कल हैदराबाद में प्रोफेसर जीएन साईबाबा की मौत से हमारी न्यायपालिका को सुकून मिला होगा, जिसने कभी उनके दर्द को नहीं समझा। 90% विकलांग लेकिन पूरी तरह से दोषी ठहराए गए व्यक्ति को राज्य द्वारा भारत का सबसे ‘वांटेड’ व्यक्ति बना दिया गया, जिसका न्यायपालिका ने भी समर्थन किया। मैंने कई बार कहा है कि लोकतंत्र में लोगों के अलग-अलग विचार हो सकते हैं और जब तक हम संवैधानिक मूल्यों और लोकतांत्रिक असहमति में विश्वास रखते हैं, ये विचार अंततः हमें मजबूत बनाते हैं।
9 मई, 2014 को महाराष्ट्र पुलिस ने उन्हें, उनके ‘कथित’ माओवादियों के साथ संबंधों के लिए गिरफ्तार किया था। बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा मेडिकल आधार पर जमानत दिए जाने और जून 2015 में उन्हें रिहा कर दिए जाने बाद भी, वे जेल में थे और उनकी सभी अपीलें अदालतों द्वारा खारिज कर दी गईं। वर्ष 2017 में एक सत्र न्यायालय द्वारा आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी और उनकी मेडिकल जमानत याचिका को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। सबसे दुखद बात यह थी कि उन्हें अपनी माँ के निधन के बाद उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए पैरोल नहीं दी गई।
वे बेहद साहसी व्यक्ति थे। सीसीटीवी कैमरे लगाने के लिए जेल में भूख हड़ताल पर चले गए, जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया। 14 अक्टूबर, 2022 को, बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने वास्तव में उन्हें यूएपीए के तहत सभी आरोपों से बरी कर दिया था, लेकिन सरकार ने इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसने फैसले को निलंबित कर दिया और बॉम्बे हाईकोर्ट से मामले का फिर से मूल्यांकन करने को कहा। 5 मार्च, 2024 को, बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने अपने फैसले की पुष्टि की और उनके साथ गिरफ्तार किए गए पांच अन्य लोगों को रिहा करने का आदेश दिया।
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प्रोफेसर साईबाबा का मामला फादर स्टेन स्वामी जैसा ही है, जिन्हें उनके बढ़ते स्वास्थ्य संबंधी संकटों के बावजूद अदालतों ने जमानत देने से इनकार कर दिया था। यह हमारी न्यायिक प्रणाली की बढ़ती असंवेदनशीलता को दर्शाता है। इसके साथ यह भी सामने आता है कि न्यायिक प्रणाली ‘आधिकारिक आख्यान’ से परे देखने में पूरी तरह असमर्थ है।
निचली अदालतों में, ज़्यादातर समय, अधिकारियों से कोई सवाल नहीं पूछा जाता है, लेकिन जब बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने उन्हें बरी किया, तो सुप्रीम कोर्ट ने उनके मामले पर विकलांग व्यक्ति के अधिकार के रूप में कोई रियायत नहीं दी। उस समय सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि उन्हें मानवीय आधार पर रिहा किया जा सकता था। क्या कानून इतना असंवेदनशील और क्रूर हो सकता है? कानून कैसे ‘जैसे को तैसा’ के सिद्धांत पर बनाया जा सकता है? यह वही कानून है, जो भीड़ द्वारा हत्या करने वालों, नफ़रत फैलाने वालों, बलात्कारियों और हत्यारों को बिना कोई सवाल पूछे रिहा करता रहा है। राम रहीम और उसके जैसे कई लोगों की कहानी लोगों को अच्छी तरह से पता है।
प्रोफेसर साईंबाबा को नागपुर जेल में कुख्यात ‘अंडा’ सेल में रखा गया था, जहाँ उन्हें बहुत तकलीफ़ और कठिनाई का सामना करना पड़ा। राज्य तंत्र यह अच्छी तरह से जानता है कि सामाजिक न्याय के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता रखने वाले लोग अपनी स्थिति से समझौता नहीं करेंगे। इसलिए उन्हें न केवल शारीरिक प्रताड़ना दी गई बल्कि मानसिक रूप से भी प्रताड़ित और अपमानित किया जाता रहा। कोई अंदाजा लगा सकता है कि प्रोफेसर साईबाबा को जेल में कितना अपमान सहना पड़ा होगा? राज्य उन्हें पूरी तरह तोड़ना चाहता था और इसीलिए उन्हें कोई ऐसा सहायक नहीं दिया गया जो उनकी जरूरतों में मदद कर सके। यह बेहद दुखद है कि एक ऐसे व्यक्ति को भारत के सबसे खतरनाक व्यक्ति के रूप में चित्रित करने की कोशिश की गई जो 90 फीसदी शारीरिक अपंग था। जिसने बहुत गरिमा और विनम्रता के साथ जीवन जिया।
भारत में राज्य तंत्र यही कर सकता है। इसकी प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं। यह एक अलग तरीके से कहानी गढ़ रहा है। लोग ‘अमीर’ बनने के लिए सोशल मीडिया की पूरी कवायद में फंस गए हैं। हमें यह समझने की जरूरत है कि भारतीय मध्य वर्ग, यहां तक कि गरीब भी अपने सामने आने वाली समस्याओं के बारे में ज्यादा चिंतित क्यों नहीं हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि वेब की दुनिया से विचलित करने वाली रणनीतियां दुनिया के सामने आ रही हैं। ये रणनीतियाँ उन लोगों के जुए को ख़तरनाक हद तक मजबूत करेंगी जो हमारे विचारों को नियंत्रित करना चाहते हैं। इन्हें हमारे खिलाफ सबसे बड़ा हथियार बना दिया गया है क्योंकि ये पूंजीपतियों और उनके प्रचार तंत्र द्वारा नियंत्रितहैं जो तय करते हैं कि कौन ‘राष्ट्रवादी’ है और कौन राष्ट्रविरोधी।
जी एन साईबाबा हों या फादर स्टेन स्वामी या फिर उमर खालिद हों, इनके प्रति मध्य वर्ग या तथाकथित बुद्धिजीवियों या राजनीतिक दलों की कोई सहानुभूति दिखाई नहीं देती। इसी माहौल में रहने को हम मजबूर हैं। दरअसल, भय और धमकी के कारण लोगों ने चुप्पी साधी हुई है और दूसरी ओर, कथा निर्माता इन शोषकों को ‘धन निर्माता’ के रूप में चित्रित करना जारी रखे हुए हैं। उनमें से अधिकांश, बड़े पैमाने पर आर्थिक लूट के बाद भी, शानदार जीवन जी रहे हैं। भले ही वे हमें अश्लील लगें, लेकिन उनके पास पीआर एजेंट हैं जो उनकी ‘संपत्ति’ का महिमामंडन करते हैं और इसे देश के लिए ‘उपलब्धि’ बताते हैं। दूसरी तरफ भूख और कुपोषण लगातार बढ़ रहा है, लेकिन इसका किसी भी स्तर पर हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है।
हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि इंटरनेट की दुनिया आज विचारों और जीवन को पूरी तरह नियंत्रित कर रही है। अगर आपके पास सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग और उनकी आधिपत्यवादी विचार प्रणाली के अलावा कोई वैचारिक धारणा नहीं है, तो दुनिया आपकी है,अन्यथा आप सबसे बड़े खलनायक बना दिये जाएंगे।
साईंबाबा की पत्नी वसंता कुमारी ने उनकी लड़ाई को मजबूती से लड़ा और अंत तक साहस के साथ खड़ी रहीं। ऐसे समर्पित लोगों की वजह से ही हम इस क्रूर व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने का साहस कर रहे हैं। साईबाबा अब स्वतंत्र हैं, जहां कोई भी राज्य उन तक नहीं पहुंच सकता।