सरकारी सूत्रों द्वारा दावा किया गया कि भारतीय संस्कृति के अनुरूप जी-20 के मेहमानों को राष्ट्रपति भवन में सोने और चांदी के बर्तनों में रात्रिभोज कराया गया।
जिस देश का प्रधानमंत्री दावा करता है कि 80 करोड़ भारतीय उसके द्वारा दिए जाने वाले 5 किलो अनाज पर ज़िंदा हैं, उस देश में सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन करना, कराना भारतीय संस्कृति में कब से शामिल हुआ। मैंने इस पर काफी सोचा, मगर जीवनशैली, अतिथि सत्कार परंपराओं, इतिहास तो दूर की बात; मिथकों वाले मिथिहास, महाकाव्यों-महाआख्यानों में भी ऐसी कथाएं नहीं मिली, जो मिसाल बनें।
वेदों की स्मृतियों में झांका, उनके ज्यादातर, बल्कि सभी प्रमुख देवता काफी पहले ही रिटायर हो चुके हैं। सूर्य, वायु, मरुत, वरुण, अग्नि, सोम को सामान्य खाने-वाने से ही खास लगाव नहीं था। पूषण चरवाहों के देवता थे, उनके लिए ताजा घर का बना खाना मिलने तक के लाले थे, सोने-चांदी में खाते ही क्या! इन्द्र जी का पता नहीं, उनके इंद्रलोक में बाकी सब फ्रिंज बेनिफिट्स का तो जिक्र है, सोमरस भी है, सोने की थाली में जेवनार की झलक नहीं मिलती।
शिव इकलौते ठेठ अनार्य देवता हैं, जिनकी ठसक और जनाधार इतना विकट था कि ऋग्वेद में निंदा की बौछार करने के बाद भी उन्हें महादेव मानना पड़ा। मगर उनके ‘घर’ में तो पत्तल तक रखने का ठीहा नहीं था, सोने-चांदी के बर्तन कहाँ रखते-रखाते। सारे देवताओं पर भारी देश भर की देवियां शेर पर सवार, खप्पर लिए विचरती थीं, उनके आहार के लिए इन सब चोंचलों की जरूरत नहीं थी। गणेश के मोदक और लड्डू सिर्फ पत्तों के दोने की दरकार रखते थे; लिहाजा इधर भी रुल्ड-आउट।
वैदिक, पूर्व-वैदिक से पहले के सारे देव-देवियाँ, बड़ादेव, प्राकृतिक हुए; संथालों, गोंडों, भीलों, कोलों जैसे आदिवासियों के कुटुम्बी हैं। उनके लिए कटोरी और थाली क्या! तेंदू पत्ते का चुक्कड़ और केले के गाछ ही दस्तरखान था/है।
अब इन दिनों जो खुद को सनातनी कहते हैं, और इन दिनों वे जिन्हें वैदिक-पूर्व वैदिक-आदि प्राकृतिक ‘भगवानों’ का भी भगवान बताते है, उन्हें देख लेते हैं!
रामायण खंगाली – वनवासी राम से अयोध्या लौटे राम तक, यहाँ तक कि सीता को ब्याहने जनक के यहां गए दामाद राम तक की थालियां चांदी-सोने की नहीं मिली।
कृष्ण जी ग्वाले थे, उनके मक्खनी बाल युग में भी माखन की मटकियाँ सोने की नहीं, मिटटी की होती थी। बड़े होने के बाद वे ज्यादातर फील्ड डेपूटेशन पर रहे। काफी समय पांडवों के साथ रहे, जिनकी 5 गाँव तक की मोहताजी थी। उनके साथ वे साधारण बर्तनों में भी क्या ही खाते। फिर घर में बलराम जैसे कड़क हलधर किसान भ्राता थे, सो किसी दिखावे की शोशेबाजी में फ़िजूलखर्ची का सवाल ही नहीं उठता। जीवन के अगले चरण में, अंत मे द्वारका में क्या हुआ, सब जानते ही हैं।
उनके कालखण्ड के बड़े सम्राट धृतराष्ट्र को थाली-लोटे की धातु की किस्म से बहुत फरक नहीं पड़ना था। सोने-चांदी की थालियाँ दुर्योधन, दुशासन तक की डाइनिंग टेबल पर नहीं दिखीं।
मिथकों में मिली, तो बस रावण भाई साब के यहाँ मिलीं – बंदे की तो लंका ही सोने की थी, तो थाली, लोटा, गिलास कहाँ लगते हैं!
यह तो हुई मिथिहासों की कथा।
हाँ, लिखित इतिहास में जरूर कुछ नकचढ़े बादशाहों, सिरफिरे राजा-महाराजाओं और धन्नासेठों के यहाँ इस तरह के बर्तनों का जिक्र मिलता है। इनमें से कोई भी शरीफ इंसान नहीं था। यूं ज्यादातर राजे-महाराजे खाने के बर्तन के रूप में काँसे का पात्र चुनते थे, उन्हें उनके वैद्य हकीमों ने काँसे की कोई विशेष तासीर बता रखी थी।
मुगलों के यहाँ भी यह बात उनकी देशी ससुरालों में हुई उनकी खातिर तवज्जो के प्रसंगों में मिलती है। वह भी ज्यादातर उसी राजस्थान और गुजरात के राजा ससुरों, सालों के बारे में, जिन राजस्थान, गुजरात से जी-20 के बर्तन भांड़े मंगवाए गए थे।
नेपोलियन के बारे में जरूर मशहूर है कि सेंट हेलेना की जेल जाने से पहले से वे सोने की एक बड़ी सी थाली में हलुवा खाया करते थे। इसे लेकर कई कार्टून भी बने। वैसे नेपोलियन के बारे में एक ज्यादा रोचक तथ्य यह है कि शुरुआत में उनकी थाली अल्यूमीनियम की होती थी। उन दिनों अल्यूमिनियम बनाने की विधि बहुत महंगी थी, नतीजे में उसकी कीमत सोने-चांदी से ज्यादा होती थी। पूरी टेबल पर बाकी सोने चांदी की थाली में खाते थे, बोनापार्ट भाई जी अल्यूमिनियम में खाते थे । बाद में जब अल्यूमिनियम की विधि सस्ती हुई तो भाई सोने पर शिफ्ट हो गए।
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हमारे मोहल्ले में राजे सिंधियाओं के यहाँ अवश्य एक बड़ी गोलाकार डाइनिंग टेबल पर परोसने के लिए चांदी की एक रेल गाड़ी है, जो इंग्लैंड की महारानी ने जीवाजी राव सिंधिया (शासन काल 1925 – 1947) को उनकी सेवाओं के ईनाम के रूप में तोहफे में दी थीं।
इस चांदी की रेल की एक त्रासद कहानी भी है, और वह यह कि एक बार जब पकवानों और व्यंजनों से भरी यह रेल मेहमानों से भरी टेबल पर घूम रही थी कि अचानक शार्ट सर्किट टाइप का कुछ हुआ और बेकाबू होकर राजधानी एक्सप्रेस की रफ़्तार से घूमने लगी। पल भर में किसी के ऊपर पालक कोफ्ते, किसी पर शाही कढ़ी, किसी पर पंचमेल दाल की बौछारें होने लगीं! सबसे ज्यादा विडम्बना उनकी रही, जिनके ऊपर कबाब, चिकन कोरमा और शोरबेदार मराठाई मटन की बारिश हुई । इस स्थिति को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने मराठों के यहाँ पका मटन खाया हो। बहरहाल चांदी की रेल ने सोने की थालियों पर परोसने की बजाय जो किया, उसके जो नतीजे निकले, इस पर कभी फिर गपियायेंगे।
ध्यान रहे, ये वही सिंधिया हैं, जिनके महल में, कहा जाता है कि, नाथूराम गोडसे ने पिस्तौल पाई भी थी और निशाना साधने का रियाज भी किया। अब जब गोडसे प्रसंगवश आ ही गए, तो गांधी जी को भी ले लेते हैं।
गांधी जी ने एक बार जरूर हुकुमचंद सेठ (इंदौर की हुकुमचंद मिल वाले, खुद को राजा कहलवाने के आग्रही) की जिद पर उनके घर में सोने की थाली में खाना खाया था, मगर इस शर्त पर कि खाने के बाद उस थाली को धो-धाकर अपने साथ ले जायेंगे। वही किया भी।
गरज ये कि ये जिस फूहड़ता को कथित संस्कृति बताया जा रहा है, उसमें भारतीय उतने ही हैं जितने भारतीय मुसोलिनी से गणवेश, हिटलर से प्रणाम और बर्बरता और दोनों से विचार लेकर आने वाले स्वयं को पृथ्वी का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बताने वाले में है!
लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव और पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक हैं।