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क्या जाति के मुद्दों पर सिनेमा बनानेवालों ने जाति की विनाश की दिशा में कोई काम किया

जाति व्यवस्था के बारे में इतिहास में कई व्याख्याएँ मौजूद हैं। प्रकार्यात्मक समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से जाति भारतीय समाज की एक अनूठी संस्था है और दुनिया में इसका संगठन सबसे अलग है। जाति ने ऊंच और नीच के आधार पर सम्पूर्ण समाज का एक सीढ़ीगत वर्गीकरण स्थापित कर रखा है। दूसरी अवधारणाओं में व्यवसाय के आधार पर जाति के विभाजन को देखा जाता है। जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में जाति निर्णायक भूमिका निभाती है। चाहे कितना भी आधुनिक संदर्भ बनाया जाय लेकिन उसकी पृष्ठभूमि की गहरी छानबीन करने पर उसकी बुनियाद जाति व्यवस्था में ही मिलती है। इसलिए जाति व्यवस्था को हमेशा दो पहलुओं से देखने पर अधिक मुकम्मल तस्वीर सामने आती है कि कैसे एक ही व्यवस्था एक ही देश और समाज में दो भिन्न स्तरों पर काम करती रही है। एक पहलू तो यह कि जो वर्ग जाति व्यवस्था के सभी लाभ (आय के स्रोत, संपत्ति और सामाजिक सम्मान) ले रहा है, उसके मुक़ाबले एक दूसरा बड़ा वर्ग है जो जाति व्यवस्था के कारण हर प्रकार की हानियों (श्रम का अवमूल्यन, निर्धनता और अपमान) को सदियों से झेल रहा है। यहाँ तक कि भाषा और संस्कृति के स्तर पर भी वह हमेशा कमजोर रहा है और अपने नायकों की जगह अपने उत्पीड़कों को सम्मान देने को अभिशप्त रहा है। कहना चाहिए कि जाति व्यवस्था ने सामाजिक अन्याय पैदा किया। जाति व्यवस्था में भरोसा रखनेवाला हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में सामाजिक अन्याय का पोषक है। लेकिन इस अन्याय को वह धर्म-अध्यात्म और मिथकों की चासनी में लपेटकर बड़े पैमाने पर परोसता रहा है। इसलिए भारत के बड़े जनसमूह का प्रायः एकतरफा व्याख्याओं की जाल में फंसना स्वाभाविक है। साहित्य, कला, रंगकर्म और सिनेमा ने भी इसे एक मोहक भुलावे में ही रचा और प्रसारित किया। यह सब सामाजिक न्याय के विरुद्ध सामाजिक अन्यायवादियों का एक बड़ा एजेंडा रहा है। भारतीय सिनेमा में जाति के सवाल को लेकर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता राकेश कबीर का विचारोत्तेजक विश्लेषण।

इस लेख के लिखे जाने के समय प्रयागराज (पूर्व इलाहाबाद) में महाकुम्भ चल रहा था। इसे सामाजिक-राष्ट्रीय एकता, आस्था और समरसता का कुम्भ भी कहा जा रहा था, जहाँ सभी लोग बिना भेदभाव के संगम में डुबकी लगा रहे थे। ठीक उसी समय 23 जनवरी 2024 को इंडियन एक्सप्रेस ने एक खबर छपी जिसमें राजस्थान के अजमेर जिले में एक दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालने के लिए दो सौ सिपाहियों की सुरक्षा लेनी पड़ी। यह विविधतापूर्ण भारत देश की हकीकत है।

अब अगर नौ दशक पीछे चलें तो बाबा साहब डॉ अंबेडकर की विश्व-प्रसिद्ध किताब इनहिलेशन ऑफ कास्ट को देखना अनिवार्य है। पृष्ठ संख्या 44 (जाति का विनाश-डॉ अंबेडकर, हिन्दी अनुवाद राजकिशोर, फॉरवर्ड प्रेस, द्वितीय संस्करण 2018) पर उन्होंने तत्कालीन जयपुर रियासत के चकवारा गाँव की एक घटना का ज़िक्र किया है। इसमें एक अछूत ने तीर्थयात्रा से लौटकर धार्मिक कर्तव्य के रूप में गाँव के अछूत परिवारों को भोज देना तय किया। भोज शानदार हो इसलिए व्यंजन देशी घी में बनाए गए। यह बात वहाँ के हिंदुओं को नागवार गुजरी इसलिए जब अछूत मेहमान अभी भोजन के लिए बैठे ही थे कि सैकड़ों लोग लाठी लेकर वहाँ पहुँच गए। उन्होंने सबसे पहले तो अछूत मेहमानों को मारपीट कर वहाँ से भागा दिया और फिर सारा भोजन खराब कर दिया। उनका कहना था कि अछूतों ने  भोज में घी का इस्तेमाल किया जबकि यह हमारी सामाजिक हैसियत का प्रतीक है।

इस प्रकार देखा जा सकता है कि सामंती युग से पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली तक आने के बावजूद जाति व्यवस्था कैसे काम कर रही है और वह किन मूल्यों को बचाए रखना चाहती है? क्या वह बदलते हुये सामाजिक और आर्थिक परिवेश के हिसाब से लचीला हो रही है अथवा इनका इस्तेमाल करते हुये एक प्रतिगामी समाज को बनाए रखना चाहती है।

हाल के वर्षों में सिनेमा में जाति के चित्रण में आये परिवर्तन पर चिंता व्यक्त करते हुए अपने एक लेख में डॉ. हरीश वानखेडे कहते हैं कि ‘बॉलीवुड फिल्मों को बौद्धिकता, शिक्षा, सौंदर्यबोध और ज्ञानवर्धन का साधन न मानकर केवल मनोरंजन का साधन माना जाता है और उसी तरह का कंटेन्ट दर्शकों के सामने परोसा जाता है। सिनेमा को दुनिया के अलग-अलग  देशों और सत्ताओं ने अपने बौद्धिक हथियार के तौर पर भी इस्तेमाल किया है। पिछले कुछ वर्षों मे सिनेमा मे सांप्रदायिक और उग्र राष्ट्रवाद के तत्व प्रमुख होते जा रहे हैं जिसे सन 2023 में प्रदर्शित हुई फिल्मों गदर 2, आदिपुरुष,  तेजस,  द केरल स्टोरी,  मिशन मजनू, अजमेर 92, 72 हूरें  और द वैक्सीन वार की विषयवस्तु प्रमाणित करती हैं। सन 2024 में आई फिल्में आर्टिकल 370, मैं अटल हूँ, कन्स्पिरेसी गोधरा, और बस्तर :  द नक्सल स्टोरी इसी परंपरा को आगे बढ़ाती हैं।’

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हरीश इसे ‘हिन्दुत्व सिनेमा’ का नाम भी देते हैं। इस लेख में वे लिखते हैं, “however if we label this new genre as ‘Hindutva Cinema’, the fact is that despite its claims to represent the concerns of all Hindus, the films hardly allow Dalit, Adivasis or Bahujan characters to be the protagonists. All characters, symbols, and sociocultural representations on screen overtly endorse the ideas and values of the socially elite classes and castes and ignore the problems and cries of marginalized social groups” (वानखेडे, हरीश 2024:22).

बहुजन नायक, भारतीय सिनेमा और जाति चित्रण का तौर-तरीका

बॉलीवुड दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री है। भारतीय उपमहाद्वीप में विद्यमान जाति व्यवस्था यहाँ की प्रत्येक संस्था को आवश्यक रूप से प्रभावित करती है। सिनेमा भी इससे अलग कभी नहीं रहा। सन 1913 में अस्तित्व में आने के बाद से लेकर अब तक बॉलीवुड ने विभिन्न विषयों और मुद्दों पर फिल्में बनाई हैं। दो दशक पूर्व तक परंपरागत रूप से कमजोर दलित जातियों के लोग अपनी जातीय पहचान को छुपाते थे ताकि लोग सार्वजनिक जीवन में उनसे भेदभाव करके अपमानित न करें। परंतु इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक तक आकर दलित साहित्य एक धारा के रूप मे स्थापित हो चुका है। अस्मितावादी आन्दोलनों ने लोगों को अपनी पहचान के प्रति जागरूक किया और अपनी उपलब्धियों पर गर्व करना सिखाया जिसके परिणामस्वरूप इन समुदायों में आत्मविश्वास की भावना जागी। साहित्य और आंदोलनों के प्रभाव में वंचित समुदायों ने अपनी पहचान को दृढ़ता से अभिव्यक्त करना आरंभ किया। परंतु बॉलीवुड एक फ़िल्मकारों ने कमजोर और हाशिये की जातियों को केंद्र मे रखकर गिनती की फिल्में बनाईं और प्रायः उन्हें परंपरागत रूप से कमजोर, निरीह और छुआछूत से पीड़ित व्यक्ति या समुदाय के रूप में ही चित्रित किया। दामुल, निशांत, चक्र, पार, सद्गति  जैसी अत्यंत चर्चित फिल्में दलितों के जीवन की मुश्किलों को प्रमुखता से परदे पर लाने का काम करती हैं लेकिन वे भी परिवर्तन के स्थान पर परंपरागत चित्रण ही प्रस्तुत करती हैं।

इस देश मे सिनेमा के आगमन के बहुत पहले से ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज एवं डॉ अम्बेडकर जैसे नायक सार्वजनिक जीवन मे महान कार्यों को अंजाम दे चुके थे। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या सिनेमा इसको सही परिप्रेक्ष्य में दिखाने की काबिलियत रखता है? इसके लिए एक व्यापक अध्ययन करना होगा और जाति व्यवस्था के मूल घटकों की पहचान तक जाना होगा।

दक्षिण भारत के कुछ निर्देशकों ने दलित जातियों के मुद्दों को अपनी फिल्मों का केन्द्रीय विषय बनाना आरंभ किया अर्थात उन्हें नायक-नायिका बनाकर समाज में उत्पीड़न, गैर-बराबरी और भेदभाव को हटाने के लिए संघर्ष करते हुए दिखाया। अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले इन जमीनी लोगों ने अपनी पहचान को छुपाने की जगह दृढ़ता के साथ उसे स्थापित करने का काम किया। इन फ़िल्मकारों और इनकी कहानियों के नायक-नायिकाओं को हजारों वर्षों से चली आ रही अपनी समस्याओं के समाधान के लिए किसी फ़रिश्ते की आवश्यकता नहीं है। वे मेहनतकश लोग हैं जो खुद अपने हाथों से अपना भविष्य बनाने में  भरोसा रखते हैं।

इस आलेख में हमारा तर्क है कि बीसवीं सदी के सिनेमा में जातीय मुद्दों को गाँधीवादी और आदर्शवादी तरीकों से रखने का काम किया जिसमें जातीय घृणा और छुआछूत को हृदय परिवर्तन के माध्यम से दूर करने पर जोर था। इक्कीसवी सदी के इनसाइडर निर्देशकों ने शिक्षित, कानूनी रूप से जागरूक, चेतनासम्पन्न लोगों के संघर्ष के माध्यम से उनकी सामाजिक प्रस्थिति को ऊपर उठाने के प्रयासों को महत्व देने वाली फिल्में बनाईं। जिनके पास वास्तविक अनुभव हैं उनके द्वारा दलित जीवन पर अब प्रामाणिक सिनेमा का निर्माण होना बॉलीवुड मे एक नई परिघटना है। इन फिल्मों और उनकी विषयवस्तु ने बॉलीवुड को एक समावेशी, लोकतान्त्रिक और विविधततापूर्ण बनाने की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं।

फिल्म अछूत कन्या में देविका रानी और अशोक कुमार

जातीय मुद्दों को उठाती फिल्मों का संक्षिप्त इतिहास

सिनेमा में दलित पहली बार एक मिथक के रूप में चित्रित हुआ था और उससे दलित्य के प्रति कोई सामाजिक सहानुभूति कतई भी नहीं पैदा हुई। यह अपना राजपाट हारे हुये राजा की कहानी थी और इसी रूप में उसको महत्व भी मिला। काशी में गंगा किनारे शमशान घाट से जुड़ी एक कथा है राजा हरिश्चंद्र की। परिस्थितियों का शिकार होकर सत्यवादी राजा को काशी के डोम राजा के नौकर का काम करना पड़ा था। भारत की यह पहली फिल्म थी जिसे सन 1913 में सत्य हरिश्चंद्र के नाम से दादा साहब फाल्के ने बनाया था। आज भी नदियों के किनारे शमशान घाट पर मुरदों को जलाने का काम परंपरागत रूप से डोम जाति के लोग करते हैं जो कि अछूत जाति के रूप में जानी जाती रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत की पहली फिल्म की विषय वस्तु ही दलित जाति और उसके परंपरागत पेशे से जुड़ी हुई थी परन्तु उसकी कहानी के केंद्र में राजा हरिश्चन्द्र थे काशी के राजा डोम नहीं। उसके बाद मूक सिनेमा के दौर से लेकर आज तक अनेक फ़िल्में जाति व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर केन्द्रित करके बनायीं गयीं। सन 2015 मे आई फिल्म मसान  काशी के शमशान घाट पर काम करने वाले डोम परिवार के एक लड़के और एक सवर्ण लड़की की प्रेम कहानी थी जो एक साथ विश्वविद्यालय मे पढ़ते हैं। एक ही बाइक पर आते जाते हैं। अर्थात पहली फिल्म सत्य हरिश्चन्द्र से लेकर मसान तक दलित जीवन के सिनेमाई चित्रण में एक निरन्तरता देखने को मिलती है।

पिछले कुछ वर्षों में बनी जय भीम, दहाड़, कटहल जैसी फिल्मों में जाति और जातीय पहचान, जातीय भेदभाव और अपनी जाति के प्रति जगते हुए स्वाभिमान के भाव हम दर्शकों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। बिना किसी शोरगुल के स्वाभाविक रूप से इन फिल्मों के चरित्र भूमिका निभाते हैं और अपनी बात भी कह जाते हैं। मूक फिल्मों के दौर में  मिथकीय चरित्रों पर फिल्में बनाना उस वक्त की जरूरत थी ताकि दर्शक अपनी कहानियों को परदे पर देखकर आसानी से समझ सकें। लेकिन दुख की बात है कि उनमें से ज्यादातर प्रिन्ट अब अनुपलब्ध हैं। सन 1931 में पहली बोलती फिल्म आलमआरा  बनने के बाद सिनेमा निर्माण में नए युग की शुरुआत हुई और विविध विषयों पर फिल्में बनने लगीं। भारत-पाकिस्तान विभाजन पर कई फिल्में बनीं। कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित ‘इंडियन पीपुल थियेटर एसोसिएशन’ ने किसानों और मजदूरों पर केंद्रित फिल्में बनानी शुरू की क्योंकि ये समूह अपने दैनिक जीवन की जरूरतें पूरी करने के लिए जूझ रहे थे।

दलित साहित्य की तरह अपना आकार लेने लगा है दलित सिनेमा

सन 1990 के दशक मे मराठी भाषा में दलित साहित्य नाम से साहित्य की एक नई धारा की शुरुआत हुई जो बाद में हिन्दी साहित्य और अन्य भाषाओं के साहित्य में भी स्थापित हुई। दलित साहित्य से तात्पर्य दलित जीवन और उसकी समस्याओं को केंद्र मे रखकर भोगे हुए यथार्थ के आधार पर दलित लेखकों द्वारा लिखे गए साहित्य से है। सन 1972  में महराष्ट्र में  ‘दलित पैंथर आंदोलन’ का आरंभ हुआ जिसमें भारतीय समाज के निचले पायदान पर स्थित सदियों से उपेक्षित, पीड़ित एवं बहिष्कृत जातियों के खिलाफ़ हो रहे उत्पीड़न और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाई गई।

अपनी पहचान को स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध यह अस्मितावादी साहित्य था जिसने जीवन की असल सच्चाइयों अर्थात ‘भोगे हुए यथार्थ’ को चित्रित करने का काम किया। नामदेव ढसाल, राजा ढाले, अरुण कांबले, दया पवार, शरण कुमार लिम्बाले (मराठी), ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, मलखान सिंह, अनीता भारती, सुशीला टाकभोरे, डॉ धर्मवीर, कँवल भारती, सूरजपाल चौहान श्योराज सिंह बेचैन, डॉ तुलसीराम (हिंदी) जैसे साहित्यकार दलित साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर बने।  इस साहित्यिक आंदोलन ने सवर्ण जातियों द्वारा स्थापित वर्चस्व विमर्श को नकारते हुए अपनी अलग पहचान को स्थापित करने का काम किया। दलित साहित्य की विषय वस्तु और शैली को लेकर अनेकों तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं, विरोध हुए और इसे शिकायती साहित्य तक का नाम दिया गया। कुछ स्वनामधन्य आलोचकों ने इसे साहित्य मानने से भी इनकार किया परंतु दलित साहित्य आगे बढ़ता रहा और अपनी पहचान को मजबूती से स्थापित किया। साहित्य के बाद अब सिनेमा में कुछ युवा फिल्मकारों ने अपने तरीके से अपने लोगों की कहानियों और जीवन को फिल्मी परदे पर प्रस्तुत कर स्थापित करने का काम आरंभ कर दिया है जो कि वास्तविक और प्रामाणिक चित्रण है। पा रंजीत ऐसे ही युवा फिल्मकार हैं जिन्होंने कबाली और काला जैसी फिल्में बनाकर अपना मिजाज दिखा दिया है। रंजीत, नागराज मंजुले और नीरज घेवान सिनेमा की एक नई धारा स्थापित कर नया विमर्श खड़ा करने मे कामयाब हो रहे हैं।

जाति व्यवस्था को लेकर सिनेमा ने लीक से हटकर बहुत कम प्रयोग किया

अगर हम जाति संस्था की बात करें तो यह भारत की सर्वाधिक जटिल संस्था है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करती है। कुमार सुरेश सिंह ने अपने पीपल ऑफ इंडिया प्रोजेक्ट में इस विविधता को विस्तार से प्रस्तुत किया है। भारत में सिनेमा निर्माण की बात करें तो अलग क्षेत्रों, भाषाओं और विषयों पर प्रत्येक वर्ष हजारों फिल्में बनती हैं। लद्दाख से लेकर तमिलनाडु तक और राजस्थान से लेकर बंगाल-असम तक अनेक भाषाओं में फिल्में और म्यूजिक एलबम बनते हैं जो वहाँ के निवासियों की अपनी एथनिक पहचान को भी प्रदर्शित करते हैं। भारत में जाति स्तरीकरण की एक विशिष्ट संस्था है जो ऊँच-नीच, असमानता और भेदभावपरक व्यवहारों पर आधारित है। बॉलीवुड फिल्मों में भी जातीय पहचान और समस्याओं को समय-समय पर प्रस्तुत किया गया है। जाति आधारित सिनेमा को हम दो श्रेणियों में वर्गीकृत कर हम उनका अध्ययन कर सकते हैं:

फिल्म सुजाता के एक दृश्य में सुनील दत्त और नूतन

जातीय असमानता को दिखानेवाली फिल्में

भारतीय फ़िल्मकारों द्वारा जातीय समस्या को विषय बनाकर कई फिल्में समय-समय पर बनाई गई हैं जिनकी एक खास विशेषता यह है कि इनमे जाति व्यवस्था से जुड़े शोषण, भेदभाव-घृणा और असमानता को समाज से दूर करने की जिम्मेदारी एक सवर्ण जाति का नायक करता हुआ दिखता है। ऐसी प्रमुख फिल्में निम्न प्रकार हैं:

चंडी दास (1934), अछूत कन्या (1936,) अछूत (1940), दूसरी शादी (1947), सुजाता (1959), परख (1960, बॉबी (1973), अंकुर (1974), गंगा की सौगंध (1978), सद्गति (1981), अर्पण (1983), सौतन (1983), पार(1984), दामुल (1985), चमेली की शादी (1986),रूदाली (1993), तर्पण (1994),  बैन्डिट क्वीन (1994), मृत्युदंड (1997), शूल (1999),डॉ बाबा साहेब अंबेडकर (2000),बवंडर (2000), लगान (2001), तेरे नाम (2003), गंगाजल (2003),स्वदेस (2004),अपहरण (2005), एकलव्य: द रॉयल गार्ड (2007), ट्रेफिक सिग्नल (2007) ये मेरा इंडिया (2008), वेलकम टू सज्जनपुर (2008), दिल्ली6 (2009), आक्रोश (2010),  जय भीम कामरेड (2011), आरक्षण (2011) शूद्र: द राइजिंग (2012), सप्तपदी (2013), समर (2013), पपीलिओ बुद्धा (2013), आर्टिकल 15 (2019),जय भीम (2021)

जातीय गर्व भावनावाली फिल्में

विरासत(1997),स्वदेस (2004),ओंकारा (2006),दबंग (2010) दबंग 2 (2012), बुलेट राजा (2013),  फ़ंड्री (2013), टू स्टेटस (2014),पीकू (2015), तनु वेड्स मनु (2011&2015), जॉली एलएलबी (2013 तथा 2017), बजरंगी भाईजान (2015), मसान (2015), मांझी: द माउंटेन मैन (2015), कबाली (2016), सैराट (2016), न्यूटन (2017), शादी में जरूर आना (2017), टॉयलेट : एक प्रेम कथा (2017), बरेली की बर्फ़ी (2017), बागी 2 (2018),काला (2018), जय भीम (2021), दहाड़ (2023), कटहल (2023), तंगलान (2024) इत्यादि।

पिछले दो दशकों में रिलीज और सफल हुई बड़ी फिल्मों को देखें तो धीरे-धीरे और चुपके से एक खास तरह का जातिवादी एजेंडा फिल्मकारों द्वारा चलाया जा रहा है। फिल्मों में मुख्य कलाकारों के टाइटल सवर्ण होते जा रहे हैं और यह काम बड़े ही गर्व की भावना के साथ किया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर बरेली की बर्फ़ी  के हीरो-हीरोइन चिराग दुबे और बिट्टी मिश्रा हैं।  शादी में जरूर आना फिल्म में वे सत्येन्द्र मिश्र और आरती शुक्ला हैं। बजरंगी भाई जान  में पवन चतुर्वेदी हैं तो दबंग सीरीज में चुलबुल पांडे हैं। टॉयलेट : एक प्रेम कथा में हम केशव शर्मा और जया जोशी को न केवल देखते हैं बल्कि बार-बार जोर देकर वे इन नामों को दुहराते भी हैं। बुलेट राजा’ फिल्म तो जातीय गर्व की सारी हदें पार करती हुई प्रतीत होती है। इस फिल्म के सभी चरित्र ब्राह्मण टाइटल वाले हैं – राजा मिश्रा (सैफ अली खान), रुद्र त्रिपाठी (जिम्मी शेरगिल), लल्लन तिवारी (चक्की पांडे), राम बाबू शुक्ला (राज बब्बर)। इस फिल्म का मुख्य चरित्र बुलेट राजा (राजा मिश्रा) माथे पर तिलक, हाथ में कलावा बांधे और रिवाल्वर लिए, बार-बार यह संवाद बोलते हुए सामने वालों को धमकाता हुए दिखता है:  ब्राहमण भूखा तो सुदामासमझा तो चाणक्य और रूठा तो रावण । उत्तर प्रदेश की राजनीति कुछ ऐसे ही लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है। तिग्मांशु धूलिया ने ऐसा दिखाने का प्रयास इस फिल्म में किया है। हासिल, पान सिंह तोमर और तांडव  फिल्मों को देखा जाए तो धूलिया अपनी फिल्मों में यथार्थ के नाम पर उच्चजाति-वर्गीय मुद्दों को ही उठाते हैं। ऐसी फिल्मों में देश के बहुसंख्यक वर्ग के बारे में कोई बात नहीं होती। उनके मुद्दों को बड़ी चतुराई से गायब कर दिया जाता है। अब कुछ फिल्मकार जो स्वयं कमजोर जातीय पृष्ठभूमि से हैं दलित और कमजोर वर्ग के मुद्दों पर केंद्रित फिल्में बनाने लगे हैं। दर्शकों ने उन्हे हाथोहाथ लिया भी है।

जली हुई रस्सियों की ऐंठ के मुक़ाबिल ‘काला’ और ‘कबाली’

सन 2018 में जातीय पहचान को बताती हुई दो फिल्में प्रदर्शित हुईं पा रंजीत (दक्षिण भारत के एक दलित) निर्देशित काला एवं अनुराग कश्यप (भूमिहार उत्तर प्रदेश) की मुक्काबाज़। यद्यपि अनुराग कश्यप एक प्रगतिशील निर्देशक माने जाते हैं लेकिन गुलाल और मुक्काबाज़ फिल्मों में जिस तरह के संवाद और चरित्र परोसे गए हैं उनको देखकर उच्च जातीय गर्व अनुभूति की बू आती है। पा रंजीत ने एक नए तरह सिनेमा गढ़ने का काम किया है। उनके फिल्म निर्माण की स्टाइल पर दीप्ति नागपाल (2018) लिखती हैं, जब तथाकथित निचली जातियों के फिल्म निर्माता अपनी कहानियाँ सुनाते हैं, तो उनका उद्देश्य न केवल लोकप्रिय संस्कृति से उनके इतिहास और अस्तित्व को लगभग मिटाना होता है, बल्कि वे अंदर की कहानियाँ भी बताना चाहते हैं, जो दलितों के जीवन को मानवीय बनाती हैं और इसे इसकी सभी जटिलताओं में चित्रित करती हैं।

वंचित समाजों के जीवन से जुड़ी इन फिल्मों और इनके फ़िल्मकारों ने न केवल एक नई परिघटना को जन्म दिया है बल्कि फिल्म निर्माण और भारतीय समाज में एक नया विमर्श भी पैदा किया है। इनकी फिल्मों में जातीय पहचान और उनकी रोजमर्रा की ज़िंदगी की सच्चाइयों को छुपाने की जगह पूरी ठसक के साथ बताने का काम किया गया है। सामाजिक और राजनीतिक रूप से सजग तमिल सिनेमा और उसके फ़िल्मकारों का इसमे महत्वपूर्ण योगदान है।

प्रख्यात विद्वान आशीष नंदी (1999) तमिल सिनेमा के बारे में लिखते हैं, तमिल सिनेमा का राजनीति के साथ बिल्कुल अलग रिश्ता रहा है (तमिल फिल्म सितारे न केवल अपनी सिनेमाई अपील के कारण लोकप्रिय हैं, बल्कि राजनीतिक दलों के साथ उनके घनिष्ठ संबंधों और तमिल उद्योग के जांचे-परखे राजनीतिक करियर के कारण भी लोकप्रिय हैं)”।

फिल्म निर्माण से जुड़े लोग तमिलनाडु की राजनीति मे बहुत सफल रहे हैं करुणानिधि, जयललिता, कमल हसन और रजनीकान्त इसके प्रमुख उदाहरण हैं। पा. रंजीत भी तमिल सिनेमा से जुड़े हैं और अपनी फिल्मों में राजनीतिक मुद्दों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करते हैं। भारतीय समाज में तमाम बदलावों के बाद आज भी शादी में घोड़ी चढ़ने, बड़ी रोबदार मूँछें रखने, अच्छे कपड़े और जूते पहनने पर मार-पीट करने और कभी-कभी मौत के घाट तक उतार देने की घटनाएं सामने आती हैं। सामाजिक समानता और गरिमामय जीवन के लिए अभी भी संघर्ष जारी हैं। फिल्में इस अमानवीय और घृणा आधारित सोच को बदलने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।

संदर्भ

वानखेड़े, हरीश एस. (2024) राइज ऑफ़ हिंदुत्वा सिनेमा, इन एचटीटीपी://फ्रंटलाइन.द हिन्दू.कॉम ऑन अप्रैल 18, 2024।

खान, हमजा (2025) अ ग्रूम, ब्राइड, मेयर एंड 200 कॉप्स: राजस्थान कपल मरिज एमिड सिक्यूरिटी, इन इंडियन एक्सप्रेस ऑन 23 जनवरी 2025.

नंदी, आशीष (1999) द सेक्रेट पॉलिटिक्स ऑफ़ आवर डिजायरस: इन्नोसेंस, कल्पेबिलिटी एंड इंडियन पोपुलर सिनेमा, जेड बुक्स, लन्दन.

स्काट, जॉन &मार्शल गॉर्डोन (2009) ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी ऑफ़ सोशियोलॉजी, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, अमेरिका

डिसूजा, दीप्ति नागपाल (2018) कास्ट इन न्यू मोल्ड, इन इंडियन एक्सप्रेस, ऑन 10 जून 2018 रविवार।

अगला हिस्सा जल्द ही ….

 

डॉ. राकेश कबीर
डॉ. राकेश कबीर
राकेश कबीर जाने-माने कवि-कथाकार और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।
1 COMMENT
  1. डॉ राकेश कबीर जी का सहृदय धन्यवाद जो आपने इस विषय पर लेख लिखा, आपके इस शुभ कार्य में मैं आपकी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ ज़रूर बताईयेगा।

    Khalid
    website: https://indiaaccess.com
    email: support@indiaaccess.com

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