कोई नई बात नहीं है। ऐसा होता रहा है और मुझे लगता है कि असंख्य लोगों के सामने यह सवाल जरूर रहता होगा। खासकर वे जो पिता हैं और बेटियों के पिता। सवाल बेटियां जननेवाली मांओं के सामने भी रहते ही होंगे। नहीं होने का कोई सवाल ही नहीं है। वजह यह कि संतान की परिभाषा ही ऐसी है जिसमें माता और पिता दोनों शामिल हैं। मेरे हिसाब से इसकी एक परिभाषा है– सम+तन = संतान। मतलब यह कि अपने जैसा शरीर। मुझे नहीं पता कि यह कितना सही है और कितना गलत। लेकिन एक पिता होने के कारण मुझे ऐसा लगता है कि संतान अपने ही शरीर के समान होते हैं। तभी हम हर कोशिश करते हैं कि हमारे संतान को खरोंच तक नहीं लगे।
खैर, वह सवाल जो बीती रात से मेरे सामने है, वह दरअसल मेरे एक मित्र की समस्या है। मेरे वरिष्ठ मित्र पटना के हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं। रहनेवाले तो संभवत: उत्तरी बिहार के हैं, लेकिन पटना में ही उन्होंने अपनी दुनिया बसा ली है। उन्हें दो बेटियां और एक बेटा है। दोनों बेटियां बड़ी हैं। सबसे बड़ी बेटी एमए कर चुकी है और इन दिनों प्रतियोगिता परीक्षाओं में लगी है। दूसरी बेटी स्नातक कर रही है और बेटे को वे इंजीनियर बनाना चाहते हैं सो उसे कोटा भेज दिया है।
समस्या क्या है आपकी? मैंने यह पूछा तो उन्होंने जो कहा, वह चौंकानेवाला तो नहीं लेकिन सवाल जरूर खड़ा करता है। उन्होंने कहा कि लड़के वाले को उन्होंने 12 लाख रुपए का भुगतान कर दिया है। गाड़ी भी खरीद ली है। और अब लड़के वाले कह रहे हैं कि उन्हें दहेज में 40 लाख रुपए चाहिए। वजह शायद यह है कि लड़का सरकारी नौकरी पा गया है। ऐसे में उसके पिता ने उसका रेट बढ़ा दिया है।
मेरे मित्र ने बताया कि दो महीना पहले ही अपनी बड़ी बेटी की शादी के लिए अपनी ही जाति के हिसाब से एक वर चुना। लेन-देन के लिहाज से यह बहुत महंगा था, लेकिन चूंकि लड़का पक्ष समृद्ध है और वहां लड़की को कोई तकलीफ नहीं होगी, यह सोचकर बाइस लाख रुपए नकद के अलावा एक कार व अन्यान्य देने का निर्णय लिया। पहले तो मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्होंने इतना खर्च का निश्चय कैसे किया। वजह यह कि उनके संबंध में पूर्व की जानकारी व वर्तमान के अनुमान के अनुसार बीस-पच्चीस हजार रुपए मिलते होंगे अखबार की तरफ से। या हो सकता है कि इससे भी कम मिलता हो। आखिरी बार जब उनसे मिला था तो वह दो कमरों व एक छोटे से हॉल वाले फ्लैट में रहते थे। वह उनका किराए का घर था।
कल ही बातचीत में उन्होंने बताया कि अब उन्होंने अपना घर बनवा लिया है और वह भी मेरे ही इलाके में। लेकिन उनका घर जिस इलाके में है, वह मेरे घर के इलाके से बेहतर है। यानी अधिक पॉश इलाका है। साथ ही उन्होंने कहा कि गांव की आधी से अधिक जमीनें वह बेच चुके हैं और अब बेटी की शादी के लिए एक बीघा जमीन बेचने की सोच रहे हैं।
उन्होंने कहा कि नवल भाई, संतानें अपनी नहीं होती हैं। फिर चाहे वह बेटी हो या बेटा। आप चाहे जितने भी आदर्शवादी हों, संतानें निष्ठुर होती हैं। मैंने इसका कारण पूछा तो कहने लगे कि उनकी बड़ी बेटी ने कह दिया है कि वह शादी उसी परिवार में करेगी जो 22 लाख रुपए के बदले 40 लाख रुपए मांग रहा है।
तो समस्या क्या है आपकी? मैंने यह पूछा तो उन्होंने जो कहा, वह चौंकानेवाला तो नहीं लेकिन सवाल जरूर खड़ा करता है। उन्होंने कहा कि लड़के वाले को उन्होंने 12 लाख रुपए का भुगतान कर दिया है। गाड़ी भी खरीद ली है। और अब लड़के वाले कह रहे हैं कि उन्हें दहेज में 40 लाख रुपए चाहिए। वजह शायद यह है कि लड़का सरकारी नौकरी पा गया है। ऐसे में उसके पिता ने उसका रेट बढ़ा दिया है।
पहले तो मेरे मन में आया कि उन्हें साफ-साफ कह दूं कि आप उसे मना कर दें। जो परिवार पहले ही इतना लोभ दिखा रहा है, वह बाद में कितना लोभी होगा। लेकिन दूसरों के मामले में मैंने हस्तक्षेप करना बंद कर दिया है सो उन्हें सुनता रहा। मैंने उनसे कहा कि आप अपनी बेटी से पूछें कि वह क्या चाहती है। क्या वह अब भी उसी लड़के से शादी के लिए तैयार है?
मेरे इस सवाल पर मेरे मित्र उदास हो गए। उनकी उदासी फोन पर उनकी आवाज से स्पष्ट हो रही थी। उन्होंने कहा कि नवल भाई, संतानें अपनी नहीं होती हैं। फिर चाहे वह बेटी हो या बेटा। आप चाहे जितने भी आदर्शवादी हों, संतानें निष्ठुर होती हैं। मैंने इसका कारण पूछा तो कहने लगे कि उनकी बड़ी बेटी ने कह दिया है कि वह शादी उसी परिवार में करेगी जो 22 लाख रुपए के बदले 40 लाख रुपए मांग रहा है। साथ ही उसने कहा कि यदि एक बीघा जमीन और बिक जाय तो क्या फर्क पड़ता है। मेरे मित्र जब यह कह रहे थे, तो मुझे लगा कि उनकी आंखों में आंसू रहे होंगे। उनका कलेजा कलपा जरूर होगा।
आखिर मेरी बेटी है और वह भी तो नवउदारवादी दौर में पली-बढ़ी है तथा आर्थिक स्थितियों को समझती है। तो इसमें उसका कोई दोष नहीं है कि वह मुझे एक बीघा और बेचकर दहेज के लिए रकम जुटाने की बात कह रही है। वह भी अपना आर्थिक भविष्य देख रही है।
वह खामोश हो गए थे और मैंने भी अपने आपको रोका। फोन पर हमारा संपर्क बना हुआ था। करीब एक मिनट बाद मैंने कहा कि क्या यह संभव नहीं है कि आप अपनी संपत्ति के तीन या चार हिस्से लगाएं और एक हिस्सा अभी ही अपनी बड़ी बेटी के नाम कर दें। वजह यह कि अब जब ओखली में सिर दे ही चुके हैं तो पीछे हटने का सवाल नहीं है। अब एक बीघा जमीन जो आप बेचने जा रहे हैं, उसे अपनी बेटी के नाम से ही कर दें। इस तरह आपकी बेटी के पास एक अचल संपत्ति रहेगी और वह मुश्किलों में उसका उपयोग कर सकेगी और इस तरह से वह आर्थिक रूप से आंशिक तौर पर स्वतंत्र भी होगी। साथ ही, उसके ससुराल के लोगों को भी यह अच्छा लगना चाहिए। आखिर उन्हें भी 40 के बदले 50 लाख रुपए मिलेंगे।
मेरे मित्र को मेरी यह सलाह अच्छी लगी। उन्होंने कहा कि यह तरीका अच्छा है। अब यदि अपनी बेटी की शादी करूंगा तो इसी शर्त पर करूंगा। पटना वाले घर में भी उसकी हिस्सेदारी सुनिश्चित करूंगा। आखिर मेरी बेटी है और वह भी तो नवउदारवादी दौर में पली-बढ़ी है तथा आर्थिक स्थितियों को समझती है। तो इसमें उसका कोई दोष नहीं है कि वह मुझे एक बीघा और बेचकर दहेज के लिए रकम जुटाने की बात कह रही है। वह भी अपना आर्थिक भविष्य देख रही है।
इस तरह हम दो मित्रों की बातचीत एक सकारात्मक परिणाम के साथ खत्म हुई।
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।