की दुर्दशा को देखकर नशे से दूरी बनाए हुए है।’
तो वहीं दूसरी तरफ किसानों को अफीम की खेती का लाइसेंस न मिलने पर निराश न होने के साथ सुझाव देने वाले अंदाज में राजकमल कहते हैं ‘जो किसान अफीम की खेती करना चाहते थे अगर उन्हें, पोस्ता की खेती का लाइसेंस नहीं मिला तो निराश न हों और दूसरों की तरह सब्जी की खेती पर ध्यान केंद्रित करें। आज हमारे यहां की सब्जी दिल्ली, नेपाल, खाड़ी के देशों में जा रही है। गाजीपुर की पाताल मंडी सालाना 5 करोड़ का राजस्व ऐसे ही नहीं दे रही है। लोग सब्जियां पैदा करके कमाई कर रहे हैं तभी ना इतना राजस्व सरकार को मिल रहा है।’
बनारस आज भी स्थानीय और विदेशी नशेड़ियों के लिए चारागाह बना हुआ है। बनारस के अस्सी, शिवाला, दशाश्वमेध, मैदागिन और चौक जैसे क्षेत्रों में आज भी अफीम और उससे बने पदार्थों का व्यवसाय चोरी-छुपे चल रहा है। यही नहीं, बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक मोटी रकम देकर अपना शौक पूरा करते हैं। बनारस में कुछ ऐसे टूरिस्ट गाइड भी मौजूद हैं जो आसानी से विदेशी पर्यटकों की इन इच्छाओं की पूर्ति करवा देते हैं। नाम न छापने की शर्त पर एक टूरिस्ट गाइड कहता है ‘वह लोग(देशी और विदेशी टूरिस्ट) जब इसकी मांग करते हैं तो हम उनके लिए ऐसी चीजें(अफीम और उससे बनी नशे की सामग्री) उपलब्ध करवा देते हैं। उसके लिए वे मुंह मांगी कीमत देने को तैयार रहते हैं। बनारस की गली-गली के बारे में हमें पता है कि कहां कौन सी चीज मिलती है। हम इन पर्यटकों की जरूरतें पूरी करवा देता हैं और मेरी जरूरत पर्यटक पूरी कर देते हैं। हम भी मस्त, वे भी मस्त।
उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय राय गाजीपुर जिले के अफीम की खेती करने के इच्छुक किसानों को लाइसेंस न मिल पाने पर अफसोस जताते हुए कहा ‘गाजीपुर के जो भी किसान अफीम की खेती करना चाहते है अगर उन्हें लाइसेन्स नहीं मिल पा रहा है तो यह दुखद है। सरकार को उनकी समस्याओं के मद्देनजर बीच का कोई रास्ता निकालना चाहिए जिससे उन किसानों की रोजी-रोटी चलती रहे लेकिन इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि उसकी अवैध तस्करी भी ना होने पाए।’
दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी के गाजीपुर जिलाध्यक्ष गोपाल यादव कहते हैं, ‘समाजवादी पार्टी मांग करती है कि अफीम फैक्ट्री गाजीपुर जिले में है तो यहाँ के स्थानीय लोगों को उसका लाभ मिलना चाहिए। इसलिए हम चाहते हैं कि मानकों को ध्यान में रखते हुए सरकार को सहृदयता दिखते हुए जो भी लोग पोस्ता की खेती करने के लिए ददनी (लाइसेन्स) चाहते हैं उन्हें वह दिया जाय।’
बहरहाल जो भी हो लेकिन एक बात तो तय है कि अफीम की खेती एक नकदी खेती के रूप में जानी जाती है। एक तरफ जहां किसान इसकी अच्छी पैदावार होने की स्थिति में ठीक-ठाक कमाई कर लेता है तो वहीं दूसरी तरफ कीड़ों के प्रकोप,प्रकृति की मार या तमाम प्रकार के रोगों के हमले वाली स्थिति में घर से भी भरता है। इसलिए सरकार को अफीम उत्पादन के लिए बनाए गए मानकों पर सहानुभूति दिखाते हुए पुनर्विचार करना चाहिए, जिससे गरीब किसानों की आजीविका में कोई परेशानी न आने पाये और उनके मुरझाये चेहरे पर काले सोने की चमक से उपजी खुशी साफ-साफ चमक सके।