देश में जब विकसित भारत की संकल्पना को मूर्त रूप दिया जा रहा था, उस समय यह महसूस किया गया होगा कि स्वस्थ भारत के बिना विकसित भारत का आकार बेमानी है। यही कारण है कि आज विकसित भारत के नारे से पहले स्वस्थ भारत का नारा दिया जाता है। दरअसल, यह स्वस्थ भारत का नारा देश के नौनिहालों को केंद्र में रख कर गढ़ा जाता है क्योंकि जब बच्चे स्वस्थ होंगे तो हम समृद्ध देश की संकल्पना को साकार कर पाने में सक्षम होंगे। लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में भारत के बच्चे, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चे, कुपोषण मुक्त और स्वस्थ हैं? हालांकि सरकारों की ओर जारी आंकड़ों में कुपोषण के विरुद्ध जबरदस्त जंग दर्शाई जातीहै, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अभी भी हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में गर्भवती महिलाएं और 5 पांच तक की उम्र के अधिकतर बच्चे कुपोषण मुक्त नहीं हुए हैं।
वर्ष 2022 में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवें दौर के दूसरे चरण की जारी रिपोर्ट के अनुसार पहले चरण की तुलना में मामूली सुधार हुआ है लेकिन अभी भी इस विषय पर गंभीरता से काम करने की आवश्यकता है। भारत में अभी भी प्रतिवर्ष केवल कुपोषण से ही लाखों बच्चों की मौत हो जाती है। सर्वेक्षण के अनुसार करीब 32 प्रतिशत से अधिक बच्चे कुपोषण के कारण अल्प वज़न के शिकार हैं, जबकि 35.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण की वजह से अपनी आयु से छोटे कद के प्रतीत होते हैं। वहीं करीब तीन प्रतिशत बच्चे अति कम वज़न के शिकार हैं। दरअसल बच्चों में कुपोषण की यह स्थिति मां के गर्भ से ही शुरू हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर महिलाएं एनीमिया की शिकार पाई गई है, जिसका असर उनके होने वाले बच्चे की सेहत पर नज़र आता है। रिपोर्ट के अनुसार 15 से 49 साल की आयु वर्ग की महिलाओं में कुपोषण का स्तर 18.7 प्रतिशत मापा गया है।
देश के जिन ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक देखी गई है उसमें राजस्थान भी आता है। इन ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक रूप से बेहद कमज़ोर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों में यह स्थिति और भी अधिक गंभीर है। राज्य के अजमेर जिला स्थित नाचनबाड़ी गांव इसका एक उदाहरण है। जिला के घूघरा पंचायत स्थित इस गांव में अनुसूचित जनजाति कालबेलिया समुदाय की बहुलता हैं। पंचायत में दर्ज आंकड़ों के अनुसार गांव में लगभग 500 घर हैं। गांव के अधिकतर पुरुष और महिलाएं स्थानीय चूना भट्टा पर दैनिक मज़दूर के रूप में काम करते हैं। जहां दिन भर जी तोड़ मेहनत के बाद भी उन्हें इतनी ही मज़दूरी मिलती है जिससे वह अपने परिवार का गुज़ारा कर सके। यही कारण है कि गांव के कई बुज़ुर्ग पुरुष और महिलाएं आसपास के गांवों से भिक्षा मांगकर अपना गुज़ारा करते है। समुदाय में किसी के पास भी खेती के लिए अपनी ज़मीन नहीं है। खानाबदोश जीवन गुज़ारने के कारण इस समुदाय का पहले कोई स्थायी ठिकाना नहीं हुआ करता था। हालांकि समय बदलने के साथ अब यह समुदाय कुछ जगहों पर पीढ़ी दर पीढ़ी स्थाई रूप से निवास करने लगा है, लेकिन इनमें से किसी के पास ज़मीन का अपना पट्टा नहीं है।
वहीं शिक्षा की बात करें तो इस गांव में इसका प्रतिशत बेहद कम दर्ज किया गया है। यह इस बात से पता चलता है कि गांव में कोई भी पांचवीं से अधिक पढ़ा नहीं है। जागरूकता के अभाव के कारण युवा पीढ़ी भी शिक्षा की महत्ता से अनजान है। गरीबी और जागरूकता की कमी के कारण गांव में कुपोषण ने भी अपने पांव पसार रखे हैं। इस संबंध में गांव की 28 वर्षीय जमुना बावरिया बताती हैं कि गांव के लगभग सभी बच्चे शारीरिक रूप से बेहद कमज़ोर हैं। गरीबी के कारण उन्हें खाने में कभी भी पौष्टिक आहार प्राप्त नहीं हो पाता है। घर में दूध केवल चाय बनाने के लिए आता है। वह बताती हैं कि उनके पति घर में ही कागज़ का पैकेट तैयार करने का काम करते हैं, जिससे बहुत कम आमदनी हो पाती है। ऐसे में वह बच्चों के लिए पौष्टिक आहार का इंतज़ाम कहां से कर सकती हैं? वह बताती हैं कि गांव के अधिकतर बच्चे जन्म से ही कुपोषण का शिकार होते हैं, क्योंकि घर की आमदनी कम होने के कारण महिलाओं को गर्भावस्था में संपूर्ण पोषण उपलब्ध नहीं हो पाता है, जिसका असर जन्म के बाद बच्चों में भी नज़र आता है। वह स्वयं एनीमिया की शिकार हैं।
वहीं 35 वर्षीय अनिल गमेती बताते हैं कि वह गांव के बाहर चूना भट्टा पर दैनिक मज़दूर के रूप में काम करते हैं। जहां उनके साथ उनकी पत्नी भी काम करती है, लेकिन गर्भावस्था के कारण अब वह काम पर नहीं जाती है, क्योंकि उसे हर समय चक्कर आते हैं। डॉक्टर ने शरीर में पोषण और खून की कमी बताया है। अनिल कहते हैं कि पहले मैं और मेरी पत्नी मिलकर काम करते थे तो घर की आमदनी अच्छी चलती थी, लेकिन गर्भ और शारीरिक कमज़ोरी के कारण अब वह काम पर नहीं जा पा रही है। ऐसे में घर की आमदनी भी कम हो गई है। अब उन्हें चिंता है कि वह पत्नी को कैसे पौष्टिक भोजन खिला सकते हैं? अनिल कहते हैं कि डॉक्टर ने दवाइयों के साथ-साथ विटामिन और आयरन की टैबलेट भी लिख दी थी जो अस्पताल में मुफ्त उपलब्ध भी हो गई, लेकिन साथ ही डॉक्टर ने पत्नी को प्रतिदिन पौष्टिक भोजन भी खिलाने को कहा है जो उन जैसे गरीबों के लिए उपलब्ध करना बहुत मुश्किल है। वह कहते हैं कि इसके अच्छे खाने की व्यवस्था करने के लिए मुझे साहूकारों से क़र्ज़ लेना पड़ सकता है, जिसे चुकाने के लिए पीढ़ियां गुज़र जाती हैं।
गांव की 38 वर्षीय कंचन देवी के पति राजमिस्त्री का काम करते हैं। वह बताती हैं कि उनके तीन बच्चे हैं। दो लड़कियां हैं जो प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती हैं जबकि बेटा गांव के आंगनबाड़ी में जाता है। देखने में उनका बेटा काफी कमज़ोर लग रहा था। वह बताती हैं कि पति की आमदनी बहुत कम है। ऐसे में बच्चों के लिए पौष्टिक खाने की व्यवस्था करना मुमकिन नहीं है। वह आंगनबाड़ी जाता है जहां खाने के अच्छे और पौष्टिक आहार उपलब्ध होते हैं जिसके कारण उसके अंदर इतनी ताकत भी है। कंचन कहती हैं कि गांव में गरीबी के कारण लगभग सभी बच्चे ऐसे ही कमज़ोर नज़र आते हैं। घर की आमदनी अच्छी नहीं होने के कारण परिवार न तो बच्चों का और न ही गर्भवती महिलाओं को पौष्टिक भोजन उपलब्ध करा पाता है। एक अन्य महिला संगीता देवी कहती हैं कि आंगनबाड़ी केंद्र के कारण गांव के बच्चों और गर्भवती महिलाओं को कुछ हद तक पौष्टिक भोजन उपलब्ध हो जाता है. सरकार ने आंगनबाड़ी केंद्र संचालित कर गांव के बच्चों को कमज़ोर होने से बचा लिया है।
वास्तव में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण की यह स्थिति भयावह है, जिसे दूर करने के लिए एक ऐसी योजना चलाने की ज़रूरत है जिससे गर्भवती महिलाएं और बच्चों को सीधा लाभ पहुंचे। इस कड़ी में आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकर्त्ता और सहायिका सराहनीय भूमिका अवश्य निभा रही हैं। लेकिन इस बात पर भी गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को भूख और कुपोषण से मुक्त बनाने के लिए 1975 में शुरू किया गया आंगनबाड़ी अपनी स्थापना के लगभग पांच दशक बाद भी अब तक शत प्रतिशत अपने लक्ष्य को प्राप्त क्यों नहीं कर सका है?
चरखा फीचर से साभार